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Sunday, October 3, 2010

औपनिवेशिक बिहार में बाल-शिक्षा एवं बाल-पत्रकारिता

उन्नीसवीं शती के अंतिम दशकों में बिहार के पत्रकारिता जगत में कई मासिक एवं साप्ताहिक पत्र-पत्रिकाओं का उदय हुआ। यह बिहार में नवजागरण का दौर था। किंतु यह कहना मुश्किल है कि नवजागरण पहले शुरू हुआ या पत्रकारिता पहले शुरू हुई। शिक्षा के क्षेत्र में सुधार अथवा प्रगति के बगैर किसी नवजागरण की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए सामान्य अखबारों के साथ ही साथ कुछ ऐसे भी पत्र प्रारंभ हुए जो शिक्षा, एवं विशेष रूप से बाल-शिक्षा को समर्पित थे।

खड्गविलास प्रेस, पटना ने सन् 1880 ई. में पटना कॉलेजिएट स्कूल के शिक्षक पंडित बद्रीनाथ1 के संपादन में ‘विद्या-विनोद’ 2 नामक मासिक 3 पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया, जिसे महज दो साल4 का जीवन प्राप्त था। कहना न होगा कि इसमें बालोपयोगी सामग्री ही छपा करती थी। साहित्यिक पुरुषों की जीवनी, हिंदुस्तान का इतिहास, चुटकुले, जीवन, स्वास्थ्य तथा नीतिपरक कहानियां इसमें धारावाहिक रूप से छपती थीं। इसमें खण्डशः पुस्तकें भी छपा करती थीं। श्रीसीतारामशरण भगवानप्रसाद रूपकलाजी-विरचित ‘पीपाजी की कथा’ सर्वप्रथम इसी में मुद्रित हुई थी।5   बिहार की हिंदी पत्रकारिता में इसका सर्वोपरि योगदान था क्योंकि बालोपयोगी अथवा बाल-पत्रकारिता की नींव इसी ने रखी थी जो ‘किशोर’, ‘छात्रबंधु’  और ‘बालक’  जैसी लोकप्रिय पत्रिकाओं के लिए प्रेरणाप्रद रही। उस समय तक बिहार से प्रकाशित होनेवाली कोई ऐसी पत्रिका न थी जो विद्यार्थियों के हित एवं उसके सिलेबस के अनुकूल पाठ्य-सामग्री प्रस्तुत करती थी। शायद इसी कारण से तत्कालीन सरकार के शिक्षा-विभाग द्वारा इसे बिहार के पुस्तकालयों एवं विद्यालयों के लिए स्वीकृति प्रदान की गई थी।6

शुरुआत खड्गविलास प्रेस, पटना से हुई। यह पूर्ण रूप से शिक्षा को समर्पित पत्रिका थी। यह शिक्षा-संबंधी समाचारों-इतिहास, वास्तु-क्रिया और नीति विषयक टिप्पणियों से युक्त होकर छपती थी। आरंभ में यह बालोपयोगी ही रही किंतु कुछेक अंकों के बाद इसका स्तरोन्नयन हो गया और ऊंची कक्षा के विद्यार्थियों के लिए सामग्री प्रकाशित होने लगी। लगभग चालीस वर्षों तक प्रकाशित होनेवाली यह एक दीर्घजीवी पत्रिका थी जिसके संपादकों के इतिहास में सकल नारायण शर्मा, ईश्वरी प्रसाद शर्मा, प्रो. अक्षयवट मिश्र और प्रो. थिकेट का नाम जुड़ा है। दुर्गाप्रसाद त्रिपाठी के संपादन-काल में इसने लोकप्रियता व विशिष्टता हासिल की।9   त्रिपाठी जी सन् 1921 से 29 ई. तक साप्ताहिक ‘शिक्षा’ के सहकारी संपादक एवं सन् 29 से 38 तक प्रधान संपादक रहे।10   इसकी प्रसार-संख्या भी अच्छी खासी थी। बिहार के अनेक डिस्ट्रिक्ट बोर्डों के प्रारंभिक एवं मध्य विद्यालयों में इसकी आपूर्ति की जाती थी।11

सन् 1921 ई. में तत्कालीन हिंदी के बहुचर्चित लेखक ईश्वरी प्रसाद शर्मा ने आरा से ‘मनोरंजन’ नामक मासिक की शुरुआत की। यद्यपि यह पत्रिका अपने मिजाज में साहित्यिक थी किंतु शिक्षा संबंधी सामग्री की वजह से शीघ्र ही छात्रों के बीच लोकप्रिय हो चली।12    इस पत्रिका ने भी महज तीन वर्ष के अल्पकाल का जीवन प्राप्त किया था।13

विद्यार्थियों एवं किशोरों को प्रेरणास्पद एवं ज्ञानवर्धक पाठ्य-सामग्री प्रदान करनेवाला मासिक ‘किशोर’ हिंदी जगत में अपने ढंग का अकेला पत्र था। यदि ऐसा कहा जाये कि वह होनहार किशोरों को स्वस्थ विचार एवं स्फूर्ति तथा महापुरुषों के जीवन की शिक्षाप्रद घटनाओं से परिचित कराकर बहुज्ञ बनाने का एक भरोसे का गाईड था तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। अप्रैल 1938 में प्रवेशांक में संपादक ने इसके उद्येश्यों पर प्रकाश डालते हुए लिखा था, ‘जैसे टेढ़े-मेढ़े बांस को अपनी इच्छानुसार झुकाकर हम सीधा कर लेते हैं, वैसे ही किशोरों को भी बनाया जा सकता है। उपजाऊ जमीन में डाला हुआ बीज जैसे सुफल फलता है, वैसे ही किशोर भी हमारी चेष्टाओं से सुफल देनेवाले हो सकते हैं।’14

‘किशोर’ का प्रकाशन शिक्षा समिति के द्वारा पंडित रामदहिन मिश्र के नेतृत्व में प्रारंभ हुआ। यह ‘मासिक’ बारह वर्षों तक अबाध प्रकाशित होता रहा। उक्त मासिक जब प्रकाशित हुआ तो चारों ओर से उसके स्तर, विचार और संपादक की लगन की प्रशंसा होने लगी। बिहार में शिक्षा विभाग के प्रथम डायरेक्टर एच. आर. बायोजा ने लिखा था ‘किशोर के प्रकाशन का विचार उत्तम है। मैं इसका स्वागत करता हूं और इससे संबंधित महत्त्व का प्रशंसक हूं। अपने ढंग की यह अकेली पत्रिका भारत के भावी नागरिकों को मानसिक दृष्टि से स्वस्थ, सभ्य और सुसंस्कृत बनाने में मदद करेगी।’15    ‘जनता’ के संपादक रामवृक्ष बेनीपुरी की इसके बारे में सम्मति थी-‘तीन-चार महीनों में ही किशोरों के इस सचित्र मासिक ने हिन्दी के बाल साहित्य में अपने लिए गर्व और गौरव का स्थान बना लिया है। बाल शिक्षा समिति और ग्रंथमाला कार्यालय के संस्थापक और संपादक रामदहिन मिश्र प्रांत के उन कर्मठ व्यक्तियों में हैं जिन्होंने अपनी छोटी पूंजी और कांड़े की कलम से हिन्दी की सेवा शुरू की और कुछ ही दिनों में काफी पैसे और प्रसिद्धि प्राप्त कर ली। पंडित जी ने अपनी इस चतुर्थावस्था में अपनी प्रतिभा और अपने पैसे का सदुपयोग किशोरों के लिए करना शुरू किया है जो सर्वथा समुचित है। किशोर को पंडित जी ने बिल्कुल समयोपयोगी और युग के अनुकूल बनाया है। चित्रों की छपाई और अच्छी सज्जा से इसका महत्त्व और बढ़ गया है। हम बिहार सरकार से अपील करते हैं कि इसे पाठशालाओं और पुस्तकालयों के लिए स्वीकार ही नहीं करे, अच्छी संख्या में खरीदकर वितरण भी करे।’16  

लेकिन संपादक की कुछ अपनी व्यावहारिक परेशानियां थीं। उन्होंने बड़े ही दुखी मन से लिखा था ‘हजारों रुपये विज्ञापन में खर्च करने के बावजूद परिमित ग्राहक हुए हैं, वे भी बिहार के बाहर के ही हैं।’17   सन् 1952 ई. में रामदहिन मिश्र के निधनोपरांत नये संपादक रघुवंश पांडेय के कार्यकाल में यह दो-तीन अंकों तक प्रकाशित हुआ पर उसके बाद बंद हो गया।18    इसके कई अंक जैसे ‘उपकथांक’, ‘रवीन्द्र-अंक’, ‘विक्रमांक’ और ‘कालिदासांक’ बड़े महत्त्वपूर्ण हुए।19

बच्चों की एक और सचित्र 20 मासिक पत्रिका ‘पुस्तक भंडार’ के मालिक रामलोचन शरण द्वारा सन् 1925 ई. में दरभंगा के लहेरियासराय से शुरू की गई।21    बाद में इसका प्रकाशन पटना से होने लगा।22   प्रारंभ में इसके संपादक श्री रामवृक्ष बेनीपुरी जी थे। बाद के दिनों में इसके संपादन का दायित्व बाबू शिवपूजन सहाय ने निबाहा।23    इस पत्रिका का संपादन शिव जी काफी श्रम और मनोयोग से करते।24    ‘बालक’ ने स्वस्थ, सुरुचिपूर्ण एवं ज्ञानवर्धक बाल सामग्री की प्रस्तुति में जो प्रतिमान उपस्थित किया उससे प्रेरित होकर जयनाथ मिश्र का मासिक ‘चुन्नू-मुन्नू ' (सन् 1950 ई., अजंता प्रेस), मोहनलाल बिश्नोई का ‘मुन्ना-मुन्नी' (1953 ई.) एवं  ‘उत्तर बिहार’ के संस्थापकों द्वारा ‘नन्हे मुन्ने’ प्रकाशित किये गए । इसी क्रम में सन् 1954 ई. में प्रकाशित हरनारायण प्रसाद सक्सेना का मासिक ‘बालगोपाल’ भी उल्लेखनीय है। ये सभी पत्रिकाएं बाल पत्रकारिता की दिशा में सुनहरे आर्थिक भविष्य की तलाश के क्रम में प्रकाशित हुई थीं। लेकिन ‘बालक’ की ख्याति उन्हें न मिली और न वैसा व्यवसाय ही। कहना प्रासंगिक  होगा कि सन् 1969 ई. में ‘बालक’ की प्रसार संख्या 22,000 थी।25   किसी भी साप्ताहिक या मासिक में सबसे ज्यादा इसी की बिक्री थी।26   हां, इनसे बिहार में सुरुचिपूर्ण बाल पत्रकारिता को बढ़ावा मिला। इन्होंने परियों की कहानियां, जानवरों का जीवन, कविताएं, चुटकुले, कार्टून, पौराणिक कथाएं तथा बच्चों के मन को भानेवाले लुभावने एवं आकर्षक चित्रों को छापकर बच्चों के मानसिक तथा बौद्धिक विकास में सहयोग किया। इनका महत्तम योगदान यह है कि इनसे बच्चों में साहित्यिक रुचि का विकास हुआ, उनकी भाषा-शक्ति बढ़ी, उनकी रुचियों का परिष्कार हुआ तथा उनके कोमल एवं भावुक मन में वैज्ञानिक ज्ञान की आशातीत वृद्धि हुई।

‘छात्रबंधु’ का प्रकाशन सन् 1958 ई. में प्रारंभ हुआ। यह छात्रों के चरित्र-निर्माण और मानसिक विकास का प्रयास करनेवाला सचित्र हिंदी मासिक था। इसका प्रवेशांक जनवरी 1958 ई. में प्रवीण चंद्र सिंह के संपादन में निकला था। यह इतिहास, विज्ञान, सामयिक घटनाओं, भाषा-विज्ञान तथा अनुसंधान और नैतिकता से संबद्ध लेख प्रकाशित कर छात्रों को राष्ट्र का उत्तरदायित्वपूर्ण नागरिक बनाने की दिशा में प्रयत्नशील था। 

बाल-शिक्षा की समस्याओं को अन्य पत्रिकाओं ने भी काफी शिद्दत के साथ उठाया। रमेश प्रसाद, जिन्होंने ‘रमेश प्रिंटिंग वर्क्स’27  और ‘रमेश मैनुफैक्चरिंग’ की स्थापना की, के लेख को मासिक ‘चांद’ ने चाव से छापा। यह लेख तत्कालीन दोषपूर्ण शिक्षण-पद्धति पर करारा प्रहार था। उन्होंने लिखा था, ‘इस देश की शिक्षण-पद्धति उन्नतिशील देशों की शिक्षा-पद्धति से सर्वथा भिन्न है। यहां के विद्यार्थी जिस विषय को सीखने से दिल चुराते हैं उसे छड़ी के हाथ सिखलाया जाता है। किन्तु, पाश्चात्य देशों में प्रत्येक विषय इस प्रकार मनोरंजक ढंग से विद्यार्थियों के सामने रक्खे जाते हैं कि उसे बालक खेल ही समझकर सीख लेते हैं। व्याकरण ही को लीजिए। व्याकरण का हर एक नियम रटने के लिए यहां बाधित किये जाते हैं। किन्तु, पाश्चात्य देशों में इन्हें खेल ही द्वारा समझाया और सिखाया जाता है। ...एक श्रेणी के बालकों का नाम जैसे बालक आसानी से स्मरण कर लेते हैं, उसी प्रकार व्याकरण के उन नामों को भी वे बात की बात में याद कर लेते हैं। बालकों में कोई-कोई मास्टरनाउन (छवनद) बनता है, कोई मास्टरवर्ब, कोई मास्टरसेण्टेन्स और कोई मास्टरफ्रेज या क्लाज कहिए, व्याकरण सिखाने की अभिनव प्रथा कैसी है ?

