Monday, October 4, 2010

निबंध, ललित निबंध


निबंध1 आधुनिक साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण विधा है। जीवन ज्यों-ज्यो जटिल, मशीनी, तर्कप्रधान और बौद्धिक होता जा रहा है, बहुत-सी भावात्मक विधाएँ अपना महत्त्व खोती जा रही हैं। कई को आधुनिक युग के अनुरूप अपने आत्मा और कलेवर में ऐसा परिवर्तन करना पड़ रहा है कि उन्हें पहचानना तक मुश्किल हो गया है। कविता के साथ ऐसा ही हुआ है। इसी प्रसंग में यह गद्य युग है’-जैसे वाक्यों का औचित्य कुछ-न-कुछ स्वीकार करना पड़ता है। अलगाव, बौद्धिकता और टूटते हुए मूल्यों के संक्रमण-काल में जो विधा सबसे अधिक उपयुक्त, सक्षम और अर्थ-संवहन के योग्य प्रमाणित हो रही है, वह निस्संदेह निबंध है।

निबंध शब्द स्वदेशी है। प्रयोग की दृष्टि से पुराना भी। संस्कृत निबंध का शाब्दिक अर्थ बाँधनाया सँवारकर सीनाहै।2 प्राचीनकाल में हस्तलिखित ग्रंथों के बाँधने या सीने के प्रसंग में इस शब्द ने रूप ग्रहण किया। जाहिर है कि इस शब्द में शुरू-शुरू में साहित्य-विधात्मक अर्थ सन्निहित नहीं था। संभवतः वासवदत्ता 3 में पहली बार इस शब्द का ऐसा प्रयोग मिलता है जिसमें काव्य विधा का कुछ-कुछ संकेत है। बाद में इस शब्द का प्रयोग व्याख्याओं क संग्रह के लिए किया जाने लगा। व्याख्याएं पूर्णतः सूत्र में बंधी होती थीं। यानी पूर्णतः सूत्रानुसारी सूत्र-निबद्ध। नितरां बद्ध। संस्कृत में ग्यारहवीं शती में लिखी गयी टीकाओं के लिए प्रयुक्त निबंध शब्द आज की एक गद्य विधा के लिए प्रयुक्त निबंध शब्द से पूर्णतः भिन्न नहीं तो काफी भिन्न अवश्य है।4 हालांकि कुछ विद्वान इसे प्रबंधकहना ज्यादा तर्कसंगत मानते हैं। हिन्दी शब्द-सागर ने इस शब्द का अर्थ वह व्याख्यामाना है जिसमें अनेक मतों का संग्रह हो5

वस्तुतः हिन्दी में प्रयुक्त निबंध शब्द अंग्रेजी एसेका समानार्थी है। एसे’6 शब्द का अर्थ होता है मुक्त, स्वच्छंद। डा. सैमुअल जॉनसन ने एसेकी परिभाषा यों की है-मस्तिष्क का शिथिल प्रक्षेपण। अनियमित, अपरिचित चीज। नियमबद्ध और क्रमबद्ध क्रिया नहीं।’7 इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में एडमंड गॉस ने लिखा-साहित्य विधा के रूप मे निबंध सामान्य आकार की प्रायः गद्य में लिखी वह रचना है जिसमें विषय के बाह्य रूपों का सहज चालू ढंग से वर्णन कर दिया जाता है बल्कि यों कहें कि सिर्फ उस विषय का जो लेखक को प्रभावित करता है।’8 जाहिर है कि एसेका जोर मुक्तता, सहजता और स्वच्छन्दता पर है। कहां नितरां बद्धऔर कहां मुक्त और स्वच्छन्द!

पश्चिमी एसेके पितामह माइकेल द मान्तेन ने अपने एसाइको मात्र प्रयत्नकहा। उसने मुख्यतया अपनी आत्माभिव्यक्तिको रेखांकित कियाः इनके माध्यम से मैं अपने सच्चे, सहज, सामान्य तरीके से अपने को प्रकट करना चाहता हूं बिना किसी उद्येश्य, कला या अध्ययन की बाध्यता के, क्योंकि यहां मैं सिर्फ अपनी आकृति उरेह रहा हूं।’9 पुरानी अंग्रेजी में पुरानी फ्रेंच से अनूदित ये पंक्तियां इस बात की सबूत हैं कि सोलहवीं शताब्दी के मान्तेन ने एसेनामक एक नयी विधा को जन्म इसलिए दिया कि वह इसके द्वारा  सिर्फ अपने मैंको उपस्थित करना चाहता था। मान्तेन ने ऐसे निबंधों को आत्मा के संवाहन का प्रयत्न कहाहै। उन्होंने निबंध को आत्मा का संवाहन कहकर उसकी आत्मनिष्ठता को आत्मकथा की कोटि में ला दिया है। इस प्रकार मान्तेन के अनुसार निबंध का उद्येश्य केवल आत्मनिवेदन है। इस आत्मनिवेदन की प्रक्रिया में कोई-न-कोई मनःस्थिति काम करती है। उसी मनःस्थिति के अनुरूप निबंध व्यंग्यपूर्ण, विनोदात्मक अथवा गंभीर हो जाता है। यह मैंवैसे तो साहित्य की दूसरी विधाओं में भी कुछ-न-कुछ लुकाछिपी का खेल खेलता है; पर एसेमें उसकी आंखमिचौनी नहीं चलती, यहां वह खुलकर खेलता है, क्योंकि वह अपनी रूप रचनागत क्षेत्रीयता के कारण यही उसकी क्रीड़ा का एकमात्र उपयुक्त क्षेत्र बन जाता है।10 

कहना न होगा कि अंग्रेजी के समर्थ आलोचक और निबंधकार जॉनसन ने निबंध को जब मन का एक हठात् अस्तव्यस्त आक्रमणतथा एक अव्यवस्थित अधपका संदर्भकहा तो, मान्तेन ही की दार्शनिक परंपरा को आगे बढ़ाया। निबंध में आत्मचिंतन की प्रधानता होती है, आदर्श वा संदेश का आग्रह नहीं। इसी तत्त्व को ध्यान में रखकर किसी ने निबंध को भोजनोपरांत का स्वगतऔर किसी ने निबंधकार को आरामकुर्सी में पौढ़ा हुआ दार्शनिककहा है। थैकरे ने इस प्रकार के निबंध को चक्करदार लेखकहा है क्योंकि वह वर्ण्य-विषय को केंद्र में रखकर विशेष मनोदशा में स्थित व्यक्तित्व के सहारे विषय के चारों ओर दूर-दूर चक्कर काटता रहता है। निबंधकार रोजर बेकन के बिखरे चिन्तनको इसी मानी में समझा जा सकता है। निबंध की विशेषता उसके वर्ण्य-विषय में नहीं, क्योंकि कोई भी विषय उसके लिए पर्याप्त होगा, वरन लेखक के व्यक्तित्व-आकर्षण में है या प्रीस्टले के शब्दों में निबंधकार का विषय होता ही नहीं, संसार में जितने भी विषय संभव हैं सभी उसके बन्दे हैं। इसका साधारण कारण यह है कि लेखक का काम अपनी या अपने एवं विषय के संबंधों की अभिव्यक्ति करना है। वह निबंध के एक-एक मुहावरे को व्यक्तित्व में पगा देखता है।11

आत्मनिवेदन की यह भावना, अंतर्मुखी प्रवृत्ति, मनःस्थिति की प्रधानता निबंध को गीतिकाव्यके निकट ला देती है। इसलिए निबंध को गद्यगीतभी कहा गया है। स्मिथ ने निबंध के गीतिसाम्य पर विचार करते हुए लिखा है कि साहित्य-रूप के विचार से निबंध गीतिकाव्य से मिलता-जुलता है, उस हद तक जिस हद तक वह किसी केंद्रीय मनःस्थिति-प्रक्षेप, गंभीर अथवा व्यंग्यपूर्ण-से उत्प्रेरित रहता है। मनःस्थिति को रूप दीजिए और निबंध प्रथम वाक्य से अंतिम तक उसके चतुर्दिक उठ खड़ा होगा, जैसे रेशम के कीड़े के चारों ओर रेशम उगता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आधुनिक निबंध की पाश्चात्य व्याख्या पर विचार करते हुए हिन्दी साहित्य का इतिहास में लिखा है कि आधुनिक पाश्चात्य लक्षणों के अनुसार निबंध उसी को कहना चाहिए जिसमें व्यक्तित्व अर्थात व्यक्तिगत विशेषता हो।’12

किन्तु एसाइके जन्म का उद्येश्य जो भी रहा हो, बौद्धिक सिर्फ अपने मैंको अभिव्यक्त करने की बाध्यता को अवर कोटि का उद्येश्य मानकर मैंकी पूर्णतः अवहेलना करके मात्र विषय को दृष्टि में रखकर निबंध के अंदर ब्रह्मांड को उतारने का प्रयत्न भी अरसे से करते आ रहे हैं, इसलिए यदि ऐसे निबंध अपेक्षाकृत अधिक संख्या में लिखे गये और लिखे जाते हैं, जिनमें दुनिया का सब कुछ होता है, सिर्फ मैंनहीं तो, उसमें आश्चर्य क्या! मैंकी सीमा पर खड़ा होकर यदि सर्वेक्षण करें तो मालूम होगा कि निबंध को मोटे तौर से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-विषयी प्रधान, मैं प्रधान या व्यक्तिगत एवं विषय प्रधान, इदम्-प्रधान या वस्तुगत।

दूसरे वर्ग में वे सभी निबंध परिगृहीत किये जा सकते हैं जिसमें लेखक वस्तुपरक दृष्टि से किसी भी विषय पर क्रमबद्ध विवेचन उपस्थित करता है। शोधात्मक लेख, आलोचनाएं, सम्पादकीय, ऐतिहासिक जीवनियां, पुस्तक समीक्षाएं, वैज्ञानिक लेख सभी इस वर्ग में आते हैं। इस वर्ग के निबंधों की विशेषता उनकी वैचारिक समृद्धि, सुसंबद्धता और विवेचन की सांगोपांगता होती है न कि लेखकीय व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति अथवा माध्यम की कलात्मकता। साहित्य में ऐसे निबंधों का भी बहुत महत्त्व होता है किन्तु निबंध विधा की सार्थकता और कलात्मक पूर्णता तो प्रथम वर्ग के आत्मपरक निबंधों पर ही आधारित है, इसमें सन्देह नहीं।  

व्यक्तिगत13 या आत्मपरक निबंधों के भी अनेक भेद होते हैं। शुद्ध आत्मपरक निबंध स्वभावतः ही व्यक्तिव्यंजक होता है। ऐसे निबंधों में वस्तु का नहीं लेखक के व्यक्तित्व का महत्त्व होता है। लेखक की अपनी रुचि, प्रतिक्रियाएं, अनुभूतियां, धारणाएं ऐसे निबंधों में खुलकर व्यक्त होती हैं। यहां आत्माभिव्यक्ति ही मुख्य ध्येय होती है और स्वच्छंद अभिव्यक्ति प्रवाह उसका माध्यम। सुप्रसिद्ध निबंधकार और आलोचक अलेक्जेंडर स्मिथ ने ऑन द राइटिंग ऑव एसेज में इसी बात की व्याख्या करते हुए लिखा-निबंधकार अपने विषय के साथ मनोविनोद करता हुआ चलता है। कभी उसकी मनःस्थिति गंभीर होती है, कभी जिद्दी, कभी उदास। जै क्यू की तरह वह घास भरे किनारे पर लेटा रहता है और जगत की दरिया नीचे से गुजरती चली जाती है और अगल-बगल की वस्तुओं और दृश्यों से वह अपनी रुचि के अनुसार उल्लास और धारणाएं प्राप्त कर लेता है। उसका सबसे बड़ा संबल है उसकी वह दृष्टि जो सामान्य-से-सामान्य वस्तुओं से सांकेतिक अर्थ और अपदार्थ-से-अपदार्थ पुस्तकों से नीति भरे वाक्य ढूंढ़ लेती है।

