Wednesday, September 22, 2010

ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष: बदलते संदर्भ (200 ई. पू. - 200 ई.)

लौह-तकनीक से जो महत्त्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन हुआ वह मौर्यकाल आते-आते स्पष्टता से परिलक्षित होने लगा। ऐसा ज्ञात होता है कि इस काल में शूद्रों की आर्थिक स्थिति में काफी हद तक परिवर्तन हुए। पहली बार शूद्रों को, जो अब तक कृषि-मजदूर थे, राज्य की भूमि में बटाईदारी भी दी जाने लगी। किंतु कृषि-उत्पादन के लिए राज्य की ओर से शूद्रों को बहुत बड़े पैमाने पर दासों और श्रमिकों के रूप में नियोजित किया जाता था। नीचे के दर्जे के लोग या तो खास-खास किसानों के अधीन अथवा स्वतंत्र रूप से काम करते थे और गांवों में रहते थे। उनसे धर्मसूत्र काल की अपेक्षा बड़े पैमाने पर बेगार ली जाती थी, हालांकि उक्त कालावधि में यह मुख्यतया शिल्पियों तक ही सीमित रह गई थी।1 यह बात अब इतनी व्यापक हो गई थी कि सरकारी सेवक का एक वर्ग जो विष्टिबंधक कहलाता था, लोगों से निःशुल्क सेवा कराने की धुन में लगा रहता था।2 यद्यपि समाज में शूद्र को मजदूर एवं शिल्पी के रूप में सबसे कम मजदूरी दी जाती थी, फिर भी संभव है कि मजदूरी की दर नियत हो जाने से उनकी दशा सुधरी हो।3

कौटिल्य ने स्पष्ट शब्दों में यह नहीं कहा है कि शूद्रों को उच्च प्रशासनिक पद नहीं दिए जाएं, जबकि धर्मसूत्रों में ऐसा स्पष्ट विधान किया गया है।4  किंतु शूद्रों को जासूसी का काम दिया जाता था, जो मौर्य प्रशासन-तंत्र का एक अति महत्त्वपूर्ण अंग था। कौटिल्य ने बताया है कि अन्य लोगों के साथ-साथ शूद्र महिलाओं को धूमक्कड़ जासूस के रूप में नियुक्त किया जा सकता है।5 इतना ही नहीं, कौटिल्य का यह मत भी है कि समाज के सभी वर्ग के लोगों को, जिनमें कृषक, पशुपालक और जंगली जातियां भी हैं, दुश्मनों की गतिविधि जानने के उद्येश्य से जासूस नियुक्त किया जाना चाहिए। कहना न होगा कि इसमें शूद्र भी आ जाते हैं।6

विशेष महत्त्व की बात है कि अर्थशास्त्र में शूद्रों को सेना में बहाल करने का उपबंध किया गया है।7 धर्मसूत्रों से तो ऐसी धारणा बनती है कि सामान्यतया केवल क्षत्रिय और आपतिक स्थिति में ब्राह्मण तथा वैश्य शस्त्र धारण कर सकते हैं। सेना को राज्य का अनिवार्य अंग बताते हुए कौटिल्य ने यह भी कहा है कि परंपरानुसार वह सेना सर्वोत्कृष्ट है, जिसमें केवल क्षत्रिय सिपाही हों।8 किंतु उन्हें ब्राह्मण-सेना पसंद नहीं है, जिसे प्रणाम और अनुनय-विनय करके रिझाया जा सकता है।9 दूसरी ओर वे शूद्रों और वैश्यों की सेना पसंद करते हैं, क्योंकि उसमें लोगों की संख्या अधिक होती है।10  किंतु मेगास्थनीज, एरियन तथा स्ट्राबो आदि ने विपरीत प्रमाण पेश किये हैं। फिर भी, संभवतया स्थायी सेना में शूद्रों को भृत्यों और अनुचरों के रूप में बहाल किया जाता था। कौटिल्य के नियम से संकेत मिलता है कि आपतिक स्थिति में शूद्र को सेना में बहाल किया जा सकता था। नई बस्तियों में वागुरिक, शबर, पुलिंद तथा चंडाल जैसी जनजातियों को आंतरिक प्रतिरक्षा का भार सौंपा जाता था।11 

कौटिल्य ने शूद्रों की राजनीतिक-आर्थिक तस्वीर के साथ-साथ धार्मिक स्थिति का भी उल्लेख किया है जो रोचक एवं खासा महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने बताया है कि यदि कोई व्यक्ति देवता या पूर्वजों को अर्पित भोजन बौद्ध और आजीवक जैसे वृषल संन्यासी को खिलाए तो उस पर 100 पण का जुर्माना किया जाएगा।12 यहीं कुछ ऐसे नियमों का भी हवाला है जिनसे प्रतीत होता है कि शूद्रों को धार्मिक एवं शैक्षिक सुविधाएं प्राप्त थीं। कौटिल्य के अनुसार राजा को चाहिए कि उस पुरोहित को बर्खास्त कर दे जो आदेश होने पर किसी अनधिकारी को वेद पढ़ाने अथवा यज्ञ के अनधिकारी (अयाज्यायजनाध्यापने) द्वारा किये जानेवाले यज्ञ में भाग लेने से इनकार करे।13 इस परिच्छेद में जयमंगला ने अयाज्यशूद्रापुत्र14 बताया है। अतः इस नियम से यह जान पड़ता है कि उच्च वर्णों के शूद्रा-पुत्र राजा के कहने पर यज्ञ का संपादन एवं विद्याध्ययन भी कर सकते हैं।