भारतवर्ष की शिक्षा-पद्धति बालकों के लिए भारस्वरूप है, किन्तु अन्य देशों की शिक्षा-पद्धति वहां के विद्यार्थियों के लिए मनोरत्र्जन। इस देश की शिक्षा की बागडोर जिन लोगों के हाथ में है, क्या वे न्यूयार्क के ‘फॉरेस्ट-हिल्स’ स्कूल से सबक सीखेंगे?’28

बिहार में उर्दू पत्रकारिता की हिंदी एवं अंग्रेजी की तुलना में पुरानी एवं समृद्ध परंपरा रही है। सन् 1872 ई. में हिंदी समाचार-पत्र बिहार बंधु के प्रकाशन के पहले सारे अखबार प्रायः उर्दू ही में प्रकाशित हुआ करते थे। उर्दू का अल पंच 29 अखबार शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण काम कर रहा था। इसके संपादक मौलवी सैयद रहीमुद्दीन थे। अल-पंच अखबार ने ऊंची कक्षाओं में मुस्लिम छात्रों की घटती संख्या के कारणों की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित किया। इसने लिखा कि स्कूलों में ऊपर की कक्षाओं में देय फीस की रकम बढ़ जाती है, इसलिए अधिकतर बच्चे स्कूल छोड़ने को बाध्य हो जाते हैं।30    इस अखबार ने मुस्लिम छात्रों के बीच धार्मिक शिक्षा के घोर अभाव 31 की भी बात कही।

संदर्भ एवं टिप्पणियां :

1. एन कुमार, जर्नलिज्म इन बिहार , गवर्नमेंट ऑफ बिहार, 1971, पृष्ठ-65. पटना म्यूनिसिपल शताब्दी स्मारिका के पृष्ठ-61 पर संपादक के रूप में चंडी प्रसाद का नाम अंकित है. देखें, एन कुमार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-65 की पाद-टिप्पणी। ‘हरिऔध अभिनन्दन-ग्रन्थ’, पृष्ठ-538 पर जैसाकि लिखा है-‘बालोपयोगी पत्र ‘‘विद्याविनोद’’ के संपादक बाबू साहब प्रसाद सिंह के सहोदर भाई बाबू चण्डीप्रसाद सिंह थे।’ ‘इस उल्लेख से विदित होता है कि आप (बदरीनाथ) ‘‘विद्याविनोद’’ के आरंभिक वर्ष में कुछ दिन उसके संपादक थे।’ देखें, हिंदी-साहित्य और बिहार, पृष्ठ 137, पाद टिप्पणी-4.
2. विद्या विनोद के विषय में तारणपुर (पटना) के श्रीपारसनाथ सिंह जी ने 19 अक्तूबर, 1960 ई. के अपने पत्र द्वारा राष्ट्रभाषा परिषद् को सूचित किया कि यह एक प्रकार का संकलन है, जो 26 भागों में है। किन्तु बाबू शिवनन्दन सहाय इसे एक पत्र बतलाते हैं। देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार, चतुर्थ खंड, पृष्ठ 173, पाद टिप्पणी संख्या -1.
और देखें, शिवेंद्र नारायण, कांग्रेस अभिज्ञान ग्रंथ , जनवरी 1962, पृष्ठ-171.
3. कहना न होगा कि डा. कृष्णानंद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक बिहार की हिंदी पत्रकारिता , प्रवाल प्रकाशन, प्रथम संस्करण 1996, पृष्ठ-50 पर इसे ‘वार्षिक’ बताया है जबकि उसी पुस्तक में पृष्ठ-219 पर ‘प्रकाशित पत्रों की नामानुक्रमणिका’ में ‘मासिक’ प्रकाशित है।
4 ‘…but this too had a short career of only two years’.  एन कुमार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-65. जबकि डा. कृष्णानंद द्विवेदी ने लिखा है कि ‘1912 ई. तक इसके कुल अठारह अंक निकले।’ बिहार की हिंदी पत्रकारिता , पृष्ठ-50. बाबू शिवनन्दन सहाय ने लिखा है, ‘12 वर्ष से विद्या विनोद पत्र का यही (बाबू चण्डीप्रसाद सिंह) संपादन करते हैं। विद्या विनोद  स्कूल के छात्रों के लिए एक बड़ा ही उपयोगी पत्र है। शिक्षा विभाग के माननीय प्रधान से अनुमोदित होकर एवं अनेक लोकल और डिस्ट्रिक्ट बोर्डों से स्वीकृत होकर यह पत्र 12 वर्षों से प्रकाशित हुआ करता है और अपने ढंग का निराला पत्र है।’ देखिए, बाबू साहिबप्रसाद सिंह की जीवनी , पृष्ठ 60 और 61.
5. हरिऔध अभिनन्दन-ग्रन्थ , पृष्ठ 538. और देखें, हिंदी साहित्य और बिहार , द्वितीय खण्ड, पृष्ठ 137, पाद टिप्पणी -4.
6. डा. कृष्णानंद द्विवेदी, पूर्वोद्धृत , पृष्ठ 50.
7. डा. विजय चन्द्र प्रसाद चौधरी, ‘स्रोत-चयन में पूर्वाग्रह: पत्रकारिता की प्रासंगिकता’, इतिहास का मुक्ति-संघर्ष : स्वार्थ से यथार्थ तक, (संपादक) अमरेन्द्र कुमार ठाकुर, राहुल प्रेस, पटना 1991, पृष्ठ 64. डा. कृष्णानंद द्विवेदी ने बिहार की हिंदी पत्रकारिता , पृष्ठ 51 में प्रकाशन-वर्ष 1897 दिया है जो भ्रामक है।
8. एन. कुमार. ने लिखा है- ‘The Khadagvilas Press started a weekly (emphasis mine) called the Shiksha, mainly devoted to educational matters. It was edited by Mahamahopadhyaya Pandit Sakal Narayan Sharma of Arrha, and later by Durga Prasad Tripathi. After a career of about 40 years it ceased publication sometime near about 1940. देखें, जर्नलिज्म इन बिहार, पृष्ठ 65. डा. रामविलास शर्मा ने भी इसकी साप्ताहिक  के रूप में ही चर्चा की है। देखें, निराला की साहित्य साधना -3, पृष्ठ 396, किन्तु डा. कृष्णानंद द्विवेदी ने इसे आरंभिक दिनों में ‘मासिक’ बताया है। देखें बिहार की हिंदी पत्रकारिता , पृष्ठ-51.
9. डा. कृष्णानंद द्विवेदी, बिहार की हिंदी पत्रकारिता , प्रवाल प्रकाशन, पटना, प्रथम संस्करण 1996, पृष्ठ-50.   
10. हिन्दी-साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ 210.
11. एन. कुमार, जर्नलिज्म इन बिहार, पृष्ठ 65, पाद टिप्पणी
12. वही, पृष्ठ 66.
13. वही।
14. किशोर, प्रवेशांक, अप्रैल 1938, पृष्ठ 5.
15. किशोर, वर्ष 1, अंक 3, जून 1938, पृष्ठ 46.
16. किशोर, वर्ष 1, अंक 6, अक्तूबर 1938, पृष्ठ-48.
17. किशोर, अगस्त 1938, पृष्ठ-46.
18. कृष्णानंद द्विवेदी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-94.
19. हिन्दी-साहित्य और बिहार, तृतीय खंड, पृष्ठ 474.
20. आचार्य शिवपूजन सहाय ने निराला को पत्र (16. 2. 28) लिखने के लिए अपने जिस पैड का इस्तेमाल किया है, उस पर ‘बालक’ सचित्र मासिक छपा है। देखें, रामविलास शर्मा, निराला की साहित्य साधना, भाग 3, पृष्ठ 12.
21. एन. कुमार, जर्नलिज्म इन बिहार, पृष्ठ-76.
22. वही।
23. 'बेनीपुरी ने ‘बालक’ और लहेरियासराय को छोड़ दिया। अब शिवपूजन जी एकच्छत्र सम्राट हैं।' देखें, शांतिप्रिय द्विवेदी का निराला को लिखा पत्र (11. 6. 1928), निराला की साहित्य साधना, भाग 3, पृष्ठ 137-38 में उद्धृत।
24. 'शिव जी (शिवपूजन सहाय) को अपने कार्य से छुट्टी नहीं मिलती, वह ‘बालक’ में ही व्यस्त रहते हैं।' देखें, विनोदशंकर व्यास का निराला को लिखा पत्र (15. 7. 27), निराला की साहित्य साधना, भाग 3, पृष्ठ138 में उद्धृत।
25. यह आंकड़ा प्रेस इन इंडिया (1968-69), मिनिस्ट्री ऑफ इनफॉर्मेशन एंड ब्रॉडकास्टिंग, गवर्नमेंट ऑफ इंडिया, नई दिल्ली से लिया गया है।
26. एन. कुमार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 106.
27. ‘रमेश प्रिंटिंग प्रेस’ से पंडित कृपानाथ मिश्र लिखित ‘प्यास’ और श्री केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’-लिखित ‘ज्वाला’ नामक पुस्तकें प्रकाशित हुई थीं। इस प्रेस के द्वारा हिन्दी-प्रचार विशयक और भी कई महत्त्वपूर्ण कार्य हुए थे। देखें, हिन्दी-साहित्य और बिहार, तृतीय खंड, पृष्ठ-417. 
28. देखें, चांद, मासिक, वर्ष 6, खंड 2, संख्या 3, जुलाई, सन् 1929 ई., पृष्ठ-313. और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार, तृतीय खंड, पृष्ठ-419.
29. इस अखबार का नाम अल-पंच  लंदन से प्रकाशित पंच  के नाम से प्रेरित होकर रखा गया था। हिंदी में हिंदू-पंच  शायद इसी से प्रेरणा पाकर शुरू किया गया हो। अल-पंच  शुरू में पटना से प्रकाशित होता था, बाद में यह अस्थावां (बिहार शरीफ) से छपने लगा। देखें, डा. जटाशंकर झा, आस्पेक्ट्स ऑफ द हिस्ट्री ऑफ मॉडर्न बिहार, काशी प्रसाद जायसवाल शोध-संस्थान, पटना 1988, पृष्ठ 75, पाद टिप्पणी-2.
30. अल-पंच, 27 अगस्त 1886.
31. अल-पंच, 12 जुलाई 1894.                                  

Friday, October 1, 2010

औपनिवेशिक बिहार में बाल-शिक्षा एवं साहित्य

सरकार की ओर से जब पहले-पहल बिहार में शिक्षा प्रसार की व्यवस्था हुई तब सन् 1875 ई. में पंडित भूदेव मुखोपाध्याय1 (1825-1894 ई.) ‘इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्स’ नियुक्त किये गये, जिन्होंने  स्वयं हिन्दी में कई पाठ्य-पुस्तकें लिखीं। उनके नेतृत्व में कई हिन्दी लेखकों ने पाठ्य-पुस्तकें तैयार कीं। आप ही के निर्देशन में हिंदी का शब्दकोष, हिंदी व्याकरण एवं भूगोल, इतिहास, अंकगणित, ज्यामिति जैसे विषयों की पाठ्य-पुस्तकें तैयार की गईं। और जो उन्हीं के द्वारा स्थापित बोधोदय प्रेस में कैथी-लिपि में छपीं। उक्त बोधोदय प्रेस जब खड्गविलास प्रेस का नाम धारण करके बाबू रामदीन सिंह के अधिकार में (सन् 1880 ई. में) आया, तब कैथी-लिपि नामशेष हुई और नागरी-लिपि में हिन्दी-प्रचार बड़े वेग से होने लगा।2   यह बात भी उल्लेखनीय है कि बिहार पहला राज्य था जहां हिंदी को सरकारी काम-काज की भाषा की मान्यता प्रदान की गई थी। बाबू रामदीन सिंह ने भी अपने इस प्रेस द्वारा पाठ्य-पुस्तकों के अभावों को बहुत हद तक दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने खुद पाठ्य-पुस्तकें तैयार कीं और कुछ अपने तथा तथा कुछ दूसरों के नाम से प्रकाशित किया।3 बाबू शिवनंदन सहाय ने लिखा है, ‘शिक्षा विभाग में उनका बड़ा मान था। डायरेक्टर तथा उनके सब कर्मचारी इनसे प्रेम रखते थे और इनका आदर करते थे। जब किंडर गार्टन की पढ़ाई प्रचलित हुई, तब उसी समय उन्होंने किंडर गार्टन की कई पुस्तकें लिखकर तैयार कर दीं।’4

कहना न होगा कि कैथी-लिपि का प्रचलन बन्द कराके देवनागरी को लोकप्रिय बनाने में भूदेव मुखोपाध्याय की महती भूमिका रही थी। इस कार्य से बिहार के लोग इनसे काफी प्रसन्न हुए। इनकी प्रशंसा में कई गीत भी बनाये गये, जिनमें पंडित अम्बिकादत्त व्यास ने भी दो गीत लिखे।5   यह भी स्मरणीय है कि खड्गविलास प्रेस खुलवाने में भूदेव मुखोपाध्याय का काफी सहयोग था।6

भूदेव मुखोपाध्याय का दृढ़ विश्वास था कि बिहार की उन्नति हिन्दी से ही संभव है। पंडित रामगति न्यायरत्न को भेजे एक पत्र 7 में आपने स्पष्ट लिखा था, ‘(बिहार में) मेरे आने के पहले जातीय भाषा (हिन्दी) के स्कूलों की बहुत बुरी हालत थी; कोई उनका आदर नहीं करता था। मैंने आकर उन उपेक्षित स्कूलों पर ध्यान दिया और उनकी उन्नति की। अब यहाँ हिन्दी के स्कूलों की संख्या पहले से दस गुनी हो गई है। सन् 1839 ई. में बंगाल से फारसी के दफ्तर उठ गये और सच पूछो तो तभी से बंगाल की उन्नति हुई; क्योंकि  तभी से वंग भाषा की श्रीवृद्धि का सूत्रपात हुआ। हिन्दी के प्रचार से क्या बिहार की वही दशा न होगी ? क्यों न होगी ? मुझे आशा है कि बंगाल में जितनी उन्नति 40 वर्षों में हुई है उतनी बिहार में 15-16 वर्ष के भीतर ही हो जायेगी। मैं अपने तुच्छ जीवन के छोटे-छोटे कामों में इस काम को बड़े महत्त्व की दृष्टि से देखता हूँ।’ हिन्दी की स्थिति को लेकर उनके मन में कोई भ्रम या द्वंद्व न था। अपनी एक पुस्तक में उन्होंने अत्यंत स्पष्ट शब्दों में लिखा है-‘भारत में जितनी भाषाएँ प्रचलित हैं, उनमें हिन्दी ही सबसे प्रधान भाषा है। वह पहले के मुसलमान-बादशाहों और कवियों की कृपा से एक प्रकार देश भर में व्याप्त हो रही है। इसलिए अनुमान किया जा सकता है कि उसी के सहारे किसी समय सारे भारत की भाषा एक हो जायेगी। भारत में अधिकांश लोग हिन्दी में बातचीत कर सकते हैं। इसलिए भारतवासियों की बैठक में अँगरेजी, फारसी का व्यवहार न होकर हिन्दी में बातचीत होनी चाहिए। साधारण पत्र-व्यवहार भी हिन्दी ही में होना चाहिए। हमारे पड़ोसी या इष्ट-मित्र-चाहे वे मुसलमान, कृस्तान, बौद्ध आदि कोई भी हों-सब सहज में हिन्दी समझ सकते हैं।’8 साथ ही उनका यह विश्वास भी काफी गहरा था कि विदेशी व्यक्तियों के जीवन-चरित पढ़ने से भारतीय बालकों की शिक्षा के एक अंग की विशेष क्षति होती है। अतएव आपने ‘चरिताष्टक’, ‘नीतिपथ’, ‘रामचरित’ आदि कई हिन्दी-पुस्तकें लिखवाईं। हिन्दी में ‘गया का भूगोल’ भी आपने अपने प्रोत्साहन से लिखवाया।

