Wednesday, September 29, 2010

राहुल सांकृत्यायन और बिहार में किसान आंदोलन

राहुल सांकृत्यायन
बिहार में किसान आंदोलन के उद्भव एवं विकास को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। कुछ लोग मानते हैं कि यह राष्ट्रवाद के विकास के फलस्वरूप पैदा हुआ। अर्थात् राष्ट्रीय आंदोलन ने ही वह पृष्ठभूमि तैयार की जिसमें  किसानों की राजनीतिक चेतना का प्रसार तथा उसके संगठन एवं नेतृत्व को जिम्मेदारी संभालने के इच्छुक, सक्षम राजनीतिक कार्यकर्ताओं का उदय हुआ, फलस्वरूप किसान संघर्ष संभव हो सका।1 उनके लिए किसान आंदोलन की विचारधारा भी राष्ट्रीयता पर आधारित थी।2 जबकि वस्तुस्थिति यह है कि बिहार में राष्ट्रीय चेतना, जिसे हम गांधीवादी राष्ट्रवाद कह सकते हैं, का उद्भव सीधे तौर पर किसान आंदोलनों से जुड़ा हुआ है।3

इधर हाल के दिनों में क्षेत्रीय इतिहास पर जोर देने से बिहार में किसान आंदोलन पर कुछ महत्वपूर्ण काम हुए हैं, लेकिन किसान आंदोलन के आधार स्तंभ राहुल सांकृत्यायन को नजरअंदाज किया गया है। इसका महत्वपूर्ण कारण है कि वे जमींदारों के कट्टर आलोचक थे।4 किसान आंदोलन की जब भी हम चर्चा करते हैं, राहुल जी की बरबस याद हो आती है। हम साहस के साथ कह सकते हैं कि किसान आंदोलन को शुरू से अन्त तक जानने के लिए राहुल द्वारा दी गई कुर्बानियों को याद करना ही होगा।

जहां तक स्रोत की बात है-हमने सचेतन रूप से सरकारी दस्तावेजों का अनादर किया है क्योंकि कई बार हमें ऐसा प्रतीत होता है कि वे एक ही तरह की सूचनाएं देती हैं और तब हम किसी विशेष कालखंड को बार-बार दुहराते नजर आते हैं। दूसरे, राहुल जी पर लिखते वक्त उनकी साहित्यिक कृतियों की पारदर्शी ईमानदारी हमें अन्य स्रोतों के साथ मिलाकर इसकी सत्यता जांचने की जरूरत ही नहीं छोड़ती।

कहना न होगा कि राहुल जी का जन्म उत्तर प्रदेश में हुआ किंतु उनकी राजनीतिक और सार्वजनिक कर्मभूमि मुख्यतः बिहार ही रहा।5 सन् 1921 ई. से उनके सक्रिय राजनीतिक जीवन की शुरुआत होती है। 1921-25 ई. के बीच राहुल जी ने दो वर्षों तक बक्सर और हजारीबाग जेलों को आबाद किया। सन् 1930 ई. में कांग्रेस का उन्हें पदाधिकारी चुना गया और इस तरह राष्ट्रव्यापी संगठनकर्ता के रूप में उन्होंने सारण जिला में काम किया। 1931 ई. में बिहार सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हुई और वे उसके सचिव बनाये गये।6 1937 ई. में अंग्रेजी शासन के मातहत बिहार में कांग्रेस मंत्रिमंडल बना तो राहुल जी ने जमींदारी के खिलाफ किसान आंदोलन में अपने को न्योछावर कर दिया।7