यानी व्यक्तिव्यंजक निबंध लेखक के व्यक्तित्व का पारदर्शी आइना हेता है। व्यक्तित्व रूप, रंग, वेशभूषा या अन्य बाह्य उपादानों का समुच्चय नहीं होता बल्कि प्रत्येक व्यक्ति की एक मानस-आकृति होती है जो अतीत और भविष्य के संधिस्थल पर नाना प्रकार के सामाजिक-सांस्कृतिक और भौतिक आध्यात्मिक दबावों के कारण निर्मित होती है, एक सजीव ईथरिक चेतना, जो सामान्य से सामान्य बाहय कर्मों और क्रियाकलापों तक को अपनी चैतन्य शक्ति से निरंतर प्रभावित करती रहती है। इसी कारण व्यक्तिव्यंजक निबंध लेखक के व्यक्तित्व के सच्चे अभिसाक्ष्य होते हैं। निबंधकार अपना फोटोग्राफर स्वयं हैजैसाकि ओरलो विलियम्स कहता है-निबंध लेखक अपनी वैयक्तिकता की समूची विचित्रताओं को चित्रित करने के लिए अपनी लेखनी को स्वच्छन्द छोड़ देता है।

इसे किसी भी प्रकार का दंभ नहीं मानना चाहिए। अपने बारे में, या अपने व्यक्तित्व के बारे में इतनी सजगता कभी-कभी पाठकों को अहम्मन्यता-सी लग सकती है। अलेक्जेंडर स्मिथ ने इसी का उत्तर देते हुए कहा था-अपने आत्मके बारे में बातें करना कोई जरूरी नहीं कि अहंकार ही मान लिया जाय। एक सही, सामान्य और सच्चा इंसान दुनिया की तमाम बातों की अपेक्षा अपने बारे में कहीं ज्यादा ईमानदारी से कुछ कह सकता है, इसीलिए कम-से-कम ईमानदार बातें जानने की दृष्टि से, पाठक निबंधकार से बहुत कुछ उपलब्ध भी कर सकता है।’14

क्या पूर्णसिंह के निबन्धों में एक जीवन्त सदाचारपूर्ण उच्च विचार और सादे रहन-सहन के गृहस्थचिन्तक के दर्शन नहीं होते? क्या रामचन्द्र शुक्ल के साथ बैठने पर साहित्य जगत की बारीकियों से जूझनेवाले एक खांटी आचार्य का भारी-भरकम गंभीर व्यक्तित्व अपनी छाप नहीं छोड़ता। क्या हजारीप्रसाद द्विवेदी का व्यक्तित्व अपनी आत्मीयता के द्वारा अतीत और भविष्य के बीच एक विश्वसनीय सेतु नहीं बनता ? उसी प्रकार क्या महादेवी की सरल गंभीरता, शियारामशरण की निश्छल मानवीयता, माचवे, हरिशंकर परसाई, के चुभते हुए व्यंग्य, विद्यानिवास मिश्र, भारती और कुबेरनाथ राय के सांस्कृतिक भावजगत की रसमयता पाठकों को आकृष्ट नहीं करती ? यद्यपि ये सभी-के-सभी शुद्ध व्यक्तिव्यंजक निबंधकार नहीं हैं; पर इनकी रचनाओं में इनका अलग-अलग व्यक्तित्व पूरी तरह प्रस्फुटित होता है, इसमें संदेह नहीं।15
                                                                                                             
व्यक्तिव्यंजक निबंधकार बड़े महत्व के गुरु-गंभीर विषय नहीं चुनता। अति समान्य दैनंदिन जीवन के बीच से वह कोई भी विषय चुन लेता है। उसकी सिद्धि इस बात में है कि वह अति सामान्य-से-सामान्य विषय के माध्यम से ही अपने व्यक्तित्व के भीतर से ऐसे दृष्टिकोण उभार देता है कि पाठक को अनायास लगता है कि बातें तो सब जानी-पहिचानी ही हैं; पर उसने इन पर इस ढंग से नहीं सोचा था। यही मौलिकता की एकमात्र परख है।जैसाकि विलियम हेजलिट, ने लिखा है कि-निबंधकार का कार्य यह दिखाना नहीं जो कभी हुआ नहीं, न तो उसका प्रस्तुतीकरण जिसका हमने सपना भी नहीं देखा बल्कि वह दिखाना जो रोज हमारी आंखों के आगे से गुजरता है और जिसके बारे में हम ख्याल भी नहीं कर सकते, क्योंकि हमारे पास वह अंतर्ज्ञान नहीं होता या बुद्धि की वह पकड़ नहीं होती जो इन्हें संभाल सके।’16

व्यक्तिव्यंजक निबंधकार अपनी रचनाओं में अपनी विशिष्ट, व्यक्तिगत रुचि (कभी-कभी जिद की हद तक) को महत्व देता है। वह हास्यविनोद, व्यंग्य, हल्की चुटकियों को अपना शस्त्र मानता है। किंतु उसका व्यंग्य-विनोद कभी अभद्रता को प्रश्रय नहीं देता। वह अपने और पाठक के बीच एक परस्परस्पर्धि विश्वसनीयता और निकटता हमेशा कायम रखता है। हेरल्ड जी मरियम ने शिप्ले साहित्यकोष में निबंधों की विशेषता बताते हुए लिखा है-व्यक्तिव्यंजक निबंधों में व्यक्तिगत अनुभूतियों की उतनी ही प्रधानता होती है जितनी तथ्यात्मक ज्ञान की, किंतु उसका लक्ष्य सही निष्कर्षों, रुचि और मौलिकता की अभिव्यक्ति पर केंद्रित होता है।रुचि और मौलिकता का आग्रह और पदार्थों को नितांत व्यक्तिगत दृष्टि से देखने की प्रवृत्ति ललित निबंधों को लघुकथा या कहानी के निकट ले जाती है। सन् 1950 के आसपास से हिंदी में जिस नयी कहानी का जन्म हुआ, उसने पुराने किस्सागो ढंग के ढांचों को तोड़ दिया। उन दिनों दादी मां,’ ‘गुलरा के बाबा’, ‘देउदादा,’ ‘देवा की मांजैसी रेखाचित्रात्मक संस्मरण-बहुल बहुत-सी कहानियां लिखी गयीं। आलोचकों ने इन ताजी कहानियों की सराहना तो की; पर इस आरोप के साथ कि ये कहानियां नहीं रेखाचित्र हैं।  

इस तरह की स्थिति का मूल रहस्य क्या है ? वस्तुतः ललित निबंध और कहानी के बीच कलेवर और अभिव्यक्ति के कौशलों की इतनी समानता है कि दोनों को अलगाना बहुत सूक्ष्म विश्लेषण की दरकार रखता है । दोनों ही विधाओं की निकटता को क्रिस्टोफर मॉर्ले ने सीमासंधि कहकर व्यक्त किया है। अपनी पुस्तक मॉडर्न एसे की भूमिका में उन्होंने लिखा-निबंध कोई विधा नहीं, सिर्फ मनःस्थिति है। निबंध और कहानी के बीच की सीमा अविभाज्य और अविश्लेष्य है। मैपन और डिक्सन सीमारेखा की तरह। सच तो यह है कि इन दोनों राज्यों की सीमा के परे वाले हिस्सों में कुछ ऐसे उर्वर भूमिखंड हैं जिनमें समान भाव से गद्यकथा की बेहतरीन उपज होती है; जिनमें अनुभव, चरित्र और वातावरण की प्रधानता है, कथावस्तु और कार्य की नहीं। ये कथात्मक फल निबंधकार की मनःस्थिति की धूप में निरंतर पकते रहे हैं।

इतना होते हुए भी कहानी और ललित निबंधों के बीच की एकरूपता कितनी भ्रामक है। निबंधकार अपनी मनःस्थिति के अनुसार जहां चाहे वहीं विरम रहने की स्वतंत्रता का नाजायज फायदा उठा सकता है; पर कहानीकार को एक बार चरित्रों और घटनाओं के बीच तालमेल बैठाकर यात्रा शुरू करने पर मंजिल तक पहुंचना ही होगा। वह कहानी को निरुद्येश्य भटकने के लिए नहीं छोड़ सकता। उसे बीच में रुकने की फुर्सत नहीं होती। निबंधकार पर ऐसा कोई बंधन नहीं होता, वह अपने ठहराव का भी एक क्षणिक उद्येश्य खोज लेने के लिए स्वतंत्र होता है।17

और फिर दोनों के ट्रीटमेंटया तरीके में भी कितना अंतर होता है ? कहानीकार को पाठक सुनता है, निबंधकार के साथ वार्तालाप करता है। कहानीकार के सामने पाठक अदृश्य होता है, निबंधकार के लिए हमेशा सामने बैठा हुआ। कहानी ही की तरह गीत की विधा भी निबंध के बहुत नजदीक पड़ती है। अभिव्यक्ति की अन्विति और एकाग्रता की दृष्टि से ही। वैसे गीत को छन्दों का बंधन काफी तीव्र और गत्वर बनाये रहता है। कहना न होगा कि वस्तु और ट्रीटमेंटकी दृष्टि से निबंध कई-कई रूप ग्रहण करता है। व्यक्ति या प्राकृतिक दृश्य के अंतःबाहय को चित्रांकित करने के प्रयत्न में वह रेखाचित्र बनता है। जिस तरह चित्रकला में रेखाचित्र कम से कम रेखाओं के द्वारा व्यक्ति या पदार्थ के आंतरिक छंद को अभिव्यक्त करने का कौशल है, उसी प्रकार निबंधों के क्षेत्र में भी। अंतर सिर्फ यह है कि एक में साधन और माध्यम रेखाएं होती हैं दूसरे में शब्द। इसीलिए बहुत-से लोग इसे शब्दचित्र कहना ज्यादा सही मानते हैं। हिंदी में महादेवी वर्मा के रेखाचित्रों में चित्रकार की दक्षता और निबंधकार की मनःस्थिति का बहुत ही सुंदर समन्वय दिखाई पड़ता है। जिस तरह रेखाचित्र, चित्रकला जगत का शब्द है उसी प्रकार रिपोर्ताज पत्रकारिता जगत का। पत्रकार की रिपोर्ट और साहित्यकार के रिपोर्ताज के बीच के फ्रंटियर्सभी अविभाज्य ही हैं।18 

संस्मरण ललित निबंध का एक बहुत ही लोकप्रिय प्रकार है। बीते काल और घटना को बार-बार दुहराकर न सिर्फ मनुष्य संतोष पाता है बल्कि वह अपने वातावरण में घटित समसामयिकता की अतीत के चित्रों से तुलना करके अपने को जांचता-बदलता भी रहता है। संस्मरणात्मक निबंध मुख्यतया महान व्यक्तियों की सन्निधि में अपने को तथा समाज को रखकर देखने की नयी दृष्टि देते हैं।

