Friday, October 1, 2010

औपनिवेशिक बिहार में बाल-शिक्षा एवं साहित्य

सरकार की ओर से जब पहले-पहल बिहार में शिक्षा प्रसार की व्यवस्था हुई तब सन् 1875 ई. में पंडित भूदेव मुखोपाध्याय1 (1825-1894 ई.) ‘इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्स’ नियुक्त किये गये, जिन्होंने  स्वयं हिन्दी में कई पाठ्य-पुस्तकें लिखीं। उनके नेतृत्व में कई हिन्दी लेखकों ने पाठ्य-पुस्तकें तैयार कीं। आप ही के निर्देशन में हिंदी का शब्दकोष, हिंदी व्याकरण एवं भूगोल, इतिहास, अंकगणित, ज्यामिति जैसे विषयों की पाठ्य-पुस्तकें तैयार की गईं। और जो उन्हीं के द्वारा स्थापित बोधोदय प्रेस में कैथी-लिपि में छपीं। उक्त बोधोदय प्रेस जब खड्गविलास प्रेस का नाम धारण करके बाबू रामदीन सिंह के अधिकार में (सन् 1880 ई. में) आया, तब कैथी-लिपि नामशेष हुई और नागरी-लिपि में हिन्दी-प्रचार बड़े वेग से होने लगा।2   यह बात भी उल्लेखनीय है कि बिहार पहला राज्य था जहां हिंदी को सरकारी काम-काज की भाषा की मान्यता प्रदान की गई थी। बाबू रामदीन सिंह ने भी अपने इस प्रेस द्वारा पाठ्य-पुस्तकों के अभावों को बहुत हद तक दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने खुद पाठ्य-पुस्तकें तैयार कीं और कुछ अपने तथा तथा कुछ दूसरों के नाम से प्रकाशित किया।3 बाबू शिवनंदन सहाय ने लिखा है, ‘शिक्षा विभाग में उनका बड़ा मान था। डायरेक्टर तथा उनके सब कर्मचारी इनसे प्रेम रखते थे और इनका आदर करते थे। जब किंडर गार्टन की पढ़ाई प्रचलित हुई, तब उसी समय उन्होंने किंडर गार्टन की कई पुस्तकें लिखकर तैयार कर दीं।’4

कहना न होगा कि कैथी-लिपि का प्रचलन बन्द कराके देवनागरी को लोकप्रिय बनाने में भूदेव मुखोपाध्याय की महती भूमिका रही थी। इस कार्य से बिहार के लोग इनसे काफी प्रसन्न हुए। इनकी प्रशंसा में कई गीत भी बनाये गये, जिनमें पंडित अम्बिकादत्त व्यास ने भी दो गीत लिखे।5   यह भी स्मरणीय है कि खड्गविलास प्रेस खुलवाने में भूदेव मुखोपाध्याय का काफी सहयोग था।6

भूदेव मुखोपाध्याय का दृढ़ विश्वास था कि बिहार की उन्नति हिन्दी से ही संभव है। पंडित रामगति न्यायरत्न को भेजे एक पत्र 7 में आपने स्पष्ट लिखा था, ‘(बिहार में) मेरे आने के पहले जातीय भाषा (हिन्दी) के स्कूलों की बहुत बुरी हालत थी; कोई उनका आदर नहीं करता था। मैंने आकर उन उपेक्षित स्कूलों पर ध्यान दिया और उनकी उन्नति की। अब यहाँ हिन्दी के स्कूलों की संख्या पहले से दस गुनी हो गई है। सन् 1839 ई. में बंगाल से फारसी के दफ्तर उठ गये और सच पूछो तो तभी से बंगाल की उन्नति हुई; क्योंकि  तभी से वंग भाषा की श्रीवृद्धि का सूत्रपात हुआ। हिन्दी के प्रचार से क्या बिहार की वही दशा न होगी ? क्यों न होगी ? मुझे आशा है कि बंगाल में जितनी उन्नति 40 वर्षों में हुई है उतनी बिहार में 15-16 वर्ष के भीतर ही हो जायेगी। मैं अपने तुच्छ जीवन के छोटे-छोटे कामों में इस काम को बड़े महत्त्व की दृष्टि से देखता हूँ।’ हिन्दी की स्थिति को लेकर उनके मन में कोई भ्रम या द्वंद्व न था। अपनी एक पुस्तक में उन्होंने अत्यंत स्पष्ट शब्दों में लिखा है-‘भारत में जितनी भाषाएँ प्रचलित हैं, उनमें हिन्दी ही सबसे प्रधान भाषा है। वह पहले के मुसलमान-बादशाहों और कवियों की कृपा से एक प्रकार देश भर में व्याप्त हो रही है। इसलिए अनुमान किया जा सकता है कि उसी के सहारे किसी समय सारे भारत की भाषा एक हो जायेगी। भारत में अधिकांश लोग हिन्दी में बातचीत कर सकते हैं। इसलिए भारतवासियों की बैठक में अँगरेजी, फारसी का व्यवहार न होकर हिन्दी में बातचीत होनी चाहिए। साधारण पत्र-व्यवहार भी हिन्दी ही में होना चाहिए। हमारे पड़ोसी या इष्ट-मित्र-चाहे वे मुसलमान, कृस्तान, बौद्ध आदि कोई भी हों-सब सहज में हिन्दी समझ सकते हैं।’8 साथ ही उनका यह विश्वास भी काफी गहरा था कि विदेशी व्यक्तियों के जीवन-चरित पढ़ने से भारतीय बालकों की शिक्षा के एक अंग की विशेष क्षति होती है। अतएव आपने ‘चरिताष्टक’, ‘नीतिपथ’, ‘रामचरित’ आदि कई हिन्दी-पुस्तकें लिखवाईं। हिन्दी में ‘गया का भूगोल’ भी आपने अपने प्रोत्साहन से लिखवाया।