भारत के किसान आंदोलन के इतिहास में साधु-संन्यससियों की एक महान परंपरा रही है। बिहार इससे अछूता नहीं है। क्या इस बात का सचमुच कोई आधार है कि जिन किसान नेताओं की जन साधारण के बीच पहुंच थी उनको किसानों ने साधु-संन्यासी के रूप में स्वीकार किया था। राहुल जी एवं स्वामी जी की छवि किसानों के बीच जो संत के रूप में बनी इसके क्या कारण हो सकते हैं जबकि वे सारे किसान नेता जो विशुद्ध रूप से कांग्रेसी राजनीति के तहत किसानों का नेतृत्व कर रहे थे, उनकी समाज में अलग पहचान थी। ऐसे प्रश्नों की गंभीर छानबीन करनी होगी और तब हम शायद बिहार में किसान आंदोलन तथा किसानों की मानसिक-मनोवैज्ञानिक संरचना का सही-सही अंदाजा लगा सकते हैं। क्या हम इसे एक तथ्य मान सकते हैं ? ऐसा नहीं है कि ये पहचान इन पर बाहर से थोपी जा रही है, बल्कि स्वामी जी ने तो 1937 में जोर देकर कहा था कि धर्म ने देश का काफी शोषण किया है, अब वे धर्म का किसानों के पक्ष में इस्तेमाल करेंगे।8 राहुल जी ने भी अमवारी सत्याग्रह के दौरान सचेतन मन से स्वीकार किया था कि ‘शायद मेरे शरीर पर जो पीले कपड़े थे उसकी वजह से उनको हाथ छोड़ने की हिम्मत नहीं पड़ती थी।’9 इस तरह किसान आंदोलन के स्वरूप पर जब भी हम बात करेंगे तो तो निश्चित रूप से इस परंपरा की पहचान करनी होगी एवं किसान आंदोलन के साथ उसका तारतम्य बिठाना होगा।

शुरू के दौर में किसान आंदोलनों के बारे में साम्राज्यवादियों की जो राय थी वही राय कांग्रेस ने 1937 के आसपास बना ली थी। अर्थात् जब अंग्रेजी सरकार इसे डकैती10 अथवा लूट की संज्ञा देती थी तो कांग्रेस भी अपने अंतिम दौर में किसान आंदोलन को डकैती अथवा लूट की संज्ञा देती है।11 दोनों के विचारों एवं दमन के तरीकों में कई अद्भुत समानताएं थीं बल्कि कई बार तो देशी सरकार अंग्रेजी सरकार को भी पीछे छोड़ देती थी। तथ्य यह है कि जिन प्रांतों में कांग्रेस की सरकार बन चुकी थी वहां भी किसानों पर दमन एवं सांप्रदायिक दंगों में किसी तरह की कमी नहीं आई।12 साम्राज्यवाद एवं बुर्जुआ राष्ट्रवाद की चिंतनधारा में कोई विशेष अंतर न था। बल्कि दोनों ही शासक वर्ग की सर्वमान्य नीतियों को प्रतिबिंबित कर रहे थे। राहुल जी के आंदोलन का एक प्रमुख अंग यह भी था कि कांग्रेसी सरकार किसान कैदियों को राजनैतिक बंदी मान ले।13 कांग्रेस मंत्रिमंडल ने अपने शासन के आखिरी दिनों तक इस बात को नहीं माना।14 जबकि इन किसानों ने ठीक उसी तरह अपने हक के लिए लड़ाई लड़ी थी और जेल आये थे जैसे कि कांग्रेसी सत्याग्रही अंग्रेजी सरकार से लड़ने के लिए जेल जाते थे।15 जो कांग्रेस कभी राजनीतिक बंदियों को विशेष सुविधाएं मुहैया कराये जाने की मांग कर रही थी, अब वही किसान सत्यागहियों को राजनीतिक बंदी नहीं चोर-डाकू घोषित कर रही थी।16 इन विशेष परिस्थितियों में कांग्रेस का अंतर्विरोध तीव्रतर होता दिखाई देता है।