भूदेव मुखोपाध्याय के भाषा-संबंधी जो विचार हैं, ठीक उसी तरह के विचार इंग्लैंड के भाषाविद् एवं भारत-प्रेमी फ्रेडरिक पिन्काट के भी हैं। पिन्काट हिन्दी-प्रेमियों को सलाह देते लिखते हैं-‘देखो अस्सी बरस हुए बंगाली भाषा निरी अपभ्रंश भाषा थी। पहले पहल थोड़ी थोड़ी संस्कृत बातें उसमें मिली थीं। परंतु अब क्रम करके संवारने से निपट अच्छी भाषा हो गई। इसी तरह चाहिए कि इन दिनों में पंडित लोग हिंदी भाषा में थोड़ी थोड़ी संस्कृत बातें मिलावें।’

उस समय की पाठ्य-पुस्तकों से असंतुष्ट होकर भूदेव मुखोपाध्याय ने शिक्षा विभाग के डायरेक्टर के पास रिपोर्ट की कि पाठ्य-पुस्तकों में पूर्ण सुधार होना चाहिए। उत्तर में कहा गया कि ‘अच्छी पुस्तकें कहाँ से आवेंगी।’ इस पर आपने लिखा कि ‘हिन्दी एक जीवित भाषा है-इसकी मृत्यु कभी हो ही नहीं सकती-इसका भार हम पर छोड़ दिया जाये-हम हिन्दी के प्रचार का पूरा प्रबंध कर देंगे और प्रांजल भाषा में पाठ्य-पुस्तकें तैयार करा लेंगे।’9   कुछ दकियानूसी लोगों के द्वारा विरोध किये जाने पर आपने दो टूक कहा, ‘बिहारी हिन्दू बालक अपनी मातृभाषा हिन्दी, धर्म की भाषा संस्कृत और राजा की भाषा अँगरेजी सीखें और मुसलमान के लड़के प्रचलित भाषा हिन्दी, धर्म की भाषा अरबी और राजा की भाषा अँगरेजी सीखें। यही उचित होगा।’10

अब लोगों के सम्मुख हिंदी में पाठ्य-पुस्तक रचने की समस्या आन खड़ी हुई। इसके लिए उत्साही बुद्धिजीवियों की एक फौज ने युद्ध-स्तर पर काम करना प्रारंभ कर दिया। हरनाथ प्रसाद खत्री (1831-1910) ने भी हिन्दी में अनेक पुस्तकें तैयार की थीं, जिनमें अधिकतर बालोपयोगी ही कही जा सकती हैं। उनमें सर्वप्रमुख है-‘व्याकरण वाटिका’। कुल दो सौ पृष्ठों की इस पुस्तक में हिन्दी व्याकरण की सभी आवश्यक बातों का उल्लेख है। सन् 1915 ई. में बिहार और उड़ीसा के शिक्षा-विभाग द्वारा हाई स्कूलों के लिए यह स्वीकृत हुई थी। तब से बीस-पच्चीस वर्षों  तक स्कूलों में इसका खूब प्रचार रहा। इसका पहला प्रकाशन सन् 1905 ई. के लगभग मैथिल-प्रिंटिंग-वर्क्स (मधुबनी) से हुआ था जबकि सन् 1915 में इसका तीसरा संस्करण निकाला गया।11   इनकी दूसरी महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘गुरुभक्ति-दर्पण’  है। महज 18 पृष्ठों की इस पुस्तिका के पूर्वार्द्ध में ‘गुरु माहात्म्य’ है, जिसमें कबीर, तुलसी आदि संत कवियों के गुरु-महिमा संबंधी दोहे हैं। इसका उत्तरार्द्ध ‘शिष्य-विनय’ है, जिसमें गुरु-वन्दना विषयक आपके स्वरचित सवैया, छप्पै, कुण्डलियाँ , मनहर कवित्त और दोहे हैं। इसका प्रकाशन सर्वप्रथम सन् 1895 ई. में खड्गविलास प्रेस, पटना से हुआ था।12

बाईस पृष्ठों की पुस्तिका ‘बाल-विनोद’ की रचना खत्री जी ने अनपढ़ लड़कों को पढ़ुआ बनाने के लिए की थी। इसमें कुल चार अध्याय हैं। इन अध्यायों के बाद सात छोटे-छोटे अध्याय हैं, जिनमें छोटे बच्चों को ईश-वंदना, शिष्टता, अनुशासन, स्वच्छता आदि के उपदेश रोचक शैली में दिये गये हैं। इसका प्रकाशन सन् 1900 ई. के लगभग मैथिल-प्रिंटिंग-वर्क्स (मधुबनी) से हुआ था। इसका दसवाँ संस्करण सन् 1912 ई. में निकला।13  सैंतीस पृष्ठों की पुस्तिका ‘कन्या-दर्पण’ की रचना कन्याओं के हितार्थ की गई थी। इसमें चार अध्याय हैं। इसका तीसरा संस्करण सन् 1925 ई. में निकला था।14   पचहत्तर पृष्ठों की पुस्तक ‘मानव-विनोद’ में भी चार ही अध्याय थे, जिनमें लड़की के ब्याह से पुत्र-पालन तक की एक लम्बी रोचक कथा है। इसका प्रकाशन सर्वप्रथम 1884 ई. में बिहार-बन्धु प्रेस (पटना) से हुआ था। लेखक की संभवतः यह पहली प्रकाशित पुस्तक है।15 ‘वर्ण-बोध’ भी ‘कन्या-दर्पण’ की ही तरह अक्षरारम्भ करनेवाले बालकों के लिए उपयोगी पुस्तक थी।

बिहार में सर्वप्रथम हिंदी-प्रचार का श्रेय जिन चार सज्जनों को है उनमें एक नाम भगवान प्रसाद यानी रूपकला जी का भी है। आपने सन् 1863 ई. में ‘तन-मन की स्वच्छता’ पुस्तिका लिखकर तत्कालीन स्कूल-इन्सपेक्टर डा. फेलन को समर्पित की।16 उन्हीं की आज्ञा से आपने ‘तहारते जाहिर वो बातिन’  नाम से इसका उर्दू अनुवाद भी किया था।17  आगे उन्होंने बंगला पुस्तक का ‘शरीर-पालन’ नाम से हिंदी में अनुवाद किया। पुनः आपने ‘हिफजे सेहत की उमदः तदबीरें’  के नाम से इसका उर्दू अनुवाद भी प्रकाशित किया। बिहार के मिडिल स्कूल के पाठ्यक्रम में भी यह रही।18

हिन्दी में जिन लोगों ने उन दिनों पहले-पहल पाठ्य-पुस्तकें तैयार की थीं, उनमें राधालाल माथुर (1843-1913) को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। आप के द्वारा तैयार की गयी ‘हिन्दी किताब’ (साहित्य का इतिहास, 4 भाग) सन् 1872 ई. में प्रकाशित हुई थी। प्रकाशक भी स्वयं आप ही थे।19   भाषाबोधिनी  पुस्तक (चार भागों में) गोपीनाथ पाठक द्वारा बनारस से सन् 1870 ई. में प्रकाशित कराई गयी थी। सभी पाठशालाओं में आरम्भ से मिडिल तक यही पुस्तक पढ़ाई जाती थी।20 अवधनन्दन (जन्म 25 दिसम्बर, सन् 1900ई.) द्वारा भी कई बालोपयोगी पुस्तकें तैयार की गईं जिनमें ‘हिन्दी-स्वयंशिक्षक’21, ‘हिन्दी-अँगरेजी स्वयंशिक्षक’, ‘हिन्दी शिक्षण पद्धति,’ ‘हिन्दी-इंगलिश-सम्बोधिनी', ‘बालकृष्ण’, ‘लवकुश’, ‘बच्चों की किताब’, ‘वीर दुर्गादास की जीवनी’, ‘भगवान बुद्ध की जीवनी’ आदि प्रमुख हैं।

गया के कन्हैयालाल मिश्र (जन्म सन् 1864 ई.) ने भी अनेक स्कूली पुस्तकों की रचना की थी, जिनमें ‘भाषा-पिंगल-सार’, ‘हिन्दी व्याकरण’, ‘सरल शुभंकरी’, ‘लोअर अंकगणित’, एवं ‘लोअर भूगोल’ आदि प्रमुख हैं।22 कहना न होगा कि ‘भाषा-पिंगल-सार’ को पंजाब टेक्स्ट-बुक कमिटी के सेक्रेटरी मि. ई. टाइडमैन ने पंजाब के स्कूलों और लाइब्रेरियों के लिए चुनी थी।23                                        

उमापतिदत्त शर्मा (1872 -1911) ने विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा के लिए ‘ऋजुस्तवमंजूषा’  नामक एक सनातन धर्म-संबंधी पुस्तक तैयार की, जिसकी प्रशंसा तत्कालीन विद्वानों ने मुक्त-कंठ से की थी। यह पुस्तक कई विद्यालयों में पाठ्य-पुस्तक के रूप में स्वीकृत की गई थी।24 उस समय तक इसके चार-चार संस्करण निकल चुके थे। दामोदरसहाय सिंह ‘कविकिंकर’ द्वारा रचित बालोपयोगी पुस्तकें कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। इनकी प्रमुख पुस्तकें-‘रसाल’, (बालोपयोगी कविताएँ) ‘अंगूर’, (बालोपयोगी कहानियाँ) ‘सरल-सितारी’, ‘बाल-सितारी’, (दोनों बालोपयोगी कविताएँ) ‘धार्मिक वार्तालाप’, (बालोपयोगी गद्य) ‘कबीर: एक लघु जीवनी’, (बालोपयोगी जीवनी) आदि हैं।25   धनीराम बक्सी ‘धनी’ (जन्म 14 जनवरी, 1896 ई.) की अधिकतर पुस्तकें बालोपयोगी हैं। ऐसी प्रमुख रचनाओं के नाम-‘मार्गोपदेशिका’, (व्याकरण) ‘नागरीबोध’, (कैथी सहित) ‘सरल शिशुपाठ’, ‘सरल शिशुगणित’, ‘बालरामायण’, ‘सरल धर्म-शिक्षक’, ‘हिन्दी-अँगरेजी-शिक्षक’, ‘हिन्दी-बंगला-शिक्षक’, ‘वर्णमाला-पहाड़ा’, ‘लालबुझक्कड’, ‘हिन्दी-अँगरेजी-हो26-भाषा-शिक्षक’, (दो भागों में) ‘हिन्दी-अक्षर-बोध’, ‘हिन्दी-वर्णबोध’, ‘शिशु-वर्णशिक्षा’, ‘सरल-पत्रबोध’, ‘बाल-हितोपदेश’, ‘ऐंग्लो-हिन्दी-प्राइमर’, 'त्रिभाषी'  (हिन्दी-बंगला-उड़िया) और ‘गिनती पहाड़ा’ आदि हैं।27

सन् 1924 ई. में रामदहिन मिश्र (1886-1952) ने बाल शिक्षा समिति28 की स्थापना की जिसके माध्यम से अनेक महत्त्वपूर्ण विद्यालयीय पुस्तकों का लेखन एवं प्रकाशन सम्भव हो सका। आपके बारे में जहानाबाद के एक समकालिक लेखक देवशरण शर्मा (जन्म सन् 1890 ई.) ने लिखा था, ‘पटने में रहकर जब मैं काव्यतीर्थ की परीक्षा के लिए तैयारी कर रहा था,...पंडित रामदहिन मिश्र जी टेक्स्ट-बुक लिखने में व्यस्त रहते थे।’29 सन् 1934 ई. में आपने ‘बालशिक्षा’ नामक  मासिक  ग्रंथमाला 30 का प्रकाशन आरंभ किया। इस पुस्तकमाला में आपके द्वारा संपादित प्रतिमास एक बालोपयोगी पुस्तक प्रकाशित होती थी। तीन वर्षों तक लगातार यह पुस्तकमाला चलती रही। इसके अंतर्गत आपके द्वारा सम्पादित पुस्तकें-‘बाल रामायण’, ‘बाल महाभारत’, ‘पुराणों की कहानियां ', (2 भाग) ‘श्रीबालकृष्णकथामृत’, (1 भाग) ‘श्रीबालकृष्णकथामृत’, (2 भाग) ‘रामायण के उपदेश’, ‘अलादीन’, ‘रॉबिन्सन क्रूसो’, ‘नल-दमयन्ती की कथा’, ‘बच्चों की कहानियाँ’, ‘बलिदान की कहानियाँ ’, ‘मनोरंजक कहानियाँ’ एवं ‘विदेशी कहानियाँ’ आदि हैं। ‘विज्ञान की सरल बातें’  रामदहिन मिश्र की ऐसी पुस्तक है जिसके दर्जन से ऊपर संस्करण प्रकाशित हुए जो निश्चय ही बच्चों में विज्ञान साहित्य की लोकप्रियता को दर्शाता है।31

