Thursday, September 23, 2010

निष्कर्ष


प्रभुत्त्व की खोज मनुष्य की सभ्यता-संस्कृति की शायद पहली कहानी है। इसलिए यह कहना असंगत न होगा कि अब तक का सारा इतिहास जाति, सम्प्रदाय, धर्म एवं वर्गों के प्रभुत्त्व के लिए चलनेवाले संघर्ष का इतिहास है। जिस दिन भारतीय समाज का ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र आदि में विभाजन हुआ, उसी दिन से स्थापित प्रभुत्त्व को कायम रखने तथा शासित वर्गों द्वारा प्रभुत्त्वशाली वर्गों अथवा वर्णों को चुनौती देने की बात प्रत्यक्ष होने लगी। कहना होगा कि प्राचीन भारत के विशेषज्ञ इतिहासकारों ने समाज में संस्तरण के निर्माण की प्रक्रिया और विभिन्न वर्णों/वर्गों के उद्भव की बात तो की है लेकिन उस प्रक्रिया का उत्पादन के साधनों के साथ क्या संबंध था, अब तक बहुत स्पष्ट नहीं कहा जा सकता। हमारा प्राचीन भारत अगर विभिन्न सामाजिक इकाइयों में बंटा था, जिनकी सामाजिक हैसियत में भिन्नता थी, तो निश्चित रूप से शोषित-शासित समूहों ने प्रभुत्त्वशाली वर्गों को चुनौती भी दी होगी। इतिहासकारों को ब्राह्मण-क्षत्रिय के विरुद्ध वैश्यों-शूद्रों का विरोध तो नजर आता है लेकिन ब्राह्मण-क्षत्रिय का आपसी संघर्ष एवं अंतर्विरोध गले नहीं उतरता। उत्पादन के साधनों पर इन्हीं दो वर्णों का सम्मिलित प्रभुत्त्व स्थापित था, इसलिए ब्राह्मण-क्षत्रिय के अंतर्संबंधों/अंतर्द्वंद्वों के अध्ययन से न सिर्फ प्राचीन भारत के आर्थिक-सामाजिक विकास की जानकारी बढ़ती है बल्कि कई नये अर्थ भी उद्भाषित होते हैं।
 
चातुर्वर्ण्य एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था थी/है, जिसमें वर्णों का विभाजन चार रूपों में हुआ, यानी पूरा समाज चार खंडों में विभाजित हुआ। इनमें ब्राह्मण, धर्म एवं धार्मिक अनुष्ठानों के प्रतिष्ठापक (सामान्य रूप में बुद्धि-व्यवसायी), क्षत्रिय, योद्धा और शासक, वैश्य कृषि और पशुपालन जिनका धंधा था (बाद के दिनों में व्यापार भी) और शूद्र जिसे उक्त तीनों वर्णों की टहल-चाकरी करना था। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य द्विज थे। द्विज का अर्थ है दो बार जन्म लेनेवाला। इन तीन द्विज वर्णों में वैश्य1 (विश् शब्द से उद्भूत जिसका अर्थ है व्यवस्था) को सिद्धांततः शूद्रों से ऊंचा स्थान मिला। इस बात में कोई संदेह नहीं कि इन्हें खूब लूटा और उत्पीड़ित किया जाता था। वैश्य वर्ण के पास यज्ञोपवीत और वेद-पाठ का सैद्धांतिक अधिकार होते हुए भी ब्राह्मण-क्षत्रिय की तुलना में बहुत नीचे थे। जैसे-जैसे समाज बदलता गया, वैसे-वैसे वैश्यों की स्थिति लगातार निम्नतर होती गई। कानून एवं राजनीति के संदर्भ में वर्ण-व्यवस्था पर सतही तरीके से सोचने-विचारने पर ऐसी भ्रामक धारणा बन सकती है कि सामाजिक वर्ण-क्रम में ब्राह्मणों को पहला, क्षत्रियों को दूसरा, वैश्यों को तीसरा एवं शूद्रों को चौथा स्थान दिया गया था। ऐसा स्पष्ट विभाजन केवल सैद्धांतिक एवं आरंभिक काल के लिए ही संभव प्रतीत होता है। ब्राह्मण-उपनिषद् काल में क्षत्रिय, ब्राह्मणों के अधिक निकट हो चले थे एवं वैश्य, शूद्रों के। उपेन्द्रनाथ घोषाल ने ऐसे अनेक उदाहरण एवं उद्धरण पेश किये हैं जिनसे उत्तर वैदिक काल में ब्राह्मण एवं क्षत्रिय-इन दो महत्त्वपूर्ण सामाजिक शक्तियों के बीच घनिष्ठ राजनीतिक संबंधों का अस्तित्त्व एवं महत्त्व प्रकट होता है।2
 