राहुल सांकृत्यायन किसानों -मजदूरों के हितों एवं कांग्रेस (जिनमें जमींदार प्रमुख थे) के हितों की टकराहट को भलीभांति समझ रहे थे। इन्हें बहुत जल्दी मालूम हो गया कि ‘किसानों की जय’ का नारा लगाकर जिन लोगों ने लगातार किसानों से वोट लिये वही कांग्रेसी मंत्रिमंडल में पहुंचकर अब कोई बात करने से जमींदारों की तकलीफों का लेक्चर देने लगते हैं।17 इसलिए राहुल जी ने जिस स्वराज्य का सपना देखा था उसमें ‘सांवले से गोरे की पटरी’ बैठाने की बात न थी, ‘वह काले सेठों और बाबुओं का राज नहीं था, राज था किसानों और मजदूरों का, क्योंकि तभी गरीबी और अपमान से जनता मुक्त हो सकती थी।’ व्यापक पैमाने पर जो मुक्ति संघर्ष चलाया जा रहा था उसमें मूलतः एक तरफ भारतीय जनता और और बिटिश उपनिवेशवाद अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ था तो दूसरी तरफ देशी सामंतवाद एवं अभिजन वर्ग के खिलाफ था, और उतनी ही तन्मयता के साथ लड़ा जा रहा था। इसलिए हम कह सकते हैं कि राहुल जी के नेतृत्व में किसान आंदोलन दोनों मोर्चों पर एक साथ खड़ा किया गया था। यही इसकी असली सच्चाई है। सिर्फ साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चे पर यह आंदोलन निर्णायक रूप से सफल नहीं हो सकता था। यही कारण है कि भूमि-सुधार आंदोलन, जो कि राहुल जी के आंदोलन का एक प्रमुख हिस्सा था, को आजादी प्राप्ति के बाद भी कम्युनिस्ट पार्टी को एक प्रमुख कार्यभार के रूप में स्वीकार करना पड़ा था।

राहुल सांकृत्यायन को मार्क्सवाद का गहरा अध्ययन था। कार्ल मार्क्स के विचारों को हू-ब-हू वे याद करते पाये जाते हैं। मार्क्स ने कहा था कि दुनिया का सबसे क्रांतिकारी वर्ग सर्वहारा होता है क्योंकि उसके पास खोने के लिए दासता के सिवा कुछ भी नहीं होता। राहुल के लिए क्रांति को निर्णायक मोड़ तक पहुंचाने वाले सिर्फ किसान एवं मजदूर हैं, क्योंकि उन्हीं को सारी यातनाएं सहनी पड़ती हैं, और उन्हीं के पास लड़ाई में हारने के लिए संपत्ति नहीं है।19 वे मार्क्सवाद से प्रभावित तो थे ही सन् 1917 की सोवियत क्रांति से भी गहरे प्रभावित थे।20 रूस में वे किसानों-मजदूरों के संयुक्त मोर्चा को सफल होते देख चुके थे। सावियत क्रांति की खबरों  ने उन्हें एक नयी दृष्टि21 दी थी-किसानों-मजदूरों को आपस में मिलाकर एक संयुक्त मोर्चा बनाने की दृष्टि। राहुल जी सच्चे अर्थों में नेता की अपेक्षा एक कुशल कार्यकर्ता कहीं ज्यादा थे। वे जानते थे कि किसान अपने भीतर से नेता पैदा कर सकते हैं। किंतु कैसे, इसका जवाब उनके पास नहीं था।22

बिहार में किसानों का संघर्ष साम्राज्यवाद ही के खिलाफ न था बल्कि देशी जमींदारों के खिलाफ संघर्ष उतनी ही तीव्र गति से बढ़ रहा था। 1930-40 के दशक में विश्वव्यापी आर्थिक मंदी के फलस्वरूप किसानों पर लगातार गरीबी एवं कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा था। भूकंप ने इसमें और वृद्धि ला दिया। फलतः मालगुजारी दे पाने में किसान असमर्थ थे। बारी-बारी से किसानों की जमीनों को नीलाम कराकर जमींदारों ने हड़प लिया। कांग्रेस मंत्रिमंडल के कायम होने पर जमींदारों को डर हो गया था कि जिन खेतों को उन्होंने जबर्दस्ती किसानों से छीन लिया है, और जिन्हें अब भी किसान ही जोत रहे हैं, उनपर किसानों का हक हो जायेगा।23  इस डर का कारण यह था कि कांग्रेस मंत्रिमंडल ने लगान की दर कम करने और बकास्त जमीनों की वापसी के लिए कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी,24 लेकिन सच्चाई तो यह है कि बकास्त कानून ने किसानों को राहत देने की जगह जमींदारों के दमनचक्र को एक नई शक्ति प्रदान कर दी जिसके फलस्वरूप बिहार में बकास्त आंदोलन उत्तेजित हो उठा।25 सारे बिहार में वर्षों से किसानों के जोत में रहते खेतों को जमींदारों ने निकालना शुरू किया। किसान विरोध करते थे और अपने खेतों को छोड़ना नहीं चाहते थे, यही संघर्ष का कारण था। इस संदर्भ में राहुल ने अमवारी के किसानों का नेतृत्व किया।26 आंदोलन का मुख्य स्वरूप था सत्याग्रह तथा जबर्दस्ती बोआई और फसल कटाई।27 वैसे राहुल को मार-काट में कोई दिलचस्पी न थी, वे बौद्ध थे। लेकिन भला जमींदार इनको माननेवाले थे। इसलिए किसानों को लाठी रख देने के लिए कहना अहिंसा नहीं कायरता का प्रचार करना था।28 राहुल जी को ऐसी कायरता पसंद न थी।29

