Sunday, September 5, 2010

लगभग दस-बारह साल हुए श्रीकांत जी ने बादशाह खान की बालोपयोगी एक संक्षिप्त जीवनी तैयार करने को कही थी। मैंने इसे एक गंभीर कर्म की तरह लिया और पूरा कर श्रीकांत जी को दे डाला। उन्होंने पटना के ही एक प्रकाशक साहित्य सदन (जिसके मालिक संभवतः श्यामजी हैं) के हवाले कर दिया। लिखवाने की पहल उन्होंने ही की थी। लेकिन आजतक इसके प्रकाशन को लेकर मैं इतमीनान नहीं हूं। बीच में कई बार मैंने और श्रीकांत जी ने श्याम जी से दरियाफ्त करने की कोशिश की लेकिन स्पष्ट सूचना देने से प्रकाशक बचते रहे। अतएव मैं इसे सार्वजनिक करना उचित समझता हूं ताकि लोग इससे लाभान्वित हो सकें। कहना न होगा कि यह बाचा खान की अत्यंत संक्षिप्त जीवनी है। और बच्चों को ध्यान में रखकर तैयार करने से इसे बिल्कुल ही परिचयात्मक स्तर का रखा गया है।

खानों का बादशाह -बादशाह खान

आधुनिक हिन्दुस्तान में जितनी महत्वपूर्ण घटनाएं हुई हैं, उनमें सबसे ज्यादा अचंभा गफ्फार खां के उस कमाल पर है, जिससे उन्होंने अपने झगड़ालू और भड़कीले लोगों को राजनैतिक कार्रवाई के शांतिपूर्ण ढंग सिखा दिये, जिनमें बहुत तकलीफें उठानी पड़ती थीं। तकलीफ सचमुच ही बेहद थी और उसकी तीखी याद बनी हुई थी; फिर भी उनका अनुशासन और आत्म-संयम ऐसा था कि पठानों ने सरकारी ताकत या अपने विरोधियों के खिलाफ एक भी हिंसा का काम नहीं किया। इस बात को ध्यान में रखा जाय कि पठान, जो अपनी बंदूक को अपने भाई से ज्यादा प्यार करता था, जो बहुत जल्दी उत्तेजित हो जाने के लिए इतिहास में प्रसिद्ध रहा है, और जो थोड़ी-सी उत्तेजना पर मार डालने के लिए मशहूर है, तब यह आत्म-अनुशासन एक अचरज की चीज मालूम होता है।

जनता का प्रिय नेता और स्वाधीनता-संग्राम का नायक खान अब्दुल गफ्फार खां, जिसे देश के कोने-कोने में श्रद्धा और सम्मान से सब बाचा खान कहकर पुकारते हैं, का जन्म 1890 . को पिशावर से 23 मील दूर स्वात नदी के किनारे एक छोटा-सा हरा-भरा कस्बा अतमान जई में हुआ था। इनके पिता का नाम बहराम खां था। 1857 . के गदर में अंग्रेजी सल्तनत की सहायता के लिए सैकड़ों एकड़ की जागीर ईनाम में मिली थी। इलाके के समस्त अंग्रेज अफसर उनका सम्मान करते थे और उन्हें आदरवशचचाकहा करते थे। अपने ग्रामवासियों के बीच भी वे काफी लोकप्रिय थे। वे अत्यंत निरभिमानी, धर्मनिष्ठ, पावन-हृदय, वत्सल और संयमी पुरुष थे। वे हद दर्जे के ईमानदार थे। वे अपने बच्चों से कहा करते थे-‘धोख खाने में बेइज्जती नहीं है, बेइज्जती किसी को धोखा देने में है।इनकी माता भी बड़ी ही ममतामयी उदार हृदया, दयालु और परोपकारी स्वभाव की थीं। ऐसे माता-पिता की संतान होने के कारण गफ्फार खां में भी दुर्लभ मानवीय गुणों का अनायास ही समावेश हो गया था।

बाचा खान की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही शुरू हुई। इसके बाद वे मिशन हाई स्कूल में पढ़े। मैट्रिक की परीक्षा में असफल हो जाने के कारण स्कूल छोड़कर अधूरी शिक्षा के साथ अलीगढ़ जाना पड़ा। इसके बाद पिता ने इंजीनियरी की शिक्षा के लिए इंगलिस्तान भेजना चाहा, जहां आपके बड़े भाई डा. खान साहब पहले से ही डाक्टरी की तालीम हासिल करने के मकसद से निवास कर रहे थे। लेकिन कुछ घरेलू और कुछ सामाजिक कारणों से इनका इंगलिस्तान जाना संभव हो सका। सबसे छोटी संतान होने की वजह से मां इतनी दूर भेजकर वियोग सहन नहीं कर सकती थीं। संयोग कहिए कि जिस समय बाचा खान को इंगलिस्तान भेजने की समस्या पर बातचीत चल रही थी उसी समय खानदान में दो-तीन मौतें हो गईं और इसे एक भारी अपशकुन मान लिया गया। और अंत में डा. खान साहिब के एक अंग्रेज लड़की से विवाह कर लेने के कारण बाचा खान के लिए इंगलिस्तान जाकर शिक्षा प्राप्त करने का सपना चूर-चूर हो गया।

इंगलिस्तान जाकर शिक्षा प्राप्त करने की साध तो पूरी हो सकी, अलबत्ता एक दूसरा ही शौक पैदा हो गया। सेना में सम्मिलित होने का इन्हें बहुत चाव था। वैसे कहा जाता है कि पठान तो जन्म ही से सिपाही होता है लेकिन बाचा खान को अपनी शारीरिक और सामाजिक योग्यता पर गर्व भी था। आपने कुदरत से शरीर भी खूब ही पाया था। लंबा कद, सुन्दर-सुडौल देह-गठन और तेजस्वी मुखाकृति से वे प्राचीन यूनानी चित्रकारों की महाकृति प्रतिमा जान पड़ते थे। इनकी तन्दुरुस्ती का हाल यह था कि अतमान जई के 6 अप्रैल, 1919 के जलसे में जब इन्हें गिरफ्तार किया गया था, शरीर का वजन 200 पौंड था। पांव में कोई बेड़ी ठीक नहीं आती थी। इसलिए अंग्रेजों को बेड़ियां तलाश करने में सख्त परेशानी उठानी पड़ी और अंत में विशेष जोड़ी पहनाने के बावजूद उनके टखने से काफी खून बहा।