संसार की हर बात और सब बातों से संबद्ध है। अपने मानसिक संघटन के अनुसार किसी का मन किसी संबंधसूत्र पर दौड़ता है, किसी का किसी पर। ये संबंधसूत्र एक दूसरे से नथे हुए, पत्तों की नसों के समान चारों ओर एक जाल के रूप में फैले हैं। तत्त्वचिंतक या दार्शनिक केवल अपने व्यापक सिद्धांतों के प्रतिपादन के लिये उपयोगी कुछ संबंधसूत्रों को पकड़कर किसी ओर सीधा चलता है और बीच के ब्यौरे में कहीं नहीं फंसता। निबंध लेखक अपने मन की प्रकृति के अनुसार स्वच्छंद गति से इधर उधर फूटी हुई सूत्रशाखाओं पर विचरता चलता है। यही उसकी अर्थसंबंधी व्यक्तिगत विषेशता है। अर्थसंबंधसूत्र की टेढ़ी टेढ़ी रेखाएं ही भिन्न भिन्न लेखकों का दृष्टिपथ निर्दिष्ट करती हैं। एक ही बात को लेकर किसी का मन किसी संबंधसूत्र पर दौड़ता है, किसी का किसी पर। इसी का नाम है एक ही बात को भिन्न-भिन्न दृष्टियों से देखना। व्यक्तिगत विशषता का मूल आधार यही है।19   

तत्वचिंतक या वैज्ञानिक से निबंधलेखक की भिन्नता इस बात से भी है कि निबंधलेखक जिधर चलता है उधर अपनी संपूर्ण मानसिक सत्ता के साथ अर्थात बुद्धि और भावात्मक हृदय दोनों लिए हुए। जो करुण प्रकृति हैं उनका मन किसी बात को लेकर, अर्थ संबंध सूत्र पकड़े हुए, करुण स्थलों की ओर झुकता है और गंभीर वेदना का अनुभव करता चलता है। जो विनोदशील हैं उनकी दृष्टि उसी बात को लेकर ऐसे पक्षों की ओर दौड़ती है जिन्हें सामने पाकर कोई हंसे बिना नहीं रह सकता है। इसी प्रकार कुछ बातों के संबंध में लोगों की बंधी हुई धारणाओं के विपरीत चलने में जिस लेखक को आनंद मिलेगा वह उन बातों के ऐसे पक्षों पर वैचित्र्य के साथ विचरेगा जो उन धारणाओं को व्यर्थ या अपूर्ण सिद्ध करते दिखाई देंगे। उदाहरण के लिये आलसियों और लोभियों को लीजिए, जिन्हें दुनिया बुरी कहती चली आ रही है। कोई लेखक अपने निबंध में उनके अनेक गुणों को विनोदपूर्वक सामने रखता हुआ उनकी प्रशंसा का वैचित्र्यपूर्ण आनंद ले और दे सकता है। इसी प्रकार वस्तु के नाना सूक्ष्म ब्यौरों पर दृष्टि गड़ानेवाला लेखक किसी छोटी से छोटी तुच्छ से तुच्छ बात को गंभीर विषय का रूप देकर, पांडित्यपूर्ण भाषा की पूरी नकल करता हुआ सामने रख सकता है। पर सब अवस्थाओं में कोई बात अवश्य चाहिए।20    

संदर्भ एवं टिप्पणियां:

1. नासिक गुहा लेख में वर्णन मिलता है कि दान की घोषणा कर तथा लेखन कार्य संपन्न होने के पश्चात् ताम्रपत्र (फलक) को निगम सभा को रजिस्ट्री (निबंध) कर वहीं कार्यालय (फलकवार) में सुरक्षित रखा जाता था ताकि भविष्य में उसी लिखित नियम का पालन हो सके। उल्लेख पठनीय हैः-एत च सर्वं स्रावित निगम सभाय निबंध च फलकवारे चरित्रतोति। भूयोनेन दत्तं वसे 40 जोड़ 1 कार्तिक शूधेपनरसपुवाक वसे 40 जोड़ 5 स्रावितं...फलकवारे चरित्रतो ति। (एपिग्राफिका इण्डिका, भाग 8, पृष्ठ 82)। दान लिखकर राजकीय कार्यालय (फलकवार) में सुरक्षित रखा जाता था यानी रजिस्ट्री (निबंध) किया जाता था। देखें, डा. वासुदेव उपाध्याय, प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, प्रज्ञा प्रकाशन, पटना, पृष्ठ 213.
2. निबध्यतेऽनेनास्मिन्वा (अमरकोष 1.7.7)
3. ‘प्रत्यक्षरष्लेशमयप्रबन्धविन्यास वैदग्ध्यनिधिर्निबंधं चक्रे’ (वासवदत्ता-5)
4. डा. शिवप्रसाद सिंह (संपादक) हिन्दी निबन्ध, हिन्दी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, तृतीय संस्करण, 1983, पृष्ठ-2.                               
5. केसरी कुमार (संपादक) ललित निबंध, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, छठा संस्करण, 1977, पृष्ठ-152.
6. अंग्रेजी का एसे शब्द फ्रेंच एसाइ से बना है। एसाइ का अर्थ होता है- 'to attempt' अर्थात् प्रयास करना। निबंध में निबंधकार अपने सहज, स्वाभाविक रूप को पाठक के सामने प्रकट करता है। आत्मप्रकाशन ही निबंध का प्रथम और अंतिम लक्ष्य है। देखें, डा. वासुदेवनंदन प्रसाद, आधुनिक हिन्दी व्याकरण और रचना, भारती भवन, पुनरीक्षित सोलहवां संस्करण, 1983, पृष्ठ 315
7- A loose sally of the mind, an irregular, undigested piece, not a regular and orderly              
   Performance.
8- As a form of literature, the essay is a composition, which deals in a easy, cursory way
   With the external condition of a subject and in strictness, with that subject as it affects
  the writer.
9- I desire their in to be delineated in mine own genuine simple and ordinary fashion, without contention, art, or study, for it is myself I portray.     
10. डा. शिवप्रसाद सिंह, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-3।  
11. केसरी कुमार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-154
12. ‘व्यक्तिगत विशेषता का यह मतलब नहीं कि उसके प्रदर्शन के लिये विचारों की शृंखला रखी ही न जाय या जान बूझकर जगह-जगह से तोड़ दी जाय, भावों की विचित्रता दिखाने के लिये ऐसी अर्थयोजना की जाय जो उनकी अनुभूति के प्रकृत या लोकसामान्य स्वरूप से कोई संबंध ही न रखे अथवा भाषा से सरकसवालों की सी कसरतें या हठयोगियों के से आसन कराए जायँ जिनका लक्ष्य तमासा दिखाने के सिवा और कुछ न हो।देखें, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, पेपरबैक संस्मरण, प्रथम, संवत् 2058, पृष्ठ-276.
13. मराठी में व्यक्तिगत निबंधके लिए ललित निबंधका प्रयोग चल पड़ा है। प्रो. फड़के का नवें लेंणे ऐसे ही ललित निबंधोंका प्रसिद्ध संग्रह है। देखें, केसरी कुमार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-152.
14. प्रेम जनमेजय, ‘हिंदी व्यंग्य की यात्रा-कथा’, नवनीत, मार्च, 2009, पृष्ठ-11.
15. हडसन, ऐन आउटलाइन हिस्ट्री ऑफ इंग्लिश लिटरेचर, प्रथम भारतीय संस्करण, बी आई पब्लिकेशंस, नयी दिल्ली, 1961, पुनर्मुद्रण, 1989, पृष्ठ-208, 213-14.
16. डा. नगेन्द्र (संपादक), हिंदी साहित्य का इतिहास, मयूर पेपरबैक्स, चौंतीसवां संस्करण, नोएडा, 2007, पृष्ठ-606.
17. शिवप्रसाद सिंह, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-4.
18. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-276.
19. वही।
20. रामविलास शर्मा, भारतेंदु-युग और हिन्दी भाषा की विकास-परंपरा, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 1975, नयी दिल्ली, पृष्ठ-70.

Sunday, October 3, 2010

औपनिवेशिक बिहार में बाल-शिक्षा एवं बाल-पत्रकारिता

उन्नीसवीं शती के अंतिम दशकों में बिहार के पत्रकारिता जगत में कई मासिक एवं साप्ताहिक पत्र-पत्रिकाओं का उदय हुआ। यह बिहार में नवजागरण का दौर था। किंतु यह कहना मुश्किल है कि नवजागरण पहले शुरू हुआ या पत्रकारिता पहले शुरू हुई। शिक्षा के क्षेत्र में सुधार अथवा प्रगति के बगैर किसी नवजागरण की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए सामान्य अखबारों के साथ ही साथ कुछ ऐसे भी पत्र प्रारंभ हुए जो शिक्षा, एवं विशेष रूप से बाल-शिक्षा को समर्पित थे।

खड्गविलास प्रेस, पटना ने सन् 1880 ई. में पटना कॉलेजिएट स्कूल के शिक्षक पंडित बद्रीनाथ1 के संपादन में ‘विद्या-विनोद’ 2 नामक मासिक 3 पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया, जिसे महज दो साल4 का जीवन प्राप्त था। कहना न होगा कि इसमें बालोपयोगी सामग्री ही छपा करती थी। साहित्यिक पुरुषों की जीवनी, हिंदुस्तान का इतिहास, चुटकुले, जीवन, स्वास्थ्य तथा नीतिपरक कहानियां इसमें धारावाहिक रूप से छपती थीं। इसमें खण्डशः पुस्तकें भी छपा करती थीं। श्रीसीतारामशरण भगवानप्रसाद रूपकलाजी-विरचित ‘पीपाजी की कथा’ सर्वप्रथम इसी में मुद्रित हुई थी।5   बिहार की हिंदी पत्रकारिता में इसका सर्वोपरि योगदान था क्योंकि बालोपयोगी अथवा बाल-पत्रकारिता की नींव इसी ने रखी थी जो ‘किशोर’, ‘छात्रबंधु’  और ‘बालक’  जैसी लोकप्रिय पत्रिकाओं के लिए प्रेरणाप्रद रही। उस समय तक बिहार से प्रकाशित होनेवाली कोई ऐसी पत्रिका न थी जो विद्यार्थियों के हित एवं उसके सिलेबस के अनुकूल पाठ्य-सामग्री प्रस्तुत करती थी। शायद इसी कारण से तत्कालीन सरकार के शिक्षा-विभाग द्वारा इसे बिहार के पुस्तकालयों एवं विद्यालयों के लिए स्वीकृति प्रदान की गई थी।6

शुरुआत खड्गविलास प्रेस, पटना से हुई। यह पूर्ण रूप से शिक्षा को समर्पित पत्रिका थी। यह शिक्षा-संबंधी समाचारों-इतिहास, वास्तु-क्रिया और नीति विषयक टिप्पणियों से युक्त होकर छपती थी। आरंभ में यह बालोपयोगी ही रही किंतु कुछेक अंकों के बाद इसका स्तरोन्नयन हो गया और ऊंची कक्षा के विद्यार्थियों के लिए सामग्री प्रकाशित होने लगी। लगभग चालीस वर्षों तक प्रकाशित होनेवाली यह एक दीर्घजीवी पत्रिका थी जिसके संपादकों के इतिहास में सकल नारायण शर्मा, ईश्वरी प्रसाद शर्मा, प्रो. अक्षयवट मिश्र और प्रो. थिकेट का नाम जुड़ा है। दुर्गाप्रसाद त्रिपाठी के संपादन-काल में इसने लोकप्रियता व विशिष्टता हासिल की।9   त्रिपाठी जी सन् 1921 से 29 ई. तक साप्ताहिक ‘शिक्षा’ के सहकारी संपादक एवं सन् 29 से 38 तक प्रधान संपादक रहे।10   इसकी प्रसार-संख्या भी अच्छी खासी थी। बिहार के अनेक डिस्ट्रिक्ट बोर्डों के प्रारंभिक एवं मध्य विद्यालयों में इसकी आपूर्ति की जाती थी।11