भूदेव मुखोपाध्याय के भाषा-संबंधी जो विचार हैं, ठीक उसी तरह के विचार इंग्लैंड के भाषाविद् एवं भारत-प्रेमी फ्रेडरिक पिन्काट के भी हैं। पिन्काट हिन्दी-प्रेमियों को सलाह देते लिखते हैं-‘देखो अस्सी बरस हुए बंगाली भाषा निरी अपभ्रंश भाषा थी। पहले पहल थोड़ी थोड़ी संस्कृत बातें उसमें मिली थीं। परंतु अब क्रम करके संवारने से निपट अच्छी भाषा हो गई। इसी तरह चाहिए कि इन दिनों में पंडित लोग हिंदी भाषा में थोड़ी थोड़ी संस्कृत बातें मिलावें।’

उस समय की पाठ्य-पुस्तकों से असंतुष्ट होकर भूदेव मुखोपाध्याय ने शिक्षा विभाग के डायरेक्टर के पास रिपोर्ट की कि पाठ्य-पुस्तकों में पूर्ण सुधार होना चाहिए। उत्तर में कहा गया कि ‘अच्छी पुस्तकें कहाँ से आवेंगी।’ इस पर आपने लिखा कि ‘हिन्दी एक जीवित भाषा है-इसकी मृत्यु कभी हो ही नहीं सकती-इसका भार हम पर छोड़ दिया जाये-हम हिन्दी के प्रचार का पूरा प्रबंध कर देंगे और प्रांजल भाषा में पाठ्य-पुस्तकें तैयार करा लेंगे।’9   कुछ दकियानूसी लोगों के द्वारा विरोध किये जाने पर आपने दो टूक कहा, ‘बिहारी हिन्दू बालक अपनी मातृभाषा हिन्दी, धर्म की भाषा संस्कृत और राजा की भाषा अँगरेजी सीखें और मुसलमान के लड़के प्रचलित भाषा हिन्दी, धर्म की भाषा अरबी और राजा की भाषा अँगरेजी सीखें। यही उचित होगा।’10

अब लोगों के सम्मुख हिंदी में पाठ्य-पुस्तक रचने की समस्या आन खड़ी हुई। इसके लिए उत्साही बुद्धिजीवियों की एक फौज ने युद्ध-स्तर पर काम करना प्रारंभ कर दिया। हरनाथ प्रसाद खत्री (1831-1910) ने भी हिन्दी में अनेक पुस्तकें तैयार की थीं, जिनमें अधिकतर बालोपयोगी ही कही जा सकती हैं। उनमें सर्वप्रमुख है-‘व्याकरण वाटिका’। कुल दो सौ पृष्ठों की इस पुस्तक में हिन्दी व्याकरण की सभी आवश्यक बातों का उल्लेख है। सन् 1915 ई. में बिहार और उड़ीसा के शिक्षा-विभाग द्वारा हाई स्कूलों के लिए यह स्वीकृत हुई थी। तब से बीस-पच्चीस वर्षों  तक स्कूलों में इसका खूब प्रचार रहा। इसका पहला प्रकाशन सन् 1905 ई. के लगभग मैथिल-प्रिंटिंग-वर्क्स (मधुबनी) से हुआ था जबकि सन् 1915 में इसका तीसरा संस्करण निकाला गया।11   इनकी दूसरी महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘गुरुभक्ति-दर्पण’  है। महज 18 पृष्ठों की इस पुस्तिका के पूर्वार्द्ध में ‘गुरु माहात्म्य’ है, जिसमें कबीर, तुलसी आदि संत कवियों के गुरु-महिमा संबंधी दोहे हैं। इसका उत्तरार्द्ध ‘शिष्य-विनय’ है, जिसमें गुरु-वन्दना विषयक आपके स्वरचित सवैया, छप्पै, कुण्डलियाँ , मनहर कवित्त और दोहे हैं। इसका प्रकाशन सर्वप्रथम सन् 1895 ई. में खड्गविलास प्रेस, पटना से हुआ था।12

