Thursday, September 30, 2010

हिंदी का उद्भव एवं पूर्व मध्यकालीन बिहार

प्राकृत की अंतिम अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव माना जा सकता है।1 अपभ्रंश या प्राकृताभास हिन्दी के पद्यों का सबसे पुराना पता तांत्रिक और योगमार्गी बौद्धों की साम्प्रदायिक रचनाओं के भीतर विक्रम की सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण में मिलता है यद्यपि जनश्रुति इस काल का आरंभ और पीछे ले जाती है। पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी अपभ्रंश की ही एक स्थिति को पुरानी हिन्दी मानते हैं और उससे हिन्दी का विकास हुआ स्वीकार करते हैं।2 हिन्दी साहित्य के इतिहास में यह काल सिद्ध-काल के नाम से जाना जाता है। सिद्धों ने जिस अपभ्रंश में कविता की, उसके संबंध में जैसाकि कहा जा चुका है, इतिहासकार उसी में पुरानी हिन्दी की छाया देखते हैं। यह भी कहा जाता है कि पालि, प्राकृत तथा अपभ्रश भाषाओं में जो जैनों-बौद्धों का साहित्य मिलता है, उसमें भी हिन्दी के प्राचीन रूप के दर्शन होते हैं।3 जैन और बौद्ध धर्म का मुख्य केन्द्र होने के कारण बिहार की तत्कालीन भाषा का प्रचार-प्रसार धर्म-प्रचारकों द्वारा भारत के विभिन्न स्थानों के अतिरिक्त पड़ोसी देशों में भी हुआ। जैन नरेशों और बौद्ध-सम्राटों के प्रभाव से प्राकृत और पालि को उनके राज्यों में राजभाषा भी होने का गौरव प्राप्त हुआ।4 किंतु, अपभ्रश भाषा बिहार में या भारत के अन्य प्रांतों में यद्यपि राजभाषा के रूप में कभी प्रचलित न हुई तथापि जनपदीय भाषाओं से उसका संपर्क समझकर तत्कालीन साहित्यकारों ने अपनी पद-रचना के लिए उसे ही अपनाया। उसमें जो रचना की परंपरा चली, वह कालक्रम से विकास पाती हुई विद्यापति के काल तक चली आई। यहां तक कि थोड़ा-बहुत उसके बाद की रचनाओं भी उसकी छाया प्रतिबिंबित हुई है। गुलेरी जी ने जिसे पुरानी हिन्दी कहा है, उसी के एक रूप को विद्यापति अवहट्ट कहकर परिचय देते हैं। और यह अवहट्ट या अवहंस अपभ्रंश के अतिरिक्त अन्य कोई भाषा नहीं है।5

हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि सब प्रकार की जो प्राकृत भाषाएं जनता द्वारा नाना प्रांतों में बोली जाती थीं, हमारी हिन्दी उसकी उपज है; किंतु प्राकृत ग्रंथों की ‘साधु-भाषा’ में बोली जानेवाली भाषा कम मिलती है। स्वयं अपभ्रंश भाषा के ग्रंथों में प्रचलित भाषा को व्याकरण-सम्मत बनाने के प्रयत्न में लेखकों ने साहित्यिक भाषा का रूप देकर उसे इतना संवारा कि ‘साधु’ और ‘प्रचलित’ दो भिन्न भाषाएं बन गईं, जिनमें बहुत कम साम्य रह गया। इस पर भी प्राकृत तथा अपभ्रंश में हिन्दी व्याकरण का इतिहास स्पष्ट रूप से मिलता है और विशुद्ध हिन्दी शब्दों की व्युत्पत्ति भी उनमें मिलती है।6 हिन्दी का आधार केवल संस्कृत या मुख्यतः संस्कृत मानना भूल है। हिन्दी के अनेक शब्द प्राकृतों और देशी-अपभ्रंशों द्वारा आये हैं। अतः प्राकृत का मूल संस्कृत को बताना अवैज्ञानिक और भ्रमपूर्ण है।7 बहुत-सी बातों में प्राकृत भाषाएं मध्यकालीन भारतीय जनता की बोलियों से मिलती-जुलती हैं और ये सब बातें संस्कृत में बिल्कुल नहीं मिलतीं।8

