Friday, September 17, 2010

प्राचीन भारत में प्रभुत्त्व की खोज: ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष के संदर्भ में



I have carefully gone through the thesis on ‘Prachin Bharat Mein Prabhutva Ki Khoj : Brahman-Kshatriya Sangharsha Ke Sandarbha Mein’ (1000 B.C-200 A.D) submitted by Sri Raju Ranjan Prasad for the award of  Ph. D. degree of the Patna University.

I am happy to report that I enjoyed reading the thesis which deals with an important theme relating to the social and political history of early India. The theme of the thesis is the Brahman-kshatriya alliance and its repercussions in the early phase of Indian history. There is no doubt that its alliance, the foundation of which was, as rightly argued by the researcher, laid during the later Vedic age constitutes an event of utmost importance. It determined the course of Indian society for several centuries thereafter.

The severe exploitation of the two lower varnas by the two upper varnas has been studied by several historians and it has also been argued that the conflict between the two sets of varnas reveal the character of an intense ‘class’ conflict in early Indian society. But that had been relatively ignored ,-or at least, less focussed upon-was the intra-varna conflict i.e. between the alliance partners of the upper class namely Brahman and kshatriya. The tension between the two varnas at times turned into violent conflicts. The present thesis focuses precisely on this theme and gives a comprehensive account of the conflict during the span of just over a millennium.

In the course of his study, the researcher has arrived at a number of conclusions. The birth of the so called heterodox systems, particularly Buddhists, marks, according to him, the most powerful challenge posed by the kshatriyas to brahmanical domination.

The researcher has used intensively as well as extensively primary sources, particularly early religious and ritual texts to buttress his arguments. Whether one concurs with his conclusions or not, there is no denying the fact he has raised a number of thought provoking issues worthy of further debate.

Methodologically the thesis is well organised and it is presented in a simple and lucid style. I therefore recommend the thesis for the award of Ph. D. degree.

Dr. Ganapathy Subbiah, Professor, Dept. of A. I. H. C. and Archaeology, Viswa-Bharti, Santiniketan, W. B. 731235,3/12/5.       


भूमिका

जिन लोगों ने ऋग्वैदिक काल के सामाजिक-राजनैतिक ढांचे का विकास किया, उनके भौतिक एवं सामाजिक जीवन के संदर्भ से अलग रखकर उस संगठन को नहीं समझा जा सकता। दुख की बात है कि भारत में आर्यों के इतिहास की जानकारी प्राप्त करने के जितने भी पुरातात्त्विक प्रयास अब तक हुए हैं, सब बहुत हद तक निष्फल रहे हैं, और ऐसा कोई भौतिक अवशेष हमारे हाथ न लग सका है जिसे निश्चयपूर्वक ऋग्वैदिक लोगों से संबंधित बताया जा सके। एक लंबे समय से चल रहे श्रमसाध्य उत्खननों के बावजूद प्राचीनतम आर्यों के भौतिक जीवन की रूपरेखा तैयार करने का मुख्य आधार आज भी साहित्य ही है।1

ऋग्वैदिक लोगों का सामाजिक संगठन जनजातीय अवस्था को पार नहीं कर पाया था।2 जनजातीय जीवन की प्रमुखता के संकेत इस बात से भी मिलते हैं कि ऋग्वेद में ‘जन’ और ‘विश्’ शब्द का प्रयोग बार-बार हुआ है। ऋग्वेद में ‘जन’ शब्द 275 बार और ‘विश्’171 बार प्रयुक्त हुआ है।3 सभी स्थलों पर इनसे बंधुजनीन समुदायों का बोध नहीं भी होने से ऋग्वेद में इन समुदायों के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता। हमें भरत जन मिलते हैं, यदु जन मिलते हैं, और त्रित्सु विश् मिलते हैं। अनु, यदु, तुर्वसु, द्रह्य और पुरु इन पांच के साथ भी जन संयोजित हैं।4 ऋग्वेद में पत्र्चजन से पांच जनजातियों या कबीलों का बोध होता है। जन पितृसत्तात्मक बंधुत्व पर आधारित सबसे बड़ी इकाई था। इसका प्रधान राजा या ‘जनस्य गोप्ता’ होता था। वह ‘गोपं जनस्य’ या ‘गोपति जनस्य’ भी कहलाता था।5 इन सभी पदों के अर्थ एक ही हैं-जनजाति या कबीले का पालक। बाद में जन से जनपदों का उदय हुआ। जन के बाहर रहनेवाला व्यक्ति ‘जन्य’ कहलाता था। इसके प्रधान को ‘विशाम्पति’ या ‘विशांपति’ भी कहा जाता था, जिसका अर्थ हुआ कुल या कबीले का मुखिया।

वैदिक ग्रंथों में ‘राजन्’ शब्द का प्रयोग अनेक बार होने के कारण यह भ्रांति पैदा होती है कि वैदिक काल में राजा का पद ठीक उसी तरह से सुस्थापित था जिस तरह से बाद के दिनों में राजतंत्र सुप्रतिष्ठित हुआ। वास्तव में राजन् शब्द की उत्पत्ति जनजातीय है। संस्कृत में राजन् शब्द की व्युत्पत्ति सामान्यतः राज् (चमकना) अथवा रत्र्ज/रज् (लाल होना, रंगना, सज्जित करना, अनुरक्त करना) धातुओं से होती है। निघंटु 2: 14 के अनुसार इस धातु का अर्थ जाना भी होता है।6 यदि हम राजन् शब्द की व्युत्पत्ति राज् (चमकना) धातु से मानें तो भी इसका तात्पर्य होगा अनेक व्यक्तियों में चमकनेवाला व्यक्ति जिससे राजा होने का उसका औचित्य सिद्ध हो। स्पष्ट है कि ऐसा व्यक्ति केवल अपने शारीरिक बल और सौष्ठव तथा सामरिक उपलब्धियों के कारण ही नहीं चमकता वरन् अपने बौद्धिक और भावात्मक गुणों के आधार पर भी चमकता है। इन गुणों के संयोग से ही लोग उसे जनजाति का नेता होना स्वीकार करते हैं।