अपने पिता के अतिरिक्त बाचा खान जिस व्यक्ति से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए उनका नाम हाजी साहिब तरंगजई है। अपनी अधूरी शिक्षा से नाता तोड़ने के पश्चात् सन् 1911 . में एक कार्यकर्ता के रूप में आपने सबसे पहले हाजी साहिब के साथ काम करना प्रारंभ किया। उनके साथ दौरे किये और उनका हाथ बंटाया। बाचा खान की यह पेशकश हाजी साहिब तरंगजई के सुधारात्मक और शिक्षा संबंधी सपने को पूरे करने की थी। अब बाचा खान एक नेता की हैसियत में थे। वास्तव में इसी समय से आपके प्रयत्नों का शुभारंभ होता है। लेकिन इस समय तक आप अपने को केवल सामाजिक सुधार तथा रचनात्मक कार्यक्रमों तक ही महदूद रखना चाहते थे और राजनीतिक क्षेत्र में आने का कोई ख्याल नहीं रखते थे।

सन् 1901 . में अंग्रेजों ने सीमा प्रांत को पंजाब से अलग कर दिया औरफ्रंटियर क्राइम्स रेग्युलेशन एक्टनामक एक काला कानून सीमा प्रांत में लागू कर दिया। इस काले कानून के द्वारा पुलिस अकारण किसी भी निर्दोष व्यक्ति को परेशान ही नहीं करती थी, बल्कि फांसी की सजा भी दिलवाती थी। लोगों ने इसका विरोध किया। सीमा प्रांत के एक कोने से दूसरे कोने तक यह आंदोलन जंगल की आग की भांति फैल गया। यहां के निवासियों के दिलों में वर्षों की दबी हुई स्वाधीनता की चिनगारी भीषण ज्वाला बनकर भड़क उठी। किन्तु बाचा खान ने सोचा, जबतक जनता जागरूक नहीं होती तब तक इस कानून का विरोध सामूहिक रूप से करना असंभव है। क्रांति रचनात्मक तैयारी के बिना हमेशा असफल हो जाया करती है। अतः संपूर्ण सीमा प्रांत में विद्या का प्रकाश फैलाने और निरक्षरता मिटाने के कार्य में वे जुट गये।

पठान जाति और परिवार से मिली विरासत के साथ-साथ खान अब्दुल गफ्फार खां में राष्ट्रीय चेतना जागृत करने में पत्र-पत्रिकाओं, खासतौर से मौलाना आजाद के पत्र अलहिलाल ' का बड़ा सहयोग रहा। ये अलहिलाल ', अलबागतथा अदीनाआदि पत्रों को स्वयं नियमित रूप से पढ़ते तथा लोगों को भी सुनाते। थोड़ी वैचारिक खुराक पाने के बाद सन् 1913 . में ये मुस्लिम लीग के सालाना जलसे में भाग लेने के लिए आगरा आये, जहां इनका सर इब्राहिम तुल्ला, सर आगा खां, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि नेताओं से सीधा संपर्क हुआ। इस जलसे में भाग लेकर इन्होंने काफी कुछ हासिल किया।

सन् 1919 . का जमाना था। बाचा खान अबतक अपने सुधारात्मक कार्य में व्यस्त थे और अभी तक राजनीति में कदम रख पाये थे। जैसाकि पहले कहा जा चुका है, आप चाहते थे कि राजनीति से दूर रहकर जातीय शिक्षा और सामाजिक दशा को सुधारने और अच्छा बनाने की चेष्टा करें। किन्तु एक दिन अकस्मात् प्रातः पिशावर शहर में यह खबर फैल गई कि रॉलट एक्ट पास हो गया है। देश की परिस्थिति ने कुछ ऐसा भीषण मोड़ अख्तियार किया कि आपसे अलग रहा गया। आपने इस अत्यंत शोचनीय अवसर पर कायरों की तरह केवल दर्शक बने रहना पसंद किया बल्कि अल्लाह का नाम लेकर क्रांति के इस अग्निकांड में छलांग लगा दी। शहर की भीषण घटनाओं के समाचार अब धीरे-धीरे गांवों में भी पहुंचने-फैलने लगे। अप्रैल मास की दस तारीख को बाचा खान ने अतमान जई में एक जलसा आयोजित किया। बाचा खान का यह पहला जलसा था और अतमान जई के इतिहास में भी पहला ही राजनीतिक सम्मेलन था, जिसमें उन्होंने अपना सबसे पहला भाषण किया। इस भाषण के शीघ्र ही बाद अतमान जई में गिरफ्तारियां शुरू हो गईं। इनके पिता बहराम खान समेत डेढ़ सौ के लगभग प्रमुख कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके तुरंत बाद बाचा खान को भी दबाव डालकर अंग्रेजों ने राजनीतिक हिरासत में ले लिया।

1920 . के अंत में हिज्रत आंदोलन की भीषण असफलता ने जनसाधारण के हृदय को तोड़ दिया। जनसाधारण से राजनीति में रुचि लेने की आशा संभावना हो ही नहीं सकती थी। उस समय के नेताओं से लोग काफी उदासीन हो चुके थे। इसलिए नेताओं को भी जनता के सामने आने का साहस नहीं होता था। ऐसी विषम परिस्थिति में बाचा खान अक्सर अपनी मूल भूमि (सुधार कार्य) पर लौट आते थे। 1921 . में आपने अपने गांव अतमान जई में पहला स्वाधीन जातीय विद्यालय स्थापित किया और उसे पूरे मनोयोग तथा परिश्रम से चलाने लगे। यह हाजी साहिब तरंगजई के 1911 . में आरंभ किये हुए कार्यक्रम की अगली कड़ी थी। अंग्रेज ऐसे रचनात्मक कार्यक्रमों को राजद्रोह मानते थे। इसलिए बाचा खान को धारा 40 के अधीन गिरफ्तार कर लिया गया और नेकचलनी (भद्र आचरण) की कड़ी जमानत मांगी। आपने जमानत दाखिल करने से साफ इनकार कर दिया और तीन वर्ष के लिए जेल चले गये।