अर्थशास्त्र से हमें निम्न वर्णों के सामान्य आचरण की भी झलक मिलती है। यह बताता है कि इस वर्ग के लोग जिस स्थिति में रहते थे, उससे वे बिल्कुल खुश नहीं थे। कौटिल्य ने अपराधियों और संदिग्धों की जो सूची दी है उसमें बहुतेरे ऐसे लोग हैं जिनकी जातियों और व्यवसायों को समाज में हीन माना जाता था (हीनकर्मजातिम)। उन्हें हत्यारा, डकैत या कोषों और निक्षेपों के दुर्विनियोग का दोषी समझा जाता था।15 कौटिल्य का विचार है कि चोरी या सेंधमारी होने पर गरीब औरतों और अपराधशील नौकरों की भी जांच करनी चाहिए।16 उन्होंने यह भी बताया है कि यदि मालिक की हत्या हुई हो तो उसके सेवकों की परीक्षा करके यह जानना चाहिए कि मालिक के प्रति कोई हिंसापूर्ण या निर्दयतापूर्ण व्यवहार तो नहीं किया है।17 इससे प्रकट होता है कि कभी-कभी घरेलू नौकर अपने मालिक की जान लेने का प्रयास करता था। कौटिल्य ने यह भी विहित किया है कि जब कोई शूद्र अपने को ब्राह्मण कहे, देवताओं की संपत्ति चुराए या राजा का बैरी हो तो विषैली दवाओं का प्रयोग करके उसकी आंखें नष्ट कर दी जाएं या उससे आठ सौ पण जुर्माना वसूल किया जाए।18 इससे पता चलता है कि पुरोहितों और सत्ताधारियों के प्रति कुछ शूद्र बैर-भाव रखते थे। एक ऐसा भी प्रसंग आया है जो पारशव के राजविद्रोहात्मक कार्यकलाप के संबंध में है। उसकी राज्यविरोधी गतिविधियों के दमन के लिए वही उपाय किये जाएं जो किसी राज्यविरोधी मंत्री के लिए किये जाते हैं। कहा गया है कि राजा को चाहिए कि संदिग्ध व्यक्ति के परिवार में झगड़ा लगाने के लिए खुफिया बहाल करे, ताकि अंततः सरकार उसे फांसी पर लटका सके।19 उपर्युक्त प्रसंग बताते हैं कि शूद्र वर्ण के सदस्यों का झुकाव (बर्ताव) अपने मालिक के प्रति अच्छा नहीं था। चूंकि उस समय उनकी प्रतिक्रिया व्यक्त करने का कोई संगठित या शांतिपूर्ण तरीका नहीं था, इसलिए कभी-कभी वे अपनी प्रतिक्रिया डकैती, सेंधमारी, मंदिर की संपत्ति की चोरी, मालिक की हत्या, ब्राह्मणों के आडंबर पर प्रहार और राज्य के प्रधान के प्रति विद्रोह जैसे आपराधिक कार्यकलापों के रूप में करते थे।20 ये कार्य उनके मन में व्याप्त असंतोष के परिचायक थे।21 किंतु एक भी ऐसा प्रमाण नहीं मिलता, जिससे पता चले कि उनलोगों ने संगठित होकर विद्रोह किया था।

शूद्रों का असंतोष निरंतर बढ़ता जा रहा था और इसका चरम रूप हमें मौर्योत्तर काल में मनुस्मृति के वर्णनों में प्राप्त होता है। कतिपय प्राचीन पुरानों में कलियुग के जो वर्णन मिलते हैं, वे प्रायः इसी युग का संकेत करते हैं।22 अंशतः अशोक की बौद्ध-समर्थक नीति और अंशतः कुछ महत्वपूर्ण विदेशी जातियों के चलते ब्राह्मण समाज पर जो आघात हुआ, उसे मनु ने बचा रखने की जी-तोड़ कोशिश की है, और इसके लिए उन्होंने न केवल शूद्रों के विरुद्ध कठोर दंड का विधान किया है, बल्कि बाहरी तत्त्वों को वर्ण समुदाय में समाविष्ट करने के उद्येश्य से उनकी समुचित वंशावली भी बनाई है। इतना ही नहीं, उन्होंने तलवार (दंड) की शक्ति की जो अत्यधिक महिमा बतलाई है, उसका भी निहितार्थ/अभिप्राय यही है।23

मनु ने ऐसे कई विधान बनाये हैं जिनसे शूद्रों की स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उन्होंने वर्ण के अनुसार ब्याज की दरें निर्धारित की हैं, यद्यपि यह पुराना नियम था।24 वर्णों के अनुसार ब्याज की दरें क्रमशः दो, तीन, चार या पांच प्रतिशत होनी चाहिए।25 नासिक के उत्कीर्ण लेख से पता चलता है कि जब रुपये बुनकर संघ के पास जमा किये जाते थे, तब उनके द्वारा चुकाए जानेवाले ब्याज की दरें प्रतिमास एक से लेकर 3/4 प्रतिशत तक होती थी।26 हो सकता है कि मनु का ब्याज संबंधी विधान अमल में नहीं लाया गया हो, किंतु ब्याज वसूलने में प्रायः ब्राह्मणों के प्रति कुछ नरमी बरती जाती थी और शूद्रों को अपना ऋण चुकाकर ही मुक्त होना पड़ता था।27 मनु का विचार है कि शूद्र को संपत्ति जमा करने का अवसर प्रदान नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे वह ब्राह्मणों को सताने लगेगा।28 कहा गया है कि इस तरह की निषेधाज्ञा खुद शूद्रों को संबोधित अतिरंजित मंतव्य हैं,29 किंतु ऐसे विचार के लिए मूलग्रंथ में कोई आधार नहीं बनता है। इस निषेधाज्ञा की तुलना अंग्रेजी प्रार्थना ग्रंथ के उस प्रबोधन वाक्य से भी की जाती है, जिसमें गरीब को कहा गया है कि ‘उसके पास जो कुछ भी हो, उसी से वह संतुष्ट रहे।’30 चूंकि प्रसंगाधीन परिच्छेद आपातकाल संबंधी अध्याय में आया है, अतः यह बौद्ध भिक्षुओं या विदेशी शासकों के संबंध में कहा गया होगा, जिन्हें शूद्र ही माना जाता था।31 जो भी हो, दायविधि से स्पष्ट है कि शूद्रों की संपत्ति होती थी।32 यह निष्कर्ष मनु द्वारा दुहराये गये उस पुराने नियम से भी निकाला ला सकता है, जिसके अनुसार वैश्यों और शूद्रों को धन से अनुदान द्वारा अपनी विपत्ति का निराकरण करना चाहिए।33 मनु ने यह भी विहित किया है कि ब्राह्मण अपने शूद्र दास के सामान को निर्भयतापूर्वक जब्त किया है, क्योंकि उसे संपत्ति रखने का अधिकार नहीं है।34 जायसवाल का विचार है कि इसके द्वारा संभवतया बौद्ध संघ की संपत्ति जब्त करने की क्रिया को कानूनी मान्यता प्रदान की गई है, क्योंकि संघ के पास अपार संपत्ति इकट्ठा हो गई थी।35 किंतु यह नियम संभवतया उन शूद्रों पर ही लागू होता है जो दास के रूप में काम करते थे।36 मनु का मत है कि क्षत्रिय भूखा क्यों न रह जाए वह किसी पुण्यात्मा ब्राह्मण की संपत्ति का हरण नहीं कर सकता, लेकिन वह किसी दस्यु या अपने पवित्र कर्तव्य से च्युत होनेवाले लोगों की संपत्ति हड़प सकता है।37 इससे पता चलता है कि जो क्षत्रिय और वैश्य अपने अनिवार्य धार्मिक कृत्यों की अवहेलना करते थे, उनकी संपत्ति हरण कर ली जा सकती थी। ऐसी स्थिति में शूद्रों को सुरक्षित नहीं समझा जा सकता है, क्योंकि मनु ने नियम बनाया है कि चूंकि शूद्र को यज्ञ से कोई सरोकार नहीं है, इसलिए यज्ञ करनेवाले द्विज यज्ञ के लिए अपेक्षित दो या तीन सामग्री उससे ले सकते हैं।38 इन सभी नियमों से मालूम होता है कि मनु ने शूद्र को आर्थिक दृष्टि से हीन बनाकर रखने का प्रयास किया है।39