चाहे हम राजन् शब्द की व्युत्पत्ति रज्/रत्र्ज से मानें अथवा राज् से, हमारी धारणा के अनुसार आरंभ में इस शब्द से जनजाति के नेता अथवा सरदार का बोध होता था न कि राजा अथवा शक्तिशाली राजतंत्र का, जैसाकि सामान्यतः कहा जाता है। राजन् शब्द का अर्थ जनजातीय नेता होने की पुष्टि इस तथ्य से होती है कि उसके लिए ‘जनस्य गोप’ अथवा ‘गोपति’ बतलाया गया है।7 दोनों ही शब्दों का अर्थ गोपालक से है। इस शब्द का राजन् के लिए प्रयोग संभवतः इस कारण होने लगा क्योंकि जाति अथवा जन की जान-माल की रक्षा करना उसका दायित्व था।

चूंकि ऋग्वेद में श्रम-विभाजन वंशगत न हुआ था, इसलिए एक ही कुटंब के लोग अनेक प्रकार के श्रम कर सकते थे। जन्मगत वर्ण की धारणा ऋग्वेद में नहीं है; अतः उसमें वर्ण-संकरता की भी धारणा नहीं है।8 यजुर्वेद में जन्मजात वर्ण है, इसलिए वहां वर्ण-संकरता की अवधारणा भी है।9 यजुर्वेद में जन्मजात वर्णों की प्रतिष्ठा से पहले है ऋग्वेद। ऋग्वेद में ‘अर्य’ शब्द अनेक बार आया है।10 उसका संबंध स्वामित्व और समृद्धि के भाव से है, वह वर्ण का सूचक नहीं है। ‘‘(यः अर्य इन्द्रः) जो स्वामी इन्द्र दाता के लिए मनुष्यों के भोगने योग्य अन्न देता है...।’’ (सातवलेकर, 1.81.6)। इन्द्र अर्य हैं, अग्नि अर्य हैं (1.70.1) मरुत अर्य हैं (5.54.12) इनकी स्तुति करनेवाले कवि भी अर्य हैंः ‘‘(अर्यः वयं) तेरी (इन्द्र की) स्तुति करनेवाले हम धन की प्राप्ति के लिए तेरी सहायता से संग्राम जीतें।’’ (पूर्वोक्त, 4.20.3)। यजुर्वेद में अर्य के साथ वैश्यत्व का भाव जुड़ गया है। वैश्य शब्द का प्रयोग अलग से भी हुआ है, यथा मरुद्भ्योवैश्यम्।11  ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय।12  यहां ब्रह्म है ब्राह्मण, राजन्य है क्षत्रिय, इनके बाद है शूद्र, बचा वैश्य, वह अर्य है। इसी शब्दावली का व्यवहार अथर्ववेद में हुआ हैः ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च।13 

यह सही है कि ऋग्वैदिक समाज मोटे तौर पर समतामूलक था लेकिन सामाजिक भेद-भाव कुछ-कुछ शुरू हो गया था।14 हां, हम ऋग्वेद में वैसा सामाजिक स्तरीकरण नहीं पाते जैसाकि बाद में दिखाई देता है। ऋग्वेद में चौदह बार ब्राह्मण का, नौ बार क्षत्रिय का और एक बार राजन्य का उल्लेख मिलता है; पर न तो ब्राह्मण और न क्षत्रिय कहीं भी संगठित श्रेणी के रूप में आये हैं।15  क्षत्रिय शब्द बलवान के अर्थ में वरुण की एक उपाधि या विशेषण के रूप में चार बार आया है।16  जहां तक वैश्य और शूद्र का प्रश्न है, यदि हम दशम् मंडल के एक प्रक्षिप्त अंश को छोड़ दे ंतो ऋग्वेद में इन दोनों का उल्लेख कहीं नहीं मिलता।17  ऋग्वेद में सात प्रकार के पुरोहित मिलते हैं। इनमें एक ब्राह्मण भी है, पर इसे कोई प्रमुख स्थान नहीं दिया गया है। चाहे जो भी हो, ऋग्वेद में योद्धा सरदारों का हौसला बढ़ाने में पुरोहितों की भूमिका उल्लेखनीय रही है। निरंतर चलते अनुष्ठानों से सरदार की सत्ता प्रबल होती गई जिसमें सामान्य जनों (विश्) से उसकी दूरी बढ़ती गई।18                      