सन् 1921 ई. में तत्कालीन हिंदी के बहुचर्चित लेखक ईश्वरी प्रसाद शर्मा ने आरा से ‘मनोरंजन’ नामक मासिक की शुरुआत की। यद्यपि यह पत्रिका अपने मिजाज में साहित्यिक थी किंतु शिक्षा संबंधी सामग्री की वजह से शीघ्र ही छात्रों के बीच लोकप्रिय हो चली।12    इस पत्रिका ने भी महज तीन वर्ष के अल्पकाल का जीवन प्राप्त किया था।13

विद्यार्थियों एवं किशोरों को प्रेरणास्पद एवं ज्ञानवर्धक पाठ्य-सामग्री प्रदान करनेवाला मासिक ‘किशोर’ हिंदी जगत में अपने ढंग का अकेला पत्र था। यदि ऐसा कहा जाये कि वह होनहार किशोरों को स्वस्थ विचार एवं स्फूर्ति तथा महापुरुषों के जीवन की शिक्षाप्रद घटनाओं से परिचित कराकर बहुज्ञ बनाने का एक भरोसे का गाईड था तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। अप्रैल 1938 में प्रवेशांक में संपादक ने इसके उद्येश्यों पर प्रकाश डालते हुए लिखा था, ‘जैसे टेढ़े-मेढ़े बांस को अपनी इच्छानुसार झुकाकर हम सीधा कर लेते हैं, वैसे ही किशोरों को भी बनाया जा सकता है। उपजाऊ जमीन में डाला हुआ बीज जैसे सुफल फलता है, वैसे ही किशोर भी हमारी चेष्टाओं से सुफल देनेवाले हो सकते हैं।’14

‘किशोर’ का प्रकाशन शिक्षा समिति के द्वारा पंडित रामदहिन मिश्र के नेतृत्व में प्रारंभ हुआ। यह ‘मासिक’ बारह वर्षों तक अबाध प्रकाशित होता रहा। उक्त मासिक जब प्रकाशित हुआ तो चारों ओर से उसके स्तर, विचार और संपादक की लगन की प्रशंसा होने लगी। बिहार में शिक्षा विभाग के प्रथम डायरेक्टर एच. आर. बायोजा ने लिखा था ‘किशोर के प्रकाशन का विचार उत्तम है। मैं इसका स्वागत करता हूं और इससे संबंधित महत्त्व का प्रशंसक हूं। अपने ढंग की यह अकेली पत्रिका भारत के भावी नागरिकों को मानसिक दृष्टि से स्वस्थ, सभ्य और सुसंस्कृत बनाने में मदद करेगी।’15    ‘जनता’ के संपादक रामवृक्ष बेनीपुरी की इसके बारे में सम्मति थी-‘तीन-चार महीनों में ही किशोरों के इस सचित्र मासिक ने हिन्दी के बाल साहित्य में अपने लिए गर्व और गौरव का स्थान बना लिया है। बाल शिक्षा समिति और ग्रंथमाला कार्यालय के संस्थापक और संपादक रामदहिन मिश्र प्रांत के उन कर्मठ व्यक्तियों में हैं जिन्होंने अपनी छोटी पूंजी और कांड़े की कलम से हिन्दी की सेवा शुरू की और कुछ ही दिनों में काफी पैसे और प्रसिद्धि प्राप्त कर ली। पंडित जी ने अपनी इस चतुर्थावस्था में अपनी प्रतिभा और अपने पैसे का सदुपयोग किशोरों के लिए करना शुरू किया है जो सर्वथा समुचित है। किशोर को पंडित जी ने बिल्कुल समयोपयोगी और युग के अनुकूल बनाया है। चित्रों की छपाई और अच्छी सज्जा से इसका महत्त्व और बढ़ गया है। हम बिहार सरकार से अपील करते हैं कि इसे पाठशालाओं और पुस्तकालयों के लिए स्वीकार ही नहीं करे, अच्छी संख्या में खरीदकर वितरण भी करे।’16  

लेकिन संपादक की कुछ अपनी व्यावहारिक परेशानियां थीं। उन्होंने बड़े ही दुखी मन से लिखा था ‘हजारों रुपये विज्ञापन में खर्च करने के बावजूद परिमित ग्राहक हुए हैं, वे भी बिहार के बाहर के ही हैं।’17   सन् 1952 ई. में रामदहिन मिश्र के निधनोपरांत नये संपादक रघुवंश पांडेय के कार्यकाल में यह दो-तीन अंकों तक प्रकाशित हुआ पर उसके बाद बंद हो गया।18    इसके कई अंक जैसे ‘उपकथांक’, ‘रवीन्द्र-अंक’, ‘विक्रमांक’ और ‘कालिदासांक’ बड़े महत्त्वपूर्ण हुए।19

बच्चों की एक और सचित्र 20 मासिक पत्रिका ‘पुस्तक भंडार’ के मालिक रामलोचन शरण द्वारा सन् 1925 ई. में दरभंगा के लहेरियासराय से शुरू की गई।21    बाद में इसका प्रकाशन पटना से होने लगा।22   प्रारंभ में इसके संपादक श्री रामवृक्ष बेनीपुरी जी थे। बाद के दिनों में इसके संपादन का दायित्व बाबू शिवपूजन सहाय ने निबाहा।23    इस पत्रिका का संपादन शिव जी काफी श्रम और मनोयोग से करते।24    ‘बालक’ ने स्वस्थ, सुरुचिपूर्ण एवं ज्ञानवर्धक बाल सामग्री की प्रस्तुति में जो प्रतिमान उपस्थित किया उससे प्रेरित होकर जयनाथ मिश्र का मासिक ‘चुन्नू-मुन्नू ' (सन् 1950 ई., अजंता प्रेस), मोहनलाल बिश्नोई का ‘मुन्ना-मुन्नी' (1953 ई.) एवं  ‘उत्तर बिहार’ के संस्थापकों द्वारा ‘नन्हे मुन्ने’ प्रकाशित किये गए । इसी क्रम में सन् 1954 ई. में प्रकाशित हरनारायण प्रसाद सक्सेना का मासिक ‘बालगोपाल’ भी उल्लेखनीय है। ये सभी पत्रिकाएं बाल पत्रकारिता की दिशा में सुनहरे आर्थिक भविष्य की तलाश के क्रम में प्रकाशित हुई थीं। लेकिन ‘बालक’ की ख्याति उन्हें न मिली और न वैसा व्यवसाय ही। कहना प्रासंगिक  होगा कि सन् 1969 ई. में ‘बालक’ की प्रसार संख्या 22,000 थी।25   किसी भी साप्ताहिक या मासिक में सबसे ज्यादा इसी की बिक्री थी।26   हां, इनसे बिहार में सुरुचिपूर्ण बाल पत्रकारिता को बढ़ावा मिला। इन्होंने परियों की कहानियां, जानवरों का जीवन, कविताएं, चुटकुले, कार्टून, पौराणिक कथाएं तथा बच्चों के मन को भानेवाले लुभावने एवं आकर्षक चित्रों को छापकर बच्चों के मानसिक तथा बौद्धिक विकास में सहयोग किया। इनका महत्तम योगदान यह है कि इनसे बच्चों में साहित्यिक रुचि का विकास हुआ, उनकी भाषा-शक्ति बढ़ी, उनकी रुचियों का परिष्कार हुआ तथा उनके कोमल एवं भावुक मन में वैज्ञानिक ज्ञान की आशातीत वृद्धि हुई।

‘छात्रबंधु’ का प्रकाशन सन् 1958 ई. में प्रारंभ हुआ। यह छात्रों के चरित्र-निर्माण और मानसिक विकास का प्रयास करनेवाला सचित्र हिंदी मासिक था। इसका प्रवेशांक जनवरी 1958 ई. में प्रवीण चंद्र सिंह के संपादन में निकला था। यह इतिहास, विज्ञान, सामयिक घटनाओं, भाषा-विज्ञान तथा अनुसंधान और नैतिकता से संबद्ध लेख प्रकाशित कर छात्रों को राष्ट्र का उत्तरदायित्वपूर्ण नागरिक बनाने की दिशा में प्रयत्नशील था। 

बाल-शिक्षा की समस्याओं को अन्य पत्रिकाओं ने भी काफी शिद्दत के साथ उठाया। रमेश प्रसाद, जिन्होंने ‘रमेश प्रिंटिंग वर्क्स’27  और ‘रमेश मैनुफैक्चरिंग’ की स्थापना की, के लेख को मासिक ‘चांद’ ने चाव से छापा। यह लेख तत्कालीन दोषपूर्ण शिक्षण-पद्धति पर करारा प्रहार था। उन्होंने लिखा था, ‘इस देश की शिक्षण-पद्धति उन्नतिशील देशों की शिक्षा-पद्धति से सर्वथा भिन्न है। यहां के विद्यार्थी जिस विषय को सीखने से दिल चुराते हैं उसे छड़ी के हाथ सिखलाया जाता है। किन्तु, पाश्चात्य देशों में प्रत्येक विषय इस प्रकार मनोरंजक ढंग से विद्यार्थियों के सामने रक्खे जाते हैं कि उसे बालक खेल ही समझकर सीख लेते हैं। व्याकरण ही को लीजिए। व्याकरण का हर एक नियम रटने के लिए यहां बाधित किये जाते हैं। किन्तु, पाश्चात्य देशों में इन्हें खेल ही द्वारा समझाया और सिखाया जाता है। ...एक श्रेणी के बालकों का नाम जैसे बालक आसानी से स्मरण कर लेते हैं, उसी प्रकार व्याकरण के उन नामों को भी वे बात की बात में याद कर लेते हैं। बालकों में कोई-कोई मास्टरनाउन (छवनद) बनता है, कोई मास्टरवर्ब, कोई मास्टरसेण्टेन्स और कोई मास्टरफ्रेज या क्लाज कहिए, व्याकरण सिखाने की अभिनव प्रथा कैसी है ?