मनु ने मौर्योत्तरकालीन राज्य व्यवस्था में शूद्रों की स्थिति के बारे में काफी विस्तृत जानकारी दी है। उन्होंने बताया है कि स्नातक को शूद्र शासक के देश में नहीं रहना चाहिए,40 इससे स्पष्ट है कि उस काल में शूद्र शासक होते थे।41 पुराण में जो कलियुग के वर्णन आए हैं, उनमें बताया गया है कि शूद्र राजा अश्वमेध यज्ञ42 करते थे और ब्राह्मण पुरोहितों से यजन कराते थे।43 कलि शासकों का हवाला देते हुए विष्णुपुराण में कहा गया है कि विभिन्न देश के लोग इन शासकों में मिल जाते थे और उनका अनुसरण करने लगते थे।44 ब्राह्मण और इन शासकों में संपर्क नहीं बढ़ने पाए, इसके लिए मनु ने इन शासकों के राज्यों में स्नातकों का बसना निषिद्ध माना है।45 उन्होंने यह भी विहित किया है कि ब्राह्मणों को क्षत्रिय के अलावा किसी भी राजा का उपहार नहीं ग्रहण करना चाहिए।46 मनु ने चेतावनी दी है कि जिस राज्य में शूद्र विधि (कानून) का व्यवस्थापन करे और राजा देखता रहे, उस राज्य की स्थिति वैसे ही गिरती जाती है, जैसे दलदल में फंसी गाय नीचे की ओर धंसती जाती है।47 ऐसे नियम प्रायः उन राज्यों का निर्देश करते हैं जिन्होंने न्याय-प्रशासन या अन्य प्रशासनिक कृत्यों के संपादन के लिए कुछ शूद्रों को नियुक्त किया होगा।48 किंतु मनु जोर देकर कहते हैं कि ऐसा ब्राह्मण भी जो मुख्यतया अपनी जाति के नाम पर (अर्थात् अपने को केवल ब्राह्मण बताकर) ही जीवन प्राप्त करता है, विधि का निर्वचन कर सकता है, पर शूद्र किसी भी दशा में न्यायाधीश (धर्मप्रवक्ता) नियुक्त नहीं किया जा सकता।49 मनु ने स्पष्ट व्यवस्था दी है कि न्यायाधीश सिर्फ ब्राह्मण ही हो सकता है, भले ही वह शिक्षित हो या अशिक्षित। परंतु शूद्र कभी भी न्यायाधीश नहीं हो सकता भले ही वह विद्वान है।50 यही नहीं, मनु ने शूद्र को धर्मोपदेश देने से भी रोका है-यदि कोई शूद्र ब्राह्मण को धर्म का उपदेश दे, तो राजा उसके मंुह में खौलते हुए तेेल डलवाए।51 किंतु टीकाकारों का मत है कि आवश्यक होने पर क्षत्रियों की नियुक्ति न्यायाधीश के रूप में की जा सकती है। अलबत्ता टीका में कहीं भी वैश्यों का उल्लेख नहीं हुआ है। यह मनु के अनुकूल जान पड़ता है, जिसके अनुसार क्षत्रिय, ब्राह्मण के बिना और ब्राह्मण, क्षत्रिय के बिना उन्नत्ति नहीं कर सकते। किंतु मिल-जुलकर रहने पर वे इस लोक और परलोक में भी सुखी रह सकते हैं।52 प्रायः ब्राह्मण प्रधान राज्यों में सभी प्रशासकीय और न्याय संबंधी पदों पर प्रथम दो वर्णों का एकाधिकार था।53 उच्च वर्णों के सदस्योें के मामले में शूद्रों को गवाह के रूप में भी उपस्थित होने की अनुमति नहीं दी गई है। झूठी गवाही देने पर राजा तीन नीच वर्णों के लोगों को जुर्माना और निर्वासन का दंड दे सकता है, लेकिन ब्राह्मण को केवल निर्वासित ही करेगा।54 ब्राह्मण शारीरिक दंड के भी भागी नहीं हैं। ब्राह्मणों के संदर्भ में शारिरिक दंड को स्पष्ट करते हुए मनु ने लिखा है कि ‘राजा अन्य जातियों को मृत्युदंड दे, पर ब्राह्मण को नहीं। भले ही ब्राह्मण ने गंभीरतम अपराध किये हों।55  आगे उन्होंने लिखा है, राजा ब्राह्मण को मृत्युदंड के स्थान पर केवल निष्कासन का दंड दे सकता है, वह भी संपत्ति के साथ सकुशल।56 शारीरिक दंड केवल तीन वर्णों के लोगों को ही दिया जा सकता है।57 इसलिए इन दृष्टियों से शूद्र को क्षत्रिय और वैश्य के साथ समान स्तर पर रखा गया है। वैश्य लोग अक्सर क्षत्रियों के खिलाफ विद्रोह करते और इस काम के लिए अक्सर उन्हें ब्राह्मणों द्वारा बढ़ावा दिया जाता लेकिन ब्राह्मण शूद्र के प्रति यह रुख कभी नहीं अपनाते।58 यह बड़ा ही अर्थपूर्ण है कि मनु ने शूद्र गवाह के लिए कोई राजदंड विहित नहीं किया है।59

पुराने विधि निर्माताओं की तरह मनु भी न्याय प्रशासन में वर्ण-भेद की भावनाओं से प्रेरित लगते हैं और ब्राह्मणों को श्रेणीक्रम में अव्वल बताते हैं। यदि कोई क्षत्रिय किसी ब्राह्मण की मानहानि करे तो उसे सौ पण का जुर्माना किया जाएगा।60 यदि कोई ब्राह्मण किसी क्षत्रिय की मानहानि करे तो उसे पचास पण का जुर्माना किया जाएगा।61 अलबत्ता उच्च वर्ण के लोगों के प्रति अपराध करनेवाले शूद्रों के लिए मनु ने बहुत ही कठोर दंड विहित किया है। यदि कोई शूद्र किसी द्विज को गाली देकर अपमानित करे तो उसकी जीभ काट ली जाएगी62 किंतु शूद्र का नाम अपमानजनक भाव का सूचक होना चाहिए।63 यहां द्विज शब्द केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए प्रयुक्त हुआ है, क्योंकि किसी शूद्र द्वारा किसी वैश्य को दुर्वचन कहे जाने पर यह दंड देना स्पष्टतया निषिद्ध है।64 मनु ने यह भी विहित किया है कि यदि कोई शूद्र, द्विज के नाम और जातियों की चर्चा तिरस्कारपूर्वक करे तो दस अंगुल लंबी गर्म लोहे की कांटी उसके मुंह में ठंूस दी जाएगी।65  यदि वह उदंडता के साथ ब्राह्मणों को उनका कर्म सिखाए, तो राजा उसके मुंह और कान में तेल डलवा देगा।66 स्पष्ट है कि मनु के ये नियम उन राजनीतिक विरोधियों के प्रति उद्दिष्ट हैं जो सुस्थापित व्यवस्था का निरादर करते हैं।67 मनु ने एक जगह यह भी विहित किया है कि नारी, शूद्र, वैश्य और क्षत्रिय का वध करना मामूली अपराध है, जिसके लिए अपराधी को जातिच्युत कर दिया जाता है।68 इससे यह न समझा जाना चाहिए कि क्षत्रिय की गिनती निम्न सामाजिक हैसियत वाले वर्णों में होने लगी थी बल्कि इस नियम का एकमात्र उद्येश्य ब्राह्मण के जीवन की महत्ता पर जोर देना है।69