‘बच्चे राष्ट्र के भावी कर्णधार है’, इस सिद्धांत को ध्यान में रखकर रामलोचन शरण बिहारी (1891-1971) ने सन् 1925 ई.32 में ही ‘बालक’ 33 (मासिक) पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया, जिसके बाद में चलकर आप सम्पादक भी हुए। आपने सन् 1928 ई. में लहेरियासराय में एक प्रेस खोला, जिसका नामकरण ‘विद्यापति प्रेस’ किया। इस प्रेस के माध्यम से आपने बिहार में पढ़ाई जानेवाली प्रायः सभी कक्षाओं की पुस्तकों का मुद्रण एवं प्रकाशन किया। हिंदी  बाल साहित्य की रचना और प्रकाशन में आपका वही स्थान है, जो गुजराती भाषा में आचार्य गिजूभाई को प्राप्त है।34   यूनेस्को से जो शिक्षा-सम्बंधी सूचना प्रकाशित हुई थी, उसमें चौदह पुस्तकों के बीच आपकी भी एक पुस्तक की चर्चा है।35   बाल शिक्षा साहित्य में सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तक ‘मनोहर पोथी’ आप ही की रचना है।                                                                                                                                                   
शिवकुमार लाल (जन्म सन् 1895 ई.) ने हिंदी में लगभग 30-40 विभिन्न विषयक पाठ्य-पुस्तकों का प्रणयन या संपादन किया था। ये पुस्तकें हिन्दुस्तानी प्रेस, पटना; खड्गविलास प्रेस, पटना; पुस्तक भण्डार, पटना; हिन्दुस्तानी तालिमी संघ, सेवागाम, वर्धा; अशोक प्रेस, पटना; अजन्ता प्रेस, पटना; वयस्क शिक्षा-बोर्ड, पटना; बिहार टेक्स्ट बुक-कमिटी, पटना आदि द्वारा प्रकाशित हुई थीं। इन पुस्तकों के अतिरिक्त ‘नवीन शिक्षक’ और ‘बुनियादी शिक्षक’  पत्रिकाओं में आपके द्वारा लिखित शिक्षा एवं शिक्षण-विधि-संबंधी स्फुट लेख भी मिलते हैं। आपने बच्चों के लिए विभिन्न विषयों पर सैकड़ों रोचक तुकबंदियां भी की थीं।36   आपके द्वारा बच्चों के लिए तैयार किये गये पाठ की रोचकता का एक नमूना देखने लायक है-‘हमलोगों की दुनिया कितनी अनोखी है? देखने में यह चिपटी मालूम पड़ती है, लेकिन है यह एकदम गेंद-सी गोल। फिर भी इसकी सतह एकदम चिकनी या समतल नहीं है। इस पर बहुतेरे ऊँचे-ऊँचे पहाड़ सर उठाये आसमान से बातें करते हैं। बहुतेरी नदियाँ पानी से लबालब भरी समुन्दर की ओर दौड़ी जाती हैं। कहीं ऊँचे पहाड़ हैं, कहीं गहरी खाइयाँ हैं। कहीं समतल मैदान हैं और कहीं ऊँची पथरीली पठार और मरुभूमि। एक ओर ऊँचे-ऊँचे पेड़ खड़े हैं और दूसरी ओर चौरस रेतीला मैदान पड़ा है। उसी तरह यह एकदम अचल या खड़ी मालूम पड़ती है। लेकिन असल में यह सूरज के चारों ओर जोर से चक्कर काट रही है। देखो तो मालूम पड़ेगा कि सूरज घूम रहे हैं, किन्तु घूम रही है धरती। सूरज इसका दोस्त मालूम पड़ता है। वह इसे गरमी देता है, रोशनी देता है और शक्ति देता है।’37

छविनाथ पाण्डेय (जन्म सन् 1882 ई.) द्वारा लिखित बालोपयोगी पाठ्य-पुस्तकों की संख्या लगभग बीस है, जिनमें ‘नीति की कहानियाँ’, (कला निकेतन, पटना द्वारा प्रकाशित) ‘उपनिषद की कहानियाँ’, (नागरी-प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, पटना-4 द्वारा प्रकाशित) ‘जादू का हिरन’, (कला निकेतन, पटना-4 द्वारा प्रकाशित) ‘महाभारत की कहानियाँ’  (दो भागों में गिरिजा पुस्तकालय, पटना-4 द्वारा प्रकाशित), ‘चाचा नेहरु’,  (वही) ‘हातिमताई’, (ज्ञानपीठ प्राइवेट लिमिटेड, पटना-4 द्वारा प्रकाशित) ‘हमारी आजादी की लड़ाई’  (उपमा प्रकाशन, पटना-4 द्वारा प्रकाशित) आदि प्रमुख हैं।38   बेचूनारायण (जन्म सन 1884 ई.) ने भी हिन्दी में अनेक पाठ्य-पुस्तकों की रचना की। इनमें प्रमुख-‘चिंतन’‘शिशु-चिंतन’‘पाठ-टीका’‘अंक-गणित’‘हिन्दी व्याकरण’ आदि हैं। परन्तु इनकी रचना के उदाहरण हमें प्राप्त नहीं  होते. 39                                                                                                                                                                                                           
राघवप्रसाद सिंह ‘महन्थ’ (जन्म सन् 1889 एवं मृत्यु सन् 1931ई.) को बाल-मनोविज्ञान एवं प्रकृति का अच्छा अनुभव था। आपकी अधिकतर रचनाएं बालोपयोगी ही हैं। ‘ईसप्स फेबुल्स’  ढंग की आपने एक बालोपयोगी कला-पुस्तक की रचना ‘कला-मंजरी’  के नाम से की थी, जो पुस्तक-भण्डार से प्रकाशित होनेवाली थी। अपने जीवन के अंतिम दिनों में आप एक बालोपयोगी ‘पद्यबद्ध-रामायण’  की रचना कर रहे थे, जो दुर्भाग्यवश पूरी न हो सकी।40   सन् 1894 ई. में जन्मे गंगापति सिंह द्वारा भी बालोपयोगी पुस्तकें रचे जाने की बात जाहिर होती है। इनके द्वारा लिखित पुस्तकों में ‘बाल मैथिली व्याकरण’, ‘लोअर-साहित्य’, ‘भूगोल-परिचय’, ‘बच्चों का उपदेश’, ‘प्रवेशिका मैथिली-साहित्य’ (गद्य-पद्य-संग्रह), ‘लघु मैथिली-साहित्य’  (गद्य-पद्य-संग्रह) एवं ‘संस्कृत-पाठ्य-पुस्तक का नोट’ आदि प्रमुख हैं।41  मुजफ्फरपुर के कमलदेव नारायण (जन्म सन् 1900 ई.) को भी कोर्स के योग्य कई पुस्तकों की रचना करने का श्रेय प्राप्त है। हिंदी सेवी संसार 42 तथा जयन्ती-स्मारक-ग्रन्थ 43  में ‘प्रेमनगर की सैर’, ‘वैज्ञानिक वातावरण’  तथा ‘बच्चों के खेल’  नामक तीन नई पुस्तकों की चर्चा है।44   आचार्य शिवपूजन सहाय (जन्म सन् 1893 ई.) के अवदान को भुलाया नहीं जा सकता। उनकी रचनाओं में ‘मां के सपूत’ 45, ‘बालोद्यान’ 46, ‘आदर्श परिचय’ 47 आदि प्रमुख हैं।

औपनिवेशिक बिहार में शिक्षा की बात फ्रेडरिक पिन्काट की चर्चा के बगैर अधूरी ही रह जायेगी। ये महाशय अपनी विलक्षण प्रतिभा के सहारे इंगलैंड में बैठे-बैठै, बगैर भारत आये, जर्मन विद्वान मैक्स मूलर  एवं कार्ल मार्क्स की तरह यहां की सभी महत्वपूर्ण भाषाओं के आधिकारिक विद्वान हो चले थे। इसे भारत प्रेम ही कहा जायेगा। प्रमाण है कि भारतेंदु हरिश्चन्द्र को एक चिट्ठी पिन्काट साहब ने ब्रजभाषा पद्य में लिखी थी।48 उन्होंने दो पुस्तकें हिन्दी में लिखी हैं-‘बालदीपक’,  (4 भाग ‘नागरी और कैथी अक्षरों में’) एवं ‘विक्टोरिया चरित्र’ ।49   ये दोनों पुस्तकें खड्गविलास प्रेस, बांकीपुर में छपी थीं। ‘बालदीपक’  बिहार के स्कूलों में पढ़ाई जाती रही थी।50   उनके एक पाठ का कुछ अंश नमूने के लिये दिया जाता हैः-‘हे लड़कों! तुमको चाहिए कि अपनी पोथी को बहुत संभाल कर रखो। मैली न होने पावे, बिगड़े नहीं और जब उसे खोलो, पूरी चौकसाई से खोलो कि उसका पन्ना अंगुली के तले दबकर फट न जाय।’

ऐसे भी अनेक लेखक-साहित्यकार हैं जिन्होंने अपने जीवन-काल में बच्चों की शिक्षा के लिए पाठ्य-पुसतकें  तैयार कीं, बच्चों द्वारा रुचिपूर्वक पढ़े भी जाते रहे किन्तु आज गुमनामी के अंधेरे में हैं। इतिहास बनानेवालों की ऐसी गुमनामी इतिहास की बड़ी त्रासदियों से कम त्रासद नहीं है।

संदर्भ एवं टिप्पणियां :

1. डा. कृष्णानंद द्विवेदी ने ‘मुखोपाध्याय’ की जगह ‘मुखर्जी’ लिखा है। देखें, बिहार की हिंदी पत्रकारिता , प्रवाल प्रकाशन, पटना, प्रथम संस्करण, 1996, पृष्ठ-18.
2. देखिए, राजेन्द्र अभिनन्दन ग्रन्थ, पृष्ठ 447-48, और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार,  द्वितीय खण्ड, पृष्ठ-447-48 और भी देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार,  द्वितीय खण्ड़, पृष्ठ संख्या-272, पाद टिप्पणी  संख्या-3.
3. कृष्णानंद द्विवेदी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-19.
4. बाबू शिवनंदन सहाय, बिहार की साहित्यिक प्रगति , प्रथम खंड, पृष्ठ-74.
5. दो गीतों में एक यह है-
हुकुम भइल सरकारी रे नर सीखो नागरिया।
यावनि जी से देहु दुहराई पढ़ि गुनि काज करो नरहरिया।।
लै पोथी नित पाठ करहु अब यावनि-ग्रन्थ देहु पैसरिया ।।
जब ले नागरी आवत नाहीं कैथी अक्षर लिखों कचहरिया।
धन्य मंत्री प्रजाहितकारी अम्बिका मनावत राज विक्टोरिया।।
डा. ग्रियर्सन की बनाई बिहारी व्याकरण-माला  के भोजपुरी खंड  से उद्धृत।
देखिए, सरस्वती, भाग 13, संख्या 8, अगस्त, सन् 1912 ई., पृष्ठ-423-24; और देखिए, हिन्दी साहित्य और बिहार , द्वितीय खण्ड, पृष्ठ-272, पाद टिप्पणी  संख्या -5। पत्तनलाल ‘सुशील’ (सन् 1859-1928 ई.) ने भी भूदेव मुखोपाध्याय की प्रशंसा में एक पद्य-रचना की थी-
‘हिन्दी संसकिरत की उन्नति बहु प्रकार जिन कीनी।
डेढ़ लाख मुद्रा यहि कारण खास कोश ते दीनी ।।’
-देखिए, हरिऔध अभिनन्दन ग्रन्थ , पृष्ठ-533। और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खण्ड, पृष्ठ-253, पाद टिप्पणी संख्या -2.
6. पहले इसका नाम बुधोदय (बोधोदय?) प्रेस था। आपकी प्रेरणा से ही यह प्रेस महाराज कुमार बाबू रामदीन सिंह ने अपने मित्र मझौली-नरेश लाल खड्गमल्ल बहादुर के नाम पर खोला। इस प्रेस की उन्नति और प्रगति में आप बाबू रामदीन सिंह के अभिन्न सहयोगी बने रहे।’ देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार , द्वितीय खण्ड, पृष्ठ-273, पाद टिप्पणी संख्या -1। कहना न होगा कि इस प्रेस से पाठक प्रमोद शरण शर्मा के संपादन में भूदेव  नाम का एक मासिक भी प्रकाशित हुआ था जो अपनी साहित्यिक रुचि और शैक्षिक विकास के लिए काफी लोकप्रिय था। देखें, कृष्णानंद द्विवेदी, पूर्वोद्धृत , पृष्ठ-18.
7. देखिए, सरस्वती , पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-425, और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार , द्वितीय खण्ड, पृष्ठ -273, पाद टिप्पणी संख्या -7.
8. देखिए, जयंती-स्मारक ग्रन्थ , पृष्ठ-259, और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार ,  द्वितीय खंड, पृष्ठ-272, पाद-टिप्पणी संख्या -2.
9. देखिए, जयंती-स्मारक ग्रन्थ ,  पृष्ठ-259, और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार , द्वितीय खण्ड, पृष्ठ -272, पाद टिप्पणी संख्या -4.
10. हिन्दी साहित्य और बिहार , द्वितीय खण्ड, पृष्ठ-272, पाद टिप्पणी संख्या -1.
11. वही , पृष्ठ-44, पाद टिप्पणी संख्या -1.
12. उपरोक्त, पाद टिप्पणी संख्या -2.
13. हिन्दी साहित्य और बिहार , द्वितीय खंड पृष्ठ-44, पाद टिप्पणी संख्या -3.
14. वही, पाद टिप्पणी संख्या -4.
15. वही, पाद टिप्पणी संख्या -5.
16. वही , पृष्ठ 59.
17. वही, पृष्ठ 61, पाद टिप्पणी -2.
18. हिंदी साहित्य और बिहार , पृष्ठ 61, पाद टिप्पणी -3.
19. डॉ. माताप्रसाद गुप्त, हिन्दी-पुस्तक-साहित्य , पृष्ठ-575। और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार, द्वितीय खंड, पृष्ठ-280, पाद टिप्पणी संख्या-2.
20. देखिए , क्रमशः हिन्दी-पुस्तक-साहित्य  (वही), पृष्ठ-575 तथा जयन्ती-स्मारक-ग्रंथ,  पृष्ठ-260।
21. लेखक के कथनानुसार इसकी एक करोड़ से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं। देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार, तृतीय खंड, पृष्ठ-22, पाद टिप्पणी संख्या-3.
22. हिन्दी-साहित्य और बिहार,  तृतीय खंड, पृष्ठ-68-69.
23. इसके मुखपृष्ठ पर लिखा है -It has been recommended for the libraries of Anglo Vernacular and Vernacular schools in the Punjab.  इसकी आलोचना सरस्वती , (मई, सन् 1913 ई., भाग 14, संख्या 5, पृष्ठ-661) में प्रकाशित हुई थी।
24. वही, पृष्ठ संख्या-62, पाद टिप्पणी संख्या -2.
25. वही, पृष्ठ-204.
26. ‘हो’ जाति की भाषा में ‘हो’ मनुष्य को कहते हैं। देखें,  (मासिक, भाग-16, खण्ड-2, संख्या-4, अक्टूबर, सन् 1915 ई.), पृष्ठ-225.
27. हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-230, पाद टिप्पणी संख्या -2.
28. उक्त समिति के द्वारा प्रकाशित पुस्तकें समूचे बिहार में पढ़ाई जाती थीं। देखें, पूर्वोद्धृत , पृष्ठ संख्या-474. शिक्षा समिति के द्वारा पंडित रामदहिन मिश्र के नेतृत्व में किशोर उम्र के बच्चों के लिए 'किशोर' नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन सन् 1938 में प्रारंभ हुआ जो 12 वर्षों तक अबाध प्रकाशित होता रहा। देखें, एन कुमार, जर्नलिज्म इन बिहार , गवर्नमेंट प्रेस, पटना, 1971, पृष्ठ-76.
29. राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना के साहित्यिक इतिहास-विभाग में सुरक्षित लेखक के परिचय-पत्रक के संलग्नक से। और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-225.
30. ‘बालमित्र’  (मासिक) ग्रंथमाला के नाम से आपकी लिखित और संपादित बाईस पुस्तकें, रामनारायण लाल, इलाहाबाद से प्रकाशित हुईं। देखें, किशोर  (मासिक, वर्ष-16, अंक 4-5, श्रद्धांक , जुलाई-अगस्त, सन् 1952ई.), पृष्ठ-132.
31. शकुंतला कालरा, ‘किस्से-कहानी के अलावा भी है बाल साहित्य’, आजकल , नवंबर 2009.
32. एन. कुमार, जर्नलिज्म इन बिहार , पृष्ठ-76; हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-502 पर बालक मासिक पत्रिका का प्रकाशन वर्ष 1926 अंकित है।
33.  यह पत्रिका ‘पुस्तक भंडार’ के मालिक रामलोचन शरण द्वारा लहेरियासराय से शुरू हुई थी। बाद में इसका प्रकाशन पटना से होने लगा। इसके आरंभिक संपादक श्री रामवृक्ष बेनीपुरी थे, बाद के दिनों में इसके संपादन का दायित्व बाबू शिवपूजन सहाय ने निबाहा। देखें, एन. कुमार, जर्नलिज्म इन बिहार , पृष्ठ-76.
34. देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-502.
35. पूर्वोद्धृत ,  पाद टिप्पणी संख्या-2.
36. हिन्दी-साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-584.
37. शिवकुमार लाल, जीवन और विज्ञान ,  तृतीय भाग, पृष्ठ-103। और देखें, हिन्दी-साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-585-86.
38. देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार , चतुर्थ खंड, पृष्ठ-74.
39. हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-307.
40. हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-420.
41. वही, पृष्ठ-106-7.
42. डा. प्रेमनारायण टण्डन, हिंदी सेवी-संसार , प्रथम खंड, सन् 1951 ई., पृष्ठ-29.
43. पुस्तक-भण्डार-जयंती-स्मारक ग्रन्थ  (सम्पादक-मंडल, सन् 1942 ई., पृष्ठ-662).
44. हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-70-71.
45. बालोपयोगी शिक्षाप्रद 9 जीवनियां, सन् 1949 ई.।
46. बालोपयोगी शिक्षाप्रद 17 रचनाएं।
47. राम, कृष्ण, भारत, भरत और आदर्श साहित्यिक पर शिक्षाप्रद निबंध।
48. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास , नागरी प्रचारिणी  सभा, वाराणसी, पेपरबैक संस्करण, (प्रथम), संवत 2058, पृष्ठ-262.
49. मनोज कुमार अम्बष्ट, ‘हिंदी का विकास और हिंदीतर विद्वान’, आजकल , सितंबर 2008, पृष्ठ-11.
50. रामचंद्र शुक्ल, पूर्वोद्धृत , पृष्ठ-262.