चूंकि हिन्दी की आदि कविता केवल बिहार के ही बौद्ध-सिद्धों की मिलती है, इसलिए उसके सबसे प्राचीन रूप को बिहार की ही देन कहना युक्तिसंगत होगा।9 राहुल सांकृत्यायन के अनुसार चौरासी सिद्धों में छत्तीस बिहार के हैं।10 जो बिहार के निवासी नहीं थे उनका भी कार्य-क्षेत्र मुख्यतया बिहार ही रहा।11 ऐसा अनुमान है कि बिहार के नालंदा और विक्रमशिला विद्यापीठों से चौरासी सिद्धों का घनिष्ठ संपर्क था।12 कालांतर में बहुत से भोट आदि देशों को चले गये। यह भी अनुमान है कि बिहार से बाहर के जितने भी बौद्ध-सिद्ध रहे होंगे, उन सबकी साधना का केन्द्र-स्थल नालंदा और विक्रमशिला में ही कहीं होगा। इससे स्पष्ट होता है कि चौरासी सिद्धों की साहित्य-सेवा का मूल-स्रोत बिहार ही रहा है और वे पांडित्य तथा साहित्य-रचना की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।13

यह बात सिद्ध-युग में विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि आठवीं से तेरहवीं शताब्दी के समय में गद्य-लेखन में भी हमें साक्ष्य उपलब्ध होते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार एकमात्र चौरंगीपा ही गद्यकार प्रतीत होते हैं जिनकी प्राणसंकली  नामक गद्य-रचना सुरक्षित है। उनके गद्य में भोजपुरी भाषा की झलक मिलती है और ऐसा अनुमान है कि उनके समय से पहले भी गद्य-रचना होती थी।14 संभव है कि उनके अतिरिक्त अन्य बौद्ध-सिद्ध गद्यकार भी रहे हों, पर उनके रचे ग्रंथों के नाममात्र से  ठीक पता नहीं लगता कि वे ग्रंथ गद्य के हैं या पद्य के। यद्यपि चौरंगीपा के गद्य-ग्रंथ के संबंध में भी मतभेद है।

उपलब्ध और प्रकाशित रचनाओं के आधार पर भी विचार करने से ऐसा स्पष्ट लक्षित होता है कि सिद्ध-काल की भाषा-परंपरा विद्यापति के काल तक चली आई है।15 आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक मुख्यतः सिद्धों की रचनाएं अपभ्रंश तथा पुरानी हिंदी में है; पर तेरहवीं शताब्दी के कवि हरिब्रह्म और विद्यापति की अपभ्रंश रचनाओं से बहुत कुछ साम्य दीख पड़ता है।16

राहुल सांकृत्यायन ने तिब्बत यात्रा करके बौद्ध-सिद्धों की रचनाओं का जब उद्धार किया तब बारहवीं शताब्दी के महाकवि चन्दबरदाई के समय से ही हिन्दी का उद्गम माननेवाले इतिहासकार आठवीं शताब्दी में बौद्ध-सिद्धों द्वारा रचित कविताओं में हिन्दी के प्राचीन रूप का आभास पाने लगे।17 इस प्रकार राहुल जी की खोजों से हिन्दी के उद्गम का समय पहले के अनुमानित समय से लगभग चार सौ वर्ष अधिक बढ़ गया। किंतु यह विचारणीय प्रश्न है कि आठवीं शताब्दी में हिन्दी के आदिकवि सरहपाद18 ने अपनी रचना के लिए जिस भाषा को अपनाया, उसमें उस समय से पहले कोई रचना थी या नहीं; क्योंकि सातवीं शताब्दी के आरंभ ही में महाकवि बाणभट्ट के परममित्र भाषा-कवि ईशान ने ‘भाषा’ में-संस्कृत और प्राकृत से भिन्न ‘भाषा’ में कविता की थी। हर्षचरित के प्रथम उच्छ्वास में प्राकृत-कवि और भाषा-कवि का अलग-अलग उल्लेख है।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि उस समय केवल ईशान ही भाषा-कवि नहीं रहे होंगे, बल्कि जिस लोक-प्रचलित भाषा में वे कविता करते थे, उसी भाषा में उस समय के अन्य कवि भी करते रहे होंगे। उसके प्रमाण में वही प्रकरण देखा जा सकता है, जिसमें बाणभट्ट ने अपने परममित्र ईशान के साथ-साथ वर्ण-कवि वेणी भारत19 का उल्लेख किया है। वहां कवि का नाम वेणी भारत और वर्ण कवि उनका विशेषण है। हर्षचरित  के टीकाकार और बारहवीं शताब्दी से पहले होनेवाले शंकर ने वर्ण कवि की व्याख्या करते हुए लिखा है, ‘भाषा में गाने योग्य विषयों को वाणी-रूप देकर कविता करनेवाला-अर्थात् गाथा रचकर कहनेवाला।’20 इससे भी स्पष्ट है कि ईशान की तरह वेणी भारत भी भाषा ही के गाथा कहनेवाले कवि थे।21 इसी तरह सरहपाद ने भी अपनी रचना के लिए कोई नई भाषा नहीं गढ़ी होगी बल्कि  जिस भाषा को उन्होंने अपने भावों को वहन करने में समर्थ पाया, उसका अस्तित्व निश्चय ही पहले से था।22