इस दीर्घ जेलयात्रा में इनका संपर्क भारत के मशहूर स्वतंत्रता सेनानियों के साथ हुआ। इस जेल-जीवन का सदुपयोग उन्होंने गीता, बाइबिल जैसी धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन-मनन में किया। यहीं उन्होंने महात्मा गांधी की आत्मकथाभी पढ़ी। महात्मा गांधी की आत्मकथा ने अहिंसक संग्राम का मूल-मंत्र दिया। महात्मा गांधी को उन्होंने अपना राजनीतिक गुरु स्वीकार किया और साबरमती एवं सेवाग्राम के अनुकरण पर चारसद्दा में आश्रम स्थापित किया तथा खुदाई खिदमतगार आन्दोलन को गांधी-दर्शन का वैचारिक आधार प्रदान किया। अब वेसीमांत गांधी या सरहदी गांधी के नाम से विख्यात हो गये।

सन् 1924 . में जेल से रिहा होने के बाद वे फिर अपने सुधारात्मक कार्यों की तरफ ही प्रवृत्त हुए।अंजुमने-इस्लाह-अल-अफागुनाकी नींव डाली गई और राजनीति से अलग-थलग रहकर स्वतंत्र जातीय विद्यालयों के संस्थापन और गैर शरई (इस्लामी विधान के प्रतिकूल) और गैर-इस्लामी रीतियों की रोकथाम के लिए उन्होंने अनथक प्रयत्न आरंभ कर दिये। राजनीतिक जगत में 1924-30 . तक इतनी महत्त्वपूर्ण घटनाएं घटीं, परंतु उन्होंने किसी में भाग लिया।

सच तो यह है कि बाचा खान इस समय तक कांग्रेस के पूरी तरह से समर्थक बन पाये थे। वे पश्तून जाति की कट्टर धार्मिक मनोवृत्ति को सामने रखते हुए एक विशुद्ध इस्लामी आंदोलन चलाना चाहते थे। वे चाहते थे कि जबतक उनकी जाति दूसरी जातियों के समान हो जाय, उस समय तक वे अपने आंदोलन को केवल इसी क्षेत्र तक महदूद रखें और पश्तूनों के संगठन को भारत के दूसरे भागों से सर्वथा विलग रखकर अपना उद्येश्य प्राप्त करने की कोशिश करें। परंतु जिस समय संगठित होकर काम करने की उन्होंने जरूरत महसूस की, तो मिलकर काम भी किया, परंतु अपने पृथक अस्तित्त्व को समाप्त करने को कभी रजामंद हुए।

1929 . के अंत में अखिल भारतीय नेशनल कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में होना तय हुआ, जिसमें भाग लेने की तैयारियां होने लगीं। इस अवसर पर सीमा प्रांत की नौजवान भारत सभा के समस्त सदस्य कांगेस के स्वयंसेवको में शामिल होकर लाहौर पहुंचे। बाचा खान ने अपने साथियों के साथ इस अधिवेशन में व्यक्तिगत रूप से भाग लिया क्योंकि उस समय तक वे कांग्रेस में शामिल हुए थे। इस अवसर पर जवाहरलाल नेहरु ने अफगानी साफा (पगड़ी) सिर पर रखकर स्वयंसेवकों के साथ नृत्य किया और पिशावर के कांग्रेसी नेताओं ने पहली बार बाचा खान को अखिल भारतीय नेताओं से परिचित कराया। अखिल भारतीय कांगेस के लाहौर अधिवेशन से लौटकर बाचा खान ने बड़ी तेजी से पश्तून जाति के संगठन की आवश्यकता का अनुभव किया। कांग्रेस के अधिवेशन में आपने नौजवान हिन्दू लड़कियों को स्वयंसेवकों के लिबास में परेड करते हुए देखा, तो आप अत्यंत प्रभावित हुए। अतः वापसी पर आपने अपने एक भाषण में यह बात सुनायी और लोगों से कहा कि हमारे लिए यह डूब मरने की बात है कि महिलाएं कार्यक्षेत्र में निकल आती हैं और संगठित रूप से काम कर रही हैं और इधर हम अभी तक आलस्य की निद्रा में पड़े हैं।

सीमा प्रांत के राजनीतिक इतिहास में 1930 का वर्ष कई कारणों से महत्त्वपूर्ण है। यह वर्ष सीमा प्रांत में कांग्रेस की उन्नति का वर्ष था तथा बाचा खान ने अपनी विख्यात संस्थाखुदाई खिदमतगारकी नींव भी इसी वर्ष डाली थी। इस वर्ष देश का स्वाधीनता आंदोलन सिमटकर सीमा प्रांत में गया और यहां अंधाधुंध गिरफ्तारियां दी गईं। बाचा खान ने 16 अप्रैल, 1930 . को किसान आंदोलन के नाम सेअंजुमने-इस्लाह-अल-अफगानाके वार्षिक जलसे पर अतमान जई में एक विराट जनसभा आयोजित की। यह एक स्मरणीय ऐतिहासिक सम्मेलन था, जिसमें बिना किसी राजनीतिक भेदभाव के सीमा प्रांत के कोने-कोने से लोगों को आमंत्रित किया गया था। कांग्रेस कमेटी, नौजवान भारत सभा और खिलाफ समिति के स्वयंसेवकों तथा नेताओं के अतिरिक्त हजारों जनसाधारण भी इस अधिवेशन में सम्मिलित हुए।