Thursday, September 30, 2010

हिंदी का उद्भव एवं पूर्व मध्यकालीन बिहार

प्राकृत की अंतिम अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव माना जा सकता है।1 अपभ्रंश या प्राकृताभास हिन्दी के पद्यों का सबसे पुराना पता तांत्रिक और योगमार्गी बौद्धों की साम्प्रदायिक रचनाओं के भीतर विक्रम की सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण में मिलता है यद्यपि जनश्रुति इस काल का आरंभ और पीछे ले जाती है। पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी अपभ्रंश की ही एक स्थिति को पुरानी हिन्दी मानते हैं और उससे हिन्दी का विकास हुआ स्वीकार करते हैं।2 हिन्दी साहित्य के इतिहास में यह काल सिद्ध-काल के नाम से जाना जाता है। सिद्धों ने जिस अपभ्रंश में कविता की, उसके संबंध में जैसाकि कहा जा चुका है, इतिहासकार उसी में पुरानी हिन्दी की छाया देखते हैं। यह भी कहा जाता है कि पालि, प्राकृत तथा अपभ्रश भाषाओं में जो जैनों-बौद्धों का साहित्य मिलता है, उसमें भी हिन्दी के प्राचीन रूप के दर्शन होते हैं।3 जैन और बौद्ध धर्म का मुख्य केन्द्र होने के कारण बिहार की तत्कालीन भाषा का प्रचार-प्रसार धर्म-प्रचारकों द्वारा भारत के विभिन्न स्थानों के अतिरिक्त पड़ोसी देशों में भी हुआ। जैन नरेशों और बौद्ध-सम्राटों के प्रभाव से प्राकृत और पालि को उनके राज्यों में राजभाषा भी होने का गौरव प्राप्त हुआ।4 किंतु, अपभ्रश भाषा बिहार में या भारत के अन्य प्रांतों में यद्यपि राजभाषा के रूप में कभी प्रचलित न हुई तथापि जनपदीय भाषाओं से उसका संपर्क समझकर तत्कालीन साहित्यकारों ने अपनी पद-रचना के लिए उसे ही अपनाया। उसमें जो रचना की परंपरा चली, वह कालक्रम से विकास पाती हुई विद्यापति के काल तक चली आई। यहां तक कि थोड़ा-बहुत उसके बाद की रचनाओं भी उसकी छाया प्रतिबिंबित हुई है। गुलेरी जी ने जिसे पुरानी हिन्दी कहा है, उसी के एक रूप को विद्यापति अवहट्ट कहकर परिचय देते हैं। और यह अवहट्ट या अवहंस अपभ्रंश के अतिरिक्त अन्य कोई भाषा नहीं है।5

हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि सब प्रकार की जो प्राकृत भाषाएं जनता द्वारा नाना प्रांतों में बोली जाती थीं, हमारी हिन्दी उसकी उपज है; किंतु प्राकृत ग्रंथों की ‘साधु-भाषा’ में बोली जानेवाली भाषा कम मिलती है। स्वयं अपभ्रंश भाषा के ग्रंथों में प्रचलित भाषा को व्याकरण-सम्मत बनाने के प्रयत्न में लेखकों ने साहित्यिक भाषा का रूप देकर उसे इतना संवारा कि ‘साधु’ और ‘प्रचलित’ दो भिन्न भाषाएं बन गईं, जिनमें बहुत कम साम्य रह गया। इस पर भी प्राकृत तथा अपभ्रंश में हिन्दी व्याकरण का इतिहास स्पष्ट रूप से मिलता है और विशुद्ध हिन्दी शब्दों की व्युत्पत्ति भी उनमें मिलती है।6 हिन्दी का आधार केवल संस्कृत या मुख्यतः संस्कृत मानना भूल है। हिन्दी के अनेक शब्द प्राकृतों और देशी-अपभ्रंशों द्वारा आये हैं। अतः प्राकृत का मूल संस्कृत को बताना अवैज्ञानिक और भ्रमपूर्ण है।7 बहुत-सी बातों में प्राकृत भाषाएं मध्यकालीन भारतीय जनता की बोलियों से मिलती-जुलती हैं और ये सब बातें संस्कृत में बिल्कुल नहीं मिलतीं।8

चूंकि हिन्दी की आदि कविता केवल बिहार के ही बौद्ध-सिद्धों की मिलती है, इसलिए उसके सबसे प्राचीन रूप को बिहार की ही देन कहना युक्तिसंगत होगा।9 राहुल सांकृत्यायन के अनुसार चौरासी सिद्धों में छत्तीस बिहार के हैं।10 जो बिहार के निवासी नहीं थे उनका भी कार्य-क्षेत्र मुख्यतया बिहार ही रहा।11 ऐसा अनुमान है कि बिहार के नालंदा और विक्रमशिला विद्यापीठों से चौरासी सिद्धों का घनिष्ठ संपर्क था।12 कालांतर में बहुत से भोट आदि देशों को चले गये। यह भी अनुमान है कि बिहार से बाहर के जितने भी बौद्ध-सिद्ध रहे होंगे, उन सबकी साधना का केन्द्र-स्थल नालंदा और विक्रमशिला में ही कहीं होगा। इससे स्पष्ट होता है कि चौरासी सिद्धों की साहित्य-सेवा का मूल-स्रोत बिहार ही रहा है और वे पांडित्य तथा साहित्य-रचना की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।13

यह बात सिद्ध-युग में विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि आठवीं से तेरहवीं शताब्दी के समय में गद्य-लेखन में भी हमें साक्ष्य उपलब्ध होते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार एकमात्र चौरंगीपा ही गद्यकार प्रतीत होते हैं जिनकी प्राणसंकली  नामक गद्य-रचना सुरक्षित है। उनके गद्य में भोजपुरी भाषा की झलक मिलती है और ऐसा अनुमान है कि उनके समय से पहले भी गद्य-रचना होती थी।14 संभव है कि उनके अतिरिक्त अन्य बौद्ध-सिद्ध गद्यकार भी रहे हों, पर उनके रचे ग्रंथों के नाममात्र से  ठीक पता नहीं लगता कि वे ग्रंथ गद्य के हैं या पद्य के। यद्यपि चौरंगीपा के गद्य-ग्रंथ के संबंध में भी मतभेद है।

उपलब्ध और प्रकाशित रचनाओं के आधार पर भी विचार करने से ऐसा स्पष्ट लक्षित होता है कि सिद्ध-काल की भाषा-परंपरा विद्यापति के काल तक चली आई है।15 आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक मुख्यतः सिद्धों की रचनाएं अपभ्रंश तथा पुरानी हिंदी में है; पर तेरहवीं शताब्दी के कवि हरिब्रह्म और विद्यापति की अपभ्रंश रचनाओं से बहुत कुछ साम्य दीख पड़ता है।16

राहुल सांकृत्यायन ने तिब्बत यात्रा करके बौद्ध-सिद्धों की रचनाओं का जब उद्धार किया तब बारहवीं शताब्दी के महाकवि चन्दबरदाई के समय से ही हिन्दी का उद्गम माननेवाले इतिहासकार आठवीं शताब्दी में बौद्ध-सिद्धों द्वारा रचित कविताओं में हिन्दी के प्राचीन रूप का आभास पाने लगे।17 इस प्रकार राहुल जी की खोजों से हिन्दी के उद्गम का समय पहले के अनुमानित समय से लगभग चार सौ वर्ष अधिक बढ़ गया। किंतु यह विचारणीय प्रश्न है कि आठवीं शताब्दी में हिन्दी के आदिकवि सरहपाद18 ने अपनी रचना के लिए जिस भाषा को अपनाया, उसमें उस समय से पहले कोई रचना थी या नहीं; क्योंकि सातवीं शताब्दी के आरंभ ही में महाकवि बाणभट्ट के परममित्र भाषा-कवि ईशान ने ‘भाषा’ में-संस्कृत और प्राकृत से भिन्न ‘भाषा’ में कविता की थी। हर्षचरित के प्रथम उच्छ्वास में प्राकृत-कवि और भाषा-कवि का अलग-अलग उल्लेख है।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि उस समय केवल ईशान ही भाषा-कवि नहीं रहे होंगे, बल्कि जिस लोक-प्रचलित भाषा में वे कविता करते थे, उसी भाषा में उस समय के अन्य कवि भी करते रहे होंगे। उसके प्रमाण में वही प्रकरण देखा जा सकता है, जिसमें बाणभट्ट ने अपने परममित्र ईशान के साथ-साथ वर्ण-कवि वेणी भारत19 का उल्लेख किया है। वहां कवि का नाम वेणी भारत और वर्ण कवि उनका विशेषण है। हर्षचरित  के टीकाकार और बारहवीं शताब्दी से पहले होनेवाले शंकर ने वर्ण कवि की व्याख्या करते हुए लिखा है, ‘भाषा में गाने योग्य विषयों को वाणी-रूप देकर कविता करनेवाला-अर्थात् गाथा रचकर कहनेवाला।’20 इससे भी स्पष्ट है कि ईशान की तरह वेणी भारत भी भाषा ही के गाथा कहनेवाले कवि थे।21 इसी तरह सरहपाद ने भी अपनी रचना के लिए कोई नई भाषा नहीं गढ़ी होगी बल्कि  जिस भाषा को उन्होंने अपने भावों को वहन करने में समर्थ पाया, उसका अस्तित्व निश्चय ही पहले से था।22

हिन्दी साहित्य-संसार में यह मान्यता सप्रमाण प्रतिपादित हो चुकी है कि बिहार के बौद्ध-सिद्धों की रचनाओं में हिन्दी का सबसे प्राचीन रूप है।23 किंतु बौद्धों-सिद्धों की रचनाओं में जिस भाषा का प्रयोग हुआ है, वह जनसाधारण की भाषा का एक ‘मानक’ रूप थी; क्योंकि बौद्ध-सिद्धों में से कई कवि भारत के अन्य दूसरे प्रांतों के भी थे और उन्होंने बिहार में आकर एकाएक यहां की जनभाषा में रचना कर डाली, यह सहसा विश्वसनीय प्रतीत नहीं होता।24 हालांकि कुछ विद्वान इसी तर्क को आधार बनाकर यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि बौद्धों-सिद्धों की रचना की भाषा शिष्ट भाषा थी जो जनसाधारण की भाषा से भिन्न थी। भाषा और साहित्य में वैसे लोगों की एक अविच्छिन्न परंपरा है जो रचना-कर्म के लिए शिष्ट भाषा के आग्रही कहे जा सकते हैं।