 उत्तर वैदिक ग्रंथों में प्रभुत्व के वाचक अनेक शब्द मिलते हैं, जैसे राजन्, राजन्य, राजन्यबंधु, क्षत्र और क्षत्रिय। ऐतरेय ब्राह्मण में आधिपत्य के जो दस प्रकार वर्णित हैं, उनकी तो बात ही अलग है। राजन्य शायद राजन् का लघुत्वार्थक है और इसका अर्थ है सरदार का निकट नातेदार। राजन्यों की संख्या राजाओं की संख्या से कहीं अधिक होती थी। राजन्य और क्षत्रिय पर्यायवाची हैं और कई स्थानों पर राजन्य को क्षत्र कहा गया है।19  क्षत्र का अर्थ सत्ता या शक्ति है। जिस किसी के पास सत्ता या शक्ति होती थी वह क्षत्रिय समूह में गिना जाता था; तदनुसार मरुत आविक्षित, जो अवैदिक वंश का आयोगव था, अभिषेक का अधिकारी समझा गया है।20 लेकिन जब क्षत्रिय एक कोटि या वर्ग बन गया तब वह एक प्रकार के बंधुत्वमूलक परिवार में परिणत हो गया। दिलचस्प बात यह है कि बाद में चलकर इस क्षत्रिय शब्द का व्युत्पत्यर्थ, इसके मुख्य कर्तव्य के आधार पर, अर्थात् क्षत्र (चोट, अभिघात) से रक्षा करनेवाला कल्पित कर लिया गया।21 

वैदिक ग्रंथों में क्षत्रिय किसी वर्ण का सदस्य प्रतीत नहीं होता; वह अपने आप में उत्कृष्ट क्षत्रिय होता था; वह सर्वोच्च प्रमुख जैसा लगता था; और इस संदर्भ में कर्मकांडों से प्रकट होता है कि क्षत्र/क्षत्रिय और विश्/वैश्य के बीच सतत् संघर्ष चलता रहता था।22 सोम/यज्ञ के सौत्रामणी अनुष्ठान की एक विधि से यह प्रकट होता है कि क्षत्र, विश् से ही फूटकर निकला है। देवों और पितरों को दी जानेवाली आहुतियों के प्रसंग में कहा गया है कि दूध चढ़ाने से यजमान को सोमरस मिलता है, और सुरा चढ़ाने से अन्न। यह भी कि दूध आधिपत्य (राजा) का द्योतक है और सुरा विश् (प्रजा) का। अंत में कहा गया है कि वह पहले सुरा को शुद्ध करता है तब दूध को; इस प्रकार वह विश् (प्रजा) से क्षत्र (आधिपत्य) उत्पन्न करता है।23 हालांकि कभी-कभी क्षत्र की उत्पत्ति ब्राह्मण से भी बतलाई गई है।24 

उत्तरवैदिक कर्मकांडों से पता चलता है कि सामान्य कबीलाई संरचना में कई प्रकार के अंतर्विरोध उपस्थित हो चुके थे। केन्द्रीय सरदार या राजा और बिखरे हुए अनेकानेक कुलों के सरदारों/राजाओं के बीच संघर्ष चलता रहता था। राजसूय यज्ञ के लिए विहित गविष्टि (गाय जीतने ) की विधि में कहा गया है कि राजा राजन्यों के साथ युद्धलीला करेगा और उन पर तीरों से प्रहार करके विजय प्राप्त करेगा। कहना न होगा कि केन्द्रीय सरदार विभिन्न ज्ञातियों या कुलों के सरदारों द्वारा चुना जाता था। इसके अलावा, केन्द्रीय सरदार या राजा और उसके निकट नातेदार राजन्यों, जिनके सहारे वह कर उगाहता था, दोनों के हित मिलते भी थे और टकराते भी थे। कमजोरी का सबसे बड़ा कारण था राजन्य और  विश् के बीच का अंतर्विरोध।25 प्रथम पक्ष में था अभिजात वर्ग, अर्थात् राजा के सहयोगी निकट नातेदार और द्वितीय पक्ष में था उत्पादक वर्ग, अर्थात् किसान का कार्य करनेवाले सामान्य बंधुजन। इस प्रकार का अंतर्विरोध कई अनुष्ठानों में लक्षित होता है।26 बंधु-समुदाय के भीतर, यानी भाईबंदों के बीच एक ओर राजन्य या क्षत्र और दूसरी ओर सामान्य किसान बंधुजन के बीच कर की उगाही को लेकर खींचातानी निरंतर चलती रहती थी। राजा या सरदार अपने लोगों (बंधुजनों) की रक्षा भी करता था और उनसे कर भी उगाहता था। वह कर का कुछ अंश उत्सव के अवसरों पर बांटता भी था, लेकिन इस बांट में अधिकाधिक भाग पुरोहितों को मिलता था,27 सामान्य बंधुजनों को नहीं। राजा करग्राहक था और साथ ही साथ वितरक और पालक भी। रक्षक और भक्षक के दो रूपों के बीच सामंजस्य नहीं हो पाता था। इसलिए राजा को विशाम्पति/विश्पति और विशामत्ता दोनों कहा गया है।28

इस अंतर्विरोध को उत्तरवैदिक काल में नई गति प्राप्त हुई। इसकी जड़ में थी कृषि। कृषि में अब अधिशेष उत्पादन की संभावनाएं बढ़ीं जिसके फलस्वरूप वर्ण पर आधारित सामाजिक विभाजन की प्रक्रिया की शुरुआत हुई।29 यद्यपि सामाजिक वातावरण अभी तक लौह तकनीक को उत्पादन के लिए स्वीकार करने को तैयार नहीं था परंतु तत्कालीन परिवर्तनों के संदर्भ में इसकी एक निश्चित ऐतिहासिक भूमिका थी।30 शासक वर्ग उत्पादन की पूरी प्रक्रिया को पूर्णरूपेण नियंत्रित कर इससे अधिकाधिक लाभ उठाने की ताक में था। मार्क्स इस ऐतिहासिक प्रक्रिया का वर्णन करते हुए कहता है, ‘प्रत्येक युग में शासक वर्ग का विचार प्रभावी विचार होता है, अर्थात् वह वर्ग जो समाज की भौतिक सम्पदा को अपने अधीन रखता है, बौद्धिक ऊर्जा का भी इस्तेमाल अपने हित में करता है। जिस वर्ग का नियंत्रण भौतिक उत्पादन की व्यवस्था पर होता है वह वर्ग बौद्धिक उत्पादन की क्षमताओं को भी अपने हितों के अनुरूप संगठित करता है। फलस्वरूप जिनके पास बौद्धिक उत्पादन की विधि की कमी है उनके विचारों पर इस वर्ग का प्रभुत्त्व होता है। शासकीय विचारधारा वस्तुतः प्रभावी भौतिक संबंधों की अभिव्यक्ति से ज्यादा कुछ नहीं होती क्योंकि प्रभावी भौतिक संबंध ही विचारों का रूप लेता है।’31