कहा जा सकता है कि सन् 1930 . के दूसरे सविनय अवज्ञा आंदोलन में मुसलमानों का सहयोग बहुत ज्यादा था, अगरचे वह 1920-23 के मुकाबले में कम था। इस आंदोलन के सिलसिले में जिन लोगों को जेल भेजा गया, उनमें से कम से कम दस हजार मुसलमान थे। उत्तर पच्छिमी सरहदी सूबे ने, जो करीब-करीब पूरे तौर से मुस्लिम सूबा था (95 फीसदी मुसलमान), इस आंदोलन में एक खास और अहम हिस्सा लिया। यह ज्यादातर खान अब्दुल गफ्फार खां के काम और शख्सियत की वजह से हुआ, जो इस सूबे के पठानों के माने हुए और प्रिय नेता थे।

अब्दुल गफ्फार खां के नेतृत्व में सरहदी सूबा राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ मजबूती से जमा रहा और इसी तरह राजनैतिक दृष्टि से जगे हुए मध्यम वर्ग के मुसलमानों ने दूसरी जगहों में भी साथ दिया। किसानों और मजदूरों में कांग्रेस का असर काफी था। फिर भी यह बात सच थी कि कि कुल मिलाकर आम मुस्लिम जनता फिर से पुराने, मुकामी और सामंती नेताओं की तरफ लौट रही थी। ये नेता उस जनता के सामने हिन्दू और दूसरे हितों के खिलाफ मुस्लिम हितों के संरक्षक के रूप में सामने आये।

सन् 1930 का वर्ष ऐतिहासिक इसलिए भी माना जाता है कि इससे पहले बाचा खान के मन में अहिंसा की कोई कल्पना भी थी। यह सब गुजरात जेल में महात्मा गांधी से संपर्क के बाद ही संभव हो सका। यहां यह उल्लेख भी दिलचस्प होगा कि पहली बार गुजरात जेल में बाचा खान ने गीता पांदा संतराम से पढ़ी। बाचा खान की मैत्री और सद्भावना यहीं तक महदूद रही। आपने गांधीजी से अभिभूत होकर मांस खाना भी छोड़ दिया। यहां तक कि आपके दांत खराब हो गये और डाक्टरों ने मांस खाने पर विवश किया तो सप्ताह में एक बार खाने लगे, परंतु वह भी छिप-छिपाकर ताकि हिन्दू मित्रों के भावों को ठेस पहुंचे।

1930 के साल में बाचा खान के जीवन में एक बड़ी क्रांति आई। विचारों में विशालता उदारता देखी गई। आपने महात्मा गांधी के जीवन का बड़े मनोयोग से अध्ययन किया और इसका इतना प्रभाव हुआ कि आप उनका अनुकरण करते हुए सप्ताह में एक दिन उपवास भी करने लगे। जब महात्मा गांधी ने सात दिनों का व्रत रखा तो बाचा खान ने भी सात दिनों तक रोजा रखा। यह प्रेत इकतरफा था। 10 मार्च, 1931 . को गांधी-इरविन समझौता के अधीन ब्रिटिश सरकार ने बाचा खान को रिहा करने से इनकार कर दिया तो गांधीजी पुनः लॉर्ड इरविन से जाकर मिले और कहा, ‘यदि बाचा खान को रिहा किया गया तो हमारे इस समझौते को रद्द समझा जाय, हम पुनः जेल जाने को तैयार हैं।

1931 . के अंत में हिन्दुस्तान में राउंड टेबल कांफ्रेंस का प्रचार आरंभ हुआ। कांग्रेस ने संस्थागत रूप से इस कांफ्रेंस का बायकाट करने और इसका विरोध करने का फैसला किया तथा घोषणा की कि हम पूर्ण स्वाधीनता से कम कोई भी चीज लेने को तैयार नहीं हैं। बाचा खान ने कांफ्रेंस के कार्यक्रम के अनुसार इस कांफ्रेंस के विरोध में दौरा और प्रचार आरंभ किया। सरकार ने बाचा खान को पुनः हिरासत में ले लिया। 1934 . में कारावास-दंड की अवधि काटने के बाद समस्त राजनीतिक बंदी मुक्त होकर बाहर गये। परंतु बाचा खान और डा. खान साहिब का पंजाब में प्रवेश निषिद्ध कर दिया गया, जिसका उल्लंघन वे संस्थागत फैसले के अनुसार कर सकते थे। अतः दोनों भाई सेठ जमनालाल के निमंत्रण पर वर्धा चले गये, जहां महात्मा गांधी पहले ही से उनके अतिथि के रूप में मौजूद थे। यहां बाचा खान की महात्मा गांधी की संगति में रहने उनके जीवन का अध्ययन करने की चिरकालिक इच्छा पूरी हुई। इधर गांधीजी भी बाचा खान को निकट से देखने और उनके साथ कुछ दिन व्यतीत करने की इच्छा रखते थे। गांधीजी ने लिखा भी है, ‘मेरा बहुत जी चाहता था कि कुछ दिन खान अब्दुल गफ्फार खां के साथ रहूं, परंतु कभी इसका अवसर मिलता था। मेरे सौभाग्य से केवल खान साहिब ही नहीं, अपितु उनके बड़े भाई डा. खान साहिब भी हजारीबाग जेल से रिहा होते ही मेरे पास चले आये। ज्यों-ज्यों उनसे परिचय बढ़ता गया मेरा हृदय उनकी ओर खिंचता गया।

बाचा खान ने हजारीबाग जेल से निकलते ही निश्चय कर लिया था कि वे अपने आपको गांधीजी के सुपुर्द कर देंगे और जो कुछ वे कहेंगे, वही करेंगे। वे बंगाल तथा संयुक्त प्रांतों का भ्रमण करते रहे परंतु यह सब गांधीजी के परामर्श से, अपितु उनके बताए हुए कार्यक्रम के अनुसार ही किया गया। वे जहां भी गये, गांधीजी से आज्ञा लेकर ही गये। जब सरकार को मालूम हुआ कि बाचा खान बंगाल जानेवाले हैं और किसी भी तरह से नहीं रूक सकते तो 7 दिसंबर, 1934 . को वर्धा में उन्हें गिरफ्तार कर लिया और बंबई पहुंचा दिया गया।