बाईस पृष्ठों की पुस्तिका ‘बाल-विनोद’ की रचना खत्री जी ने अनपढ़ लड़कों को पढ़ुआ बनाने के लिए की थी। इसमें कुल चार अध्याय हैं। इन अध्यायों के बाद सात छोटे-छोटे अध्याय हैं, जिनमें छोटे बच्चों को ईश-वंदना, शिष्टता, अनुशासन, स्वच्छता आदि के उपदेश रोचक शैली में दिये गये हैं। इसका प्रकाशन सन् 1900 ई. के लगभग मैथिल-प्रिंटिंग-वर्क्स (मधुबनी) से हुआ था। इसका दसवाँ संस्करण सन् 1912 ई. में निकला।13  सैंतीस पृष्ठों की पुस्तिका ‘कन्या-दर्पण’ की रचना कन्याओं के हितार्थ की गई थी। इसमें चार अध्याय हैं। इसका तीसरा संस्करण सन् 1925 ई. में निकला था।14   पचहत्तर पृष्ठों की पुस्तक ‘मानव-विनोद’ में भी चार ही अध्याय थे, जिनमें लड़की के ब्याह से पुत्र-पालन तक की एक लम्बी रोचक कथा है। इसका प्रकाशन सर्वप्रथम 1884 ई. में बिहार-बन्धु प्रेस (पटना) से हुआ था। लेखक की संभवतः यह पहली प्रकाशित पुस्तक है।15 ‘वर्ण-बोध’ भी ‘कन्या-दर्पण’ की ही तरह अक्षरारम्भ करनेवाले बालकों के लिए उपयोगी पुस्तक थी।

बिहार में सर्वप्रथम हिंदी-प्रचार का श्रेय जिन चार सज्जनों को है उनमें एक नाम भगवान प्रसाद यानी रूपकला जी का भी है। आपने सन् 1863 ई. में ‘तन-मन की स्वच्छता’ पुस्तिका लिखकर तत्कालीन स्कूल-इन्सपेक्टर डा. फेलन को समर्पित की।16 उन्हीं की आज्ञा से आपने ‘तहारते जाहिर वो बातिन’  नाम से इसका उर्दू अनुवाद भी किया था।17  आगे उन्होंने बंगला पुस्तक का ‘शरीर-पालन’ नाम से हिंदी में अनुवाद किया। पुनः आपने ‘हिफजे सेहत की उमदः तदबीरें’  के नाम से इसका उर्दू अनुवाद भी प्रकाशित किया। बिहार के मिडिल स्कूल के पाठ्यक्रम में भी यह रही।18

हिन्दी में जिन लोगों ने उन दिनों पहले-पहल पाठ्य-पुस्तकें तैयार की थीं, उनमें राधालाल माथुर (1843-1913) को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। आप के द्वारा तैयार की गयी ‘हिन्दी किताब’ (साहित्य का इतिहास, 4 भाग) सन् 1872 ई. में प्रकाशित हुई थी। प्रकाशक भी स्वयं आप ही थे।19   भाषाबोधिनी  पुस्तक (चार भागों में) गोपीनाथ पाठक द्वारा बनारस से सन् 1870 ई. में प्रकाशित कराई गयी थी। सभी पाठशालाओं में आरम्भ से मिडिल तक यही पुस्तक पढ़ाई जाती थी।20 अवधनन्दन (जन्म 25 दिसम्बर, सन् 1900ई.) द्वारा भी कई बालोपयोगी पुस्तकें तैयार की गईं जिनमें ‘हिन्दी-स्वयंशिक्षक’21, ‘हिन्दी-अँगरेजी स्वयंशिक्षक’, ‘हिन्दी शिक्षण पद्धति,’ ‘हिन्दी-इंगलिश-सम्बोधिनी', ‘बालकृष्ण’, ‘लवकुश’, ‘बच्चों की किताब’, ‘वीर दुर्गादास की जीवनी’, ‘भगवान बुद्ध की जीवनी’ आदि प्रमुख हैं।

गया के कन्हैयालाल मिश्र (जन्म सन् 1864 ई.) ने भी अनेक स्कूली पुस्तकों की रचना की थी, जिनमें ‘भाषा-पिंगल-सार’, ‘हिन्दी व्याकरण’, ‘सरल शुभंकरी’, ‘लोअर अंकगणित’, एवं ‘लोअर भूगोल’ आदि प्रमुख हैं।22 कहना न होगा कि ‘भाषा-पिंगल-सार’ को पंजाब टेक्स्ट-बुक कमिटी के सेक्रेटरी मि. ई. टाइडमैन ने पंजाब के स्कूलों और लाइब्रेरियों के लिए चुनी थी।23                                        