नई प्रौद्योगिकी शासक वर्ग की अभिव्यक्ति बन गई। इसमें कोई संदेह नहीं कि किसान भी इससे लाभान्वित हुए होते, परंतु इस चरण में यह पूर्णतः उस वर्ग की सेवा में लग गयी जो वर्ग उत्पादन की विधि पर अपना स्थायी नियंत्रण कायम करने की दिशा में प्रयासरत था। वर्ग-विभाजन की प्रक्रिया की आदिम शुरुआत उत्तर वैदिक समाज में हुई।32 और खुद को मजबूत बनाने के लिए लौह प्रौद्योगिकी पर अस्त्र-शस्त्र निर्माण के लिए एकाधिकार कायम कर, प्रभुत्त्वशाली वर्ग ने इस विभाजन की प्रक्रिया को तीव्र बनाने का प्रयास किया। उत्पादन की विधि पर लोहे का कोई क्रांतिकारी प्रभाव न पड़ा परंतु इस प्रौद्योगिकी ने नवीन उत्पादन संबंधों की संरचना की प्रक्रिया को आसान बना दिया। परंतु यह प्रक्रिया भी बहुत सरल नहीं थी। यह वर्ग निर्माण का प्रारंभिक चरण था और एक समरूप शासक वर्ग की वास्तविकता अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाई थी। वर्ग निर्माण की तत्कालीन प्रक्रिया स्वयं एक मजेदार अनुषंगी परिणाम के रूप में इसे अभिव्यक्त करती है। उत्तर वैदिक ग्रंथांे में ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष की चर्चा है जिसका कारण शायद अधिषेश में अधिक हिस्सा प्राप्त करने का प्रयास था।33 इन उद्धरणों के आधार पर यह भी कहा जाता है कि यह मुख्यतः विचारधारा (धार्मिक नियंत्रण) और सत्ता (राजनीतिक नियंत्रण) के बीच संघर्ष था जिसमें लौह अस्त्र-शस्त्र के इस्तेमाल के कारण सत्ता का आधार मजबूत हो चुका था।34

गौर करने की बात है कि उत्तर वैदिक ग्रंथों में विशेषाधिकार प्राप्त ब्राह्मण एवं क्षत्रिय समूहों के आपसी संबंधों के बारे में स्पष्टता नहीं है;35 परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि धार्मिक क्रियाकलापों पर अपना एकाधिकार कायम कर ब्राह्मण समाज में अग्रणी हो चुका था। अतः धार्मिक सत्ता में हिस्सेदारी के लिए ब्राह्मणों से क्षत्रियों का विरोध अत्यंत स्वाभाविक था।36 तैत्तिरीय संहिता में साफ-साफ कहा गया है कि क्षत्रिय बाकी तीन वर्णों पर शासन करने की क्षमता रखता है जबकि ब्राह्मणों में शासन करने की क्षमता है ही नहीं।37 धर्मसूत्रों में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता की बात दुहराई गई है परंतु बौद्ध एवं जैन ग्रंथों में भी इस महत्त्वपूर्ण तथ्य की चर्चा है-क्षत्रियों से ब्राह्मणों की हीनता तथा उनका क्षत्रियों के अधीनस्थ होना।38 राजयूय यज्ञ में राजा के बाद ही राजा को ब्राह्मण का पात्र माना गया है।39 यही कारण था कि राजसूय यज्ञ के दौरान ब्राह्मणों के बैठने की जगह क्षत्रियों के नीचे थी।40 भले ही यह स्थिति राजनीति के क्षेत्र तक सीमित हो परंतु तत्कालीन ग्रंथों में स्पष्टया उल्लिखित है और पालि साहित्य के प्रथम चरण में इसी सत्ता-समीकरण की सुस्पष्ट अभिव्यक्ति उन ऐतिहासिक निष्कर्षों पर प्रश्नचिह्न लगा देती है जो ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष को ही वर्ग-निर्माण के आदिम चरण का प्रमुख सामाजिक तथ्य मानते हैं। यह सुझाव दिया गया है कि सामाजिक अधिशेष के बंटवारे के लिए चल रहा संघर्ष जब उत्तर वैदिक युग के अंत तक आते-आते तीव्र हो गया, तब इस चरण के वैदिक ग्रंथों ने, विशेषकर शतपथ ब्राह्मण ने, शासक वर्ग के दोनों घटकों-ब्राह्मण एवं क्षत्रिय के बीच एकता एंव सहयोग पर बल देना आवश्यक समझा।41