ब्राह्मण-उपनिषद् काल में पशुचारण अवस्था से कृषि अवस्था में संक्रमण ने उत्पादन श्रम में लगी आम जनता एवं उदीयमान अवकाश-भोगी वर्ग के बीच जन्म ले रही वर्ग-भेद की खाई को और अधिक गहरा किया।3 पर अवकाश-भोगी वर्ग काम नहीं करता था बल्कि काम करनेवाले वर्ग के अतिरिक्त उत्पादन पर निर्भर रहता था। इसका परिणाम यह हुआ कि एक तरफ ब्राह्मण-क्षत्रिय और दूसरी तरफ वैश्य-शूद्र के बीच संघर्ष घनीभूत हुआ।4 इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि चातुर्वर्ण्य का उद्भव एवं विकास वैश्यों-शूद्रों पर ब्राह्मण-क्षत्रिय प्रभुत्त्व का सैद्धांतिक आधार था।5 लौह-तकनीक के आविष्कार से सैन्य-सामग्री में एक क्रांति-सी आ गई, तथा पुरोहितों की तुलना में योद्धाओं का राजनीतिक महत्त्व अधिक बढ़ गया।6 इसलिए बहुत ही स्वाभाविक रूप से जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी बराबरी की स्थिति का दावा करने लगे। इस काल के अनेक ग्रंथों में ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों के मध्य हितों को लेकर संघर्ष स्पष्ट है।7 अब क्षत्रिय के बीच से अनेक नाम आने शुरू होते हैं जो ब्रह्म एवं दर्शन-चर्चा में ब्राह्मणों के भी कान काटते हैं। ब्राह्मण तत्त्वदर्शी उनसे बहस करते डरते हैं और मजे की बात है कि कई तो क्षत्रिय राजर्षियों को अपना गुरु तक स्वीकार करते हैं।8 प्रसंगवश, यह कहना भी जरूरी होगा कि कई उपनिषदों की रचना क्षत्रिय लेखक-विचारक के कारण संभव हो सकी।9 इसलिए कह सकते हैं कि ब्राह्मण वर्ण की बौद्धिक श्रेष्ठता को चुनौती पहली बार उपनिषदों में मिलती है, एक मुकम्मल दर्शन के साथ, बिल्कुल पंडितों की समझ में आनेवाली अर्थात् शास्त्रीय भाषा में। निस्संदेह, इसकी भाषा और वस्तु दोनों ही ब्राह्मणों द्वारा रचित किसी भी ग्रंथ से उच्च स्तर की थी। ज्ञान एवं ज्ञान की महिमा से भरी हुई, लगभग ज्ञानियों की भाषा में। यह औपनिषदिक दर्शन स्वयं ब्राह्मणों तक के लिए किसी ‘रहस्य’ से कम नहीं था।
 
लोहे के हथियारों के प्रयोग से राजनैतिक जीवन में जो क्रांति आई थी, अब लोहे के औजारों से कृषि-क्षेत्र में भी महसूस की जाने लगी थी। वैदिक काल में राजा कर के रूप में एक बहुत छोटे हिस्से से काम चला सकता था क्योंकि खर्च के नाम पर महज ब्राह्मणों को दिया जानेवाला दान-दक्षिणा ही था। अब जनपदों का आकार निरंतर बड़ा होते जाने से एवं लौह-हथियार-औजार के सफल प्रयोग से सैनिक वर्ग ने समाज में अपनी विशिष्टता और इसीलिए अनिवार्यता भी सिद्ध कर रखी थी। स्थायी सेना के रख-रखाव ने राज्य का खर्च पहले से कई गुना अधिक कर दिया। अतः ब्राह्मणों के लिए भी यह जरूरी हो गया था कि राजा को एक नियमित कर देने के लिए वे आमजन के बीच ‘आम-सहमति’ निर्मित करें।10 संसाधन जुटाना न केवल पेशेवर सेना तथा कर्मचारी एवं न्यायिक अधिकारियों के रख-रखाव के लिए अनिवार्य था अपितु उनलोगों के लिए भी जो ‘सहमति’ का संवर्धन करते थे।11  सहमति निर्माण की प्रक्रिया में एक प्रमुख दायित्त्व था उन कृषकों अथवा विश् की भर्त्सना करना जो राजा को तुच्छ समझते थे, उसकी आज्ञा का पालन नहीं करते थे, तथा विद्रोह करते थे।12 स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि जनों को अभिजात वर्ग के ऊपर स्थापित नहीं करना चाहिए,13 तथा वे लोग श्रेष्ठ व्यक्तियों और बुरे व्यक्तियों के मध्य भ्रम उत्पन्न करते थे जो विश को अभिजात वर्ग के समान बताते थे और इस प्रकार उन्हें हठीला बनाते थे।14 इस प्रकार का कोई भी प्रयत्न जो कृषकों को योद्धा-राजाओं से अथवा योद्धा-राजाओं को कृषकों से अलग करता हो, इस आधार पर निंदनीय है कि वह अव्यवस्था को जन्म देता है और पाप का मार्ग प्रशस्त करता है।15 कृषकों पर प्रभुत्त्व स्थापित करने का प्रमुख कारण था उनसे समय-समय पर प्राप्त होनेवाला अंश।16 राजा को बार-बार कृषकों का भक्षक कहा गया है,17 जो यह प्रदर्शित करता है कि वह उनके श्रम पर जीवित था। यह कहा गया है कि मनुष्यों में वैश्यों तथा पशुओं में गायों का दूसरों के लिए उपयोग किया जाता है।18 ‘अभिजात वर्ग अन्नदाता है तथा साधारण जन भोजन हैं; यदि अन्नदाता के लिए पर्याप्त भोजन है तो वह राज्य निश्चय ही धनधान्यपूर्ण है और उन्नति करता है।’19 यह कथन शतपथ ब्राह्मण में व अन्य ग्रंथों में बार-बार उल्लिखित है। ‘राज्यसता’ जनों के आधार पर भोजन प्राप्त करती है, राज्य भक्षक है तथा लोग भोज्य हैं; राज्य हरिण है, तो लोग जौ हैं।20 इस प्रकार ब्राह्मण ग्रंथों के रचयिता बात को कम किये बिना वैदिक काल के अंतिम चरणों में विकसित दस्तकारों तथा चरवाहों सहित कृषक वर्ग एवं योद्धा राजाओं के पारस्परिक संबंधों के वास्तविक स्वभाव का प्रकट करते हैं। कृषक वर्ग को अभिजात वर्ग के अधीन करने में ब्राह्मण की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अनुष्ठानों के द्वारा वह राजा को शक्ति प्रदान करता है, और परिणामस्वरूप नीचे के लोगों से उसे अधिक बलवान बनाता है।
 