भाषा इतिहासकारों ने अब तक भाषा के संबंध में विचार करते समय अधिकतर अनुमान और परंपरागत धारणाओं ही के आधार पर अपने मत व्यक्त करते रहे हैं। एक तो भाषा-संबंधी विचार-विमर्श के लिए प्रामाणिक प्राचीन ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं इसलिए बुद्धिगम्य प्रमाणों के आधार पर इतना ही कहना उचित होगा कि बिहार की जनभाषा का नाम, समय और स्थान के भेद से पालि, प्राकृत आदि रहा, जिसके चार प्रधान रूप मैथिली, मगही, भोजपुरी और अंगिका वर्तमान हैं। वर्तमान हिन्दी की जड़ें अगर पूर्व मध्यकालीन बिहार के सिद्धों की रचनाओं में तलाशी जाय तो सर्वथा अनुचित नहीं। यहां यह भी टांक देना मुनासिब होगा कि आठवीं से बारहवीं शताब्दी के लगभग सभी सिद्ध कवि प्राचीन मगध एवं अंग क्षेत्र के हैं, मिथिला क्षेत्र से, अर्थात् विद्यापति के क्षेत्र से किसी रचनाकार के होने का साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता25 जबकि चौदहवीं शताब्दी से मिथिला का योगदान आश्चर्यजनक रूप से शुरू होता है। यह पहलू बहुआयामी शोध की मांग करता है। 

संदर्भ एवं टिप्पणियां:

1. रामचंद्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, पेपरबैक संस्मरण, प्रथम, संवत् 2058, पृष्ठ 3।

2. चंद्रधर शर्मा गुलेरी, पुरानी हिन्दी, प्रथम संस्करण, पृष्ठ 8।

3. शिवपूजन सहाय, हिन्दी साहित्य और बिहार, प्रथम खंड, पृष्ठ 17।

4. वही, पृष्ठ 107।

5. डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, भविसयत्तकहा तथा अपभ्रंश कथा काव्य, भारतीय ज्ञानपीठ, पृष्ठ 47।

6. आर. पिशेल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, हेमचंद्र जोशी की पाद-टिप्पणी, पृष्ठ 4-5।

7. इस विषय पर बेबर ने ‘इंडिशे स्टूडियन’ में जो लिखा है कि प्राकृत भाषाएं प्राचीन वैदिक बोली का विकास नहीं हैं, इसका तात्पर्य है कि वह भूल कर बैठा।

8. आर. पिशेल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 11।

9. शिवपूजन सहाय, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 18।

10. वही

11. वही

12. सरहपा, विसपा और भुसुकपा नालन्दा विहार के नियमित छात्र थे। गुह्यज्ञानव्रज दीपंकर श्रीज्ञान ने नालन्दा और विक्रमशिला दोनों विद्याकेन्द्रों में शिक्षा पायी थी। शांतिपा विक्रमशिला में शिक्षित होने के बाद ही सोमपुरीविहार के स्थविर नियुक्त हुए थे। बौद्ध दर्शन के पंडित कम्बला, महाराज धर्मपाल के लेखक आदिसिद्धाचार्य लुइपा और राजा शालिवाहन के पुत्र चौरंगीपा अशिक्षित थे, ऐसा मानना संभव नहीं, बल्कि मानना तो यह पड़ेगा कि ये सब नालंदा और विक्रमशिला के मेधावी स्नातक थे और तदन्तर स्वीकृत आचार्य होकर अपने युग के चिन्तन के प्रभावी माध्यम हुए। यह अकारण नहीं था कि सरह अध्ययनोपरान्त नालन्दा के ही, जहां के छात्र थे, प्रधान पुरोहित नियुक्त हुए। गुह्यज्ञानव्रज दीपंकर श्रीज्ञान ने मगधनृप न्यायांपाल के अनुरोध पर विक्रमशिला का महापंडित होना स्वीकार किया। नारोपा और शांतिपा विक्रमशिला विहार के पूर्वद्वार के महापंडित बनाये गये।’ देखें, केसरी कुमार, साहित्य के नये धरातल: शंकाएं और दिशाएं, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1980, पृष्ठ 136, पाद टिप्पणी संख्या-4। और देखें, रामचंद्र शुक्ल, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 5।
13. शिवपूजन सहाय, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 19।
14. वही

15. अपभ्रंश की यह परंपरा विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य तक चलती रही। एक ही कवि विद्यापति ने दो प्रकार की भाषा का व्यवहार किया है-पुरानी अपभ्रंश भाषा का और बोलचाल की देशी भाषा का। देखें, रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण, 1997 विक्रम, पृष्ठ 5।

16. शिवपूजन सहाय, पूर्वोद्धृत, भूमिका से, पृष्ठ 20।

17. कुछ विद्वान तो हिन्दी का उद्भव कालिदास में खोजने लगे। ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास की पहली चिन्तनीय दुर्घटना तो यही है कि कालिदास के ‘विक्रमोर्वशीयम्’ के चतुर्थ अंक के उन अपभ्रंशांसों को ‘पुरानी हिन्दी’ नहीं कहा गया, जो इसके आरंभिक उत्तराधिकारी हैं, यद्यपि सरहपा, स्वयम्भू और अब्दुर्रहमान (अद्दहमाण) का हिन्दीपन उनमें विद्यमान है।

‘मोरा परहुअ हंस रहंग अलि अग पव्वय सरिअ कुरंगम।

तुज्झह कारण रण्णभभन्ते को णहु पुच्छिअ मइं रोअंते।।

‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ में वैदिक और ‘विक्रमोर्वशीयम्’ में दोहाक और सोहरख जैसे लौकिक छन्दों का प्रयोग भी इस तथ्य के समर्थक हैं कि ऋषि से भिन्न कवि के रूप में कालिदास यदि संस्कृत के प्रथम महाकवि हैं तो वे ही हिन्दी के प्रथम ज्ञात कवि भी हैं।’

क. मइं जानिअं मिलोअणी णिस अरू कोइ हरेइ।

जाव णु णवतलिसामल धराहरू वरिसेइ।।

ख. पुव्वदिसापवणाह अकल्लोलुग्ग अबाहइो,

मेहअअंगे णच्चइ सलिलअ जलणि हिणाहओ।

हंसविहंगसकुंकुमसंखकआभरण,

करिमअ राउलकसणकमलक आवरणु।

वेलासलिलुवेल्लि अहत्थदिणणतालु,

ओत्थरइ दस दिस संधेविणुणवमेहआलु।।

देखें, केसरी कुमार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 123, 136 पाद टिप्पणी 1, 2, 3।

18. ‘पा’ आदरार्थक ‘पाद’ शब्द है। देखें, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ 6।

19. ‘अभवंश्यास्य सवयसः समानाः सुहृदः सहायाश्च। तथा च भ्रातरौ पारशवौ चन्द्रसेनमातृसेनौ, भाषाकविरीशानः परं मित्रम प्रणयिनौ रुद्रनारायणौ वारवाणवासवाणौ वर्ण कविः वेणी भारतः।’ देखें, हर्षचरितम्, बाणभट्ट, प्रथम उच्छ्वास।

20. शंकर की टीका, ‘भाषागेयवस्तुवाचस्तेषु वर्ण कविः। गाथादिषु गीतद इत्यर्थः।’

21. शिवपूजन सहाय, हिन्दी साहित्य और बिहार, प्रथम खंड, भूमिका से, पृष्ठ 15।

22. वही

23. वही, पृष्ठ 16।

24. शिवपूजन सहाय, हिन्दी साहित्य और बिहार, प्रथम खंड, भूमिका से, पृष्ठ 16।

25. इस निष्कर्ष का आधार हिन्दी साहित्य और बिहार, प्रथम खंड के अंत में दिया गया परिशिष्ट है जिसमें रचनाकारों का जन्म-स्थान उल्लिखित है।

Wednesday, September 29, 2010

राहुल सांकृत्यायन और बिहार में किसान आंदोलन

राहुल सांकृत्यायन
बिहार में किसान आंदोलन के उद्भव एवं विकास को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। कुछ लोग मानते हैं कि यह राष्ट्रवाद के विकास के फलस्वरूप पैदा हुआ। अर्थात् राष्ट्रीय आंदोलन ने ही वह पृष्ठभूमि तैयार की जिसमें  किसानों की राजनीतिक चेतना का प्रसार तथा उसके संगठन एवं नेतृत्व को जिम्मेदारी संभालने के इच्छुक, सक्षम राजनीतिक कार्यकर्ताओं का उदय हुआ, फलस्वरूप किसान संघर्ष संभव हो सका।1 उनके लिए किसान आंदोलन की विचारधारा भी राष्ट्रीयता पर आधारित थी।2 जबकि वस्तुस्थिति यह है कि बिहार में राष्ट्रीय चेतना, जिसे हम गांधीवादी राष्ट्रवाद कह सकते हैं, का उद्भव सीधे तौर पर किसान आंदोलनों से जुड़ा हुआ है।3

इधर हाल के दिनों में क्षेत्रीय इतिहास पर जोर देने से बिहार में किसान आंदोलन पर कुछ महत्वपूर्ण काम हुए हैं, लेकिन किसान आंदोलन के आधार स्तंभ राहुल सांकृत्यायन को नजरअंदाज किया गया है। इसका महत्वपूर्ण कारण है कि वे जमींदारों के कट्टर आलोचक थे।4 किसान आंदोलन की जब भी हम चर्चा करते हैं, राहुल जी की बरबस याद हो आती है। हम साहस के साथ कह सकते हैं कि किसान आंदोलन को शुरू से अन्त तक जानने के लिए राहुल द्वारा दी गई कुर्बानियों को याद करना ही होगा।

जहां तक स्रोत की बात है-हमने सचेतन रूप से सरकारी दस्तावेजों का अनादर किया है क्योंकि कई बार हमें ऐसा प्रतीत होता है कि वे एक ही तरह की सूचनाएं देती हैं और तब हम किसी विशेष कालखंड को बार-बार दुहराते नजर आते हैं। दूसरे, राहुल जी पर लिखते वक्त उनकी साहित्यिक कृतियों की पारदर्शी ईमानदारी हमें अन्य स्रोतों के साथ मिलाकर इसकी सत्यता जांचने की जरूरत ही नहीं छोड़ती।

कहना न होगा कि राहुल जी का जन्म उत्तर प्रदेश में हुआ किंतु उनकी राजनीतिक और सार्वजनिक कर्मभूमि मुख्यतः बिहार ही रहा।5 सन् 1921 ई. से उनके सक्रिय राजनीतिक जीवन की शुरुआत होती है। 1921-25 ई. के बीच राहुल जी ने दो वर्षों तक बक्सर और हजारीबाग जेलों को आबाद किया। सन् 1930 ई. में कांग्रेस का उन्हें पदाधिकारी चुना गया और इस तरह राष्ट्रव्यापी संगठनकर्ता के रूप में उन्होंने सारण जिला में काम किया। 1931 ई. में बिहार सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हुई और वे उसके सचिव बनाये गये।6 1937 ई. में अंग्रेजी शासन के मातहत बिहार में कांग्रेस मंत्रिमंडल बना तो राहुल जी ने जमींदारी के खिलाफ किसान आंदोलन में अपने को न्योछावर कर दिया।7

भारत के किसान आंदोलन के इतिहास में साधु-संन्यससियों की एक महान परंपरा रही है। बिहार इससे अछूता नहीं है। क्या इस बात का सचमुच कोई आधार है कि जिन किसान नेताओं की जन साधारण के बीच पहुंच थी उनको किसानों ने साधु-संन्यासी के रूप में स्वीकार किया था। राहुल जी एवं स्वामी जी की छवि किसानों के बीच जो संत के रूप में बनी इसके क्या कारण हो सकते हैं जबकि वे सारे किसान नेता जो विशुद्ध रूप से कांग्रेसी राजनीति के तहत किसानों का नेतृत्व कर रहे थे, उनकी समाज में अलग पहचान थी। ऐसे प्रश्नों की गंभीर छानबीन करनी होगी और तब हम शायद बिहार में किसान आंदोलन तथा किसानों की मानसिक-मनोवैज्ञानिक संरचना का सही-सही अंदाजा लगा सकते हैं। क्या हम इसे एक तथ्य मान सकते हैं ? ऐसा नहीं है कि ये पहचान इन पर बाहर से थोपी जा रही है, बल्कि स्वामी जी ने तो 1937 में जोर देकर कहा था कि धर्म ने देश का काफी शोषण किया है, अब वे धर्म का किसानों के पक्ष में इस्तेमाल करेंगे।8 राहुल जी ने भी अमवारी सत्याग्रह के दौरान सचेतन मन से स्वीकार किया था कि ‘शायद मेरे शरीर पर जो पीले कपड़े थे उसकी वजह से उनको हाथ छोड़ने की हिम्मत नहीं पड़ती थी।’9 इस तरह किसान आंदोलन के स्वरूप पर जब भी हम बात करेंगे तो तो निश्चित रूप से इस परंपरा की पहचान करनी होगी एवं किसान आंदोलन के साथ उसका तारतम्य बिठाना होगा।

शुरू के दौर में किसान आंदोलनों के बारे में साम्राज्यवादियों की जो राय थी वही राय कांग्रेस ने 1937 के आसपास बना ली थी। अर्थात् जब अंग्रेजी सरकार इसे डकैती10 अथवा लूट की संज्ञा देती थी तो कांग्रेस भी अपने अंतिम दौर में किसान आंदोलन को डकैती अथवा लूट की संज्ञा देती है।11 दोनों के विचारों एवं दमन के तरीकों में कई अद्भुत समानताएं थीं बल्कि कई बार तो देशी सरकार अंग्रेजी सरकार को भी पीछे छोड़ देती थी। तथ्य यह है कि जिन प्रांतों में कांग्रेस की सरकार बन चुकी थी वहां भी किसानों पर दमन एवं सांप्रदायिक दंगों में किसी तरह की कमी नहीं आई।12 साम्राज्यवाद एवं बुर्जुआ राष्ट्रवाद की चिंतनधारा में कोई विशेष अंतर न था। बल्कि दोनों ही शासक वर्ग की सर्वमान्य नीतियों को प्रतिबिंबित कर रहे थे। राहुल जी के आंदोलन का एक प्रमुख अंग यह भी था कि कांग्रेसी सरकार किसान कैदियों को राजनैतिक बंदी मान ले।13 कांग्रेस मंत्रिमंडल ने अपने शासन के आखिरी दिनों तक इस बात को नहीं माना।14 जबकि इन किसानों ने ठीक उसी तरह अपने हक के लिए लड़ाई लड़ी थी और जेल आये थे जैसे कि कांग्रेसी सत्याग्रही अंग्रेजी सरकार से लड़ने के लिए जेल जाते थे।15 जो कांग्रेस कभी राजनीतिक बंदियों को विशेष सुविधाएं मुहैया कराये जाने की मांग कर रही थी, अब वही किसान सत्यागहियों को राजनीतिक बंदी नहीं चोर-डाकू घोषित कर रही थी।16 इन विशेष परिस्थितियों में कांग्रेस का अंतर्विरोध तीव्रतर होता दिखाई देता है।