बाचा खान जब 1937 . में अपनी लगभग सात-वर्षीय कैद और नजरबंदी के बाद अपने प्यारे प्रदेश में लौटे तो उनका भव्य स्वागत किया गया। अटक से लकर पिशावर तक स्थान-स्थान पर सुंदर द्वार बनाये गये और मार्ग के दोनों ओर स्वयंसेवकों के दल आपकी सलामी के लिए खड़े किये गये। बीसियों अभिनंदन-पत्र भेंट किये गये, जिनमें आपके प्रति सम्मान तथा प्रशंसा के भाव भरे थे।

सितंबर 1939 . में दूसरे महायुद्ध की ज्वालामुखी ने देश की परिस्थिति को अस्त-व्यस्त कर दिया। अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कमेटी ने इस युद्ध में अंग्रेजों के समर्थन का प्रस्ताव पास किया। बाचा खान इस प्रस्ताव से सहमत थे, क्योंकि वे युद्ध करनेवाले लोगों से सहयोग करना कांग्रेस के आधारभूत नियम अहिंसा के प्रतिकूल समझते थे। इसलिए उन्होंने केंद्र के प्रस्ताव का प्रबल विरोध किया और कांग्रेस से अपनी संस्था खुदाई खिदमतगार सहित त्याग-पत्र दे दिया। अपने वक्तव्य में बाचा खान ने कहा, ‘यह मार्ग जिस पर आजकल कांग्रेस की कार्यकारिणी ने पग उठाने का इरादा किया है, हमारे खुदाई खिदमतगार आंदोलन का मार्ग नहीं है। अपितु हमारे नियमों के सर्वथा विरुद्ध है। हमारा मार्ग सुलह और स्नेह का मार्ग है कि युद्ध और घृणा का। हमारी संसार की किसी जाति से कोई शत्रुता नहीं, कोई लड़ाई नहीं और ही किसी से हम शत्रुता और युद्ध चाहते हैं। हमारा नियम किसी को कत्ल करना नहीं, अपितु अपने आपको बलिदान करना है। यही कारण है कि मैंने कांग्रेस कार्यकारिणी समिति से त्याग-पत्र दे दिया है।मजेदार बात है कि कांग्रेस की जिस अहिंसा से वे प्रभावित होकर राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने आये थे, आज उसी अहिंसा की रक्षा के लिए आपको कांग्रेस का दामन छोड़ना पड़ रहा था।

बाचा खान की इस सिद्धांत-निष्ठा से प्रभावित होकर गांधीजी ने अपने पत्र हरिजन ' में लिखा, ‘कांग्रेस कार्यकारिणी समिति के बहुधा सदस्य अपने सिद्धांतों से फिसल गये। परंतु एक बाचा खान था, जो पर्वत की भांति अपने स्थान पर स्थिर और अटल रहा। उसे अच्छी तरह ज्ञात था कि उसका वक्तव्य, जो उसने कार्यकारिणी समिति से त्याग-पत्र देते दिया, बहुत से भाइयों की आंखें खोल देगा।अलबत्ता, गांधीजी की आखें खुलीं और अन्ततः वे भी इस भारी नैतिक फिसलन के शिकार हुए।

बाचा खान ने सैद्धांतिक मतभेद के कारण कांग्रेस से त्यागपत्र देते समय कहा था कि अंत में सच्चाई की विजय होगी। इधर गांधीजी ने भी बाचा खान के विचार का समर्थन करते हुए कहा था, यदि बाचा खान सफल हो गये, तो यह सच्चाई, ईमानदारी, सब्र और प्रेम की विजय होगी। अधिक दिन नहीं गुजरे थे कि कांग्रेस को अपनी भूल का अहसास हुआ। कांग्रेस ने महायुद्ध में अंग्रेजों से सहयोग करने का प्रस्ताव वापस लेते हुए अपने निर्णय पर खेद प्रकट किया और भविष्य में अहिंसा के सिद्धांत पर दृढप्रतिज्ञ रहते हुए सरकार से असहयोग का निर्णय किया। बाचा खान की यह आश्चर्यजनक सफलता थी और उनके विवेक, बुद्धि और दूरदर्शिता का ऐसा दुर्लभ उदाहरण था, जिसे स्वीकार करते हुए हिन्दुस्तान के बड़े-बड़े पराक्रमी नेताओं को उनके सामने नतमस्तक होना पड़ा।

मतभेद समाप्त होने के पश्चात बाचा खान पुनः कांग्रेस में शामिल हो गये। अब कांग्रेस सरकार से असहयोग का निर्णय कर चुकी थी और टकराव की संभावनाएं स्पष्ट दिखाई दे रही थीं, जिसके लिए बाचा खान ने अभी से तैयारियां आरंभ कर दीं। अब वह एक नये संगठन और बदले हुए अंदाज में मैदान में आना चाहते थे। पुरानी कार्यशैली में उन्हें जो दुर्बलताएं और त्रुटियां दिखाई दीं, नये अनुभव में उनसे जान बचाना और अपनी शक्ति बढ़ाना उनका उद्येश्य था।

3 सितंबर, 1939 . को जर्मनी ने ब्रिटिश साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया और द्वितीय विश्वयुद्ध का प्रारंभ हुआ। वायसराय ने भारतीयों से धन-जन द्वारा ब्रिटिश सरकार की सहायता करने के लिए कहा। भारतीय नेता प्रथम विश्वयुद्ध में सरकार की सहायता कर दमन और जेल-यातना का पुरस्कार पहले ही प्राप्त कर चुके थे। अतः नेताओं ने आज्ञा-भंग का आंदोलन छेड़ दिया। 8 अगस्त, 1942 को कांग्रेस नेभारत छोड़ोका प्रस्ताव भी पास कर दिया। बादशाह खां आज्ञा-भंग के सिलसिले में कई दफा गिरफ्तार हुए और पिशावर ले जाकर छोड़ दिये जाते रहे। 27 अक्तूबर, 1942 . को वे अपने पचास साथियों के साथ चारसद्दा से मर्दान के जिला कोर्ट पर धरना देने चले जा रहे थे तभी मीरवास डेरा में पुलिस ने इनको रोककर बुरी तरह पीटा और सभी को जेल में ठूंस दिया।