लौह तकनीक से सैन्यबल में आई क्रंाति गौतम तथा महावीर की क्षत्रियोत्पत्ति की अंाशिक रूप से व्याख्या करती है, और इस तथ्य को भी स्पष्ट करती है कि प्राचीन वर्णक्रम में क्षत्रियों को पहला एवं ब्राह्मणों को दूसरा स्थान क्यों प्रदान करते हैं। करों के नियमित भुगतान द्वारा ही क्षत्रिय राजा संपोषित हो सकते थे। बुद्ध-काल के बौद्ध एवं ब्राह्मण दोनों तरह के ग्रंथ इस आधार पर कृषकों के उत्पाद में राज्य-अंश को उचित ठहराते हैं कि राजा लोगों को संरक्षण प्रदान करता है। बौद्ध धर्म गृहीत ग्रंथ दीघनिकाय ऐसा प्राचीनतम भारतीय स्रोत प्रतीत होता है, जो क्षत्रिय शासक वर्ग की उत्पत्ति के लिए तर्कपूर्ण औचित्य प्रदान करता है।21 यह क्षत्रिय शासन की स्थापना द्वारा दुख की अवस्था के अंत का विस्तृत रूप से चित्रण करता है और साथ ही करों के भुगतान कर सकने की योग्यता को बुद्ध के द्वारा संपत्ति के पांच फलों में से एक माना गया है।22
 
ब्राह्मण और क्षत्रिय वैदिक समाज के उच्च वर्ग के रूप में प्रतिष्ठापित थे। यज्ञ, मंत्र, प्रार्थना आदि कार्यों में संलग्न वर्ण ब्राह्मण के अंतर्गत स्वीकार किया गया है। उसे सोमपान करनेवाला तथा वार्षिक यज्ञ में मंत्र-पाठ करनेवाला कहा गया है। वह विद्वान, मनीषी और वाक्परिमिता है। दूसरी ओर क्षत्रिय को योद्धा, राजा और तीन वर्णों की रक्षा करनेवाला बताया गया है। ऐतरेय ब्राह्मण के एक प्रसंग मंे उल्लिखित है कि जब राजा को मुकुट पहनाया जाता था तो यह समझा जाता था कि सभी जीवों का स्वामी तथा ब्राह्मणों का रक्षक क्षत्रिय पैदा हुआ।23 शतपथ ब्राह्मण में भी यह उल्लेख है कि दोनों वर्ण मनुष्यों में श्रेष्ठ हैं। अतः इनके आपसी सहयोग तथा परस्पर से ही राजनीतिक और सामाजिक सुव्यवस्था कायम रह सकती है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार दोनों वर्ण एक-दूसरे के कार्य को संपन्न करने में सहायता प्रदान करते थे।24
 
पहले अकेले ब्रह्म ही तो था। अकेला होने के कारण वही सब कुछ था। समस्त वर्ण उसी में था। जातियों/वर्णों का कोई विभाजन न था, पर उस दशा में उसमें वैभव का अभाव था। उसने अपने रूप को प्रशस्त करके, फैलाकर, क्षत्रवत् बनकर देवताओं में इंद्र, वरुण, सोेम, रूद्र, मेघ, यम, मृत्यु और ईशनादि क्षत्रिय देवताओं की सृष्टि की। इसीलिए क्षत्रिय से उत्कृष्ट कोई नहीं है। और शायद इसीलिए राजसूय यज्ञ में ब्राह्मण नीचे बैठकर क्षत्रिय की उपासना करता है-‘क्षत्रात्परं नास्ति। तस्मात ब्राह्मणः क्षत्रियामधस्तात उपासते राजसूये।’ वह क्षत्रिय होकर अपने यश को धारण करता है। यह ब्रह्म ही क्षत्रिय की योनि है, क्योंकि इसी से क्षत्रिय की उत्पत्ति हुई-‘स एष क्षत्रस्य योनिः यत् ब्रह्म।’ और जो क्षत्रिय, ब्राह्मण की हिंसा करता है, वह अपनी योनि का ही नाश करता है। अपना ही मूलोच्छेद करता है।25
 