हिन्दी साहित्य-संसार में यह मान्यता सप्रमाण प्रतिपादित हो चुकी है कि बिहार के बौद्ध-सिद्धों की रचनाओं में हिन्दी का सबसे प्राचीन रूप है।23 किंतु बौद्धों-सिद्धों की रचनाओं में जिस भाषा का प्रयोग हुआ है, वह जनसाधारण की भाषा का एक ‘मानक’ रूप थी; क्योंकि बौद्ध-सिद्धों में से कई कवि भारत के अन्य दूसरे प्रांतों के भी थे और उन्होंने बिहार में आकर एकाएक यहां की जनभाषा में रचना कर डाली, यह सहसा विश्वसनीय प्रतीत नहीं होता।24 हालांकि कुछ विद्वान इसी तर्क को आधार बनाकर यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि बौद्धों-सिद्धों की रचना की भाषा शिष्ट भाषा थी जो जनसाधारण की भाषा से भिन्न थी। भाषा और साहित्य में वैसे लोगों की एक अविच्छिन्न परंपरा है जो रचना-कर्म के लिए शिष्ट भाषा के आग्रही कहे जा सकते हैं।

भाषा इतिहासकारों ने अब तक भाषा के संबंध में विचार करते समय अधिकतर अनुमान और परंपरागत धारणाओं ही के आधार पर अपने मत व्यक्त करते रहे हैं। एक तो भाषा-संबंधी विचार-विमर्श के लिए प्रामाणिक प्राचीन ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं इसलिए बुद्धिगम्य प्रमाणों के आधार पर इतना ही कहना उचित होगा कि बिहार की जनभाषा का नाम, समय और स्थान के भेद से पालि, प्राकृत आदि रहा, जिसके चार प्रधान रूप मैथिली, मगही, भोजपुरी और अंगिका वर्तमान हैं। वर्तमान हिन्दी की जड़ें अगर पूर्व मध्यकालीन बिहार के सिद्धों की रचनाओं में तलाशी जाय तो सर्वथा अनुचित नहीं। यहां यह भी टांक देना मुनासिब होगा कि आठवीं से बारहवीं शताब्दी के लगभग सभी सिद्ध कवि प्राचीन मगध एवं अंग क्षेत्र के हैं, मिथिला क्षेत्र से, अर्थात् विद्यापति के क्षेत्र से किसी रचनाकार के होने का साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता25 जबकि चौदहवीं शताब्दी से मिथिला का योगदान आश्चर्यजनक रूप से शुरू होता है। यह पहलू बहुआयामी शोध की मांग करता है। 

संदर्भ एवं टिप्पणियां:

1. रामचंद्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, पेपरबैक संस्मरण, प्रथम, संवत् 2058, पृष्ठ 3।

2. चंद्रधर शर्मा गुलेरी, पुरानी हिन्दी, प्रथम संस्करण, पृष्ठ 8।

3. शिवपूजन सहाय, हिन्दी साहित्य और बिहार, प्रथम खंड, पृष्ठ 17।

4. वही, पृष्ठ 107।

5. डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, भविसयत्तकहा तथा अपभ्रंश कथा काव्य, भारतीय ज्ञानपीठ, पृष्ठ 47।

6. आर. पिशेल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, हेमचंद्र जोशी की पाद-टिप्पणी, पृष्ठ 4-5।

7. इस विषय पर बेबर ने ‘इंडिशे स्टूडियन’ में जो लिखा है कि प्राकृत भाषाएं प्राचीन वैदिक बोली का विकास नहीं हैं, इसका तात्पर्य है कि वह भूल कर बैठा।