सूबों में शायद पंजाब में सबसे कम असर था, हालांकि वहां भी बहुत-सी हड़तालें हुईं और बहुत जगह काम रोका गया। सरहदी सूबे में, जिसमें करीब-करीब सारी आबादी मुस्लिमों की थी, एक अजीब बात हुई। अव्वल तो वहां बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां ही नहीं हुई, और दूसरे सूबों की तरह वहां सरकार ने कोई दूसरी उत्तेजित करनेवाली छेड़खानी की। इसकी कुछ हद तक तो यह वजह थी कि सरहदी आदमी बहुत जल्दी उत्तेजित होनेवाले समझे जाते थे, और कुछ हद तक यह वजह भी थी कि सरकारी नीति यह दिखाना चाहती थी कि कौमी उभार से मुसलमान अलहदा थे। लेकिन जब हिन्दुस्तान की और जगहों से, वहां की घटनाओं की खबरें इस सूबे में पहुंचीं, तो यहां भी बहुत-से प्रदर्शन हुए और ब्रिटिश हुकूमत को एक जोरदार चुनौती दी गई। प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाई गई और सार्वजनिक कामों को रोकने के सभी आम तरीके इस्तेमाल किये गये। हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया। यही नहीं, पठानों के महान नेता बादशाह खान को पुलिस की मार ने बुरी तरह से घायल कर दिया। आम जन में उत्तेजना के लिए यह मार बहुत बड़ी थी, फिर भी ताज्जुब की बात है कि अब्दुल गफ्फार खां ने अपने आदमियों को जो बढ़िया अनुशासन सिखाया था, वह इस वक्त भी बना रहा। वहां पर देश की और बहुत-सी जगहों की तरह कोई हिंसात्मक कार्रवाई नहीं हुई।

1945 . में दूसरे महायुद्ध का तूफान थमा तो सरकार ने देश के समस्त राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया। इस सार्वजनिक रिहाई में बाचा खान भी रिहा होकर बाहर आये तो अतमान जई के एक विराट सम्मेलन में, जो आपके स्वागत के लिए आपके गांव में आयोजित हुआ, बाचा खान ने निम्नलिखित विचार प्रकट किये, ‘हमने जिस स्वाधीनता की घोषणा 1942 . में की थी, क्या वह स्वाधीनता मिल गई। यदि नहीं, तो यह घोषणा अब भी अक्षुण्ण है या वापस ले ली गई है। जबतक हमारा जीवन है, हम यह प्रयत्न जारी रखेंगे कि देश और जाति को स्वाधीनता प्राप्त हो।

कश्मीर के नेता शेख मुहम्मद अब्दुल्लाह के नेतृत्व में 3 अगस्त, 1945 . को सूपुर के स्थान पर काश्मीर नेशनल कांफ्रेंस का अधिवेशन हुआ, जिसमें बाचा खान ने भी भाग लिया। इससे पहले 1940 . में भी काश्मीर नेशनल कांफ्रेंस के अधिवेशन में सम्मिलित हुए थे। इस बार सम्मेलन में भाषण करते हुए आपने अपने लोगों को बताया कि नेशनल कांफ्रेंस की स्थापना से पहले काश्मीर की दशा कितनी खराब थी। परंतु नेशनल कांफ्रेंस की स्थापना के बाद विगत 16 वर्षों में शेख अब्दुल्लाह के प्रयत्नों ने काश्मीर की काया ही पलटकर रख दी। बाहर से आये हुए समस्त अतिथियों का दरियाई जुलूस निकाला गया। परंतु डोगरा सरकार ने अपने जरखरीद एजेंटों के द्वारा भीषण प्रदर्शन कराए और प्रदर्शनकर्ताओं ने इस जुलूस पर पत्थर भी फेंके। इस पथराव पर बाचा खान नाराज होने की बजाय हर्ष ही प्रकट किये और कहा कि सौभाग्य की बात है कि कश्मीरियों जैसी मुर्दा जाति में इतना साहस तो पैदा हुआ कि वे पत्थर बरसाने के योग्य हुए, अन्यथा यहां राजनीतिक आंदोलनों से पहले तो बाहर के लोगों की सूरत देखकर ही डर जाते थे।

जब पाकिस्तान की स्थापना के लक्षण स्पष्ट नजर आने लगे तो बन्नू में प्रांतीय कांग्रेस पार्टी की एक ऐतिहासिक मीटिंग हुई, जिसमें यह समस्या विचाराधीन थी कि पाकिस्तान, जिसकी स्थापना की संभावना अब स्पष्ट दिखाई दे रही है, यदि निकट भविष्य में स्थापित हो जाय, तो खुदाई खिदमतगार संस्था और कांग्रेस का क्या रवैया होना चाहिए ? बहुत से ऐसे लोग, जो पाकिस्तान की स्थापना के बाद मुस्लिम लीग में सम्मिलित होकर बड़े-बड़े सरकारी ओहदों पर पहुंचे , उस समय कांग्रेस और खुदाई खिदमतगार आंदोलन से संबंध रखते थे और पाकिस्तान के घोर विरोधी थे। ये लोग इस मीटिंग में यह प्रस्ताव प्रस्तुत करने आये थे कि हमें स्वाधीन कबाईली इलाके में हिज्रत पर जाना चाहिए और वहां कबीलों को उकसाकर पाकिस्तान पर आक्रमण कर ध्वस्त कर देना चाहिए। परंतु बाचा खान ने इस प्रस्ताव का कड़ा विरोध किया और कहा, ‘हम केवल देश की स्वाधीनता चाहते थे। वह चाहे किसी भी रूप में मिले, हमें स्वीकार कर लेना चाहिए।इस पर उस दल ने बाचा खान का प्रबल विरोध किया और अपनी इसी बात पर अड़े रहे कि पाकिस्तान के विरुद्ध विद्रोह करना चाहिए। अंत में बाचा खान उस मीटिंग में यह प्रस्ताव पास कराने में सफल हो गये कि हमें मौन रहकर पाकिस्तानियों का अवलोकन करना चाहिए और तटस्थ होकर देखना चाहिए कि अदृश्य यवनिका से लोगों की क्या अभिव्यक्ति आती है।