इन सुझावों के बावजूद यदि हम समकालीन सामाजिक समूहों को उत्पादन की विधि में उपस्थापित कर देखें तो स्पष्ट  हो जायेगा कि सामाजिक संघर्ष मूलतः क्षत्रियों और वैश्यों के आपसी संबंधों के इर्द-गिर्द केन्द्रित था। परम्पराओं में वैश्यों या कृषकों के प्रतिरोधों की चर्चा नहीं है, परंतु कर्मकांडों में इस बात के संकेत उपलब्ध हैं।42 सोचने की बात यह है कि अधिशेष उत्पादित करनेवाले वैश्य समुदाय से वास्तविक जीवन में शूद्रों की तरह व्यवहार क्यों किया जाता था! उत्पादन की प्रक्रिया में निहित उनके महत्त्व को ध्यान में रखते हुए उनके निम्न सामाजिक दर्जे की बात गले से नीचे नहीं उतरती है। यह एक आम जानकारी है कि अधिशेष उत्पादित करनेवाला समूह सम्पूर्ण उत्पादन-तंत्र को प्रभावित करने का प्रयास करता है।43 लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि धर्म को प्रभुत्त्व स्थापित करने का हथियार बनाकर वैश्यों की जगह यह फायदा सुविधाभोगी वर्गों ने प्राप्त कर लिया। वस्तुतः ग्रंथों में उल्लिखित भाव से ऐसा प्रतीत होता है कि ब्राह्मण-पुरोहितों की मदद से शासकीय लड़ाकू जाति, अर्थात् क्षत्रिय, के फायदे के लिए वैश्यों एवं शूद्रों का शोषण होना चाहिए।44 कृषि अर्थव्यवस्था का क्रमिक विकास क्षत्रियों और वैश्यों, जो क्रमशः प्रभुत्त्व एवं उत्पादन के साधनों का प्रतिनिधित्त्व कर रहे थे, को परस्पर विरोधी समूहों के रूप में आमने-सामने ला रहा था। पूर्वकाल में क्षत्रियों एवं वैश्यों के परस्पर संघर्ष का प्रतिबिंबन ऋग्वेद में चर्चित मरुतों और उनके मुखिया, इन्द्र के बीच के कलह में होता है।45 बाद में मरुतों के संबंध में हमें यह जानकारी मिलती है कि वे कृषक (विश्) थे तथा इन्द्र कृषकों के राजा के रूप में उनका भक्षण करता है।46 वस्तुतः गंगा घाटी के बढ़ते कृषिकरण के फलस्वरूप वैश्यों के आर्थिक प्रभाव में अभूतपूर्व वृद्धि हुई और नव-जन्मे राज्य का अस्तित्त्व तथा राज्य निर्माण की प्रक्रिया की निरंतरता अब काफी हद तक इन्हीं पर निर्भर हो गई। इसने अंतरवर्ण संबंधों को एक नया आयाम दिया और ऐसे समीकरण के निर्माण की शुरुआत की जिसमें वैश्यों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए क्षत्रियों और ब्राह्मणों को साथ लाने का प्रयास हुआ।47

उत्तरवैदिक ग्रंथों में जो प्रबल जनमानस दिखायी देता है उसमें एक ओर सरदार (राजा, राजन्य, क्षत्र, क्षत्रिय) और दूसरी ओर विश् या किसान बंधुजन के बीच भेद-बोध उभरकर आता है।48 इन दोनों के बीच के भेद को रेखांकित करने के लिए तरह-तरह की उपमाओं का प्रयोग किया गया है। प्रथम हरिण है, तो द्वितीय यव, प्रथम अश्व है तो द्वितीय अन्य जंतु ; प्रथम सोम है तो द्वितीय अन्य वनस्पति; प्रथम दूध है, तो द्वितीय सूरा; प्रथम अभिमंत्रित इष्टक (ईंट) है, तो द्वितीय खाली जगह को भरने की ईंटें, प्रथम कलश है तो द्वितीय चम्मच या छोटी कलछी; प्रथम इन्द्र है तो द्वितीय मरुत; प्रथम महतृण है, तो द्वितीय लघुतृण, आदि-आदि। इन उपमाओं को पुरोहितों ने चलाया ताकि करदाता किसान राजन्यों/क्षत्रियों और ब्राह्मणों की श्रेष्ठता सहज भाव से स्वीकार करते रहें।49 राजा सोम के संदर्भ में कहा गया है कि जब क्षत्रिय उच्च स्थान में रहता है, तब विश् निम्न स्थान में रहते हुए उनकी सेवा करता है।50 हवन की वेदी बनने के अनुष्ठान से भी प्रकट होता है कि क्षत्र और विश् के बीच कैसा संबंध था। वेदी ईंटों से उसी प्रकार बनायी जाती है जिस प्रकार क्षत्र (सरदार) विश् से प्रबल बनाया जाता है और विश् नीचे से उसका अनुयायी बनाया जाता है।51 बार-बार कहा गया है कि स्तुत (अभिमंत्रित) ईंटें क्षत्र की द्योतक हैं और खाली जगह भरने की ईंटें विश् की द्योतक हैं। प्रथम भोक्ता है और द्वितीय भोग्य। वाजपेय (बालपन का यज्ञ) में वैश्य को ब्राह्मण और राजन्य दोनों का भोग्य कहा गया है। और यह भी कि भोक्ता को अगर पर्याप्त भोजन मिले तो राज्य समृद्ध रहता है।52