भारतवर्ष की शिक्षा-पद्धति बालकों के लिए भारस्वरूप है, किन्तु अन्य देशों की शिक्षा-पद्धति वहां के विद्यार्थियों के लिए मनोरत्र्जन। इस देश की शिक्षा की बागडोर जिन लोगों के हाथ में है, क्या वे न्यूयार्क के ‘फॉरेस्ट-हिल्स’ स्कूल से सबक सीखेंगे?’28

बिहार में उर्दू पत्रकारिता की हिंदी एवं अंग्रेजी की तुलना में पुरानी एवं समृद्ध परंपरा रही है। सन् 1872 ई. में हिंदी समाचार-पत्र बिहार बंधु के प्रकाशन के पहले सारे अखबार प्रायः उर्दू ही में प्रकाशित हुआ करते थे। उर्दू का अल पंच 29 अखबार शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण काम कर रहा था। इसके संपादक मौलवी सैयद रहीमुद्दीन थे। अल-पंच अखबार ने ऊंची कक्षाओं में मुस्लिम छात्रों की घटती संख्या के कारणों की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित किया। इसने लिखा कि स्कूलों में ऊपर की कक्षाओं में देय फीस की रकम बढ़ जाती है, इसलिए अधिकतर बच्चे स्कूल छोड़ने को बाध्य हो जाते हैं।30    इस अखबार ने मुस्लिम छात्रों के बीच धार्मिक शिक्षा के घोर अभाव 31 की भी बात कही।

संदर्भ एवं टिप्पणियां :

1. एन कुमार, जर्नलिज्म इन बिहार , गवर्नमेंट ऑफ बिहार, 1971, पृष्ठ-65. पटना म्यूनिसिपल शताब्दी स्मारिका के पृष्ठ-61 पर संपादक के रूप में चंडी प्रसाद का नाम अंकित है. देखें, एन कुमार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-65 की पाद-टिप्पणी। ‘हरिऔध अभिनन्दन-ग्रन्थ’, पृष्ठ-538 पर जैसाकि लिखा है-‘बालोपयोगी पत्र ‘‘विद्याविनोद’’ के संपादक बाबू साहब प्रसाद सिंह के सहोदर भाई बाबू चण्डीप्रसाद सिंह थे।’ ‘इस उल्लेख से विदित होता है कि आप (बदरीनाथ) ‘‘विद्याविनोद’’ के आरंभिक वर्ष में कुछ दिन उसके संपादक थे।’ देखें, हिंदी-साहित्य और बिहार, पृष्ठ 137, पाद टिप्पणी-4.
2. विद्या विनोद के विषय में तारणपुर (पटना) के श्रीपारसनाथ सिंह जी ने 19 अक्तूबर, 1960 ई. के अपने पत्र द्वारा राष्ट्रभाषा परिषद् को सूचित किया कि यह एक प्रकार का संकलन है, जो 26 भागों में है। किन्तु बाबू शिवनन्दन सहाय इसे एक पत्र बतलाते हैं। देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार, चतुर्थ खंड, पृष्ठ 173, पाद टिप्पणी संख्या -1.
और देखें, शिवेंद्र नारायण, कांग्रेस अभिज्ञान ग्रंथ , जनवरी 1962, पृष्ठ-171.
3. कहना न होगा कि डा. कृष्णानंद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक बिहार की हिंदी पत्रकारिता , प्रवाल प्रकाशन, प्रथम संस्करण 1996, पृष्ठ-50 पर इसे ‘वार्षिक’ बताया है जबकि उसी पुस्तक में पृष्ठ-219 पर ‘प्रकाशित पत्रों की नामानुक्रमणिका’ में ‘मासिक’ प्रकाशित है।
4 ‘…but this too had a short career of only two years’.  एन कुमार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-65. जबकि डा. कृष्णानंद द्विवेदी ने लिखा है कि ‘1912 ई. तक इसके कुल अठारह अंक निकले।’ बिहार की हिंदी पत्रकारिता , पृष्ठ-50. बाबू शिवनन्दन सहाय ने लिखा है, ‘12 वर्ष से विद्या विनोद पत्र का यही (बाबू चण्डीप्रसाद सिंह) संपादन करते हैं। विद्या विनोद  स्कूल के छात्रों के लिए एक बड़ा ही उपयोगी पत्र है। शिक्षा विभाग के माननीय प्रधान से अनुमोदित होकर एवं अनेक लोकल और डिस्ट्रिक्ट बोर्डों से स्वीकृत होकर यह पत्र 12 वर्षों से प्रकाशित हुआ करता है और अपने ढंग का निराला पत्र है।’ देखिए, बाबू साहिबप्रसाद सिंह की जीवनी , पृष्ठ 60 और 61.
5. हरिऔध अभिनन्दन-ग्रन्थ , पृष्ठ 538. और देखें, हिंदी साहित्य और बिहार , द्वितीय खण्ड, पृष्ठ 137, पाद टिप्पणी -4.
6. डा. कृष्णानंद द्विवेदी, पूर्वोद्धृत , पृष्ठ 50.
7. डा. विजय चन्द्र प्रसाद चौधरी, ‘स्रोत-चयन में पूर्वाग्रह: पत्रकारिता की प्रासंगिकता’, इतिहास का मुक्ति-संघर्ष : स्वार्थ से यथार्थ तक, (संपादक) अमरेन्द्र कुमार ठाकुर, राहुल प्रेस, पटना 1991, पृष्ठ 64. डा. कृष्णानंद द्विवेदी ने बिहार की हिंदी पत्रकारिता , पृष्ठ 51 में प्रकाशन-वर्ष 1897 दिया है जो भ्रामक है।
8. एन. कुमार. ने लिखा है- ‘The Khadagvilas Press started a weekly (emphasis mine) called the Shiksha, mainly devoted to educational matters. It was edited by Mahamahopadhyaya Pandit Sakal Narayan Sharma of Arrha, and later by Durga Prasad Tripathi. After a career of about 40 years it ceased publication sometime near about 1940. देखें, जर्नलिज्म इन बिहार, पृष्ठ 65. डा. रामविलास शर्मा ने भी इसकी साप्ताहिक  के रूप में ही चर्चा की है। देखें, निराला की साहित्य साधना -3, पृष्ठ 396, किन्तु डा. कृष्णानंद द्विवेदी ने इसे आरंभिक दिनों में ‘मासिक’ बताया है। देखें बिहार की हिंदी पत्रकारिता , पृष्ठ-51.
9. डा. कृष्णानंद द्विवेदी, बिहार की हिंदी पत्रकारिता , प्रवाल प्रकाशन, पटना, प्रथम संस्करण 1996, पृष्ठ-50.   
10. हिन्दी-साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ 210.
11. एन. कुमार, जर्नलिज्म इन बिहार, पृष्ठ 65, पाद टिप्पणी
12. वही, पृष्ठ 66.
13. वही।
14. किशोर, प्रवेशांक, अप्रैल 1938, पृष्ठ 5.
15. किशोर, वर्ष 1, अंक 3, जून 1938, पृष्ठ 46.
16. किशोर, वर्ष 1, अंक 6, अक्तूबर 1938, पृष्ठ-48.
17. किशोर, अगस्त 1938, पृष्ठ-46.
18. कृष्णानंद द्विवेदी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-94.
19. हिन्दी-साहित्य और बिहार, तृतीय खंड, पृष्ठ 474.
20. आचार्य शिवपूजन सहाय ने निराला को पत्र (16. 2. 28) लिखने के लिए अपने जिस पैड का इस्तेमाल किया है, उस पर ‘बालक’ सचित्र मासिक छपा है। देखें, रामविलास शर्मा, निराला की साहित्य साधना, भाग 3, पृष्ठ 12.
21. एन. कुमार, जर्नलिज्म इन बिहार, पृष्ठ-76.
22. वही।
23. 'बेनीपुरी ने ‘बालक’ और लहेरियासराय को छोड़ दिया। अब शिवपूजन जी एकच्छत्र सम्राट हैं।' देखें, शांतिप्रिय द्विवेदी का निराला को लिखा पत्र (11. 6. 1928), निराला की साहित्य साधना, भाग 3, पृष्ठ 137-38 में उद्धृत।
24. 'शिव जी (शिवपूजन सहाय) को अपने कार्य से छुट्टी नहीं मिलती, वह ‘बालक’ में ही व्यस्त रहते हैं।' देखें, विनोदशंकर व्यास का निराला को लिखा पत्र (15. 7. 27), निराला की साहित्य साधना, भाग 3, पृष्ठ138 में उद्धृत।
25. यह आंकड़ा प्रेस इन इंडिया (1968-69), मिनिस्ट्री ऑफ इनफॉर्मेशन एंड ब्रॉडकास्टिंग, गवर्नमेंट ऑफ इंडिया, नई दिल्ली से लिया गया है।
26. एन. कुमार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 106.
27. ‘रमेश प्रिंटिंग प्रेस’ से पंडित कृपानाथ मिश्र लिखित ‘प्यास’ और श्री केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’-लिखित ‘ज्वाला’ नामक पुस्तकें प्रकाशित हुई थीं। इस प्रेस के द्वारा हिन्दी-प्रचार विशयक और भी कई महत्त्वपूर्ण कार्य हुए थे। देखें, हिन्दी-साहित्य और बिहार, तृतीय खंड, पृष्ठ-417. 
28. देखें, चांद, मासिक, वर्ष 6, खंड 2, संख्या 3, जुलाई, सन् 1929 ई., पृष्ठ-313. और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार, तृतीय खंड, पृष्ठ-419.
29. इस अखबार का नाम अल-पंच  लंदन से प्रकाशित पंच  के नाम से प्रेरित होकर रखा गया था। हिंदी में हिंदू-पंच  शायद इसी से प्रेरणा पाकर शुरू किया गया हो। अल-पंच  शुरू में पटना से प्रकाशित होता था, बाद में यह अस्थावां (बिहार शरीफ) से छपने लगा। देखें, डा. जटाशंकर झा, आस्पेक्ट्स ऑफ द हिस्ट्री ऑफ मॉडर्न बिहार, काशी प्रसाद जायसवाल शोध-संस्थान, पटना 1988, पृष्ठ 75, पाद टिप्पणी-2.
30. अल-पंच, 27 अगस्त 1886.
31. अल-पंच, 12 जुलाई 1894.                                  

Friday, October 1, 2010

औपनिवेशिक बिहार में बाल-शिक्षा एवं साहित्य

सरकार की ओर से जब पहले-पहल बिहार में शिक्षा प्रसार की व्यवस्था हुई तब सन् 1875 ई. में पंडित भूदेव मुखोपाध्याय1 (1825-1894 ई.) ‘इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्स’ नियुक्त किये गये, जिन्होंने  स्वयं हिन्दी में कई पाठ्य-पुस्तकें लिखीं। उनके नेतृत्व में कई हिन्दी लेखकों ने पाठ्य-पुस्तकें तैयार कीं। आप ही के निर्देशन में हिंदी का शब्दकोष, हिंदी व्याकरण एवं भूगोल, इतिहास, अंकगणित, ज्यामिति जैसे विषयों की पाठ्य-पुस्तकें तैयार की गईं। और जो उन्हीं के द्वारा स्थापित बोधोदय प्रेस में कैथी-लिपि में छपीं। उक्त बोधोदय प्रेस जब खड्गविलास प्रेस का नाम धारण करके बाबू रामदीन सिंह के अधिकार में (सन् 1880 ई. में) आया, तब कैथी-लिपि नामशेष हुई और नागरी-लिपि में हिन्दी-प्रचार बड़े वेग से होने लगा।2   यह बात भी उल्लेखनीय है कि बिहार पहला राज्य था जहां हिंदी को सरकारी काम-काज की भाषा की मान्यता प्रदान की गई थी। बाबू रामदीन सिंह ने भी अपने इस प्रेस द्वारा पाठ्य-पुस्तकों के अभावों को बहुत हद तक दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने खुद पाठ्य-पुस्तकें तैयार कीं और कुछ अपने तथा तथा कुछ दूसरों के नाम से प्रकाशित किया।3 बाबू शिवनंदन सहाय ने लिखा है, ‘शिक्षा विभाग में उनका बड़ा मान था। डायरेक्टर तथा उनके सब कर्मचारी इनसे प्रेम रखते थे और इनका आदर करते थे। जब किंडर गार्टन की पढ़ाई प्रचलित हुई, तब उसी समय उन्होंने किंडर गार्टन की कई पुस्तकें लिखकर तैयार कर दीं।’4

कहना न होगा कि कैथी-लिपि का प्रचलन बन्द कराके देवनागरी को लोकप्रिय बनाने में भूदेव मुखोपाध्याय की महती भूमिका रही थी। इस कार्य से बिहार के लोग इनसे काफी प्रसन्न हुए। इनकी प्रशंसा में कई गीत भी बनाये गये, जिनमें पंडित अम्बिकादत्त व्यास ने भी दो गीत लिखे।5   यह भी स्मरणीय है कि खड्गविलास प्रेस खुलवाने में भूदेव मुखोपाध्याय का काफी सहयोग था।6