राहुल सांकृत्यायन किसानों -मजदूरों के हितों एवं कांग्रेस (जिनमें जमींदार प्रमुख थे) के हितों की टकराहट को भलीभांति समझ रहे थे। इन्हें बहुत जल्दी मालूम हो गया कि ‘किसानों की जय’ का नारा लगाकर जिन लोगों ने लगातार किसानों से वोट लिये वही कांग्रेसी मंत्रिमंडल में पहुंचकर अब कोई बात करने से जमींदारों की तकलीफों का लेक्चर देने लगते हैं।17 इसलिए राहुल जी ने जिस स्वराज्य का सपना देखा था उसमें ‘सांवले से गोरे की पटरी’ बैठाने की बात न थी, ‘वह काले सेठों और बाबुओं का राज नहीं था, राज था किसानों और मजदूरों का, क्योंकि तभी गरीबी और अपमान से जनता मुक्त हो सकती थी।’ व्यापक पैमाने पर जो मुक्ति संघर्ष चलाया जा रहा था उसमें मूलतः एक तरफ भारतीय जनता और और बिटिश उपनिवेशवाद अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ था तो दूसरी तरफ देशी सामंतवाद एवं अभिजन वर्ग के खिलाफ था, और उतनी ही तन्मयता के साथ लड़ा जा रहा था। इसलिए हम कह सकते हैं कि राहुल जी के नेतृत्व में किसान आंदोलन दोनों मोर्चों पर एक साथ खड़ा किया गया था। यही इसकी असली सच्चाई है। सिर्फ साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चे पर यह आंदोलन निर्णायक रूप से सफल नहीं हो सकता था। यही कारण है कि भूमि-सुधार आंदोलन, जो कि राहुल जी के आंदोलन का एक प्रमुख हिस्सा था, को आजादी प्राप्ति के बाद भी कम्युनिस्ट पार्टी को एक प्रमुख कार्यभार के रूप में स्वीकार करना पड़ा था।

राहुल सांकृत्यायन को मार्क्सवाद का गहरा अध्ययन था। कार्ल मार्क्स के विचारों को हू-ब-हू वे याद करते पाये जाते हैं। मार्क्स ने कहा था कि दुनिया का सबसे क्रांतिकारी वर्ग सर्वहारा होता है क्योंकि उसके पास खोने के लिए दासता के सिवा कुछ भी नहीं होता। राहुल के लिए क्रांति को निर्णायक मोड़ तक पहुंचाने वाले सिर्फ किसान एवं मजदूर हैं, क्योंकि उन्हीं को सारी यातनाएं सहनी पड़ती हैं, और उन्हीं के पास लड़ाई में हारने के लिए संपत्ति नहीं है।19 वे मार्क्सवाद से प्रभावित तो थे ही सन् 1917 की सोवियत क्रांति से भी गहरे प्रभावित थे।20 रूस में वे किसानों-मजदूरों के संयुक्त मोर्चा को सफल होते देख चुके थे। सावियत क्रांति की खबरों  ने उन्हें एक नयी दृष्टि21 दी थी-किसानों-मजदूरों को आपस में मिलाकर एक संयुक्त मोर्चा बनाने की दृष्टि। राहुल जी सच्चे अर्थों में नेता की अपेक्षा एक कुशल कार्यकर्ता कहीं ज्यादा थे। वे जानते थे कि किसान अपने भीतर से नेता पैदा कर सकते हैं। किंतु कैसे, इसका जवाब उनके पास नहीं था।22

बिहार में किसानों का संघर्ष साम्राज्यवाद ही के खिलाफ न था बल्कि देशी जमींदारों के खिलाफ संघर्ष उतनी ही तीव्र गति से बढ़ रहा था। 1930-40 के दशक में विश्वव्यापी आर्थिक मंदी के फलस्वरूप किसानों पर लगातार गरीबी एवं कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा था। भूकंप ने इसमें और वृद्धि ला दिया। फलतः मालगुजारी दे पाने में किसान असमर्थ थे। बारी-बारी से किसानों की जमीनों को नीलाम कराकर जमींदारों ने हड़प लिया। कांग्रेस मंत्रिमंडल के कायम होने पर जमींदारों को डर हो गया था कि जिन खेतों को उन्होंने जबर्दस्ती किसानों से छीन लिया है, और जिन्हें अब भी किसान ही जोत रहे हैं, उनपर किसानों का हक हो जायेगा।23  इस डर का कारण यह था कि कांग्रेस मंत्रिमंडल ने लगान की दर कम करने और बकास्त जमीनों की वापसी के लिए कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी,24 लेकिन सच्चाई तो यह है कि बकास्त कानून ने किसानों को राहत देने की जगह जमींदारों के दमनचक्र को एक नई शक्ति प्रदान कर दी जिसके फलस्वरूप बिहार में बकास्त आंदोलन उत्तेजित हो उठा।25 सारे बिहार में वर्षों से किसानों के जोत में रहते खेतों को जमींदारों ने निकालना शुरू किया। किसान विरोध करते थे और अपने खेतों को छोड़ना नहीं चाहते थे, यही संघर्ष का कारण था। इस संदर्भ में राहुल ने अमवारी के किसानों का नेतृत्व किया।26 आंदोलन का मुख्य स्वरूप था सत्याग्रह तथा जबर्दस्ती बोआई और फसल कटाई।27 वैसे राहुल को मार-काट में कोई दिलचस्पी न थी, वे बौद्ध थे। लेकिन भला जमींदार इनको माननेवाले थे। इसलिए किसानों को लाठी रख देने के लिए कहना अहिंसा नहीं कायरता का प्रचार करना था।28 राहुल जी को ऐसी कायरता पसंद न थी।29

राहुल जी ने तो किसानों के साथ सत्याग्रह करने के लिए अमवारी को चुना। सत्याग्रह था-एक किसान के खेत में उख काटना। जाहिर है, जमींदार इस खेत को अपना कहता था। राहुल जी ने सत्याग्रह तो किया लेकिन उन्हें बुरी तरह घायल कर दिया गया। पुलिस खड़ी तमाशा देखती रही। जमींदार के कहने पर पुलिस ने हाथीवान को भी, जिसने राहुल का सिर फोड़ा था, छोड़ दिया। यह सब कांग्रेसी राज में हो रहा था। इसी तरह के दमनचक्र चलानेवालों तथा किसान आंदोलनों को निर्ममतापूर्वक दबानेवाले जमींदारों में कई कांग्रेसी मंत्री भी शामिल थे।30 कैदी राहुल को सीवान से छपरा ले जाया जा रहा था। ऐसे मौके पर उन्होंने पैदल चलना ही मुनासिब समझा और रास्ते भर ‘इनक्लाब जिन्दाबाद’‘किसान राज कायम हो जमींदारी प्रथा नाश हो’, आदि नारे लगाते रहे। प्रचार के लिए पैदल चलना बहुत अच्छा था। शायद हफ्ता भी न लगा होगा कि अमवारी के सत्याग्रह में राहुल के सिर फूटने की खबर हरेक गांव में पहुंच गई।31

बिहार के संदर्भ में किसान आंदोलन पर शोध-पत्र पढ़ते वक्त शायद स्वाभाविक रूप से मुनासिब जान पड़ने लगता है कि इसका स्वभाव क्या कोई आंचलिक महत्त्व का था या फिर इसका स्वरूप नितांत राष्ट्रीय था, इसकी जांच की जाये। कहना न होगा कि अंग्रेजी शासन के आरंभिक सौ वर्षों का जो किसान आंदोलन था, उसका स्वरूप बिल्कुल ही स्थानीय था32 क्योंकि राष्ट्रवाद की विचारधारा जैसी कोई अनुभूति इनके पास नहीं थी। लेकिन किसान आंदोलन का जो बाद का दौर है, विशेष रूप से कहें कि 30-40 का जो दशक है-उसमें राष्ट्रवाद की लहर इतनी तेज हो जाती है कि किसान नेता भी देश की आजादी महत्वपूर्ण मानते हैं और उसे अपना प्रथम लक्ष्य के रूप में निर्धारित करते हैं।33 राष्ट्रवाद की लहर ने बिहार में प्रांतीयतावाद की संभावना को ही एक तरह से नष्ट कर दिया। बिहार के बंगाल से अलग होने के जो अपने कारण रहे उनमें ‘बिहारी पहचान’ या फिर क्षेत्रीयतावाद अपने न्यूनतम अंशों में भी उपस्थित नहीं था। यही वह वजह है कि बिहार में उस दौर का जो किसान आंदोलन है उसका कोई क्षेत्रीय अथवा प्रान्तीय स्वरूप अभिलक्षित न हो सका बल्कि साम्राज्यवाद एवं राष्ट्रवाद के अंतर्विरोधों यथा सामंतवाद के खिलाफ मुस्तैदी से आगे बढ़ता रहा। न सिर्फ बिहार में बल्कि इस दौर में उड़ीसा में भी किसान संघ के तहत जो आंदोलन चल रहा था वह भी निश्चित रूप से इन्हीं दो मोर्चों पर अपनी नजरें टिकाये था,34 जो किसान आंदोलन के राष्ट्रीय स्वरूप से मेल खाता था।

कुछ इतिहासकार किसान आंदोलन को राष्ट्रवादी विचारधारा के एक पूरक आंदोलन के रूप में देखते हैं। बल्कि हमारा तो मानना है कि इस तरह के निष्कर्ष बेहद सरलीकरण के शिकार हैं। बिहार में किसान आंदोलन को समग्रता में देखने की बात हो तो पता चलेगा कि इसने कई दफा बुर्जुआ राष्ट्रवाद के अंतर्विरोधों के खिलाफ लड़ने की कोशिश की है, और उसे नंगा किया है। किसान आंदोलन की असफलता इस कारण से भी हुई कि इसने राष्ट्रवादी विचारधारा के साथ किसी तरह का कोई तालमेल बिठाने में अपने को असमर्थ साबित कर दिया।35 दूसरी ओर वे राष्ट्रवाद को मात नहीं दे सकते थे क्योंकि जमाने का सबसे प्रासंगिक और सबसे लुभावना नारा था। आजादी देश की जनता के लिए सबसे अहम सवाल बन चुकी थी। इसलिए अकारण नहीं है कि राष्ट्रवाद की जब अंधी लहर चली तो इसके सदस्य कमने लगे और अंततः आंदोलन असफलता के अंधेरे में बढ़ चला। लेकिन राहुल जी ने बिहार के किसानों में जो राष्ट्रीय चेतना जगायी एवं उसके संघर्ष को जो दिशा दी इतिहास इसके लिए उन्हें कभी नहीं भूलेगा।   
                                                                    
संदर्भ-सूचीः                                                                                                              

1. बिपन चंद्र, (संपादित) भारत का स्वतंत्रता संघर्ष, दिल्ली विश्वविद्यालय, पृष्ठ 332।
2. वही।
3. सुमित सरकार, माडर्न इंडिया, मैकमिलन, 1983, पृष्ठ 155।
4. जनसत्ता, 17 जुलाई 1985।
5. कृष्णचंद्र चौधरी, (संपादित) राहुल जी, पृष्ठ 5।
6. वही।
7. वही।
8. सुमित सरकार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 364।
9. कृष्णचंद्र चौधरी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 49।
10. बिपन चंद्र, अमलेश त्रिपाठी एवं वरुण डे, (संपा.) स्वतंत्रता संग्राम, एन. बी. टी., पृष्ट 46।
11. कृष्णचंद्र चौधरी, पूर्वोद्धृत, 52।
12. सुमित सरकार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 355।
13. कृष्णचंद्र चौधरी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 52।
14. वही।
15. वही।
16. वही।
17. वही, पृष्ठ 33।
18. बिपन चंद्र (संपा.) पूर्वोद्धृत, भूमिका से, पृष्ठ 12।
19. कृष्णचंद्र चौधरी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 30।
20. वही।
21. वही।
22. वही, पृष्ठ 52।
23. वही, पृष्ठ 39।
24. बिपन चंद्र, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 326।
25. स्वामी सहजानन्द सरस्वती, दि अदर साइड ऑफ दि शिल्ड, पृष्ठ 14।
26. के. सी. चौधरी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 47;  बिपन चंद्र, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 327।
27. बिपन चंद्र, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 327।
28. के. सी. चौधरी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 70।
29. वही।
30. सुमित सरकार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 350।
31. के. सी. चौधरी, पूर्वोद्धत, पृष्ठ 50।
32. संपादकत्रय, पूर्वोद्धत, पृष्ठ 41।
33. सोशल साइंटिस्ट, वॉल्यूम-20, अंक 5-6, मई-जून 1992, पृष्ठ 68।
34. वही, पृष्ठ 66।
35. बिपन चंद्र, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 333।                                                                                                             
प्रकाशनरीजन इन हिस्ट्री : पर्सपेक्टिवाइजिंग बिहार, (संपादित) रत्नेश्वर मिश्र, जानकी प्रकाशन, पटना, 2002।

Friday, September 24, 2010

नालंदा: एक नई दृष्टि

न सिर्फ बिहार और भारत बल्कि संपूर्ण विश्व के बौद्ध धर्म के इतिहास में नालंदा का अपना एक खास महत्व है। यह बिहारशरीफ से लगभग 7 मील दक्षिण-पश्चिम में है। उत्तर में इतनी ही दूरी राजगीर से है। इतिहासकार बुकानन ने इस ऐतिहासिक स्थल को सरकारी अधिकारियों के कार्यालय एवं उनके आवासीय गृह के रूप में देखा है। जैन एवं बौद्ध ग्रंथों में इसे बाहिरिका की संज्ञा दी गई है जिसका मतलब यह होता है कि यह राजगीर की बाहरी सीमा मे पड़ता था, तथा राजगीर की तुलना में कम महत्वपूर्ण भी था। इसका कारण यह था कि राजगीर उन दिनों धर्म एवं शासन का केन्द्र था जबकि नालंदा की शोहरत लगभग पूर्व मध्यकाल में एक प्रमुख शिक्षा केन्द्र के रूप में पूरी दुनिया में फैलती है।