ईंटें बिछाने की व्याख्या बार-बार की गई है। अभीष्ट सदा यह रहा है कि क्षत्र को अधिक शक्तिशाली बनायें और विश् को उसका अनुयायी। यह भी कहा गया है कि विश् (प्रजा) को पृथग्वादिनी (अलग-अलग बोलनेवाली) और नानाचेतस53 (अलग-अलग सोचनेवाली) बनाये रखा जाये, अर्थात् प्रजा में फूट डाले रहें ताकि वह नियमानुसार कर चुकाने और सदा आदेश-पालन में आनाकानी न कर सके। सौत्रामणी नामक सोमयज्ञ में दूध से भरी प्यालियों को क्षत्र (शासक) कहा गया है और सुरा से भरी प्यालियों को विश् (शासित)। यह भी बताया गया है कि उन प्यालियों को एक-दूसरे से जोड़े बिना अलग-अलग न उठायें, क्योंकि ऐसा करने से क्षत्र से विश् और विश् से क्षत्र अलग हो जाएंगे और ऊंच-नीच का क्रम गड्डमड्ड हो जाएगा।54 लेकिन यदि उन्हें एक-दूसरे से जोड़कर उठाये तो ऐसा नहीं होगा और विश् को क्षत्र का अनुयायी बना रखा जा सकेगा।55 विश् को क्षत्र का अनुयायी/आज्ञाकारी बनाये रखने की आवश्यकता के और भी साक्ष्य अश्वमेध यज्ञ के अनुष्ठानों से हमें प्राप्त होते हैं।56 यज्ञ पशुओं में घोड़े को क्षत्र कहा गया है और अन्य पशुओं को विश्।57 देवताओं को अश्व आदि पशु-बलि देते समय आह्वान और मंत्र वही पढ़ना चाहिए जो उपयुक्त हों; अन्यथा प्रजा-तुल्य होकर प्रत्युद्गमनी, अर्थात् विरोध में खड़ी होनेवाली हो जाएगी और इससे यजमान की आयु कम हो जाएगी किंतु यदि पुरोहित लोग सब कुछ ठीक से करेंगे तो विश्, क्षत्र के प्रति विनीत और वशवर्ती रहेगा।58 इस सबसे प्रकट होता है कि स्वतंत्रता और समताप्रिय किसानों को काबू में रखना अत्यावश्यक समझा जाता था। घृत की आहुति-सम्बंधी एक अनुष्ठान में कहा गया है कि क्षत्रिय यह आहुति जुहू, अर्थात् छोटी कलछी से देगा तो भोजक और भोज्य के बीच अंतर मिट जाएगा; दूसरे शब्दों में, आरंभिक समतावादी बंधुत्व पलट आएगा। दूसरी ओर, यदि वह यह काम बड़ी कलछी से करे तो वैश्य को वश में करेगा और उसे कहेगा-‘वैश्य तुमने जो जमाकर रखा है, वह मेरे पास ला दो।’59 तथा, जिस राजा ने असंख्य लोगों के बीच अपने को प्रतिष्ठापित कर लिया है, वह एक घर (वेष्मन्) में रहते हुए भी उन्हें वश में करता है।60

जैसाकि पहले कहा जा चुका है, परम्पराओं में वैश्यों या कृषकों के प्रतिरोधों की चर्चा नहीं है, परंतु कर्मकांडों में इस बात के संकेत उपलब्ध हैं। कर्मकांडों से प्रकट होता है कि राजन्य और विश् के बीच संघर्ष छिड़ता था और उसमें ब्राह्मण या अन्य प्रकार के पुरोहित राजन्य की ओर से बीच-बचाव करते थे।61 कई अनुष्ठानों में राजन्य और ब्राह्मण मिलकर विश् और शूद्र का सामना करते थे।62 यू. एन. घोषाल ने बहुत से ऐसे उएाहरण देकर बताया है कि किस तरह उत्तर वैदिक समाज में ब्रह्म और क्षत्र का बोलबाला रहा, किस तरह आपस में उनकी प्रतिद्वन्दिता रही और किस तरह उनमें राजनीतिक गंठबंधन हुआ।63 यजुर्संहिताओं में64 तथा ब्राह्मण ग्रंथों में 65 दोनों उच्च वर्णों की रक्षा (अभय) की कामनावाली स्तुतियां मिलती हैं। कहा गया है कि वैश्य और शूद्र ब्राह्मण और क्षत्रिय से घिरे हैं66 तथा, जो न क्षत्रिय हैं, न पुरोहित, वे अपूर्ण हैं।67 राजसूय यज्ञ के परवर्ती रूप में वैश्य और शूद्र को द्यूत-क्रीड़ा में शामिल नहीं किया गया है। दिलचस्प बात यह है कि राजा न केवल वैश्यों और शूद्रों को, बल्कि ब्राह्मणों को भी वश में रखने का प्रयास करता है।68 इस संदर्भ में राजन्य और क्षत्रिय और राजन्यों के बीच, संभवतः राजा और पुराने बान्धव अभिजात वर्ग के बीच, विश् से वसूले गये अन्न एवं पशु आदि को लेकर संघर्ष होते थे।                                                                   