यदि पुराणों में आए कलियुग के वर्णन को मौर्योत्तर काल में प्रचलित स्थितियों का कुछ संकेत देनेवाला माना जाए,70 तो यह स्पष्ट होगा कि शूद्र खुलेआम वर्तमान सामाजिक व्यवस्था की अवहेलना करते थे। शूद्रों की ‘ज्यादती’ का वर्णन कूर्मपुराण में किया गया है: ‘राजा के मूढ़ अधिकारी ब्राह्मणों को अपना स्थान छोड़ने के लिए बाध्य करते हैं और उन्हें पीटते हैं। राजा बदलती हुई परिस्थितियों के कारण कलियुग में ब्राह्मण का अनादर करते हैं और ब्राह्मणों के बीच शूद्र उच्च पदों पर आसीन होते हैं। ब्राह्मण, जिन्होंने वेद का अल्प अध्ययन किया है और जो कम भाग्यशाली और शक्तिशाली हैं, फूलों, अलंकरणों और अन्य मांगलिक वस्तुओं से शूद्रों का सम्मान करते हैं। इस प्रकार सम्मानित किये जाने पर भी शूद्र ब्राह्मणों की ओर देखता तक नहीं है। ब्राह्मण, शूद्र के घरों में प्रवेश करने का साहस नहीं करता और उनका अभिवादन करने का अवसर पाने के लिए उनके दरवाजे पर खड़ा रहता है। ब्राह्मण, जो अपने जीवन-यापन के लिए शूद्र पर निर्भर रहते हैं, उनकी सवारी के चारों ओर इस उद्येश्य से खड़े  रहते हैं कि उनका गुण बखान कर सकें और उन्हें वेद पढ़ा सकें।’71 कुछ इसी तरह का वर्णन मत्स्यपुराण में भी है और यह भविष्यवाणी की गई है कि श्रुति और स्मृति का धर्म बहुत शिथिल हो जाएगा और वर्णाश्रम धर्म नष्ट हो जाएगा। इसमें यह क्षोभ भी प्रकट किया है कि लोग वर्णसंकर होंगे, शूद्र, ब्राह्मणों के साथ बैठेेंगे, खाएंगे और उनके साथ यज्ञादि करेंगे तथा मंत्रोच्चार भी करेंगे।72 वायुपुराण और ब्रह्मांड पुराण में कहा गया है कि कलियुग में शूद्र, ब्राह्मणों जैसा और ब्राह्मण, शूद्रों जैसा कर्म करते हैं।

कलियुग के वर्णन को, जो ब्राह्मणों द्वारा शिकायत और भविष्यवाणी73 के रूप में किया गया है, केवल कपोल कल्पना कहकर टाला नहीं जा सकता है। उससे ब्राह्मणों की उस दयनीय स्थिति का आभास मिलता है, जो ग्रीकों, शकों और कुषाणों के कार्यकलापों का परिणाम थी। संभव है, उनके आक्रमणों के कारण शूद्रों की स्थिति में परिवर्तन हुआ हो और वे उठ खड़े हुए हों। विदेशी आक्रमणकारियों से पूर्व जो निर्धारित व्यवस्था थी उसमें एक खास किस्म की अराजकता पैदा हुई होगी। इससे व्यवस्था बनाए रखने में काफी असुविधा का सामना करना पड़ा होगा। यह भी संभव लगता है कि ब्राह्मणों और क्षत्रियों की जो सदियों पुरानी आपसी समझदारी थी उसको भी एकबारगी धक्का लगा होगा क्योंकि अब शासकों के बिल्कुल नये चेहरे थे और वे भिन्न धार्मिक-सामाजिक मान्यताओं के पोषक थे। वैसे शूद्रों में असंतोष पहले से ही उबल रहा था। स्वभावतया वे ब्राह्मणों के दुश्मन हो गये, क्योंकि उन्होंने उनके प्रति विभेदमूलक नियम बनाये थे। यह सामाजिक उथल-पुथल कब तक और देश के किस भाग में होती रही, इसका निर्धारण करना आंकड़ों के अभाव में कठिन है। किंतु जान पड़ता है कि अपधर्मी शूद्र राजाओं के प्रति ब्राह्मणों के बैर-भाव का कारण यह था कि ये राजा शूद्रों से भाईचारे का व्यवहार रखते थे। दास और भाड़े के मजदूर के रूप में शूद्रों की पराधीनता शक और कुषाण शासकों की विदेश नीति से कम हुई होगी, क्योंकि वे वर्णोें में विभाजित समाज का आदर्श निभाने के लिए बाध्य नहीं थे।74

हॉपकिंस ने बताया है कि मनु के कुछ नियमों से एक ओर के दो उच्च वर्ण और दूसरी ओर के दो निम्न वर्ण के बीच दुश्मनी का आभास मिलता है।75 इनके बीच होनेवाले संघर्ष से मालूम होता है कि उच्च वर्णों का नेतृत्त्व ब्राह्मण और निम्न वर्णों का नेतृत्त्व शूद्र कर रहे थे।76 पूर्वकाल में भी शूद्रों और अन्य वर्णों के बीच संघर्ष का आभास मिलता है किंतु वह उतना धनीभूत नहीं था। मौर्योत्तर काल में इस संघर्ष ने उग्र रूप धारण कर लिया। शायद इसीलिए हम मनु के यहां शूद्र-विरोध रचम पर पाते हैं। इस शूद्र-विरोध को ऐसा अतिवादी उपाय मानना चाहिए जो नई शक्तियों के उद्भव से समाज के पुराने ढांचे को टूटने से बचाने के लिए ‘वांछनीय’ था।77 मनु के विधिग्रंथ में भी शूद्रों की स्थिति में हुए उन बहुतेरे परिवर्तनों का उल्लेख किया गया है जो ब्राह्मणों के विरुद्ध उनके संघर्ष, नये लोगों के आगमन और कला एवं शिल्प के विकास के परिणाम थे।