प्रारंभिक बौद्ध साहित्य में नालंदा के लिए नल, नालक, नालकरग्राम आदि नाम आते हैं, और यहां बुद्ध के प्रमुख अनुयायी सारिपुत्त की जन्मभूमि होने का धुंधला साक्ष्य भी प्राप्त होता है। कहना न होगा कि इन नामवाले स्थलों की चर्चा महाकाव्यों एवं पुराणों में नहीं है, जबकि महाभारत  में राजगीर का उल्लेख अक्सर होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि नालंदा के अभ्युदय में राजगीर बाधा उपस्थित कर रहा था। चूंकि नालंदा, राजगीर से काफी सटा था, और राजगीर अपने विकास के चरमोत्कर्ष पर था, इसलिए उसके समानांतर नालंदा की अपनी कोई पहचान कायम न हो सकी। जैसे ही राजगीर का पतन प्रारंभ होता है, नालंदा की प्रगति शुरू हो जाती है। बहुत दिनों बाद तक, जबकि राजगीर की ख्याति धूल में मिल चुकी थी, नालंदा अपने पूरे यौवन में होता है। मौर्य वंश का महान शासक अशोक ने नालंदा में ऐ चैत्य एवं स्तूप निर्मित कराया था। तिब्बती इतिहासकार तारानाथ ने लिखा था, ‘महायान बौद्ध का प्रख्यात दार्शनिक नागार्जुन दूसरी शती में नालंदा का विद्यार्थी रहा था, तथा जिसे बाद में वहां का प्रधान भिक्खु भी नियुक्त किया गया था।’ खुदाइयों से हमें जो साक्ष्य प्राप्त हुए हैं, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि नालंदा, जो कि बाद में एक प्रमुख शिक्षा केन्द्र के रूप में पूरी दुनिया में मशहूर हुआ, की स्थापना पांचवीं शताब्दी में कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में हुई।

इतिहासकार दामोदर धर्मानंद  कोसांबी ने लिखा है कि नालंदा का अभ्युदय नाग-पूजा स्थलों से हुआ है। कभी-कभी विशेष अवसरों पर भिक्षुओं से भोजन प्राप्त करने के लिए आदिम नाग दयालु सर्प के रूप में प्रकट होता था। बौद्ध कथाओं में भी सर्पनाग के बारे में जानकारी मिलती है। बुद्ध ने आदिवासी नागों को अपने धर्म में दीक्षित किया था, विषैले सर्प को अधिकार में किया था। मुचलिंद नामक दैवी नाग ने प्रकृति के प्रकोप से उसकी रक्षा की थी, और वह अपने पूर्वजन्म में एक उभयरूप साहिवक नाग भी था। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि नालंदा का बौद्ध केन्द्र के रूप में विकास धीरे-धीरे तथा नाग कबीले के लोगों के व्यापक धर्मांतरण के कारण हुआ था। कृषि के व्यापक प्रसार के फलस्वरूप नाग जैसी आदिम कबीलाई जातियां समय के परिवर्तन से अपने को बचा नहीं सकीं।

नाग का दूसरा नाम तक्षक है जिसका शाब्दिक अर्थ बढ़ई लकड़ी का सामान बनाने वाला कलाकार  होता है। यह तक्षक एक बेहतर कलाकार था। तक्षशिला संकेत करता था। नाग जाति को आर्य संस्कृति की परिधि से बाहर रखा गया है । शाक्य, जिससे गौतम बु़द्ध का जन्म का संबंध है, का पड़ोसी कबीला कोलिया है। आर्य संस्कृति से प्रभावित दिखता है। शाक्य एवं कोलिया के बीच जल वितरण को लेकर एकबार झगड़ा हुआ था जिसमें शाक्यों ने युद्ध की अनार्य पद्धति  का सहारा लिया था। पालि ग्रंथों में जैसा कि इस बात का उल्लेख है, शाक्यों ने जल को विषैला बनाकर शत्रुओं को मारने के लिए अनार्य पद्धति अपनायी थी। महाभारत में नागों के रूप में चर्चित है। पांचाल  कन्या द्रौपदी की पाच पतियों के साथ शादी अनार्यों की सामान्य एवं सर्वेमान्य परंपरा को ही रेखांकित करती है। पांडवों की राजधानी हस्तिनापुर है। हस्तिनापुर नागों के शहर का पर्याय है। नाग शब्द का प्रयोग हाथियों के लिए भी किया जाता है क्योंकि उसकी सूड़ॅ ठीक सॉप की आकृति की होती है । श्रेष्ठ चरित्र वाले लोगों को भी नाग की संज्ञा से विभूषित किया जाता है। बौद्ध ग्रंथ  में अक्सर श्रेष्ठजनों को लाग कहकर पुकारा गया है । ग्यारहवीं शताब्दी के अभिलेखों  से इस बात का खुलासा होता है कि नाग कुल से सरोकार रखना राजाओं के लिए भी शान और मर्यादा की बात मानी जाती थी।

नाग जाति के संघर्ष में इन तथ्यों के अध्ययन से इस बात का स्पष्ट पता चल जाता है कि नालंदा में अनार्यों का वर्चस्व था और वे आर्य संस्कृति से अलग एवं उसके समानांतर नाग कबीलों की संस्कृति थी जिसका मूल आधार व्यापार एवं दस्तकारी था। वेदों की सत्ता के विरुद्ध वे जीवन की अनार्य धारणाओं में विश्वास रखते थे। आर्यों के विपरीत उनमें भौतिकवादी दर्शन - पद्धति  का ज्यादा विकास हो सका था। कला के क्षेत्र में उनकी दक्षता इस बात का पुष्ट प्रमाण है मगध क्षेत्र में बौद्ध धर्म के प्रचार का यह भी एक कारण था कि यहां की जनजातियों मे भौतिकवादी नजरिये का विकास हो चुका था। कहना न होगा कि मगध प्राचीन काल में अतिवादी भौतिकवाद का गढ़ रहा है। आर्य संस्कृति के संपर्क में आने से, इनके जीवन के तौर -तरीकों  से नाग जातियां  प्रभावित हुई । नालंदा के बारे में कोसाम्बी की यह धारणा कि उसका विकास नाग-पूजा स्थलों से हुआ है, सही  प्रतीत होता है। कहा जा सकता है कि नालंदा का बौद्ध धर्म के केन्द्र के रूप में उभार आर्य एवं अनार्य जातियों के बीच सम्मिलन एवं आत्मसातीकरण की चलने वाली लंबी प्रक्रिया का फल है। यही कारण है कि नालंदा को अपनी ऐतिहासिक भूमिका पूरी करने में अच्छा खासा समय का इंतजार करना पड़ा । बौद्ध धर्म ने अनार्य जातियों को प्रभावित करने में अच्छा समय लिया।

गुप्तकाल से नालंदा की ख्याति शुरू होती है। ह्वेनसांग  ने लिखा है कि शक्रादित्य नामक शासक ने बहुत ही उपयुक्त जगह चुनकर संघाराम बनवाया था। उसकी देखा देखी अनेक शासकों ने नालंदा की समृद्धि में अपना योगदान दिया। हर्षवर्द्धन के शासनकाल में नालंदा अपने विकास की ऊंचाई  प्राप्त कर चुका था। ह्वेनसांग ने लिखा है कि हर्षवर्धन ने लगभग 100 ग्राम नालंदा के बौद्ध विहारों तथा भिक्षुओं के भरण-पोषण के लिए दान दिया था। ह्वेनसांग जिन दिनों नालंदा की यात्रा पर थे, उन्हीं दिनों हर्षवर्द्धन ने नालंदा में पीतल का संघाराम बनवाने का काम शुरू किया था। बौद्ध धर्म-शिक्षा के केन्द्र के रूप में उदित होकर नालंदा ने महत् सेवा की है। बौद्ध संघाराम इतने सुनियोजित तरीके से बनाये गये थे कि हर्षवर्द्धन के शासनकाल में जो राजनीतिक उठा-पटक हुई उसका इस पर असर लगभग न के बराबर देखने को मिलता है। एक दूसरा चीनी यात्री इत्सिंग जो 673 ई. के आसपास भारत आया, नालंदा में रहकर बौद्ध धर्म से संबंधित पुस्तकों का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया। इत्सिंग के काल में नालंदा के भिक्षुओं के भरण-पोषण के लिए लगभग 200 ग्राम थे।

8वीं से 12वीं शताब्दी तक पाल शासकों ने जिनका बंगाल एवं बिहार पर समान रूप से शासन था-नालंदा को काफी हद तक समृद्ध किया । इन शासकों में देवपाल ,महापाल प्रथम एवं गोपाल द्वितीय के नाम प्रमुख हैं। देवपाल के शासनकाल में नालंदा ने कुछ विदेशी शासकों का भी ध्यान अपनी तरफ आकृष्ट किया। देवपाल द्वितीय ने विक्रमशिला  में दूसरा बिहार बनवाकर अप्रत्यक्ष रूप से नालंदा की छवि को थोड़ा धूमिल किया। लेकिन नालंदा की प्रसिद्धि पर इसका कोई बुरा असर नहीं देखा गया। भारत में, जबकि अधिकतर जगहों पर बौद्ध धर्म लुप्त प्राय हो रहा था, नालंदा की समृद्धि लगातार बढ़ती ही जा रही थी। इसी समृद्धि ने बाद में नालंदा के अस्तित्व के लिए खतरा भी उपस्थित किया।

विभिन्न शासकों द्वारा नालंदा को जो भूमिदान दिए गए उसने ऐसी प्रक्रिया को जन्म दिया जिसके फलस्वरूप् नालंदा का विकास यूरोप के मध्यकालीन मठों की तर्ज पर हुआ। यहां के बौद्ध भिक्षु स्वयं खेती न करके दूसरे किसानों को जमीन सौंप देते थे। उपलब्ध साक्ष्यों से इस बात का स्पष्टीकरण अभी तक नहीं हो पाया है कि नालंदा के भिक्षु हल-बैल रखते थे या नहीं। ऐसा प्रतीत होता है कि किसानों को सारी भूमि सौंपकर उपज का छठा भाग वसूल कर लेते थे। उपज का छठा भाग लेने की राजकीय परंपरा का निर्वाह बौद्ध भिक्षु भी कर रहे थे। राज्य को इन्हें कोई कर देना नहीं पड़ता था। इस प्रकार बौद्ध विहारों एवं मठों को भूमिदान देने की परंपरा ने अर्थव्यवस्था के सामंती ढांचे को मजबूत किया। इन बौद्ध विहारों में अत्यधिक धन एकत्रित हो जाने से विदेशी आक्रमणकारियों का ध्यान इसकी तरफ आकर्षित हुआ।

चीनी यात्री ह्वेनसांग संस्कृत और भारतीय बौद्ध धर्म का विशिष्ट अध्ययन करने के लिए 630 ई. के तुरंत बाद नालंदा विहार के विद्यापीठ में पहुंचा। सम्मानित विदेशी विद्वान होने के नाते नालंदा विहार के प्रमुख आचार्य शीलभद्र ने उसका स्वागत किया। एक चीनी जीवनीकार ने ह्वेनसांग के बारे में लिखा है, ‘उन्हें राजा बालादित्य के प्रकोष्ठ में बुद्धभद्र के भवन की चौथी मंजिल पर ठहराया गया। सात दिन तक अतिथि सत्कार करने के बाद धर्मपाल बोधिसत्व के भवन के उत्तर में एक अतिथि गृह में उन्हें जगह दी गई। एक सेवक, एक ब्राह्मण उनकी परिचर्या के लिए नियुक्त था। विहार के सामान्य कार्य से उन्हें छूट मिली हुई थी; और बाहर निकलने पर सवारी के रूप् में उन्हें हाथी मिलता था। नालंदा विद्यापीठ में कुल मिलाकर दस हजार आतिथेय व अतिथि भिक्षुक थे, पर केवल दस व्यक्तियों को ही, जिनमें ह्वेनसांग भी एक थे, ये सुविधाएं प्राप्त थीं।’

स्वयं नालंदा विहार के बारे में जीवनीकार ने लिखा है, ‘ एक बाद एक छह राजाओं ने छह विहार बनवाये। फिर ईंटों का एक बाड़ा बनाया गया। इस प्रकार सभी भवनों को मिलाकर एक बड़ा विहार बन गया, जिसमें सबके लिए एक प्रवेश द्वार था। उद्यानों में नीले रंग की धाराएं बहती थीं, चंदन के वृक्षों की बहार के बीच हरे कमल चमकते थे, भारत में हजारों विहार हैं पर वैभव व भव्यता में नालंदा बेजोड़ हैं। यहां के भिक्षु  महायान और हीनयान की 18 शाखाओं के सिद्धांतों का अध्ययन करते थे। वे व्याकरण, चिकित्साशास्त्र, गणितशास्त्र आदि का भी  अध्ययन करते थे । निर्वाह के लिए राजा की ओर से उन्हें 100 ग्रामों का राजस्व मिला हुआ था और प्रत्येक गॉव में उन्हें प्रतिदिन कई सौंतान् चावल धी और दूध लाकर देते थे। इसी अनुदान के कारण वे विद्या के क्षेत्र में आगे बढ़ गये है।’’

नालंदा के ध्वंसावशेषों से भी सिद्ध होता है कि इस विवरण में कोई अतिशयोक्ति नहीं है, यद्यपि पुरातत्ववेता अभी एक भी विहार के क्रमिक विकास का सुनिश्चित ब्योरा नहीं प्रस्तुत कर पाये हैं। स्पष्टतः यह बौद्ध धर्म से कोसों दूर था जिसका ईसा पूर्व छठी शताब्दी में इसके संस्थापक ने मगध में  प्रतिपादन किया था। ऐसे तपस्वी भिक्षु अभी भी थे जो नंगे पैर यात्रा करते, खुले में सोते, बचे-खुचे अन्न की भिक्षा ग्रहण करके उदर निर्वाह करते और लोकभाषा में ग्रामवासियों या आटविकों को उपदेश देते। परंतु इनके संख्या और प्रतिष्ठा कम थी। भिक्षु के लिए निर्धारित चीथड़ों से सिले हुए वस्त्रों के स्थान पर अब कीमती केसरिया रंग में रंगे बढिया सूती कपड़े, उत्तम ऊन अथवा विदेशी रेशमी के सुरुचिपूर्ण वस्त्रों का इस्तेमाल होता है। लगता है कि यदि स्वयं बुद्ध जो अपनी अंतिम पार्थिव यात्रा के दौरान नालंदा ग्राम से गुजरे थे इस भव्य संस्थान में जो उनके नाम पर चलता था, पहुचते तो उनकी खिल्ली उड़ायी जाती और उन्हें निकाल दिया जाता। बुद्ध ने ऐसे चमत्कारों की हंसी उड़ायी थी, पर अब ये उस धर्म के अभिन्न अंग बन गये थे और बुद्ध के अलौकिक चमत्कारों की कथाएं भी फैल चुकी थीं।  

प्रकाशन: बिहार: स्थानीय इतिहास एवं परंपराजानकी प्रकाशन, पटना 1998, पृष्ठ 102-06।