भूदेव मुखोपाध्याय का दृढ़ विश्वास था कि बिहार की उन्नति हिन्दी से ही संभव है। पंडित रामगति न्यायरत्न को भेजे एक पत्र 7 में आपने स्पष्ट लिखा था, ‘(बिहार में) मेरे आने के पहले जातीय भाषा (हिन्दी) के स्कूलों की बहुत बुरी हालत थी; कोई उनका आदर नहीं करता था। मैंने आकर उन उपेक्षित स्कूलों पर ध्यान दिया और उनकी उन्नति की। अब यहाँ हिन्दी के स्कूलों की संख्या पहले से दस गुनी हो गई है। सन् 1839 ई. में बंगाल से फारसी के दफ्तर उठ गये और सच पूछो तो तभी से बंगाल की उन्नति हुई; क्योंकि  तभी से वंग भाषा की श्रीवृद्धि का सूत्रपात हुआ। हिन्दी के प्रचार से क्या बिहार की वही दशा न होगी ? क्यों न होगी ? मुझे आशा है कि बंगाल में जितनी उन्नति 40 वर्षों में हुई है उतनी बिहार में 15-16 वर्ष के भीतर ही हो जायेगी। मैं अपने तुच्छ जीवन के छोटे-छोटे कामों में इस काम को बड़े महत्त्व की दृष्टि से देखता हूँ।’ हिन्दी की स्थिति को लेकर उनके मन में कोई भ्रम या द्वंद्व न था। अपनी एक पुस्तक में उन्होंने अत्यंत स्पष्ट शब्दों में लिखा है-‘भारत में जितनी भाषाएँ प्रचलित हैं, उनमें हिन्दी ही सबसे प्रधान भाषा है। वह पहले के मुसलमान-बादशाहों और कवियों की कृपा से एक प्रकार देश भर में व्याप्त हो रही है। इसलिए अनुमान किया जा सकता है कि उसी के सहारे किसी समय सारे भारत की भाषा एक हो जायेगी। भारत में अधिकांश लोग हिन्दी में बातचीत कर सकते हैं। इसलिए भारतवासियों की बैठक में अँगरेजी, फारसी का व्यवहार न होकर हिन्दी में बातचीत होनी चाहिए। साधारण पत्र-व्यवहार भी हिन्दी ही में होना चाहिए। हमारे पड़ोसी या इष्ट-मित्र-चाहे वे मुसलमान, कृस्तान, बौद्ध आदि कोई भी हों-सब सहज में हिन्दी समझ सकते हैं।’8 साथ ही उनका यह विश्वास भी काफी गहरा था कि विदेशी व्यक्तियों के जीवन-चरित पढ़ने से भारतीय बालकों की शिक्षा के एक अंग की विशेष क्षति होती है। अतएव आपने ‘चरिताष्टक’, ‘नीतिपथ’, ‘रामचरित’ आदि कई हिन्दी-पुस्तकें लिखवाईं। हिन्दी में ‘गया का भूगोल’ भी आपने अपने प्रोत्साहन से लिखवाया।

भूदेव मुखोपाध्याय के भाषा-संबंधी जो विचार हैं, ठीक उसी तरह के विचार इंग्लैंड के भाषाविद् एवं भारत-प्रेमी फ्रेडरिक पिन्काट के भी हैं। पिन्काट हिन्दी-प्रेमियों को सलाह देते लिखते हैं-‘देखो अस्सी बरस हुए बंगाली भाषा निरी अपभ्रंश भाषा थी। पहले पहल थोड़ी थोड़ी संस्कृत बातें उसमें मिली थीं। परंतु अब क्रम करके संवारने से निपट अच्छी भाषा हो गई। इसी तरह चाहिए कि इन दिनों में पंडित लोग हिंदी भाषा में थोड़ी थोड़ी संस्कृत बातें मिलावें।’

उस समय की पाठ्य-पुस्तकों से असंतुष्ट होकर भूदेव मुखोपाध्याय ने शिक्षा विभाग के डायरेक्टर के पास रिपोर्ट की कि पाठ्य-पुस्तकों में पूर्ण सुधार होना चाहिए। उत्तर में कहा गया कि ‘अच्छी पुस्तकें कहाँ से आवेंगी।’ इस पर आपने लिखा कि ‘हिन्दी एक जीवित भाषा है-इसकी मृत्यु कभी हो ही नहीं सकती-इसका भार हम पर छोड़ दिया जाये-हम हिन्दी के प्रचार का पूरा प्रबंध कर देंगे और प्रांजल भाषा में पाठ्य-पुस्तकें तैयार करा लेंगे।’9   कुछ दकियानूसी लोगों के द्वारा विरोध किये जाने पर आपने दो टूक कहा, ‘बिहारी हिन्दू बालक अपनी मातृभाषा हिन्दी, धर्म की भाषा संस्कृत और राजा की भाषा अँगरेजी सीखें और मुसलमान के लड़के प्रचलित भाषा हिन्दी, धर्म की भाषा अरबी और राजा की भाषा अँगरेजी सीखें। यही उचित होगा।’10

अब लोगों के सम्मुख हिंदी में पाठ्य-पुस्तक रचने की समस्या आन खड़ी हुई। इसके लिए उत्साही बुद्धिजीवियों की एक फौज ने युद्ध-स्तर पर काम करना प्रारंभ कर दिया। हरनाथ प्रसाद खत्री (1831-1910) ने भी हिन्दी में अनेक पुस्तकें तैयार की थीं, जिनमें अधिकतर बालोपयोगी ही कही जा सकती हैं। उनमें सर्वप्रमुख है-‘व्याकरण वाटिका’। कुल दो सौ पृष्ठों की इस पुस्तक में हिन्दी व्याकरण की सभी आवश्यक बातों का उल्लेख है। सन् 1915 ई. में बिहार और उड़ीसा के शिक्षा-विभाग द्वारा हाई स्कूलों के लिए यह स्वीकृत हुई थी। तब से बीस-पच्चीस वर्षों  तक स्कूलों में इसका खूब प्रचार रहा। इसका पहला प्रकाशन सन् 1905 ई. के लगभग मैथिल-प्रिंटिंग-वर्क्स (मधुबनी) से हुआ था जबकि सन् 1915 में इसका तीसरा संस्करण निकाला गया।11   इनकी दूसरी महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘गुरुभक्ति-दर्पण’  है। महज 18 पृष्ठों की इस पुस्तिका के पूर्वार्द्ध में ‘गुरु माहात्म्य’ है, जिसमें कबीर, तुलसी आदि संत कवियों के गुरु-महिमा संबंधी दोहे हैं। इसका उत्तरार्द्ध ‘शिष्य-विनय’ है, जिसमें गुरु-वन्दना विषयक आपके स्वरचित सवैया, छप्पै, कुण्डलियाँ , मनहर कवित्त और दोहे हैं। इसका प्रकाशन सर्वप्रथम सन् 1895 ई. में खड्गविलास प्रेस, पटना से हुआ था।12

बाईस पृष्ठों की पुस्तिका ‘बाल-विनोद’ की रचना खत्री जी ने अनपढ़ लड़कों को पढ़ुआ बनाने के लिए की थी। इसमें कुल चार अध्याय हैं। इन अध्यायों के बाद सात छोटे-छोटे अध्याय हैं, जिनमें छोटे बच्चों को ईश-वंदना, शिष्टता, अनुशासन, स्वच्छता आदि के उपदेश रोचक शैली में दिये गये हैं। इसका प्रकाशन सन् 1900 ई. के लगभग मैथिल-प्रिंटिंग-वर्क्स (मधुबनी) से हुआ था। इसका दसवाँ संस्करण सन् 1912 ई. में निकला।13  सैंतीस पृष्ठों की पुस्तिका ‘कन्या-दर्पण’ की रचना कन्याओं के हितार्थ की गई थी। इसमें चार अध्याय हैं। इसका तीसरा संस्करण सन् 1925 ई. में निकला था।14   पचहत्तर पृष्ठों की पुस्तक ‘मानव-विनोद’ में भी चार ही अध्याय थे, जिनमें लड़की के ब्याह से पुत्र-पालन तक की एक लम्बी रोचक कथा है। इसका प्रकाशन सर्वप्रथम 1884 ई. में बिहार-बन्धु प्रेस (पटना) से हुआ था। लेखक की संभवतः यह पहली प्रकाशित पुस्तक है।15 ‘वर्ण-बोध’ भी ‘कन्या-दर्पण’ की ही तरह अक्षरारम्भ करनेवाले बालकों के लिए उपयोगी पुस्तक थी।

बिहार में सर्वप्रथम हिंदी-प्रचार का श्रेय जिन चार सज्जनों को है उनमें एक नाम भगवान प्रसाद यानी रूपकला जी का भी है। आपने सन् 1863 ई. में ‘तन-मन की स्वच्छता’ पुस्तिका लिखकर तत्कालीन स्कूल-इन्सपेक्टर डा. फेलन को समर्पित की।16 उन्हीं की आज्ञा से आपने ‘तहारते जाहिर वो बातिन’  नाम से इसका उर्दू अनुवाद भी किया था।17  आगे उन्होंने बंगला पुस्तक का ‘शरीर-पालन’ नाम से हिंदी में अनुवाद किया। पुनः आपने ‘हिफजे सेहत की उमदः तदबीरें’  के नाम से इसका उर्दू अनुवाद भी प्रकाशित किया। बिहार के मिडिल स्कूल के पाठ्यक्रम में भी यह रही।18

हिन्दी में जिन लोगों ने उन दिनों पहले-पहल पाठ्य-पुस्तकें तैयार की थीं, उनमें राधालाल माथुर (1843-1913) को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। आप के द्वारा तैयार की गयी ‘हिन्दी किताब’ (साहित्य का इतिहास, 4 भाग) सन् 1872 ई. में प्रकाशित हुई थी। प्रकाशक भी स्वयं आप ही थे।19   भाषाबोधिनी  पुस्तक (चार भागों में) गोपीनाथ पाठक द्वारा बनारस से सन् 1870 ई. में प्रकाशित कराई गयी थी। सभी पाठशालाओं में आरम्भ से मिडिल तक यही पुस्तक पढ़ाई जाती थी।20 अवधनन्दन (जन्म 25 दिसम्बर, सन् 1900ई.) द्वारा भी कई बालोपयोगी पुस्तकें तैयार की गईं जिनमें ‘हिन्दी-स्वयंशिक्षक’21, ‘हिन्दी-अँगरेजी स्वयंशिक्षक’, ‘हिन्दी शिक्षण पद्धति,’ ‘हिन्दी-इंगलिश-सम्बोधिनी', ‘बालकृष्ण’, ‘लवकुश’, ‘बच्चों की किताब’, ‘वीर दुर्गादास की जीवनी’, ‘भगवान बुद्ध की जीवनी’ आदि प्रमुख हैं।

गया के कन्हैयालाल मिश्र (जन्म सन् 1864 ई.) ने भी अनेक स्कूली पुस्तकों की रचना की थी, जिनमें ‘भाषा-पिंगल-सार’, ‘हिन्दी व्याकरण’, ‘सरल शुभंकरी’, ‘लोअर अंकगणित’, एवं ‘लोअर भूगोल’ आदि प्रमुख हैं।22 कहना न होगा कि ‘भाषा-पिंगल-सार’ को पंजाब टेक्स्ट-बुक कमिटी के सेक्रेटरी मि. ई. टाइडमैन ने पंजाब के स्कूलों और लाइब्रेरियों के लिए चुनी थी।23                                        