निश्चित रूप से ऐसा कहा जा सकता है कि संबद्ध काल में विदेशियों के आगमन से वर्णव्यवस्था का बंधन शिथिल पड़ा। चंूकि जाति- प्रथा मुख्यतया स्थिर जीवन पर निर्भर होती है, इसलिए इन जातीय विप्लवों से उच्च वर्णों के विशेषाधिकारों की बुनियाद कमजोर हुई होगी और शूद्रों की स्थिति पर अच्छा सकारात्मक प्रभाव पड़ा होगा। शायद इसी कारण हमें शूद्र की कानूनी एवं राजनीतिक स्थिति में भी कुछ सुधार दिखाई पड़ते हैं। शूद्र को गाली देने के कारण ब्राह्मणों को दंडित करने का जो विधान मनु ने बनाया है, वह बडा ही अर्थपूर्ण है,78 क्योंकि धर्मसूत्रों के अनुसार ब्राह्मण इस कार्य के लिए दंड का भागी नहीं था। इसी काल में सातवाहन शासक गौतमीपुत्र शातकर्णि ने दावा किया है कि उन्होंने ब्राह्मणों और शूद्रों (अवरों) को समझा-बुझाकर वर्ण-व्यवस्था की गड़बड़ी को दूर किया और पुनः चातुर्वर्ण्य व्यवस्था स्थापित की।79 वर्णों का यह नया व्यवस्थापन ब्राह्मण शासकों ने क्षत्रियों के विरोध में किया था,80 क्योंकि ये क्षत्रिय प्रायः बाहर के शासक वंश के थे।

किंतु कहना होगा कि इस काल में ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों का आपसी विरोध प्रकट तो होता है लेकिन दबे हुए स्वर में। ब्राह्मणों को इस बात की चिंता बनी रहती है कि अगर वर्ण-व्यवस्था के नियमों को अमल में नहीं लाया गया तो दोनों ही प्रभुत्त्वशाली वर्णों के लिए खतरा उपस्थित कर सकता है।81 मौर्यकालीन समाज में संक्रमण की जो प्रवृत्तियां दृष्टिगोचर होने लगी थीं, कलियुग के दिनों में आकर अपना स्पष्ट प्रभाव छोड़ रही थीं। इतिहासकार यह भी  मानते हैं कि नंदों के बाद सत्ता कभी भी क्षत्रिय के हाथ में नहीं रही,82 और उन शासकों का शूद्रों के साथ संबंध जोड़ा जाता है। मौर्यकाल में जंगलों की व्यापक कटाई और निकटवर्ती इलाकों में, जिनमें निश्चित रूप से कई जनजातीय इलाके भी शामिल थे, राज्य का विस्तार हो चुका था। इस पूरी प्रक्रिया में ब्राह्मणों के समक्ष एक गंभीर चुनौती उपस्थित हुई। दो प्रमुख काम सामने आये। पहला तो यह कि गैर-क्षत्रिय राजाओं को क्षत्रियत्त्व प्रदान करना था। इस कर्म के लिए ब्राह्मणों को जो बड़े-बड़े भू-भाग मिले थे वे इन्हीं नये बसते इलाकों में थे। प्रजा ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धावनत हो, इसके लिए राजा की महिमा का गुणगान आवश्यक था। राजा दंड का प्रतीक था;83 इसलिए बहुत स्वाभाविक था कि राजा को स्थापित करने के लिए दंड की महिमा बखानी जाए।
मनुस्मृति, जिसकी रचना इसी पृष्ठभूमि में हुई जान पड़ती है, दंड को जीवन का प्रधान आधार साबित करती है। यह दंड ही है जो मनुष्य को सोते-जागते नियंत्रित करता है।84 कई बुद्धिमान लोगों के लिए दंड ही धर्म था।85 संपूर्ण सृष्टि दंड की बदौलत ही मर्यादापूर्ण स्थिति में बनी रहती है,86 क्योंकि ऐसा मनुष्य ढंूढ़ना अत्यंत ही दुष्कर कार्य है जिसने कोई अपराध न किया हो।87 ध्यान रहे कि मनु अपने ग्रंथ की रचना विकेंद्रीकरण के दिनों में कर रहे थे। उनके द्वारा दंड का किया गया प्रशस्ति-गायन शायद उस समय तीब्र हो रहे वर्ण/वर्ग-संघर्ष का परिणाम था।88  शासक वर्ग शोषित वर्ग को दंड का भय दिखाकर दबाये रखना चाह रहे थे।

निश्चय ही इस काल का आदर्श ब्राह्मण-क्षत्रिय सहयोग है।89 मनु ने स्पष्ट शब्दों में घोषित किया है, ‘क्षत्रिय बगैर ब्राह्मण के ऐश्वर्य नहीं पा सकता और न ब्राह्मण ही क्षत्रिय की सहायता के बगैर समृद्धि को प्राप्त कर सकता है। ब्राह्मण-क्षत्रिय एकता न सिर्फ धरती पर बल्कि पारलौकिक जीवन की समृद्धि का भी कारण बनती है।’90 महाभारत का भी स्वर बहुत कुछ ऐसा ही है।91 जैसाकि कहा गया है, ‘आग और हवा का साझा प्रयास जैसे जंगलों को जलाता है, ठीक वैसे ही ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों की एकता दुश्मनों का नाश करती है।92 स्थिति अगर ठीक विपरीत है तो संपूर्ण समाज का विघटन निश्चित है।93 बल्कि ग्रंथकारों ने कई बार जोर देकर कहा कि ब्राह्मणों का सहयोग एवं उनकी नियमित सेवा राज्य के सफल संचालन के लिए आवश्यक है।94 अगर ऐसा होता है तो राज्य की मर्यादा लंबे काल तक कायम रह सकती है।95 आपसी सहयोग पर इतना बल है कि ब्राह्मणों में भी जिसे क्षत्रियों का सहयोग प्राप्त है, श्रेष्ठ है, और क्षत्रियों में वह श्रेष्ठ है जिसे ब्राह्मणों की सेवा प्राप्त है।96 लोग इस बात को भूले न थे कि इसी सहयोग के अभाव में देवता लोग भी असुरों द्वारा पराजित हुए थे।97
ब्राह्मण-क्षत्रिय सहयोग पर अक्सर दिये जा रहे बल से यह भ्रम न होना चाहिए कि दोनों के अंतर्विरोध समाप्त हो चुके थे अथवा ब्राह्मण-क्षत्रिय अपने ‘श्रेष्ठता-बोध’ को भूल चुके थे। ब्राह्मणों का यह बोध कि वे क्षत्रियों अथवा राज्य पर आश्रित नहीं है, अब तक कायम था। मनुस्मृति तक में इसका हवाला है।98