हालांकि पाकिस्तान के दृष्टिकोण का बाचा खान कभी विरोधी नहीं थे परंतु पाकिस्तान के संबंध में उनकी कल्पना कुछ भिन्न और नई थी। उच्च न्यायालय को दिये गये अपने लिखित वक्तव्य में बाचा खान ने स्पष्टता के साथ स्वीकार किया किमुसलमानों के वतन की जो मेरे मन में परिकल्पना थी, उसके तहत पंजाब और बंगाल का विभाजन किसी प्रकार संभव था। इसके अतिरिक्त मैं इस बात पर भी विश्वास नहीं रखता था कि बहुत से मुसलमानों का यह दावा शुद्ध-हृदय पर आधारित था कि वे पाकिस्तान की स्थापना की मांग मुसलमान जनसाधारण के हितार्थ कर रहे हैं। मैं समझता था कि ये लोग पाकिस्तान और इस्लाम के नाम पर जनता को पथ-भ्रष्ट करना चाहते हैं। ये लोग अपने ही लिए पाकिस्तान प्राप्त करना चाहते थे और वे इस उद्येश्य में सफल हो गये। मेरी राय में हिन्दुओं और मुसलमानों की लड़ाई धार्मिक नहीं, अपितु आर्थिक थी।

विभाजन के पश्चात् दोनों ओर से आबादी का विनिमय आरंभ हुआ और इसके साथ ही देश के दोनों भागों में सांप्रदायिक दंगों का ज्वालामुखी फूट पड़ा। इन दंगों में पूर्वी पंजाब और पश्चिमी पंजाब के लोगों पर जो विपत्तियां आईं और प्रलयंकर संकट टूटे वह कुछ उन्हीं का दिल जानता है। खासतौर से बंटवारे की भावना उन हिस्सों में पैदा हुई थी, जहां मुसलमानों की आबादी बहुत कम थी-ऐसे हिस्सों में, जो हर सूरत में बाकी हिन्दुस्तान से अलहदा होने को तैयार नहीं थे। जिन हिस्सों में मुसलमान बहुसंख्यक थे, वहां उसका कोई असर होता नहीं दिखा। सरहदी सूबे में उसका असर सबसे कम था, जहां मुसलमान 95 फीसदी थे। नेहरु ने लिखा है, ‘वहां के पठान बहादुर हैं, उन्हें अपने ऊपर भरोसा है और उन्हें किसी का डर नहीं है। इस तरह एक अजीब-सी बात है कि मुस्लिम लीग के प्रस्ताव का समर्थन उन हिस्सों में बहुत कम है और उसका असर तो सिर्फ उन हिस्सों में है, जहां मुसलमान अल्पसंख्यक हैं और जहां बंटवारे का कोई भी असर नहीं होगा।सरहदी सूबे में यह आशातीत सफलता, कहना होगा कि बाचा खान के सद्प्रयासों की वजह से ही संभव हो सकी थी।

देश विभाजन के पश्चात् सीमा प्रांत में मुस्लिम लीग ने प्रभुत्व संभालते ही खुदाई खिदमतगारों से सौतेली माता का-सा वर्ताव करना आरंभ कर दिया। बाचा खान पर तरह-तरह के अभियोग लगाये गये और उन्हें पाकिस्तान का शत्रु सिद्ध करके अत्याचार का लक्ष्य बनाने का प्रयत्न किया गया।

1948 . में बाचा खान ने पाकिस्तान की पार्लियामेंट के अधिवेशन में पहली बार भाग लिया और वफादारी की शपथ उठाने के बाद अपने भाषण में कहा कि यद्यपि देश की स्वाधीनता की लड़ाई में हमारी राहें अलग-अलग थीं, परन्तु उद्येश्य एक था। अब जबकि उद्येश्य सिद्ध हो चुका है, हमारा कोई मतभेद शेष नहीं रहा। पाकिस्तान हमारा साझा देश है और हम इसकी सेवा करने में किसी से पीछे नहीं रहेंगे।

इसके पश्चात् बाचा खान ने जिन्ना को वस्तुस्थिति स्पष्ट करते हुए कहा, ‘हमारा आंदोलन एक सामाजिक सुधार आंदोलन है। अंग्रेजों ने मुझे मेरी इच्छा के विरुद्ध राजनीतिक बनने पर बाध्य किया। अब देश स्वाधीन हो चुका है। हम चाहते हैं, फिर अपना सामाजिक कार्यक्रम आरंभ कर दें।जिन्ना ने सहर्ष उन्हें प्रत्येक प्रकार की सहायता देना स्वीकार कर लिया और वचन दिया कि वे सीमा प्रांत का भ्रमण करते समय बाचा खान से भेंट करेंगे। किंतु जब यह समाचार सीमा प्रांत के स्वार्थी सत्ताधारियों के कानों तक पहुंचा तो वे बौखला उठे और जब कायदे आजम सीमा प्रांत के दौरे पर आये तो उन्हें बताया गया किये बड़े भयंकर और खतरनाक लोग हैं। आपको अपने हेड क्वार्टर ले जाकर कत्ल करना चाहते हैं।कायदे आजम ने बाचा खान का निमंत्रण फौरन रद्द कर दिया। कायदे आजम ने बाचा खान को मुस्लिम लीग में सम्मिलित होने पर विवश कर दिया।