वैदिक काल के आरंभिक दिनों में अलग से पुरोहित वर्ग का व्यवस्थित विकास न हो सका था। सुख और संपत्ति की प्राप्ति के लिए लोग स्वंय यज्ञाग्नि जलाते थे। परंतु उत्पादन के साधनों एवं शक्तियों के विकास के साथ समाज में धीरे-धीरे विभेदीकरण हुआ। हां, हम ऋग्वेद में वैसा सामाजिक स्तरीकरण नहीं पाते जैसाकि बाद के दिनों में देखने को मिलता है। ऋग्वेद में चौदह बार ब्राह्मण का, नौ बार क्षत्रिय का और एक बार राजन्य का उल्लेख मिलता है। वास्तव में, क्षत्रिय शब्द बलवान के अर्थ में, वरुण की एक उपाधि या विशेषण के रूप में चार बार आया है।26 जहां तक वैश्य और शूद्र का प्रश्न है, यदि हम दशम् मंडल के ‘प्रक्षिप्त’ अंश को छोड़ दंे तो ऋग्वेद में इन दोनों का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। अलबत्ता, ऋग्वेद में सात प्रकार के पुरोेहित मिलते हैं, पर इसे कोई प्रमुख स्थान नहीं दिया गया है। जब समाज वर्गों मंे बंट गया तो धनी वर्ग पुरोहित को नियुक्त करने लगे जो बड़े यज्ञों के लिए मंत्र जपने और अनुष्ठान करने में निपुण थे।27 उत्पादन में ‘बेशी’ होने के कारण पुरोहितों का दूसरों की मेहनत पर निर्वाह करना आसान एवं संभव हो गया। इस प्रकार धार्मिक संस्कारों को चलाने में विशेष रूप से प्रशिक्षित पेशेवर पुरोहितों के एक नये वर्ग का उदय हुआ।
 
ये पुरोहित, जो ब्राहमण कहलाते थे, आर्य समाज के एक प्रधान और प्रभावकारी अंग बन गये। बाद में सरदार और राजा लोग भी इन पुरोहितों के आशीर्वाद से ही अपने प्राधिकार चलाते थे। ये पुरोहित राज-पद को धार्मिक पवित्रता प्रदान करते थे। धार्मिक कर्मकांड और यज्ञ न केवल मवेशियों के पालन और कृषि में समृद्धि अथवा युद्धों में विजय के लिए, अपितु नये सामाजिक संगठन को बनाये रखने और उसकी सुरक्षा के लिए भी आवश्यक हो गये। वे पुरोहित, जो यज्ञों को पूरा करने में मदद करते थे, अधिकाधिक शक्तिशाली बनते गये। अनुष्ठानों में मिलनेवाली सामग्री और उपहारों के फलस्वरूप ये पुरोहित अत्यंत धनी हो गये। यज्ञ कराने के फलस्वरूप उन्हें अपने हाथों में अधिकाधिक धन-संपत्ति केन्द्रित करने में मदद मिली और आम जनता के धार्मिक मनोभावों का लाभ उठाकर उन्होंने समाज में आधिपत्यपूर्ण स्थान पा लिया।                        
 
ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों के परस्पर सहयोग के कई उदाहरण वैदिक साहित्य में उपलब्ध हैं।28 शतपथ ब्राह्मण के अनुसार क्षत्रिय तथा पुरोहित सर्वोच्च सामाजिक स्थिति को प्राप्त कर सकता है। इसके अतिरिक्त ब्राह्मण की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि ब्राह्मण बिना राजा के रह सकता है किंतु एक राजा बिना ब्राह्मण के नहीं रह सकता।29 तैत्तिरीय ब्राह्मण के अनुसार देवताओं को भी पुरोहित की आवश्यकता होती है। उदाहरणस्वरूप विश्वरूप देवताओं का पुरोहित था30 और सान्द तथा अमरक असुरों के पुरोहित के रूप में वर्णित हैं। इन्द्र का भी पुरोहित के रूप में उल्लेख है। पुरोहित बहुधा राजा को शुभकामना व्यक्त किया करते थे। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार, पुरोहित क्षत्रिय की आत्मा का आधा अंग होता था। पुरोहितों का गुणगान करता यह प्रसंग उपलब्ध है कि देवता उस राजा द्वारा दिया गया भोज्य पदार्थ ग्रहण नहीं कर सकता जिस राजा का कोई पुरोहित न हो या पुरोहितों के अभाव में राजा किसी यज्ञ का संपादन नहीं कर सकता था।31 ब्राह्मण एवं राजन्य का आपसी सहयोग समाज एवं देश की रक्षा के लिए अत्यावश्यक था।
 