उमापतिदत्त शर्मा (1872 -1911) ने विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा के लिए ‘ऋजुस्तवमंजूषा’  नामक एक सनातन धर्म-संबंधी पुस्तक तैयार की, जिसकी प्रशंसा तत्कालीन विद्वानों ने मुक्त-कंठ से की थी। यह पुस्तक कई विद्यालयों में पाठ्य-पुस्तक के रूप में स्वीकृत की गई थी।24 उस समय तक इसके चार-चार संस्करण निकल चुके थे। दामोदरसहाय सिंह ‘कविकिंकर’ द्वारा रचित बालोपयोगी पुस्तकें कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। इनकी प्रमुख पुस्तकें-‘रसाल’, (बालोपयोगी कविताएँ) ‘अंगूर’, (बालोपयोगी कहानियाँ) ‘सरल-सितारी’, ‘बाल-सितारी’, (दोनों बालोपयोगी कविताएँ) ‘धार्मिक वार्तालाप’, (बालोपयोगी गद्य) ‘कबीर: एक लघु जीवनी’, (बालोपयोगी जीवनी) आदि हैं।25   धनीराम बक्सी ‘धनी’ (जन्म 14 जनवरी, 1896 ई.) की अधिकतर पुस्तकें बालोपयोगी हैं। ऐसी प्रमुख रचनाओं के नाम-‘मार्गोपदेशिका’, (व्याकरण) ‘नागरीबोध’, (कैथी सहित) ‘सरल शिशुपाठ’, ‘सरल शिशुगणित’, ‘बालरामायण’, ‘सरल धर्म-शिक्षक’, ‘हिन्दी-अँगरेजी-शिक्षक’, ‘हिन्दी-बंगला-शिक्षक’, ‘वर्णमाला-पहाड़ा’, ‘लालबुझक्कड’, ‘हिन्दी-अँगरेजी-हो26-भाषा-शिक्षक’, (दो भागों में) ‘हिन्दी-अक्षर-बोध’, ‘हिन्दी-वर्णबोध’, ‘शिशु-वर्णशिक्षा’, ‘सरल-पत्रबोध’, ‘बाल-हितोपदेश’, ‘ऐंग्लो-हिन्दी-प्राइमर’, 'त्रिभाषी'  (हिन्दी-बंगला-उड़िया) और ‘गिनती पहाड़ा’ आदि हैं।27

सन् 1924 ई. में रामदहिन मिश्र (1886-1952) ने बाल शिक्षा समिति28 की स्थापना की जिसके माध्यम से अनेक महत्त्वपूर्ण विद्यालयीय पुस्तकों का लेखन एवं प्रकाशन सम्भव हो सका। आपके बारे में जहानाबाद के एक समकालिक लेखक देवशरण शर्मा (जन्म सन् 1890 ई.) ने लिखा था, ‘पटने में रहकर जब मैं काव्यतीर्थ की परीक्षा के लिए तैयारी कर रहा था,...पंडित रामदहिन मिश्र जी टेक्स्ट-बुक लिखने में व्यस्त रहते थे।’29 सन् 1934 ई. में आपने ‘बालशिक्षा’ नामक  मासिक  ग्रंथमाला 30 का प्रकाशन आरंभ किया। इस पुस्तकमाला में आपके द्वारा संपादित प्रतिमास एक बालोपयोगी पुस्तक प्रकाशित होती थी। तीन वर्षों तक लगातार यह पुस्तकमाला चलती रही। इसके अंतर्गत आपके द्वारा सम्पादित पुस्तकें-‘बाल रामायण’, ‘बाल महाभारत’, ‘पुराणों की कहानियां ', (2 भाग) ‘श्रीबालकृष्णकथामृत’, (1 भाग) ‘श्रीबालकृष्णकथामृत’, (2 भाग) ‘रामायण के उपदेश’, ‘अलादीन’, ‘रॉबिन्सन क्रूसो’, ‘नल-दमयन्ती की कथा’, ‘बच्चों की कहानियाँ’, ‘बलिदान की कहानियाँ ’, ‘मनोरंजक कहानियाँ’ एवं ‘विदेशी कहानियाँ’ आदि हैं। ‘विज्ञान की सरल बातें’  रामदहिन मिश्र की ऐसी पुस्तक है जिसके दर्जन से ऊपर संस्करण प्रकाशित हुए जो निश्चय ही बच्चों में विज्ञान साहित्य की लोकप्रियता को दर्शाता है।31

‘बच्चे राष्ट्र के भावी कर्णधार है’, इस सिद्धांत को ध्यान में रखकर रामलोचन शरण बिहारी (1891-1971) ने सन् 1925 ई.32 में ही ‘बालक’ 33 (मासिक) पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया, जिसके बाद में चलकर आप सम्पादक भी हुए। आपने सन् 1928 ई. में लहेरियासराय में एक प्रेस खोला, जिसका नामकरण ‘विद्यापति प्रेस’ किया। इस प्रेस के माध्यम से आपने बिहार में पढ़ाई जानेवाली प्रायः सभी कक्षाओं की पुस्तकों का मुद्रण एवं प्रकाशन किया। हिंदी  बाल साहित्य की रचना और प्रकाशन में आपका वही स्थान है, जो गुजराती भाषा में आचार्य गिजूभाई को प्राप्त है।34   यूनेस्को से जो शिक्षा-सम्बंधी सूचना प्रकाशित हुई थी, उसमें चौदह पुस्तकों के बीच आपकी भी एक पुस्तक की चर्चा है।35   बाल शिक्षा साहित्य में सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तक ‘मनोहर पोथी’ आप ही की रचना है।                                                                                                                                                   
शिवकुमार लाल (जन्म सन् 1895 ई.) ने हिंदी में लगभग 30-40 विभिन्न विषयक पाठ्य-पुस्तकों का प्रणयन या संपादन किया था। ये पुस्तकें हिन्दुस्तानी प्रेस, पटना; खड्गविलास प्रेस, पटना; पुस्तक भण्डार, पटना; हिन्दुस्तानी तालिमी संघ, सेवागाम, वर्धा; अशोक प्रेस, पटना; अजन्ता प्रेस, पटना; वयस्क शिक्षा-बोर्ड, पटना; बिहार टेक्स्ट बुक-कमिटी, पटना आदि द्वारा प्रकाशित हुई थीं। इन पुस्तकों के अतिरिक्त ‘नवीन शिक्षक’ और ‘बुनियादी शिक्षक’  पत्रिकाओं में आपके द्वारा लिखित शिक्षा एवं शिक्षण-विधि-संबंधी स्फुट लेख भी मिलते हैं। आपने बच्चों के लिए विभिन्न विषयों पर सैकड़ों रोचक तुकबंदियां भी की थीं।36   आपके द्वारा बच्चों के लिए तैयार किये गये पाठ की रोचकता का एक नमूना देखने लायक है-‘हमलोगों की दुनिया कितनी अनोखी है? देखने में यह चिपटी मालूम पड़ती है, लेकिन है यह एकदम गेंद-सी गोल। फिर भी इसकी सतह एकदम चिकनी या समतल नहीं है। इस पर बहुतेरे ऊँचे-ऊँचे पहाड़ सर उठाये आसमान से बातें करते हैं। बहुतेरी नदियाँ पानी से लबालब भरी समुन्दर की ओर दौड़ी जाती हैं। कहीं ऊँचे पहाड़ हैं, कहीं गहरी खाइयाँ हैं। कहीं समतल मैदान हैं और कहीं ऊँची पथरीली पठार और मरुभूमि। एक ओर ऊँचे-ऊँचे पेड़ खड़े हैं और दूसरी ओर चौरस रेतीला मैदान पड़ा है। उसी तरह यह एकदम अचल या खड़ी मालूम पड़ती है। लेकिन असल में यह सूरज के चारों ओर जोर से चक्कर काट रही है। देखो तो मालूम पड़ेगा कि सूरज घूम रहे हैं, किन्तु घूम रही है धरती। सूरज इसका दोस्त मालूम पड़ता है। वह इसे गरमी देता है, रोशनी देता है और शक्ति देता है।’37

छविनाथ पाण्डेय (जन्म सन् 1882 ई.) द्वारा लिखित बालोपयोगी पाठ्य-पुस्तकों की संख्या लगभग बीस है, जिनमें ‘नीति की कहानियाँ’, (कला निकेतन, पटना द्वारा प्रकाशित) ‘उपनिषद की कहानियाँ’, (नागरी-प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, पटना-4 द्वारा प्रकाशित) ‘जादू का हिरन’, (कला निकेतन, पटना-4 द्वारा प्रकाशित) ‘महाभारत की कहानियाँ’  (दो भागों में गिरिजा पुस्तकालय, पटना-4 द्वारा प्रकाशित), ‘चाचा नेहरु’,  (वही) ‘हातिमताई’, (ज्ञानपीठ प्राइवेट लिमिटेड, पटना-4 द्वारा प्रकाशित) ‘हमारी आजादी की लड़ाई’  (उपमा प्रकाशन, पटना-4 द्वारा प्रकाशित) आदि प्रमुख हैं।38   बेचूनारायण (जन्म सन 1884 ई.) ने भी हिन्दी में अनेक पाठ्य-पुस्तकों की रचना की। इनमें प्रमुख-‘चिंतन’‘शिशु-चिंतन’‘पाठ-टीका’‘अंक-गणित’‘हिन्दी व्याकरण’ आदि हैं। परन्तु इनकी रचना के उदाहरण हमें प्राप्त नहीं  होते. 39                                                                                                                                                                                                           
राघवप्रसाद सिंह ‘महन्थ’ (जन्म सन् 1889 एवं मृत्यु सन् 1931ई.) को बाल-मनोविज्ञान एवं प्रकृति का अच्छा अनुभव था। आपकी अधिकतर रचनाएं बालोपयोगी ही हैं। ‘ईसप्स फेबुल्स’  ढंग की आपने एक बालोपयोगी कला-पुस्तक की रचना ‘कला-मंजरी’  के नाम से की थी, जो पुस्तक-भण्डार से प्रकाशित होनेवाली थी। अपने जीवन के अंतिम दिनों में आप एक बालोपयोगी ‘पद्यबद्ध-रामायण’  की रचना कर रहे थे, जो दुर्भाग्यवश पूरी न हो सकी।40   सन् 1894 ई. में जन्मे गंगापति सिंह द्वारा भी बालोपयोगी पुस्तकें रचे जाने की बात जाहिर होती है। इनके द्वारा लिखित पुस्तकों में ‘बाल मैथिली व्याकरण’, ‘लोअर-साहित्य’, ‘भूगोल-परिचय’, ‘बच्चों का उपदेश’, ‘प्रवेशिका मैथिली-साहित्य’ (गद्य-पद्य-संग्रह), ‘लघु मैथिली-साहित्य’  (गद्य-पद्य-संग्रह) एवं ‘संस्कृत-पाठ्य-पुस्तक का नोट’ आदि प्रमुख हैं।41  मुजफ्फरपुर के कमलदेव नारायण (जन्म सन् 1900 ई.) को भी कोर्स के योग्य कई पुस्तकों की रचना करने का श्रेय प्राप्त है। हिंदी सेवी संसार 42 तथा जयन्ती-स्मारक-ग्रन्थ 43  में ‘प्रेमनगर की सैर’, ‘वैज्ञानिक वातावरण’  तथा ‘बच्चों के खेल’  नामक तीन नई पुस्तकों की चर्चा है।44   आचार्य शिवपूजन सहाय (जन्म सन् 1893 ई.) के अवदान को भुलाया नहीं जा सकता। उनकी रचनाओं में ‘मां के सपूत’ 45, ‘बालोद्यान’ 46, ‘आदर्श परिचय’ 47 आदि प्रमुख हैं।