उमापतिदत्त शर्मा (1872 -1911) ने विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा के लिए ‘ऋजुस्तवमंजूषा’  नामक एक सनातन धर्म-संबंधी पुस्तक तैयार की, जिसकी प्रशंसा तत्कालीन विद्वानों ने मुक्त-कंठ से की थी। यह पुस्तक कई विद्यालयों में पाठ्य-पुस्तक के रूप में स्वीकृत की गई थी।24 उस समय तक इसके चार-चार संस्करण निकल चुके थे। दामोदरसहाय सिंह ‘कविकिंकर’ द्वारा रचित बालोपयोगी पुस्तकें कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। इनकी प्रमुख पुस्तकें-‘रसाल’, (बालोपयोगी कविताएँ) ‘अंगूर’, (बालोपयोगी कहानियाँ) ‘सरल-सितारी’, ‘बाल-सितारी’, (दोनों बालोपयोगी कविताएँ) ‘धार्मिक वार्तालाप’, (बालोपयोगी गद्य) ‘कबीर: एक लघु जीवनी’, (बालोपयोगी जीवनी) आदि हैं।25   धनीराम बक्सी ‘धनी’ (जन्म 14 जनवरी, 1896 ई.) की अधिकतर पुस्तकें बालोपयोगी हैं। ऐसी प्रमुख रचनाओं के नाम-‘मार्गोपदेशिका’, (व्याकरण) ‘नागरीबोध’, (कैथी सहित) ‘सरल शिशुपाठ’, ‘सरल शिशुगणित’, ‘बालरामायण’, ‘सरल धर्म-शिक्षक’, ‘हिन्दी-अँगरेजी-शिक्षक’, ‘हिन्दी-बंगला-शिक्षक’, ‘वर्णमाला-पहाड़ा’, ‘लालबुझक्कड’, ‘हिन्दी-अँगरेजी-हो26-भाषा-शिक्षक’, (दो भागों में) ‘हिन्दी-अक्षर-बोध’, ‘हिन्दी-वर्णबोध’, ‘शिशु-वर्णशिक्षा’, ‘सरल-पत्रबोध’, ‘बाल-हितोपदेश’, ‘ऐंग्लो-हिन्दी-प्राइमर’, 'त्रिभाषी'  (हिन्दी-बंगला-उड़िया) और ‘गिनती पहाड़ा’ आदि हैं।27

सन् 1924 ई. में रामदहिन मिश्र (1886-1952) ने बाल शिक्षा समिति28 की स्थापना की जिसके माध्यम से अनेक महत्त्वपूर्ण विद्यालयीय पुस्तकों का लेखन एवं प्रकाशन सम्भव हो सका। आपके बारे में जहानाबाद के एक समकालिक लेखक देवशरण शर्मा (जन्म सन् 1890 ई.) ने लिखा था, ‘पटने में रहकर जब मैं काव्यतीर्थ की परीक्षा के लिए तैयारी कर रहा था,...पंडित रामदहिन मिश्र जी टेक्स्ट-बुक लिखने में व्यस्त रहते थे।’29 सन् 1934 ई. में आपने ‘बालशिक्षा’ नामक  मासिक  ग्रंथमाला 30 का प्रकाशन आरंभ किया। इस पुस्तकमाला में आपके द्वारा संपादित प्रतिमास एक बालोपयोगी पुस्तक प्रकाशित होती थी। तीन वर्षों तक लगातार यह पुस्तकमाला चलती रही। इसके अंतर्गत आपके द्वारा सम्पादित पुस्तकें-‘बाल रामायण’, ‘बाल महाभारत’, ‘पुराणों की कहानियां ', (2 भाग) ‘श्रीबालकृष्णकथामृत’, (1 भाग) ‘श्रीबालकृष्णकथामृत’, (2 भाग) ‘रामायण के उपदेश’, ‘अलादीन’, ‘रॉबिन्सन क्रूसो’, ‘नल-दमयन्ती की कथा’, ‘बच्चों की कहानियाँ’, ‘बलिदान की कहानियाँ ’, ‘मनोरंजक कहानियाँ’ एवं ‘विदेशी कहानियाँ’ आदि हैं। ‘विज्ञान की सरल बातें’  रामदहिन मिश्र की ऐसी पुस्तक है जिसके दर्जन से ऊपर संस्करण प्रकाशित हुए जो निश्चय ही बच्चों में विज्ञान साहित्य की लोकप्रियता को दर्शाता है।31