प्रमाण सिद्ध करते हैं कि क्षत्रियों की अपेक्षा ब्राह्मण ही उच्च स्थिति के अधिकारी थे। परंतु कभी-कभी क्षत्रियों को भी सामाजिक सर्वोच्चता तथा ब्राह्मणों द्वारा विशेष समादार प्राप्त करने का विवरण उपलब्ध होता है। शतपथ ब्राह्मण का एक उद्धरण इस बात की ओर संकेत करता है कि क्षत्रियों के बाद ही ब्राह्मणों को स्थान प्राप्त होता था। अर्थात् यहां सम्मान और सामाजिक स्थितिक्रम में पहले क्षत्रिय को रखा गया है, तत्पश्चात् ब्राह्मणों को।32 इस प्रसंग में यह वर्णन है कि सभी लोगों के बीच राजा सर्वोच्च आसन ग्रहण करता था। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार राजा के समक्ष सभी लोग जमीन पर बैठते थे।33 ब्राह्मणों को राजसूय यज्ञ के अवसर पर क्षत्रिय के बगल में उससे नीचे स्थान ग्रहण करने का विवरण भी उपलब्ध होता है।34 इसी प्रकार काठक संहिता में भी यह उल्लिखित है कि क्षत्रिय ब्राह्मण से श्रेष्ठ है।35 तैत्तिरीय संहिता के अनुसार यदि राजा चाहे तो ब्राह्मण को भी अपने अधीन कर सकता था।36
 
साक्ष्यों के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि समाज के ये दोनों ही वर्ण एक-दूसरे के एकाधिकार को समाप्त करने के प्रयास से सर्वथा मुक्त नहीं थे। वर्ण-व्यवस्था के विकास के लिहाज से देखें तो चार वर्णों में विभाजन के बाद श्रेष्ठता का सवाल खड़ा होने का मतलब समाज का दूसरे चरण में प्रवेश था। समाज में ‘बेशी’ के उत्पादन के बाद महज इतना निर्धारित कर देना कि ब्राह्मण और क्षत्रिय अन्य दोनों वर्णों से श्रेष्ठ हैं, काफी नहीं था। श्रेष्ठता का सीधा मतलब संपत्ति एवं सत्ता में हिस्सेदारी से था। किसके हिस्से में कितना जाएगा, इसका भी एक गणित व्यवस्थित करना था।
 
बौद्ध काल में, ऐसा प्रतीत होता है कि क्षत्रियों ने ब्राह्मणों को एक जबर्दस्त चुनौती दी, उसने एक समानांतर शास्त्र विकसित किया। वर्णों की सूची में क्षत्रियों को प्रथम स्थान देना अकारण नहीं था। इतना ही नहीं, जन्म के समय कुल का विचार करते हुए बुद्ध कहते हैं, ‘बुद्ध वैश्य-शूद्र कुल में उत्पन्न नहीं होते, लोकमान्य क्षत्रिय या ब्राह्मण इन्हीं दो कुलों में जन्म लेते हैं। आजकल क्षत्रिय कुल लोकमान्य है; इसलिए उसी कुल में जन्म लूंगा।’ निश्चय ही लगभग पूरे बौद्ध साहित्य में क्षत्रिय को श्रेष्ठ बताया गया है एवं ब्राह्मणों की निंदा की गई है।37 स्वयं बुद्ध ने अम्बष्ठ से कहा-‘स्त्री की स्त्री से तुलना की जाये अथवा पुरुष की पुरुष से, क्षत्रिय ही श्रेष्ठ है और ब्राह्मण हीन।38 दीघ निकाय के अम्बट्ठ सुत्त में उल्लेख है कि अम्बष्ठ नामक एक युवा ब्राह्मण गौतम बुद्ध के पास जाता है और यह दावा करता है कि चार वर्णों में से तीन क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र ब्राह्मण के सेवक हैं। उस ब्राह्मण के श्रेष्ठता-बोध का दमन गौतम उसे यह स्मरण दिलाकर करते हैं कि कृष्णायन गोत्र, जिसका वह अम्बष्ठ सदस्य था, एक कोलिय क्षत्रिय राजा की दासी से प्रारंभ हुआ था। यह भी बताया गया कि दासी का पुत्र एक महर्षि बना और उसने क्षत्रिय राजा की कन्या से विवाह किया। इस प्रकार गौतम बुद्ध, अम्बष्ठ नामक एक युवा ब्राह्मण के माध्यम से कर्म की महत्ता पर बल देते हैं और साथ ही क्षत्रिय को श्रेष्ठ घोषित करते चलते हैं। इस प्रकार के विवरणों से बौद्ध साहित्य भरा पड़ा है।
 