औपनिवेशिक बिहार में शिक्षा की बात फ्रेडरिक पिन्काट की चर्चा के बगैर अधूरी ही रह जायेगी। ये महाशय अपनी विलक्षण प्रतिभा के सहारे इंगलैंड में बैठे-बैठै, बगैर भारत आये, जर्मन विद्वान मैक्स मूलर  एवं कार्ल मार्क्स की तरह यहां की सभी महत्वपूर्ण भाषाओं के आधिकारिक विद्वान हो चले थे। इसे भारत प्रेम ही कहा जायेगा। प्रमाण है कि भारतेंदु हरिश्चन्द्र को एक चिट्ठी पिन्काट साहब ने ब्रजभाषा पद्य में लिखी थी।48 उन्होंने दो पुस्तकें हिन्दी में लिखी हैं-‘बालदीपक’,  (4 भाग ‘नागरी और कैथी अक्षरों में’) एवं ‘विक्टोरिया चरित्र’ ।49   ये दोनों पुस्तकें खड्गविलास प्रेस, बांकीपुर में छपी थीं। ‘बालदीपक’  बिहार के स्कूलों में पढ़ाई जाती रही थी।50   उनके एक पाठ का कुछ अंश नमूने के लिये दिया जाता हैः-‘हे लड़कों! तुमको चाहिए कि अपनी पोथी को बहुत संभाल कर रखो। मैली न होने पावे, बिगड़े नहीं और जब उसे खोलो, पूरी चौकसाई से खोलो कि उसका पन्ना अंगुली के तले दबकर फट न जाय।’

ऐसे भी अनेक लेखक-साहित्यकार हैं जिन्होंने अपने जीवन-काल में बच्चों की शिक्षा के लिए पाठ्य-पुसतकें  तैयार कीं, बच्चों द्वारा रुचिपूर्वक पढ़े भी जाते रहे किन्तु आज गुमनामी के अंधेरे में हैं। इतिहास बनानेवालों की ऐसी गुमनामी इतिहास की बड़ी त्रासदियों से कम त्रासद नहीं है।

संदर्भ एवं टिप्पणियां :

1. डा. कृष्णानंद द्विवेदी ने ‘मुखोपाध्याय’ की जगह ‘मुखर्जी’ लिखा है। देखें, बिहार की हिंदी पत्रकारिता , प्रवाल प्रकाशन, पटना, प्रथम संस्करण, 1996, पृष्ठ-18.
2. देखिए, राजेन्द्र अभिनन्दन ग्रन्थ, पृष्ठ 447-48, और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार,  द्वितीय खण्ड, पृष्ठ-447-48 और भी देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार,  द्वितीय खण्ड़, पृष्ठ संख्या-272, पाद टिप्पणी  संख्या-3.
3. कृष्णानंद द्विवेदी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-19.
4. बाबू शिवनंदन सहाय, बिहार की साहित्यिक प्रगति , प्रथम खंड, पृष्ठ-74.
5. दो गीतों में एक यह है-
हुकुम भइल सरकारी रे नर सीखो नागरिया।
यावनि जी से देहु दुहराई पढ़ि गुनि काज करो नरहरिया।।
लै पोथी नित पाठ करहु अब यावनि-ग्रन्थ देहु पैसरिया ।।
जब ले नागरी आवत नाहीं कैथी अक्षर लिखों कचहरिया।
धन्य मंत्री प्रजाहितकारी अम्बिका मनावत राज विक्टोरिया।।
डा. ग्रियर्सन की बनाई बिहारी व्याकरण-माला  के भोजपुरी खंड  से उद्धृत।
देखिए, सरस्वती, भाग 13, संख्या 8, अगस्त, सन् 1912 ई., पृष्ठ-423-24; और देखिए, हिन्दी साहित्य और बिहार , द्वितीय खण्ड, पृष्ठ-272, पाद टिप्पणी  संख्या -5। पत्तनलाल ‘सुशील’ (सन् 1859-1928 ई.) ने भी भूदेव मुखोपाध्याय की प्रशंसा में एक पद्य-रचना की थी-
‘हिन्दी संसकिरत की उन्नति बहु प्रकार जिन कीनी।
डेढ़ लाख मुद्रा यहि कारण खास कोश ते दीनी ।।’
-देखिए, हरिऔध अभिनन्दन ग्रन्थ , पृष्ठ-533। और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खण्ड, पृष्ठ-253, पाद टिप्पणी संख्या -2.
6. पहले इसका नाम बुधोदय (बोधोदय?) प्रेस था। आपकी प्रेरणा से ही यह प्रेस महाराज कुमार बाबू रामदीन सिंह ने अपने मित्र मझौली-नरेश लाल खड्गमल्ल बहादुर के नाम पर खोला। इस प्रेस की उन्नति और प्रगति में आप बाबू रामदीन सिंह के अभिन्न सहयोगी बने रहे।’ देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार , द्वितीय खण्ड, पृष्ठ-273, पाद टिप्पणी संख्या -1। कहना न होगा कि इस प्रेस से पाठक प्रमोद शरण शर्मा के संपादन में भूदेव  नाम का एक मासिक भी प्रकाशित हुआ था जो अपनी साहित्यिक रुचि और शैक्षिक विकास के लिए काफी लोकप्रिय था। देखें, कृष्णानंद द्विवेदी, पूर्वोद्धृत , पृष्ठ-18.
7. देखिए, सरस्वती , पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-425, और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार , द्वितीय खण्ड, पृष्ठ -273, पाद टिप्पणी संख्या -7.
8. देखिए, जयंती-स्मारक ग्रन्थ , पृष्ठ-259, और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार ,  द्वितीय खंड, पृष्ठ-272, पाद-टिप्पणी संख्या -2.
9. देखिए, जयंती-स्मारक ग्रन्थ ,  पृष्ठ-259, और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार , द्वितीय खण्ड, पृष्ठ -272, पाद टिप्पणी संख्या -4.
10. हिन्दी साहित्य और बिहार , द्वितीय खण्ड, पृष्ठ-272, पाद टिप्पणी संख्या -1.
11. वही , पृष्ठ-44, पाद टिप्पणी संख्या -1.
12. उपरोक्त, पाद टिप्पणी संख्या -2.
13. हिन्दी साहित्य और बिहार , द्वितीय खंड पृष्ठ-44, पाद टिप्पणी संख्या -3.
14. वही, पाद टिप्पणी संख्या -4.
15. वही, पाद टिप्पणी संख्या -5.
16. वही , पृष्ठ 59.
17. वही, पृष्ठ 61, पाद टिप्पणी -2.
18. हिंदी साहित्य और बिहार , पृष्ठ 61, पाद टिप्पणी -3.
19. डॉ. माताप्रसाद गुप्त, हिन्दी-पुस्तक-साहित्य , पृष्ठ-575। और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार, द्वितीय खंड, पृष्ठ-280, पाद टिप्पणी संख्या-2.
20. देखिए , क्रमशः हिन्दी-पुस्तक-साहित्य  (वही), पृष्ठ-575 तथा जयन्ती-स्मारक-ग्रंथ,  पृष्ठ-260।
21. लेखक के कथनानुसार इसकी एक करोड़ से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं। देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार, तृतीय खंड, पृष्ठ-22, पाद टिप्पणी संख्या-3.
22. हिन्दी-साहित्य और बिहार,  तृतीय खंड, पृष्ठ-68-69.
23. इसके मुखपृष्ठ पर लिखा है -It has been recommended for the libraries of Anglo Vernacular and Vernacular schools in the Punjab.  इसकी आलोचना सरस्वती , (मई, सन् 1913 ई., भाग 14, संख्या 5, पृष्ठ-661) में प्रकाशित हुई थी।
24. वही, पृष्ठ संख्या-62, पाद टिप्पणी संख्या -2.
25. वही, पृष्ठ-204.
26. ‘हो’ जाति की भाषा में ‘हो’ मनुष्य को कहते हैं। देखें,  (मासिक, भाग-16, खण्ड-2, संख्या-4, अक्टूबर, सन् 1915 ई.), पृष्ठ-225.
27. हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-230, पाद टिप्पणी संख्या -2.
28. उक्त समिति के द्वारा प्रकाशित पुस्तकें समूचे बिहार में पढ़ाई जाती थीं। देखें, पूर्वोद्धृत , पृष्ठ संख्या-474. शिक्षा समिति के द्वारा पंडित रामदहिन मिश्र के नेतृत्व में किशोर उम्र के बच्चों के लिए 'किशोर' नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन सन् 1938 में प्रारंभ हुआ जो 12 वर्षों तक अबाध प्रकाशित होता रहा। देखें, एन कुमार, जर्नलिज्म इन बिहार , गवर्नमेंट प्रेस, पटना, 1971, पृष्ठ-76.
29. राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना के साहित्यिक इतिहास-विभाग में सुरक्षित लेखक के परिचय-पत्रक के संलग्नक से। और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-225.
30. ‘बालमित्र’  (मासिक) ग्रंथमाला के नाम से आपकी लिखित और संपादित बाईस पुस्तकें, रामनारायण लाल, इलाहाबाद से प्रकाशित हुईं। देखें, किशोर  (मासिक, वर्ष-16, अंक 4-5, श्रद्धांक , जुलाई-अगस्त, सन् 1952ई.), पृष्ठ-132.
31. शकुंतला कालरा, ‘किस्से-कहानी के अलावा भी है बाल साहित्य’, आजकल , नवंबर 2009.
32. एन. कुमार, जर्नलिज्म इन बिहार , पृष्ठ-76; हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-502 पर बालक मासिक पत्रिका का प्रकाशन वर्ष 1926 अंकित है।
33.  यह पत्रिका ‘पुस्तक भंडार’ के मालिक रामलोचन शरण द्वारा लहेरियासराय से शुरू हुई थी। बाद में इसका प्रकाशन पटना से होने लगा। इसके आरंभिक संपादक श्री रामवृक्ष बेनीपुरी थे, बाद के दिनों में इसके संपादन का दायित्व बाबू शिवपूजन सहाय ने निबाहा। देखें, एन. कुमार, जर्नलिज्म इन बिहार , पृष्ठ-76.
34. देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-502.
35. पूर्वोद्धृत ,  पाद टिप्पणी संख्या-2.
36. हिन्दी-साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-584.
37. शिवकुमार लाल, जीवन और विज्ञान ,  तृतीय भाग, पृष्ठ-103। और देखें, हिन्दी-साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-585-86.
38. देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार , चतुर्थ खंड, पृष्ठ-74.
39. हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-307.
40. हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-420.
41. वही, पृष्ठ-106-7.
42. डा. प्रेमनारायण टण्डन, हिंदी सेवी-संसार , प्रथम खंड, सन् 1951 ई., पृष्ठ-29.
43. पुस्तक-भण्डार-जयंती-स्मारक ग्रन्थ  (सम्पादक-मंडल, सन् 1942 ई., पृष्ठ-662).
44. हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-70-71.
45. बालोपयोगी शिक्षाप्रद 9 जीवनियां, सन् 1949 ई.।
46. बालोपयोगी शिक्षाप्रद 17 रचनाएं।
47. राम, कृष्ण, भारत, भरत और आदर्श साहित्यिक पर शिक्षाप्रद निबंध।
48. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास , नागरी प्रचारिणी  सभा, वाराणसी, पेपरबैक संस्करण, (प्रथम), संवत 2058, पृष्ठ-262.
49. मनोज कुमार अम्बष्ट, ‘हिंदी का विकास और हिंदीतर विद्वान’, आजकल , सितंबर 2008, पृष्ठ-11.
50. रामचंद्र शुक्ल, पूर्वोद्धृत , पृष्ठ-262.