‘बच्चे राष्ट्र के भावी कर्णधार है’, इस सिद्धांत को ध्यान में रखकर रामलोचन शरण बिहारी (1891-1971) ने सन् 1925 ई.32 में ही ‘बालक’ 33 (मासिक) पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया, जिसके बाद में चलकर आप सम्पादक भी हुए। आपने सन् 1928 ई. में लहेरियासराय में एक प्रेस खोला, जिसका नामकरण ‘विद्यापति प्रेस’ किया। इस प्रेस के माध्यम से आपने बिहार में पढ़ाई जानेवाली प्रायः सभी कक्षाओं की पुस्तकों का मुद्रण एवं प्रकाशन किया। हिंदी  बाल साहित्य की रचना और प्रकाशन में आपका वही स्थान है, जो गुजराती भाषा में आचार्य गिजूभाई को प्राप्त है।34   यूनेस्को से जो शिक्षा-सम्बंधी सूचना प्रकाशित हुई थी, उसमें चौदह पुस्तकों के बीच आपकी भी एक पुस्तक की चर्चा है।35   बाल शिक्षा साहित्य में सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तक ‘मनोहर पोथी’ आप ही की रचना है।                                                                                                                                                   
शिवकुमार लाल (जन्म सन् 1895 ई.) ने हिंदी में लगभग 30-40 विभिन्न विषयक पाठ्य-पुस्तकों का प्रणयन या संपादन किया था। ये पुस्तकें हिन्दुस्तानी प्रेस, पटना; खड्गविलास प्रेस, पटना; पुस्तक भण्डार, पटना; हिन्दुस्तानी तालिमी संघ, सेवागाम, वर्धा; अशोक प्रेस, पटना; अजन्ता प्रेस, पटना; वयस्क शिक्षा-बोर्ड, पटना; बिहार टेक्स्ट बुक-कमिटी, पटना आदि द्वारा प्रकाशित हुई थीं। इन पुस्तकों के अतिरिक्त ‘नवीन शिक्षक’ और ‘बुनियादी शिक्षक’  पत्रिकाओं में आपके द्वारा लिखित शिक्षा एवं शिक्षण-विधि-संबंधी स्फुट लेख भी मिलते हैं। आपने बच्चों के लिए विभिन्न विषयों पर सैकड़ों रोचक तुकबंदियां भी की थीं।36   आपके द्वारा बच्चों के लिए तैयार किये गये पाठ की रोचकता का एक नमूना देखने लायक है-‘हमलोगों की दुनिया कितनी अनोखी है? देखने में यह चिपटी मालूम पड़ती है, लेकिन है यह एकदम गेंद-सी गोल। फिर भी इसकी सतह एकदम चिकनी या समतल नहीं है। इस पर बहुतेरे ऊँचे-ऊँचे पहाड़ सर उठाये आसमान से बातें करते हैं। बहुतेरी नदियाँ पानी से लबालब भरी समुन्दर की ओर दौड़ी जाती हैं। कहीं ऊँचे पहाड़ हैं, कहीं गहरी खाइयाँ हैं। कहीं समतल मैदान हैं और कहीं ऊँची पथरीली पठार और मरुभूमि। एक ओर ऊँचे-ऊँचे पेड़ खड़े हैं और दूसरी ओर चौरस रेतीला मैदान पड़ा है। उसी तरह यह एकदम अचल या खड़ी मालूम पड़ती है। लेकिन असल में यह सूरज के चारों ओर जोर से चक्कर काट रही है। देखो तो मालूम पड़ेगा कि सूरज घूम रहे हैं, किन्तु घूम रही है धरती। सूरज इसका दोस्त मालूम पड़ता है। वह इसे गरमी देता है, रोशनी देता है और शक्ति देता है।’37