मुख से पैदा होने के कारण ब्राह्मण श्रेष्ठ है। धरती का सारा वैभव उसी के अधीन है।99 इसलिए ब्राह्मण जो भी खाता-पीता अथवा पहनता है; उसका अपना है जबकि दूसरे मर्त्य प्राणी ब्राह्मणों की दया पर पलते हैं।100 गौतम भी एक पारंपरिक कथन याद करते पाये जाते हैं कि ‘राजा सबों का मालिक है लेकिन इसमें ब्राह्मण शामिल नहीं है’।101 बल्कि मनुस्मृति ने बहुत स्पष्ट शब्दों में ब्राह्मणों को ‘महिसुर’102 कहा और क्षत्रियों को पार्थिव, अर्थात् सामाजिक हैसियत में दूसरा स्थान। यहां यह गौर करने की बात है कि क्षत्रिय को दूसरे दर्जे का मानते हुए भी मनुस्मृति में राजा को ‘देवोत्तर’103 संज्ञा से विभूषित किया जाता है। इसका एक कारण तो यह था कि राजपद पर अब सिर्फ क्षत्रियों का ही एकाधिकार न रह गया था बल्कि इस काल में ब्राह्मण भी राजपद को सुशोभित कर रहे थे। इसलिए मनुस्मृति में अगर राजा में दैवी गुणों का आरोपण हो रहा हो तो कोई आश्चर्य की बात न होगी। बल्कि कहना होगा कि शासकों का दैवी चरित्र मनुस्मृति की एक सुस्पष्ट विशेषता है;104 इसमें आठ देवताओं के लक्षण शासक पर आरोपित किए गए हैं। अतएव राजा का विरोध असंभव है। मनुस्मृति ने राजा के विरुद्ध विद्रोह करना अप्राकृतिक और पाप घोषित कर दिया। निश्चय ही बालक होता हुआ भी मनुष्य मानकर राजा की अवमानना नहीं होनी चाहिए क्योंकि वस्तुतः वह महादेवता है, नर का रूप मात्र उसने (जन-कल्याण के लिए) धारण कर लिया!105 इस काल का राजा क्षत्रिय भी नहीं, ब्राह्मण था, उसके देवत्त्व में भला किसको अविश्वास हो सकता था !

‘क्षात्रद्विजत्वं च परस्परार्थम’ का जो उद्घोष था वह समाज की तत्कालीन परिस्थितियों से पैदा हुआ था। उसी से वर्ण-व्यवस्था को भी चुनौती मिल रही थी। इस बदले माहौल में राजा के दायित्त्व बदल चुके थे। क्षत्रिय वर्ण की परिभाषा बदल चुकी थी। कभी इन्द्रियों को जीतनेवाला, पंडित, शूरतादिगुणयुक्त, श्रेष्ठ वीर पुरुष एवं क्षात्र-धर्म को स्वीकार करनेवाला क्षत्रिय कहाता था। परमेश्वर और वेद को जाननेवाला ब्राह्मण कहलाता था। ऐसे ब्राह्मण और क्षत्रिय के साथ न्यायपालक राजा को अनेक प्रकार से लक्ष्मी प्राप्त होती है और उसके खजाने की कभी हानि नहीं होती। यहां इस बात को जान लेना चाहिए कि आरंभिक काल में राजा द्वारा युद्ध करना ही उसका बल होता है। उसके बिना बहुत धन और सुख की प्राप्ति कभी नहीं होती। निघण्टु में संग्राम ही का नाम ‘महाधन’ है।106 उसको ‘महाधन’ इसलिए कहते हैं कि बिना संग्राम के अत्यंत प्रतिष्ठा और धन कभी नहीं प्राप्त होता। न्याय से राज्य का पालन करना क्षत्रियों का ‘अश्वमेध’ कहाता था।107

धर्मसूत्र और अर्थशास्त्र से लेकर ब्राह्मण विचारधारा के सभी ग्रंथों में राजा के जिस कर्तव्य पर सबसे अधिक जो दिया गया है वह है वर्णों पर आधारित सामाजिक व्यवस्था की रक्षा।108 कौटिल्य के अनुसार धर्म प्रवर्तक के रूप में राजा चतुर्वर्ण व्यवस्था का रक्षक है।109 शांतिपर्व में भी स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि जाति-धर्म या वर्ण-धर्म का  आधार क्षात्रधर्म अर्थात् राज्यशक्ति है।110 मनु की घोषणा है कि राज्य तभी तक फूल-फल सकता है जब तक वर्णों की शुद्धता कायम रहती है। यदि मिश्रित वर्णों के वर्णसंकर लोग वर्णों को दूषित करेंगे तो राज्य अपने निवासियों सहित नष्ट हो जायेगा।111 सच तो यह है कि मनु वर्ण व्यवस्था से सर्वथा अलग करके राजा के कर्तव्यों की कल्पना ही नहीं कर सकते। हॉपकिंस के अनुसार, मनु में ‘ऐसे स्थल विरल ही हैं जहां अन्य वर्णों से राजा का कोई संबंध जोड़े बिना स्वतंत्र रूप से उसका उल्लेख हुआ हो।’112 शांतिपर्व में राजपद को वर्ण-व्यवस्था का रक्षक कहा गया है। वर्ण-व्यवस्था की रक्षा के राजकीय दायित्व पर धर्मशास्त्रों में जो आग्रह देखने को मिलता है, उसकी पुष्टि पुरालेखीय (एपिग्राफिक) साक्ष्यों से भी होती है।113 यद्यपि इन अभिलेखों की शैली यत्र-तत्र पारंपरिक ढंग की है, फिर भी कुल मिलाकर ये वास्तविक स्थिति पर प्रकाश डालते हैं। ब्राह्मण सातवाहन राजा वसिष्ठीपुत्र पुलुमावि (ई. सन् की दूसरी शताब्दी के मध्य) के नासिक गुुफा अभिलेख से ज्ञात होता है कि क्षत्रियों का शत्रु होने पर भी वह वर्णसंकरता का प्रतिरोधक था।114 इन अभिलेखीय साक्ष्यों से प्रकट होता है कि केवल सिद्धांत रूप में ही नहीं, वरन् व्यवहार में भी वर्ण-विभाजित समाज को कायम रखना राज्यशक्ति का प्रमुख कर्तव्य था।115

वर्णसंकरता का प्रतिरोध ब्राह्मणों-क्षत्रियों का साझा दायित्व था,116 क्योंकि वर्ण-धर्म की ‘प्रतिष्ठा’ अब संदिग्ध हो चली थी। यद्यपि ब्राह्मण उसे बचाने की प्राणपण से चेष्टा कर रहे थे।117 मनुस्मृति के बाद अगर किसी में वह बेचैनी दिखती है तो वह गीता है। गीताकार ने देखा कि यदि ब्राह्मण न रहा तो क्षत्रिय भी न रहेगा और उसने सांख्य और वैशेषिक का, न्याय और योग का समन्वय किया लेकिन मूल तेवर ब्राह्मण-विरोध वाला ही रहा। गीता अपने को उपनिषद् कहती है। उपनिषदों के अनेक भावों से गीता अनुप्राणित है और उसके अनेक श्लोक सीधे वहीं से लिये भी गये हैं।118 एक तरह से कहें तो गीता उपनिषदों में अंतिम है और उसका दर्शन औपनिषदिक विद्रोह की पराकाष्ठा है।119 इस कारण बहुत स्वाभाविक था कि वह उस क्षत्रिय क्रांति की लहर को आगे बढ़ाए। ब्राह्मणों, ब्राह्मण-साहित्य और यज्ञपरक अनुष्ठानों के केन्द्र वेदों की अवमानना और उसके प्रति प्रहार में गीता अपना सानी नहीं रखती। उसकी विचार-धाराएं शुद्ध ब्राह्मण-धर्म पर प्रहार करती हैं, उसका पद-पद उनको नगण्य और निरर्थक घोषित करता है। महाभारत के ब्राह्मण वाक्य ‘तप एव पर बलम्’ के विरुद्ध गीता में स्थान-स्थान पर तप, यज्ञ, क्रिया आदि पर आक्षेप है जहां यज्ञानुष्ठानों के केन्द्र के स्थान पर क्षत्रिय वसुदेव-पुत्र कृष्ण की प्रतिष्ठा की जाती है। ब्राह्मण धर्म के निंदक श्लोक गीता में भरे पड़े हैं।120 एक ओर ब्राह्मणों की अवमानना की, दूसरी ओर क्षत्रिय ऋषियों का स्वतन हुआ है।