इससे पहले कराची में बाचा खान ने जी. एम. सय्यद, मौलाना अब्दुल मजीद सिंधी और कुछ दूसरे लोगों के साथ मिलकरपीपल्ज पार्टीनाम से एक संस्था बनाई, जिसका पाकिस्तान के कोने-कोने में बड़े समारोह से स्वागत किया गया। परंतु दुर्भाग्य से इस नई संस्था के लिए उन्हें काम करने का अवसर मिला और 15 जून, 1948 . को कैद कर लिया गया। तीन वर्ष के कारावास का दंड दिया गया। इसकी अवधि पूरी होते ही उन्हें बंगाल रेग्यूलेशन के तहत तीन वर्ष के कारावास का और दंड दिया गया। अंत में, 1954 में सीमा प्रांत में प्रवेश पर प्रतिबंध के साथ उन्हें मुक्त किया गया।

बाचा खान पंजाब वापस आये और जिला कैम्बलपुर में गौरगशी गांव में निवास ग्रहण किया। सीमा प्रांत के लोग बाचा खान पर लगाये गये प्रतिबंधों से काफी क्षुब्ध थे। उन्होंने अवज्ञा आंदोलन करने का सुझाव प्रस्तुत किया किंतु बाचा खान ने इस तरह की किसी भी बात से साफ इनकार कर दिया।

17 जुलाई, 1955 . को प्रातः आठ बजे खुदाई खिदमतगार के प्रधान सेनापति बाचा खान ने लगभग सात सालों की लंबी अवधि की नजरबंदी के बाद अपने प्रांत में कदम रखा। उनके शुभ आगमन पर असीम हर्ष प्रकट करते हुएबाचा खान जिंदाबादके नारे लगाये गये। 21 गोलों की सलामी के बाद यह जुलूस खैर आबाद कण्ड की तरफ बढ़ा। इतने दिनों की नजरबंदी के बाद अपने प्यारे बाचा खान को पास देखकर लोग भावावेश में उछल रहे थे और उनकी आंखों से हर्ष के आंसू बह रहे थे।

4 अप्रैल, 1959 . को वृद्धावस्था तथा गिरते स्वास्थ्य के कारण उनको बहुत-सी पाबंदियों के साथ रिहा कर दिया गया। वृद्धावस्था, खराब स्वास्थ्य तथा तमाम तरह की बंदिशों के बावजूद वे अयूबशाही का कड़ा विरोध करते रहे। फलतः 12 अप्रैल, 1961 . को उन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया गया। जब आप जेल में मरनासन्न हो गये तब अयूबशाही को अहसास हुआ कि इनके निधन से भारी सवाल उठ खड़ा होगा, तो 30 जनवरी, 1964 . को उचित चिकित्सा के लिए उन्हें इंग्लैंड जाने की अनुमति मिली। वहां की ठंढी जलवायु उनके स्वास्थ्य के लिए प्रतिकूल साबित हुई, तब डाक्टरों ने उन्हें कैलिफोर्निया जाने की सलाह दी। किंतु, पाकिस्तान सरकार ने उन्हें वहां जाने से रोक दिया। इस हालत में वे अफगानिस्तान चले गये और तब से वहां निर्वासन की जिंदगी बसर कर रहे थे। भारत सरकार के निमंत्रण पर वे अंतराष्ट्रीय सद्भावना के लिए दिया जानेवाला 1967 का जवाहरलाल नेहरु पुरस्कार प्राप्त करने के लिए भारत पधारे। 15 नवंबर, 1969 को राष्ट्रपति श्री वी. वी. गिरि ने उन्हें उक्त पुरस्कार प्रदान कर सम्मानित किया। उनकी भारत-यात्रा दोनों देशों की भावात्मक एकता के लिए वरदान साबित हुई।

बाचा खान को सीमांत गांधी के नाम से जाना जाता रहा है। इसका अर्थ हमें यह कदापि नहीं लगाना चाहिए कि अपने व्यक्तित्व में वे महात्मा गांधी के अनुकरण मात्र हैं या वे उसके एक डिमाई संस्करण हैं। बल्कि बाचा खान का व्यक्तित्व मौलिक प्रतिभा का एक समुच्चय है। सिर्फ अहिंसा के ही मामले को लें तो बात स्पष्ट हो सकती है। महात्मा गांधी के लिए अहिंसा बहुत कुछ एक रणनीति की तरह है जबकि सीमांत गांधी इसे जीवन-सिद्धांत के रूप में इस्तेमाल करते हैं। इसका एक कारण बाचा खान का मूल मकसद राजनीति करना भी रहा हो, क्योंकि राजनीति के अपने दांव-पेंच होते हैं। 16 सितंबर, 1940 . में बाचा खान ने गांधीजी की अहिंसा पर टिप्पणी करते हुए कहा था, ‘यह सब देखकर मुझे तो हैरानी होती है। दस दिन पहले कहते हैं कि हम सिर्फ सरकार से लड़ने भर के लिए अहिंसा से काम लेंगे और देश की रक्षा और भीतरी गड़बड़ी के मौके पर हिंसा से काम लेंगे, वे ही लोग आज कहते हैं कि स्वराज्य हो जाने के बाद और पहले यानी हर हालत में हम अहिंसक रहेंगे, यह क्या बात है। विश्वास तो बार-बार बदलनेवाली चीज नहीं है।

बाचा खान इतने गंभीर सिद्ध हुए हैं कि सभा में और एकांत में, कहीं भी उनसे कभी ऐसी चेष्टा नहीं हुई, जिसमें गंभीरता हो। इसलिए यह कल्पना करना कठिन हो जाता है कि उनके स्वभाव में प्रहसन या हास्य रस का भी समावेश हो सकता है। परंतु कभी-कभी उनकी तबीयत मौज पर जाय तो ऐसी बातें भी कह जाते हैं जो गंभीर होने के साथ-साथ अच्छे खासे चुटकुले भी बन जाते हैं। बाचा खान जब 1937 . में 6 वर्ष की नजरबंदी, देश निकाले और कारावास के पश्चात् देश में आये तो खुदाई खिदमतगारों ने उनसे पूछा कि क्या यह सच है कि आप गाय को जब्ह (गोहत्या) नहीं करते ?
हां’, मैंने कहा।
क्यों?-उन्होंने फिर पूछा।
इसलिए कि मेरा बाप कसाई था।

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