छविनाथ पाण्डेय (जन्म सन् 1882 ई.) द्वारा लिखित बालोपयोगी पाठ्य-पुस्तकों की संख्या लगभग बीस है, जिनमें ‘नीति की कहानियाँ’, (कला निकेतन, पटना द्वारा प्रकाशित) ‘उपनिषद की कहानियाँ’, (नागरी-प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, पटना-4 द्वारा प्रकाशित) ‘जादू का हिरन’, (कला निकेतन, पटना-4 द्वारा प्रकाशित) ‘महाभारत की कहानियाँ’  (दो भागों में गिरिजा पुस्तकालय, पटना-4 द्वारा प्रकाशित), ‘चाचा नेहरु’,  (वही) ‘हातिमताई’, (ज्ञानपीठ प्राइवेट लिमिटेड, पटना-4 द्वारा प्रकाशित) ‘हमारी आजादी की लड़ाई’  (उपमा प्रकाशन, पटना-4 द्वारा प्रकाशित) आदि प्रमुख हैं।38   बेचूनारायण (जन्म सन 1884 ई.) ने भी हिन्दी में अनेक पाठ्य-पुस्तकों की रचना की। इनमें प्रमुख-‘चिंतन’‘शिशु-चिंतन’‘पाठ-टीका’‘अंक-गणित’‘हिन्दी व्याकरण’ आदि हैं। परन्तु इनकी रचना के उदाहरण हमें प्राप्त नहीं  होते. 39                                                                                                                                                                                                           
राघवप्रसाद सिंह ‘महन्थ’ (जन्म सन् 1889 एवं मृत्यु सन् 1931ई.) को बाल-मनोविज्ञान एवं प्रकृति का अच्छा अनुभव था। आपकी अधिकतर रचनाएं बालोपयोगी ही हैं। ‘ईसप्स फेबुल्स’  ढंग की आपने एक बालोपयोगी कला-पुस्तक की रचना ‘कला-मंजरी’  के नाम से की थी, जो पुस्तक-भण्डार से प्रकाशित होनेवाली थी। अपने जीवन के अंतिम दिनों में आप एक बालोपयोगी ‘पद्यबद्ध-रामायण’  की रचना कर रहे थे, जो दुर्भाग्यवश पूरी न हो सकी।40   सन् 1894 ई. में जन्मे गंगापति सिंह द्वारा भी बालोपयोगी पुस्तकें रचे जाने की बात जाहिर होती है। इनके द्वारा लिखित पुस्तकों में ‘बाल मैथिली व्याकरण’, ‘लोअर-साहित्य’, ‘भूगोल-परिचय’, ‘बच्चों का उपदेश’, ‘प्रवेशिका मैथिली-साहित्य’ (गद्य-पद्य-संग्रह), ‘लघु मैथिली-साहित्य’  (गद्य-पद्य-संग्रह) एवं ‘संस्कृत-पाठ्य-पुस्तक का नोट’ आदि प्रमुख हैं।41  मुजफ्फरपुर के कमलदेव नारायण (जन्म सन् 1900 ई.) को भी कोर्स के योग्य कई पुस्तकों की रचना करने का श्रेय प्राप्त है। हिंदी सेवी संसार 42 तथा जयन्ती-स्मारक-ग्रन्थ 43  में ‘प्रेमनगर की सैर’, ‘वैज्ञानिक वातावरण’  तथा ‘बच्चों के खेल’  नामक तीन नई पुस्तकों की चर्चा है।44   आचार्य शिवपूजन सहाय (जन्म सन् 1893 ई.) के अवदान को भुलाया नहीं जा सकता। उनकी रचनाओं में ‘मां के सपूत’ 45, ‘बालोद्यान’ 46, ‘आदर्श परिचय’ 47 आदि प्रमुख हैं।

औपनिवेशिक बिहार में शिक्षा की बात फ्रेडरिक पिन्काट की चर्चा के बगैर अधूरी ही रह जायेगी। ये महाशय अपनी विलक्षण प्रतिभा के सहारे इंगलैंड में बैठे-बैठै, बगैर भारत आये, जर्मन विद्वान मैक्स मूलर  एवं कार्ल मार्क्स की तरह यहां की सभी महत्वपूर्ण भाषाओं के आधिकारिक विद्वान हो चले थे। इसे भारत प्रेम ही कहा जायेगा। प्रमाण है कि भारतेंदु हरिश्चन्द्र को एक चिट्ठी पिन्काट साहब ने ब्रजभाषा पद्य में लिखी थी।48 उन्होंने दो पुस्तकें हिन्दी में लिखी हैं-‘बालदीपक’,  (4 भाग ‘नागरी और कैथी अक्षरों में’) एवं ‘विक्टोरिया चरित्र’ ।49   ये दोनों पुस्तकें खड्गविलास प्रेस, बांकीपुर में छपी थीं। ‘बालदीपक’  बिहार के स्कूलों में पढ़ाई जाती रही थी।50   उनके एक पाठ का कुछ अंश नमूने के लिये दिया जाता हैः-‘हे लड़कों! तुमको चाहिए कि अपनी पोथी को बहुत संभाल कर रखो। मैली न होने पावे, बिगड़े नहीं और जब उसे खोलो, पूरी चौकसाई से खोलो कि उसका पन्ना अंगुली के तले दबकर फट न जाय।’

ऐसे भी अनेक लेखक-साहित्यकार हैं जिन्होंने अपने जीवन-काल में बच्चों की शिक्षा के लिए पाठ्य-पुसतकें  तैयार कीं, बच्चों द्वारा रुचिपूर्वक पढ़े भी जाते रहे किन्तु आज गुमनामी के अंधेरे में हैं। इतिहास बनानेवालों की ऐसी गुमनामी इतिहास की बड़ी त्रासदियों से कम त्रासद नहीं है।

संदर्भ एवं टिप्पणियां :