परंपरा से कृष्ण121 ब्राह्मण अनुष्ठानों के केन्द्र इन्द्र का भारी शत्रु माना जाता है जिसका संकेत स्वयं ऋग्वेद में मिलता है। इन्द्र का विरोध सहज ही ब्राह्मणों का विरोध था, जो उसके पूजक थे। इस लम्बे संघर्ष का अंत कृष्ण की विजय में हुआ। पहली बार हम कृष्ण का उल्लेख ऋग्वेद में आर्यों के शत्रु अर्थात् अनार्य के रूप में पाते हैं। दूसरा उल्लेख इस संबंध में महाभारत में हुआ है परंतु वहां भी कृष्ण अक्षत्रिय ही है। इसलिए कृष्ण का एकान्ततः प्रयास पहले क्षत्रिय बनना है क्योंकि ब्राह्मण से यदि कोई लोहा लेना चाहता तो उसका क्षत्रिय होना पहले आवश्यक था। तभी वह उस वर्ग की शक्ति का प्रयोग कर ब्राह्मणों की प्रतिष्ठित सत्ता का अंत कर सकता था। कृष्ण का आरंभिक व्यक्तिगत इतिहास इसी उतरोत्तर अनार्य से आर्य और आर्य से क्षत्रिय-वर्णारोहण की कहानी है। महत्त्वपूर्ण है कि गीता इतिहास में पहले-पहल अवतारवाद की विस्तृत और पूर्ण प्रतिष्ठा करती है।

संदर्भ एवं टिप्पणियां:

1. टी. डब्ल्यू. रीज डेविड्स, बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ 49।
2. अर्थशास्त्र, 5. 3।
3. आर. एस. शर्मा, शूद्रों का प्राचीन इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1995, पृष्ठ 156।
4. वही।
5. अर्थशास्त्र, 1. 2।
6. वही।
7. आर. एस. शर्मा, प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएं, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1995, पृष्ठ 230।
8. अर्थशास्त्र, 1. 16।
9. वही, 9.2।
10. वही; बहुलसारं वा वैश्यशूद्रबलमिति।
11. अर्थशास्त्र, 11. 1।
12. वही, 11. 20।
13. वही, 1. 10।
14. (जर्नल ऑफ ओरियंटल रिसर्च, मद्रास, 25) 32। टी. गणपति शास्त्री ने अयाज्य का अर्थ वृषलीपति, अर्थात् शूद्र स्त्री का पति किया है (1. 48)।
15. अर्थशास्त्र, 4. 6।
16. वही।
17. वही, 4.7; ‘दग्धस्य हृदयमदग्धं दृष्टवा वा तस्य परिचारकजनं वा दण्डपारूष्यादति मार्गेत्।’
18. अर्थशास्त्र, 4. 10; ‘शूद्रस्य ब्राह्मणवादिनो देवद्रव्यमवस्तृणतो राजद्विष्टमादिशतो द्विनेत्रभेदिनश्च योगन्न्जनेनान्धत्वमष्टशतो वा दप्यः।’ ब्राह्मणवादी शूद्र को देव, संपत्ति चुरानेवाले या राजा के बैरी व्यक्ति से भिन्न मानने का कोई औचित्य नहीं दीखता, जैसाकि शामशास्त्री ने इस अनुच्छेद के अनुवाद में किया है।’ (अनुवाद, पृष्ठ 255)। देखें, आर. एस. शर्मा, शूद्रों का प्राचीन इतिहास, पृष्ठ 175, पाद टिप्पणी संख्या 226।
19. वही, 5. 1; टी. गणपति शास्त्री की टीका के आधार पर।
20. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 168।
21. वही।
22. हाजरा, स्टडीज इन दि पुराणिक रिकॉर्ड्स ऑन हिन्दू राइट्स एण्ड कस्टम्स, पृष्ठ 208-10।
23. मनुस्मृति, 7. 13-30।
24. वशिष्ठधर्मसूत्र, 11. 48 में आया इसी प्रकार का एक नियम बाद में अंतर्विष्ट किया मालूम पड़ता है, क्योंकि यह अन्य तीन धर्मसूत्रों में नहीं मिलता है।
25. मनुस्मृति, 8. 142; विष्णु के समानांतर अनुच्छेद (6. 2) की जो टीका कृष्ण पंडित व अन्य टीकाकारों ने की है उसके अनुसार तथा मनुस्मृति और अन्य स्मृतियों के अनुसार यह नियम वैसे ही ऋणों पर लागू होता है जिनके लिए कोई प्रतिभूति नहीं दी जाती थी। देखें, आर. एस. शर्मा, शूद्रों का प्राचीन इतिहास, पृष्ठ 209, पाद टिप्पणी संख्या 52।
26. लूडर्स लिस्ट, सं. 1133।
27. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 180।
28. मनुस्मृति, 10. 129।
29. के. वी. रंगस्वामी अय्यंगर: धर्मशास्त्र, पृष्ठ 120।
30. केतकर, ‘हिस्ट्री ऑफ कास्ट’, पृष्ठ 98।
31. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 181।
32. मनुस्मृति, 10. 129।
33. वही, 11. 34।
34. वही, 8. 417।
35. जायसवाल, ‘मनु एंड याज्ञवल्क्य’, पृष्ठ 171।
36. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 181।
37. मनुस्मृति, 11. 18, ‘कोई भी संकटग्रस्त ब्राह्मण निस्संकोच शूद्र का सारा धन छीन सकता है।’ मनुस्मृति, 8. 417।
38. वही, 11. 13।
39. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 181।
40. मनुस्मृति, 4. 61; न शूद्र राज्ये निवसेत्।
41. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 184।
42. मत्स्य पुराण, 144. 43 अ; ब्रह्मांड पुराण, 11, 31. 67 ब; वायु पुराण, 58. 67 अ में गलत पाठ ‘नाश्वमेधेन’ है जो ब्रह्मांड पुराण के ‘चाश्वमेधेन’ के स्थान में आया है। हाजरा: पूर्व निर्दिष्ट, पृष्ठ 206, पाद टिप्पणी संख्या 59।
43. कूर्म पुराण, अध्याय 30, पृष्ठ 304।
44. विष्णुपुराण, 4. 24. 19।
45. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 184।
46. मनुस्मृति, 5. 84।
47. वही, 7. 21।
48. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 185।
49. मनुस्मृति, 8. 20।
50. वही।
51. वही, 272।
52. मनुस्मृति, 9. 322।
53. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 185।
54. मनुस्मृति, 8. 123।
55. वही, 379।
56. वही, 380।
57. मनुस्मृति, 8. 124-25।
58. कृष्ण कुमार दीक्षित, कम्युनिस्ट, अक्तूबर, 87, पृष्ठ 32।
59. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 186।
60. मनुस्मृति, 8. 267।
61. वही, 268।
62. वही, 270।
63. वही, 2. 31।
64. वही, 8. 277।
65. वही, 271; ‘द्विजाति’ शब्द की व्याख्या कुल्लूक ने ‘ब्राह्मण और अन्य’ की है, किंतु संभवतया यह शब्द केवल ब्राह्मणों के लिए प्रयुक्त हुआ है। देखें, आर. एस. शर्मा, शूद्रों का प्राचीन इतिहास, पृष्ठ 211, पाद टिप्पणी संख्या 132।
66. मनुस्मृति, 8. 272।
67. के. वी. रंगस्वामी अय्यंगर: ‘आस्पेक्ट्स ऑफ दि पॉलिटिकल एण्ड सोशल सिस्टम ऑफ मनु’, पृष्ठ 132।
68. मनुस्मृति, 11. 67; यह जानने योग्य है कि ‘साम विधान ब्राह्मण’, 1. 7. 7 में शूद्र की हत्या के लिए वही प्रायश्चित विहित किया गया है, जो गाय को मारने के लिए विहित है। देखें, आर. एस. शर्मा, शूद्रों का प्राचीन इतिहास, पृष्ठ 138, पाद टिप्पणी संख्या 217।
69. वही, पृष्ठ 189।
70. हाजरा, ‘स्टडीज इन दि पुराणिक रिकॉर्ड्स ऑन हिन्दू राइट्स एंड कस्टम्स’, पृष्ठ 208-10।
71. कूर्मपुराण, अध्याय 30, पृष्ठ 304-5।
72. मत्स्य पुराण, अध्याय 272, पृष्ठ 46-47 एवं आगे।
73. इसका वर्णन अगर वे वर्तमान शैली में करते तो स्थिति और भी दयनीय और पकड़ से बाहर हो सकती थी; अतएव भविष्यवाणी की शैली में लिखना श्रेयस्कर समझा।
74. रामशरण शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 203।
75. हॉपकिंस, ‘म्युचुअल रिलेशंस ऑफ दि फोर कास्ट्स इन मनु,’ पृष्ठ 78, 82।
76. आर. एस. शर्मा, शूद्रों का प्राचीन इतिहास, पृष्ठ 204, (शर्मा जी इसे ‘वांछनीय’ मानते हैं)।
77. वही, पृष्ठ 205।
78. मनुस्मृति, 8. 268।
79. ‘दिजावर कुटूब विवधनस... विनिवतित चातुवण संकरस,’ वासिष्ठीपुत्र पुलुमावि का नासिक गुफा उत्कीर्ण-लेख, 2. 5-6, डी. सी.सरकार: सिलेक्ट इन्सक्रिप्शंस, 1, 197।
80. वही।
81. भगवतशरण उपाध्याय, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, पृष्ठ 63।
82. के. एम. पणिक्कर, हिन्दू सोसायटी ऐट क्रॉसरोड्स, बंबई, 1955, पृष्ठ 8।
83. जी. पी. उपाध्याय, ब्राह्मणाज इन एंशिएंट इंडिया, एम. एम. पब्लिशर्स, 1979, पृष्ठ 144।
84. मनुस्मृति, 7. 18।
85. वही।
86. वही, 7. 22 (अ)।
87. वही।
88. कृष्ण कुमार दीक्षित, कम्युनिस्ट, जनवरी, 87, पृष्ठ 22।
89. जी. पी. उपाध्याय, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 144।
90. मनुस्मृति, 9. 322।
91. जी. पी. उपाध्याय, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 144।
92. महाभारत, 3. 183. 22 (अ)।
93. वही, 12. 74.2-14।
94. वही, 1. 159. 17-21।
95. वही, 1. 170-80 (ब)।
96. तैत्तिरीय संहिता, 5. 1. 10. 3।
97. ऐतरेय ब्राह्मण, 1. 14; तैत्तिरीय ब्राह्मण, 2, 2. 7. 2, 3. 1. 52; सांख्य श्रौतसूत्र, 14, 23. 1; काठक संहिता, 4. 4।
98. जी. पी. उपाध्याय, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 147।
99. मनुस्मृति, 1. 100।
100. वही।
101. गौतम धर्मसूत्र, 11. 1।
102. भगवतशरण उपाध्याय, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 25।
103. भगवतशरण उपाध्याय, खून के छींटे इतिहास के पन्नों पर, पृष्ठ 41।
104. वही।
105. बालोऽपि नावमन्तव्यो मनुष्य इति भूमिपः। महती देवता भेषा नररूपेण तिष्ठति।। (खून के छींटे, पृष्ठ 119 में उद्धृत)।
106. स्वामी दयानंद सरस्वती, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पृष्ठ 181।
107. वही, पृष्ठ 182।
108. आर. एस. शर्मा, प्राचीन भाारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएं, पृष्ठ 227।
109. अर्थशास्त्र, 3, 1।
110. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 228।
111. यत्रत्वैतेपरिध्वंसाज्जायन्ते वर्णदूषकाः राष्ट्रिकैः। सहतद्राष्टं क्षिप्रमेव विनश्यति।। मनु, 10, 61।
112. म्यूचुअल रिलेशंस ऑफ फोर कास्ट्स इन मनु, पृष्ठ 75-76।
113. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 228।
114. खत्तिय-दप-मान-मदनस विनिवतित-चातुवण-सण्करस। सिलेक्ट इंसक्रिप्शंस, 2, संख्या 86, 1. 6।
115. आर. एस. शर्मा, प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएं, पृष्ठ 229।
116. भगवतशरण उपाध्याय, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, पृष्ठ 9।
117. कंवल भारती, दलित विमर्श की भूमिका, इतिहास बोध प्रकाशन, पृष्ठ 63।
118. भगवतशरण उपाध्याय, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 6।
119. वही।
120. एस. राधाकृष्णन, भगवद्गीता, पृष्ठ 94।
121. प्राचीन भारतीय वाङ्मय में कृष्ण के स्वरूप विकास के पांच सोपान मिलते हैं-वैदिक युग में कृष्ण, उपनिषदों में कृष्ण, लोक जीवन में कृष्ण, महाभारत के कृष्ण और श्रीमद्भागवत के कृष्ण। ऋग्वेद के अष्टम तथा दशम् मण्डल में ऋषि कृष्ण का उल्लेख मिलता है। कौषीतकि ब्राह्मण में अंगिरस ऋषि के एक शिष्य का नाम कृष्ण बताया गया है। छांदोग्योपनिषद् में भी अंगिरस के शिष्य कृष्ण का उल्लेख है। देखें, डा. वासुदेव सिंह, हिंदी साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास, संजय बुक सेंटर, वाराणसी, 1982, पृष्ठ 136।

1 comment:

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