दीघनिकाय एवं अंगुत्तर निकाय के अनुसार क्षत्रिय अपने को जन्मना निष्कलंक मानते थे।39 जातक निदान कथा में कहा गया है कि भगवान बुद्ध ने मनुष्य योनि में जन्म ग्रहण करने के पूर्व विचार किया कि किस कुल में जन्म लेना श्रेयस्कर होगा और सभी वर्णों के गुण-दोषों पर विचार करते हुए वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि क्षत्रिय कुल ही लोकसम्मत है, अतः उन्हें उसी वर्ण में जन्म लेना चाहिए।40 ठीक इसी प्रकार की एक कथा जैन ग्रंथ कल्पसूत्र में महावीर के जन्म के संबंध में मिलती है। महावीर को देवनन्दा नामक ब्राह्मणी के गर्भ में प्रवेश करने पर अपनी ‘भूल’ ज्ञात हुई तो वे त्रिशला नाम की क्षत्रियाणी के गर्भ में प्रविष्ट हो गये।41 सोनक जातक में राजा अरिन्दम अपनी जन्मना श्रेष्ठता की तुलना पुरोहित-पुत्र सौनक से करते कहते हैं-‘यह ब्राह्मण तो हीन जन्मना है, और मैं पवित्र क्षत्रिय कुलोत्पन्न हूं।’42 संयुत्त निकाय के क्षत्रिय सुत्त में भी यह उल्लेख है कि मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ क्षत्रिय है।
 
पाणिनिकालीन भारतीय जनपदों में क्षत्रिय जनों का राजनीतिक एवं प्रशासनिक प्रभुत्त्व परिलक्षित होता है। क्षत्रियों के नाम के समूह पर ही जनपदों का नामकरण होता था।43 अनेक जनपदों के नाम वही थे जो उसमें बसनेवाले क्षत्रियों के। जैसे कुरवः क्षत्रिय और कुरवः जनपदः। क्षत्रियों के अतिरिक्त अन्य पेशे के लोग भी जनपदों में आकर बस जाते थे जो अत्यंत ही स्वाभाविक प्रतीत होता है। जनपदीय जीवन में इतर लोगों के भर जाने पर भी राजनीतिक जीवन प्राचीन जन के उत्तराधिकार क्षत्रियों के हाथ में ही रहा। औरों से इसकी पृथकता जाहिर करने के लिए ये लोग जनपदिन् कहलाये, अर्थात् प्राचीन जन के स्थान पर एक नई संज्ञा जनपदिन् व्यवहार में आई। ऐसा प्रतीत होता है कि जनपदों के निर्माण में क्षत्रियों की प्रमुख भूमिका रही थी और सामाजिक हैसियत में भी अव्वल रहे होंगे। उन्हें शक्ति एवं सत्ता का प्रतीक मानने से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन ब्राह्मण भी चुप न बैठे थे। ब्राह्मणों के नाम पर भी जनपदों के नामकरण के प्रमाण अष्टाध्यायी में उपलब्ध हैं।44 ऐसा माना जा सकता है कि ब्राह्मण एवं क्षत्रिय के बीच आपसी प्रतिस्पर्धा रही होगी और एक-दूसरे के एकाधिकार को समाप्त कर स्वयं को प्रतिष्ठापित करने का प्रयास रहा होगा।45 लेकिन इस पूरे संघर्ष में इस बात का ध्यान रखा जाता था कि बाकी के दो वर्णों की सत्ताभक्ति में कोई कमी न आने पाये और इसीलिए इसे ‘पारिवारिक विवाद’ के तौर पर ही सलटाया जाता रहा। अकारण नहीं है कि क्षत्रिय के हाथ से अगर गद्दी निकलती है तो ब्राह्मण के अधिकार में जाती है। जातकों में इसके कई उल्लेख हैं।
 
महाकाव्यों में ब्राह्मण एवं क्षत्रिय दोनों को पारस्परिक सहयोग एवं सद्भावना से कार्य करने के लिए निर्दिष्ट किया गया है।46 इसी संदर्भ में यह भी कहा गया है कि ब्राह्मण और क्षत्रिय का सहयोग शत्रु का उसी प्रकार विनाश करता है जिस प्रकार वायु एवं अग्नि का सहयोग वनों का।47 एस. जी सरदेसाई ने महाभारत के शांतिपर्व में उल्लिखित एक अत्यंत ही रोचक और रहस्योद्घाटक अनुच्छेद का जिक्र किया है और जिसकी ओर रामशरण शर्मा ने प्राचीन भारत में शूद्र में हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। इस अनुच्छेद में ब्राह्मणों और क्षत्रियों में संबद्धता और एकता की आवश्यकता पर बल देने की बात करते हुए इस बात की शिकायत की गई है कि शूद्रों और वैश्यों ने एक स्तर पर स्वेच्छा से ब्राह्मणों की पत्नियों के साथ अपने संबंध स्थापित करना आरंभ कर दिया है।48 महाभारत के आनुश्रुतिक विवरण में भी बताया गया है कि परशुराम द्वारा क्षत्रियों के संहार के बाद जो अराजकता फैली उसमें वैश्य एवं शूद्र नियंत्रण से बाहर हो गये और ब्राह्मण-स्त्रियों के साथ बलात्कार करने लगे।49 अतः इससे जान पड़ता है कि वैश्यों-शूद्रों की स्थिति अत्यंत दयनीय होते हुए भी ब्राह्मणों की पावन संपदा (पत्नियों को) अपने वश में कर लिया था। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि समाज में कितने तीखे अंतर्विरोध थे। ऐसी स्थिति में ब्राह्मण-क्षत्रिय संबंध में सुधार की बात प्रभुत्त्वशाली वर्ग की स्वाभाविक रणनीति थी। स्मृतिकाल का विप्लव और उससे निपटने के लिए मनु द्वारा कठोर दंड की व्यवस्था इसी रणनीति की एक कड़ी के रूप में है।
 