1. डा. कृष्णानंद द्विवेदी ने ‘मुखोपाध्याय’ की जगह ‘मुखर्जी’ लिखा है। देखें, बिहार की हिंदी पत्रकारिता , प्रवाल प्रकाशन, पटना, प्रथम संस्करण, 1996, पृष्ठ-18.
2. देखिए, राजेन्द्र अभिनन्दन ग्रन्थ, पृष्ठ 447-48, और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार,  द्वितीय खण्ड, पृष्ठ-447-48 और भी देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार,  द्वितीय खण्ड़, पृष्ठ संख्या-272, पाद टिप्पणी  संख्या-3.
3. कृष्णानंद द्विवेदी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-19.
4. बाबू शिवनंदन सहाय, बिहार की साहित्यिक प्रगति , प्रथम खंड, पृष्ठ-74.
5. दो गीतों में एक यह है-
हुकुम भइल सरकारी रे नर सीखो नागरिया।
यावनि जी से देहु दुहराई पढ़ि गुनि काज करो नरहरिया।।
लै पोथी नित पाठ करहु अब यावनि-ग्रन्थ देहु पैसरिया ।।
जब ले नागरी आवत नाहीं कैथी अक्षर लिखों कचहरिया।
धन्य मंत्री प्रजाहितकारी अम्बिका मनावत राज विक्टोरिया।।
डा. ग्रियर्सन की बनाई बिहारी व्याकरण-माला  के भोजपुरी खंड  से उद्धृत।
देखिए, सरस्वती, भाग 13, संख्या 8, अगस्त, सन् 1912 ई., पृष्ठ-423-24; और देखिए, हिन्दी साहित्य और बिहार , द्वितीय खण्ड, पृष्ठ-272, पाद टिप्पणी  संख्या -5। पत्तनलाल ‘सुशील’ (सन् 1859-1928 ई.) ने भी भूदेव मुखोपाध्याय की प्रशंसा में एक पद्य-रचना की थी-
‘हिन्दी संसकिरत की उन्नति बहु प्रकार जिन कीनी।
डेढ़ लाख मुद्रा यहि कारण खास कोश ते दीनी ।।’
-देखिए, हरिऔध अभिनन्दन ग्रन्थ , पृष्ठ-533। और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खण्ड, पृष्ठ-253, पाद टिप्पणी संख्या -2.
6. पहले इसका नाम बुधोदय (बोधोदय?) प्रेस था। आपकी प्रेरणा से ही यह प्रेस महाराज कुमार बाबू रामदीन सिंह ने अपने मित्र मझौली-नरेश लाल खड्गमल्ल बहादुर के नाम पर खोला। इस प्रेस की उन्नति और प्रगति में आप बाबू रामदीन सिंह के अभिन्न सहयोगी बने रहे।’ देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार , द्वितीय खण्ड, पृष्ठ-273, पाद टिप्पणी संख्या -1। कहना न होगा कि इस प्रेस से पाठक प्रमोद शरण शर्मा के संपादन में भूदेव  नाम का एक मासिक भी प्रकाशित हुआ था जो अपनी साहित्यिक रुचि और शैक्षिक विकास के लिए काफी लोकप्रिय था। देखें, कृष्णानंद द्विवेदी, पूर्वोद्धृत , पृष्ठ-18.
7. देखिए, सरस्वती , पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-425, और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार , द्वितीय खण्ड, पृष्ठ -273, पाद टिप्पणी संख्या -7.
8. देखिए, जयंती-स्मारक ग्रन्थ , पृष्ठ-259, और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार ,  द्वितीय खंड, पृष्ठ-272, पाद-टिप्पणी संख्या -2.
9. देखिए, जयंती-स्मारक ग्रन्थ ,  पृष्ठ-259, और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार , द्वितीय खण्ड, पृष्ठ -272, पाद टिप्पणी संख्या -4.
10. हिन्दी साहित्य और बिहार , द्वितीय खण्ड, पृष्ठ-272, पाद टिप्पणी संख्या -1.
11. वही , पृष्ठ-44, पाद टिप्पणी संख्या -1.
12. उपरोक्त, पाद टिप्पणी संख्या -2.
13. हिन्दी साहित्य और बिहार , द्वितीय खंड पृष्ठ-44, पाद टिप्पणी संख्या -3.
14. वही, पाद टिप्पणी संख्या -4.
15. वही, पाद टिप्पणी संख्या -5.
16. वही , पृष्ठ 59.
17. वही, पृष्ठ 61, पाद टिप्पणी -2.
18. हिंदी साहित्य और बिहार , पृष्ठ 61, पाद टिप्पणी -3.
19. डॉ. माताप्रसाद गुप्त, हिन्दी-पुस्तक-साहित्य , पृष्ठ-575। और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार, द्वितीय खंड, पृष्ठ-280, पाद टिप्पणी संख्या-2.
20. देखिए , क्रमशः हिन्दी-पुस्तक-साहित्य  (वही), पृष्ठ-575 तथा जयन्ती-स्मारक-ग्रंथ,  पृष्ठ-260।
21. लेखक के कथनानुसार इसकी एक करोड़ से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं। देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार, तृतीय खंड, पृष्ठ-22, पाद टिप्पणी संख्या-3.