8. आर. पिशेल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 11।

9. शिवपूजन सहाय, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 18।

10. वही

11. वही

12. सरहपा, विसपा और भुसुकपा नालन्दा विहार के नियमित छात्र थे। गुह्यज्ञानव्रज दीपंकर श्रीज्ञान ने नालन्दा और विक्रमशिला दोनों विद्याकेन्द्रों में शिक्षा पायी थी। शांतिपा विक्रमशिला में शिक्षित होने के बाद ही सोमपुरीविहार के स्थविर नियुक्त हुए थे। बौद्ध दर्शन के पंडित कम्बला, महाराज धर्मपाल के लेखक आदिसिद्धाचार्य लुइपा और राजा शालिवाहन के पुत्र चौरंगीपा अशिक्षित थे, ऐसा मानना संभव नहीं, बल्कि मानना तो यह पड़ेगा कि ये सब नालंदा और विक्रमशिला के मेधावी स्नातक थे और तदन्तर स्वीकृत आचार्य होकर अपने युग के चिन्तन के प्रभावी माध्यम हुए। यह अकारण नहीं था कि सरह अध्ययनोपरान्त नालन्दा के ही, जहां के छात्र थे, प्रधान पुरोहित नियुक्त हुए। गुह्यज्ञानव्रज दीपंकर श्रीज्ञान ने मगधनृप न्यायांपाल के अनुरोध पर विक्रमशिला का महापंडित होना स्वीकार किया। नारोपा और शांतिपा विक्रमशिला विहार के पूर्वद्वार के महापंडित बनाये गये।’ देखें, केसरी कुमार, साहित्य के नये धरातल: शंकाएं और दिशाएं, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1980, पृष्ठ 136, पाद टिप्पणी संख्या-4। और देखें, रामचंद्र शुक्ल, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 5।
13. शिवपूजन सहाय, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 19।
14. वही

15. अपभ्रंश की यह परंपरा विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य तक चलती रही। एक ही कवि विद्यापति ने दो प्रकार की भाषा का व्यवहार किया है-पुरानी अपभ्रंश भाषा का और बोलचाल की देशी भाषा का। देखें, रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण, 1997 विक्रम, पृष्ठ 5।

16. शिवपूजन सहाय, पूर्वोद्धृत, भूमिका से, पृष्ठ 20।

17. कुछ विद्वान तो हिन्दी का उद्भव कालिदास में खोजने लगे। ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास की पहली चिन्तनीय दुर्घटना तो यही है कि कालिदास के ‘विक्रमोर्वशीयम्’ के चतुर्थ अंक के उन अपभ्रंशांसों को ‘पुरानी हिन्दी’ नहीं कहा गया, जो इसके आरंभिक उत्तराधिकारी हैं, यद्यपि सरहपा, स्वयम्भू और अब्दुर्रहमान (अद्दहमाण) का हिन्दीपन उनमें विद्यमान है।

‘मोरा परहुअ हंस रहंग अलि अग पव्वय सरिअ कुरंगम।

तुज्झह कारण रण्णभभन्ते को णहु पुच्छिअ मइं रोअंते।।

‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ में वैदिक और ‘विक्रमोर्वशीयम्’ में दोहाक और सोहरख जैसे लौकिक छन्दों का प्रयोग भी इस तथ्य के समर्थक हैं कि ऋषि से भिन्न कवि के रूप में कालिदास यदि संस्कृत के प्रथम महाकवि हैं तो वे ही हिन्दी के प्रथम ज्ञात कवि भी हैं।’

क. मइं जानिअं मिलोअणी णिस अरू कोइ हरेइ।

जाव णु णवतलिसामल धराहरू वरिसेइ।।

ख. पुव्वदिसापवणाह अकल्लोलुग्ग अबाहइो,

मेहअअंगे णच्चइ सलिलअ जलणि हिणाहओ।

हंसविहंगसकुंकुमसंखकआभरण,

करिमअ राउलकसणकमलक आवरणु।

वेलासलिलुवेल्लि अहत्थदिणणतालु,

ओत्थरइ दस दिस संधेविणुणवमेहआलु।।

देखें, केसरी कुमार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 123, 136 पाद टिप्पणी 1, 2, 3।

18. ‘पा’ आदरार्थक ‘पाद’ शब्द है। देखें, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ 6।

19. ‘अभवंश्यास्य सवयसः समानाः सुहृदः सहायाश्च। तथा च भ्रातरौ पारशवौ चन्द्रसेनमातृसेनौ, भाषाकविरीशानः परं मित्रम प्रणयिनौ रुद्रनारायणौ वारवाणवासवाणौ वर्ण कविः वेणी भारतः।’ देखें, हर्षचरितम्, बाणभट्ट, प्रथम उच्छ्वास।

20. शंकर की टीका, ‘भाषागेयवस्तुवाचस्तेषु वर्ण कविः। गाथादिषु गीतद इत्यर्थः।’

21. शिवपूजन सहाय, हिन्दी साहित्य और बिहार, प्रथम खंड, भूमिका से, पृष्ठ 15।

22. वही

23. वही, पृष्ठ 16।

24. शिवपूजन सहाय, हिन्दी साहित्य और बिहार, प्रथम खंड, भूमिका से, पृष्ठ 16।

25. इस निष्कर्ष का आधार हिन्दी साहित्य और बिहार, प्रथम खंड के अंत में दिया गया परिशिष्ट है जिसमें रचनाकारों का जन्म-स्थान उल्लिखित है।

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