यद्यपि ब्राह्मणों और क्षत्रियों की भलाई इसी में थी कि वे वैश्यों और शूद्रों के विरुद्ध आपस में मिलकर रहें; फिर भी दोनों आपस में लंबे युद्धों में संलग्न रहते थे।69 ऐसा प्रतीत होता है कि पनपते वर्ग/वर्णमूलक समाज में संघर्ष मुख्यतः सामाजिक श्रेष्ठता प्राप्त करने हेतु होते थे;70 और वैश्यों से प्राप्त भेंट और कर तथा शूद्र समुदाय से प्राप्त दास-दासी आदि श्रमिकों के बंटवारे के प्रश्न भी उनसे जुड़े रहते थे। क्षत्रियों में ज्ञानोत्कर्ष का दावा और यज्ञ-विरोधी भावना निश्चय ही इसलिए उदित हुई कि पुरोहितों को अपनी दान-दक्षिणा निरंतर मिलते रहना उन्हें खलता था।71 अंततोगत्वा यह संघर्ष एक सामंजस्यपूर्ण समझौते में खत्म हुआ जब क्षत्रियों ने ब्राह्मणों का धार्मिक नेतृत्त्व स्वीकार कर लिया और ब्राह्मणों ने क्षत्रियों का राजनैतिक नेतृत्त्व। यह समझौता टूटता-सा लगता था जब दोनों ही प्रभु वर्ग अपने अधिकार क्षेत्रों का अतिक्रमण कर अपनी श्रेष्ठता का दावा पेश करते थे।

इस प्रकार के संघर्षों की चरम परिणति हुई वर्ण-व्यवस्था के उदय में, जिसके अनुसार वैश्यों और शूद्रों को ब्राह्मणांे और क्षत्रियों की श्रेष्ठता शिरोधार्य हो गई। इसी वर्ण-व्यवस्था की मदद से राजा ने अपना अलग अस्तित्त्व कायम किया और धर्म (अर्थात् वर्ण धर्म) की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया। उत्तर वैदिक काल में वर्ण और राजसत्ता के समर्थन में बहुत सी आनुष्ठानिक और वैचारिक युक्तियां निकाली गईं और वैदिकोत्तर काल में इस व्यवस्था की नींव पर खड़े किये गये धर्मशास्त्र ने वर्ण और राजसत्ता दोनों को समृद्ध किया। इस तरह कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था का उदय संपत्ति संबंधों में आये क्रमिक विकास का ही नतीजा था। इसलिए ठीक ही कहा गया है कि वर्णों का विभाजन श्रम विभाजन के साथ ही साथ संपत्ति का भी विभाजन था।72 लगभग संपूर्ण प्राचीन भारत में वर्ग, मोटे तौर पर, वर्ण से अभिन्न रहा है।73   

संदर्भ एवं टिप्पणियां:


1. रामशरण शर्मा, प्राचीन भारत में भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएं, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1992, पृष्ठ-212।
2. रामशरण शर्मा, भारत में राज्य की उत्पत्ति, पी. पी. एच., 2001, पृष्ठ-7।
3. रामशरण शर्मा, प्राचीन भारत में भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएं, पृष्ठ-84। हालांकि प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएं पुस्तक में ‘विश्’ शब्द का उल्लेख पृष्ठ 393 पर 170 बार ही बताया गया है।
4. यह त्सिमर का मत है। अन्य वेदविज्ञों के अनुसार पंच (पत्र्च) व्यापकार्थक पद है, जिसमें सभी जनों का समावेश अभिप्रेत है। द्रष्टव्य, रामशरण शर्मा, मेटीरियल कल्चर एण्ड सोशल फॉर्मेशंस, पृष्ठ-48। 
5. रामशरण शर्मा, मेटीरियल कल्चर एण्ड सोशल फॉर्मेशंस, पृष्ठ-41। 
6. एम. मोनियर विलियम्स, संस्कृत-इंगलिश डिक्शनरी, शब्द देखिए, रत्र्ज अथवा रज्। 
7. रामशरण शर्मा, प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएं, पृष्ठ-393।
8. रामविलास शर्मा, इतिहास दर्शन, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1995, पृष्ठ-22। 
9. वही।
10. अर्य शब्द जिसमें छोटे ‘अ’ का प्रयोग है, ऋग्वेद में अठासी बार प्रयोग में आया है। इस शब्द का प्रयोग चार परस्पर भिन्न संदर्भों में हुआ है, जैसे (क) शत्रु, (ख) आदरणीय व्यक्ति (ग) भारत का नाम (घ) स्वामी, वैश्य या नागरिक। विस्तृत अध्ययन के लिए देखें, डा. भीमराव आंबेडकर, शूद्र कौन थे, मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल, प्रथम संस्करण, 1993, अपेंडिक्स संख्या-1, पृष्ठ-190।
11. यजुर्वेद, 30 . 5।
12. उपरोक्त, 26. 2।
13. अथर्ववेद, 19. 32. 8।
14. ‘हालांकि यह निर्विवाद है कि ऋग्वेद के समय में भी भारतीय आर्य समाज विभिन्न वर्गों में विभक्त था, फिर भी अधिकांश उद्धरण वर्गों की उत्पत्ति की उपेक्षा कर केवल मनुष्य की उत्पत्ति की चर्चा करते हैं। केवल पुरुष सूक्त ने ही वर्गों की उत्पत्ति का वर्णन आवश्यक समझा।’ डा. भीमराव आंबेडकर, शूद्र कौन थे, पृष्ठ-8।
15. रामशरण शर्मा, भारत में राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 10।
16. ए. ए. मैकडॉनेल, वेदिक माइथॉलॉजी, स्ट्रासबर्ग, 1896, पृष्ठ-25।
17. रामशरण शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 10।
18. वही, पृष्ठ-11।
19. ऐतरेय ब्राह्मण में ‘राजन्य’ शब्द द्वितीय वर्ण के सदस्य के लिए और क्षत्रिय राजा के लिए प्रयुक्त हुआ है। देखें, पी. वी. काणे, हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र, भाग-1, पृष्ठ 30-32।
20. रामशरण शर्मा, शूद्राज इन एंशिएंट इंडिया, पृष्ठ 60।
21. रामशरण शर्मा, भारत में राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 13।
22. वही, पृष्ठ 14।
23. विशो हि क्षत्रम् जायते, शतपथ ब्राह्मण ; ग्प्प् 7. 3. 8।
24. शतपथ ब्राह्मण, ग्प्प्, 7.3.12.। यह उस प्रचलित मिथक का भाग है, जिसके अनुसार ब्राह्मण के विभिन्न अंगों से चारों वर्णों का जन्म हुआ।
25. रामशरण शर्मा, भारत में राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 14।
26. वही।
27. वही।
28. तैत्तिरीय संहिता, 1. 8. 15, टीका के साथ, जो सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट ग्स्प्, पृष्ठ 100, पाद-टिप्पणी में उद्धृत है।
29. विजय कुमार ठाकुर, ‘प्रारंभिक बिहार में कृषक समुदाय का अभ्युदय’, इतिहास, अंक-1, भाग-1, पृष्ठ 65।
30. वही।
31. मार्क्स और एंगेल्स, सेलेक्टेड करेस्पांडेंस, द्वितीय संस्करण, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मास्को, 1955, पृष्ठ 417।
32. विजय कुमार ठाकुर, ‘ए मार्क्सिस्ट व्यू ऑफ एंशिएंट इंडियन हिस्ट्री’, दि जर्नल ऑफ दि बिहार रिसर्च सोसायटी, जिल्द स्ग्प्प्, भाग-1-4, पृष्ठ 246।
33. मैकडॉनल और कीथ, वेदिक इंडेक्स ऑफ नेम्स एंड सब्जेक्ट्स, जिल्द (पुनर्मुद्रित), मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1958, पृष्ठ 275-276, 110, 309, 89, 87, 262।
34. विजय कुमार ठाकुर, सोशल डायमेंशंस ऑफ टेक्नॉलॉजी: आयरन इन अर्ली इंडिया, जानकी प्रकाशन, 1993, पृष्ठ 17।
35. वही।
36. सुरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव, वैदिक साहित्य में वर्ण व्यवस्था, नगीना प्रकाशन, वाराणसी, 1987, पृष्ठ 220।
37. ऐतरेय ब्राह्मण, टप्प्ण्16।
38. तैत्तिरीय संहिता, प्प्. 5.10.1।
39. शांता आनंद, क्षत्रियाज इन एंशिएंट इंडिया, आर्य बुक डिपो, दिल्ली, 1985, पृष्ठ 120।
40. रामशरण शर्मा, मेटीरियल कल्चर एंड सोशल फॉर्मेशंस, 1983, पृष्ठ 81-82।
41. वही।
42. रामविलास शर्मा, मार्क्स और पिछड़े हुए समाज, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1986, पृष्ठ 140।
43. डी. डी. कोसांबी, ऐन इंटोडक्शन टू द स्टडी ऑफ इंडियन हिस्ट्री, पोपुलर प्रकाशन, बंबई 1985 (पुनर्मुद्रित), पृष्ठ 100।
44. वही।
45. वही।
46. राजू रंजन प्रसाद, ‘बिगिनिंग्स ऑफ क्लास फॉर्मेशन इन अर्ली इंडिया: ए डिस्कॉर्डेंट नोट’ (टंकित) इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के 56 वें अधिवेशन में प्रस्तुत लेख, कलकत्ता, 1995।
47. तैत्तिरीय संहिता, प्प्. 1. 1. 2।
48. रामशरण शर्मा, भारत में राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 14।
49. वही, पृष्ठ 15।
50. शतपथ ब्राह्मण, प्प्प् 9. 3. 6; देखें सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट, पृष्ठ 228, पाद टिप्पणी-2।
51. वही, प्ग् 4. 3. 3-4।
52. वही, टप् 1. 2-25।
53. वही, टप्प्प् 7. 2. 3। व्यतिक्रम के अर्थ में पापवश्यस शब्द का प्रयोग है।
54. रामशरण शर्मा, भारत में राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 16।
55. शतपथ ब्राह्मण, ग्प्प् 7. 3. 12 और 15।
56 रामशरण शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 16।
57. वही।
58. शतपथ ब्राह्मण, ग्प्प्प् 2. 2. 15।
59. वही, प्ए 3. 2. 15।
60. वही, 3. 2. 14।
61. रामशरण शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 18।
62. वही।
63. हिंदू पब्लिक लाइफ, भाग-1, कलकत्ता, 1944, पृष्ठ 73-80।
64. कण्व संहिता, ग्ग् 2।
65. शतपथ ब्राह्मण, 5. 2. 11; 6. 1. 17-18, प्ग् 4. 1. 7-8।
66. वही, टप् 4. 4. 12-13।
67. वही,  6. 3. 12-13।
68. रामशरण शर्मा, राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 19।
69. वही।
70. वही।
71. वही।
72. एस. जी. सरदेसाई, प्राचीन भारत में प्रगति एवं रूढ़ि, पी. पी. एच., जयपुर, 1988, पृष्ठ 33।
73. डी. डी. कोसांबी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 39। रामशरण शर्मा ने भी अपनी पुस्तक सम इकेनॉमिक आस्पेक्ट्स ऑफ द कास्ट सिस्टम इन एंशिएंट इंडिया, पटना, 1951 में ऐसा ही विचार व्यक्त किया है। और देखें, भारत में राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 11, पाद टिप्पणी-5।

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