कहना न होगा कि ब्राह्मण पुरोहितों के बीच संगठन का अभाव था। इसलिए वे सामूहित रूप में राजनीतिक सत्ता का मुखर विरोध नहीं कर सकते थे। इसके सदस्य अधिकतर व्यक्तिगत रूप में कार्य करते थे। ब्राह्मण लोग अपनी सुविधाओं और विशेषाधिकार के लिए राजाओं पर आश्रित थे, क्योंकि इन्हीं लोगों से उन्हें दान-दक्षिणा आदि प्राप्त हो सकते थे। अधिकतर ब्राह्मण भिक्षाटन वृत्ति वाले ही थे, इसलिए भी संरक्षा के लिए राज्याश्रय आवश्यक रहा होगा। इस संबंध में हॉपकिंस महोदय का कथन है कि ब्राह्मण लोग स्वतंत्र रहने के कारण भौतिक प्रगति करने में असमर्थ रहे थे। यदि वे क्षत्रियों के साथ मेल-जोल रखते या वैवाहिक संबंध स्थापित करते तो उनकी राजनीतिक स्थिति सुदृढ़ हुई होती और शासन व्यवस्था में भी सफल साबित होते। अधिकतर पुरोहित एकाकी जीवन व्यतीत करने के हिमायती थे और कभी-कभी तो समाज से बाहर अरण्यों तक में निवास करते पाये गये हैं।
 
प्रमुख बात यह है कि प्राचीन भारत में योद्धा और पुरोहित सुविधाओं का दावा करते हैं जिससे उनको जनसाधारण की तुलना में समाज में अधिक हिस्सा मिले और साथ ही साथ वे श्रमशक्ति पर भी अपना सामान्य अधिकार जताते हैं। इस श्रमशक्ति का प्रतीक शूद्रों को माना जाता है। योद्धा ‘कर’ का और पुरोहित ‘दान’ का दावा करते थे और यह सब वैश्यों से वसूल किया जाता था। योद्धाओं और पुरोहितों का उच्च वर्ग बनता था, जो क्षत्रिय और ब्राह्मण के नाम से जाने जाते थे।                                                                                                                          
 
प्राचीन भारत में ब्राह्मण-क्षत्रिय दो अलग-अलग वर्ग नहीं बल्कि एक ही वर्ग के भिन्न अभिजन समूह के दो रूप, दो अभिव्यक्ति हैं। इसलिए इनके संघर्ष को वर्ग-संधर्ष के खांचे में फिट नहीं किया जा सकता। यह एक ही वर्ग के दो पृथक समूहों के बीच प्रभुत्त्व का संघर्ष ज्यादा था। जब भी इस वर्ग को नीचे से कोई खतरा दीखता है, वे ब्राह्मण-क्षत्रिय का संयुक्त मोर्चा बनाते हैं। सर्वत्र यही भाव प्रधान है कि ब्राह्मणों के बिना खत्रियों और खत्रियों के बिना ब्राह्मणों की समृद्धि असंभव है।50 एक होकर ही वे दोनों लोकों का स्वामी हो सकते हैं।
 
इन अभिजन समूहों का आपसी संघर्ष भारतीय इतिहास के प्रत्येक कालखंड में चलता रहा है। जातकों में भी उल्लेख है कि जब भी क्षत्रियों का राज-सिहासन छिनता है, वह ब्राह्मणों ही के अधिकार में जाता है और ब्राह्मण इस ताक में बैठे रहते हैं कि कब क्षत्रिय कमजोर पड़े कि वे धावा बोल सकें।
 
संदर्भ एवं टिप्पणियां:
 