22. हिन्दी-साहित्य और बिहार,  तृतीय खंड, पृष्ठ-68-69.
23. इसके मुखपृष्ठ पर लिखा है -It has been recommended for the libraries of Anglo Vernacular and Vernacular schools in the Punjab.  इसकी आलोचना सरस्वती , (मई, सन् 1913 ई., भाग 14, संख्या 5, पृष्ठ-661) में प्रकाशित हुई थी।
24. वही, पृष्ठ संख्या-62, पाद टिप्पणी संख्या -2.
25. वही, पृष्ठ-204.
26. ‘हो’ जाति की भाषा में ‘हो’ मनुष्य को कहते हैं। देखें,  (मासिक, भाग-16, खण्ड-2, संख्या-4, अक्टूबर, सन् 1915 ई.), पृष्ठ-225.
27. हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-230, पाद टिप्पणी संख्या -2.
28. उक्त समिति के द्वारा प्रकाशित पुस्तकें समूचे बिहार में पढ़ाई जाती थीं। देखें, पूर्वोद्धृत , पृष्ठ संख्या-474. शिक्षा समिति के द्वारा पंडित रामदहिन मिश्र के नेतृत्व में किशोर उम्र के बच्चों के लिए 'किशोर' नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन सन् 1938 में प्रारंभ हुआ जो 12 वर्षों तक अबाध प्रकाशित होता रहा। देखें, एन कुमार, जर्नलिज्म इन बिहार , गवर्नमेंट प्रेस, पटना, 1971, पृष्ठ-76.
29. राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना के साहित्यिक इतिहास-विभाग में सुरक्षित लेखक के परिचय-पत्रक के संलग्नक से। और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-225.
30. ‘बालमित्र’  (मासिक) ग्रंथमाला के नाम से आपकी लिखित और संपादित बाईस पुस्तकें, रामनारायण लाल, इलाहाबाद से प्रकाशित हुईं। देखें, किशोर  (मासिक, वर्ष-16, अंक 4-5, श्रद्धांक , जुलाई-अगस्त, सन् 1952ई.), पृष्ठ-132.
31. शकुंतला कालरा, ‘किस्से-कहानी के अलावा भी है बाल साहित्य’, आजकल , नवंबर 2009.
32. एन. कुमार, जर्नलिज्म इन बिहार , पृष्ठ-76; हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-502 पर बालक मासिक पत्रिका का प्रकाशन वर्ष 1926 अंकित है।
33.  यह पत्रिका ‘पुस्तक भंडार’ के मालिक रामलोचन शरण द्वारा लहेरियासराय से शुरू हुई थी। बाद में इसका प्रकाशन पटना से होने लगा। इसके आरंभिक संपादक श्री रामवृक्ष बेनीपुरी थे, बाद के दिनों में इसके संपादन का दायित्व बाबू शिवपूजन सहाय ने निबाहा। देखें, एन. कुमार, जर्नलिज्म इन बिहार , पृष्ठ-76.
34. देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-502.
35. पूर्वोद्धृत ,  पाद टिप्पणी संख्या-2.
36. हिन्दी-साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-584.
37. शिवकुमार लाल, जीवन और विज्ञान ,  तृतीय भाग, पृष्ठ-103। और देखें, हिन्दी-साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-585-86.
38. देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार , चतुर्थ खंड, पृष्ठ-74.
39. हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-307.
40. हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-420.
41. वही, पृष्ठ-106-7.
42. डा. प्रेमनारायण टण्डन, हिंदी सेवी-संसार , प्रथम खंड, सन् 1951 ई., पृष्ठ-29.
43. पुस्तक-भण्डार-जयंती-स्मारक ग्रन्थ  (सम्पादक-मंडल, सन् 1942 ई., पृष्ठ-662).
44. हिन्दी साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ-70-71.
45. बालोपयोगी शिक्षाप्रद 9 जीवनियां, सन् 1949 ई.।
46. बालोपयोगी शिक्षाप्रद 17 रचनाएं।
47. राम, कृष्ण, भारत, भरत और आदर्श साहित्यिक पर शिक्षाप्रद निबंध।
48. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास , नागरी प्रचारिणी  सभा, वाराणसी, पेपरबैक संस्करण, (प्रथम), संवत 2058, पृष्ठ-262.
49. मनोज कुमार अम्बष्ट, ‘हिंदी का विकास और हिंदीतर विद्वान’, आजकल , सितंबर 2008, पृष्ठ-11.
50. रामचंद्र शुक्ल, पूर्वोद्धृत , पृष्ठ-262.

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