1. ‘विश्’ से दो शब्द व्युत्पन्न हुए ‘वैश्य’ और ‘वेश्या’ (खून के छींटे इतिहास के पन्नों पर, पृष्ठ 77)। इसी विश् की वर्ण विषयक संज्ञा ‘वैश्य’ हुई और उससे सेवित सामूहिक संपत्ति-सी नारी ‘वैश्या’ कहलाई (भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, पृष्ठ 105)। वैश्य भी ब्राह्मण एवं क्षत्रिय की सामूहिक संपत्ति ही तो थे।
2. उपेन्द्रनाथ घोषाल, ए हिस्ट्री ऑफ दि हिन्दू पब्लिक लाइफ, भाग 1, पृष्ठ 73-80।
3. एस. जी. सरदेसाई, प्राचीन भारत में प्रगति एवं रूढ़ि, पृष्ठ 120।
4. वही।
5. एस. जी. सरदेसाई, भारतीय दर्शन: वैचारिक और सामाजिक संघर्ष, पृष्ठ 25।
6. आर. एस. शर्मा, प्राचीन भारत में भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएं, पृष्ठ 115।
7. भगवतशरण उपाध्याय, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, पृष्ठ 17। ‘राजाओं  और पुरोहितों के मध्य लंबे संधर्ष की जो परंपराएं महाकाव्यों और पुराणों में उल्लिखित हैं वे संभवतः उत्तर वैदिक काल के संदर्भ में ही हैं।’ देखें, भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएं, पृष्ठ 123।
8. एस. जी. सरदेसाई, प्राचीन भारत में भौतिक प्रगति एवं रूढ़ि, पृष्ठ 82।
9. जवाहरलाल नेहरु, हिन्दुस्तान की कहानी, पृष्ठ 72।
10. आर. एस. शर्मा, प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएं, पृष्ठ 124।
11. वही।
12. आर. एस. शर्मा, प्राचीन भारत में भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएं, पृष्ठ 117।
13. वैदिक इंडेक्स, जिल्द 1, 8. 7. 1. 12।
14. वही, 10. 4. 3. 22।
15. शतपथ ब्राह्मण, 12. 7. 3. 15 ।
16. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 117।
17. अथर्ववेद, 3. 4. 2।
18. तैत्तिरीय संहिता, 7. 1. 1. 5।
19. शतपथ ब्राह्मण, 6. 1. 2. 25 ।
20. वही, 13. 2. 9. 8 ।
21. आर. एस. शर्मा, प्राचीन भारत में भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएं, पृष्ठ 178।
22. ‘अनाथपिण्डिक’ शब्द के अंतर्गत, डिक्शनरी ऑफ पालि प्रॉपर नेम्स, 1, 70 ।
23. ऋग्वेद के कई अवतरणों में राजा को ब्राह्मण या पुरोहित का विशेष ध्यान रखने और उसकी रक्षा करने की सलाह दी गई है। देखें, आर. एस. शर्मा, प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएं, पृष्ठ 337।
24. शतपथ ब्राह्मण, 5. 4. 4. 5।
25. भगवान सिंह, उपनिषदों की कहानियां, नेशनल बुक ट्रस्ट, पृष्ठ 107।
26. ए. ए. मैकडॉनेल, वैदिक माइथॉलॉजी, पृष्ठ 25, देखें, आर. एस. शर्मा की पुस्तक भारत में राज्य की उत्पत्ति, पाद टिप्पणी 16।
27. पुरोहित लोग जान-बूझकर तरह-तरह के अनुष्ठानों के लिए अपने यजमानों को उत्प्रेरित करते रहते थे, क्योंकि ऐसे अनुष्ठानों से पुरोहित तो मालामाल होते ही थे, यजमान के प्रमुख को भी ‘मान्यता’ प्राप्त होती थी। देखें, आर. एस. शर्मा, भारत में राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 13।
28. आर. एस. शर्मा, प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएं, पृष्ठ 182।
29. सैक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट, जिल्द 26, पृष्ठ 270-71।
30. तैत्तिरीय संहिता, 11. 5. 1।
31. काठक संहिता, 4. 4।
32. एस. बी. ई., जिल्द 41, पृष्ठ 46।
33. वही, जिल्द 12, पृष्ठ 94।
34. शतपथ ब्राह्मण, 14. 4. 1. 3, 30. 1. 4. 11।
35. काठक संहिता, 28. 5।
36. तैत्तिरीय ब्राह्मण, 3. 9. 14।
37. शिवबहादुर सिंह, प्राचीन भारत में क्षत्रिय, जानकी प्रकाशन, पटना, 1999, पृष्ठ 102।
38. दीघनिकाय, 1. 98।
39. वही, 1, पृष्ठ 99; अंगुत्तर निकाय, 5, पृष्ठ 327-28।
40. जातक, 1. 49।
41. एस. बी. ई., 22, पृष्ठ 218-29।
42. जातक, 5, पृष्ठ 257।
43. शिवबहादुर सिंह, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 65।
44. अष्टाध्यायी, 5. 4. 104, ब्राह्मणो जनपदाख्यां।
45. शिवबहादुर सिंह, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 65।
46. आर. एस. शर्मा, प्राचीन भारत में भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएं, पृष्ठ 81-82।
47. वही, प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएं, पृष्ठ 135।
48. एस. जी. सरदेसाई, प्राचीन भारत में प्रगति एवं रूढ़ि, पृष्ठ 58।
49. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 73; ‘ततः शूद्राश्च वैश्याश्च यथास्वैरप्रचारिणः, अवर्तन्त द्विजाज्ञाणां दारेषु भारतवर्षम।’ शांतिपर्व, 49-61।
50. वैदिक इंडेक्स, 1, पृष्ठ 204, पाद टिप्पणी 11 एवं 12; मनुस्मृति, 9, 322।                                                                                             

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