राहुल जी ने तो किसानों के साथ सत्याग्रह करने के लिए अमवारी को चुना। सत्याग्रह था-एक किसान के खेत में उख काटना। जाहिर है, जमींदार इस खेत को अपना कहता था। राहुल जी ने सत्याग्रह तो किया लेकिन उन्हें बुरी तरह घायल कर दिया गया। पुलिस खड़ी तमाशा देखती रही। जमींदार के कहने पर पुलिस ने हाथीवान को भी, जिसने राहुल का सिर फोड़ा था, छोड़ दिया। यह सब कांग्रेसी राज में हो रहा था। इसी तरह के दमनचक्र चलानेवालों तथा किसान आंदोलनों को निर्ममतापूर्वक दबानेवाले जमींदारों में कई कांग्रेसी मंत्री भी शामिल थे।30 कैदी राहुल को सीवान से छपरा ले जाया जा रहा था। ऐसे मौके पर उन्होंने पैदल चलना ही मुनासिब समझा और रास्ते भर ‘इनक्लाब जिन्दाबाद’‘किसान राज कायम हो जमींदारी प्रथा नाश हो’, आदि नारे लगाते रहे। प्रचार के लिए पैदल चलना बहुत अच्छा था। शायद हफ्ता भी न लगा होगा कि अमवारी के सत्याग्रह में राहुल के सिर फूटने की खबर हरेक गांव में पहुंच गई।31

बिहार के संदर्भ में किसान आंदोलन पर शोध-पत्र पढ़ते वक्त शायद स्वाभाविक रूप से मुनासिब जान पड़ने लगता है कि इसका स्वभाव क्या कोई आंचलिक महत्त्व का था या फिर इसका स्वरूप नितांत राष्ट्रीय था, इसकी जांच की जाये। कहना न होगा कि अंग्रेजी शासन के आरंभिक सौ वर्षों का जो किसान आंदोलन था, उसका स्वरूप बिल्कुल ही स्थानीय था32 क्योंकि राष्ट्रवाद की विचारधारा जैसी कोई अनुभूति इनके पास नहीं थी। लेकिन किसान आंदोलन का जो बाद का दौर है, विशेष रूप से कहें कि 30-40 का जो दशक है-उसमें राष्ट्रवाद की लहर इतनी तेज हो जाती है कि किसान नेता भी देश की आजादी महत्वपूर्ण मानते हैं और उसे अपना प्रथम लक्ष्य के रूप में निर्धारित करते हैं।33 राष्ट्रवाद की लहर ने बिहार में प्रांतीयतावाद की संभावना को ही एक तरह से नष्ट कर दिया। बिहार के बंगाल से अलग होने के जो अपने कारण रहे उनमें ‘बिहारी पहचान’ या फिर क्षेत्रीयतावाद अपने न्यूनतम अंशों में भी उपस्थित नहीं था। यही वह वजह है कि बिहार में उस दौर का जो किसान आंदोलन है उसका कोई क्षेत्रीय अथवा प्रान्तीय स्वरूप अभिलक्षित न हो सका बल्कि साम्राज्यवाद एवं राष्ट्रवाद के अंतर्विरोधों यथा सामंतवाद के खिलाफ मुस्तैदी से आगे बढ़ता रहा। न सिर्फ बिहार में बल्कि इस दौर में उड़ीसा में भी किसान संघ के तहत जो आंदोलन चल रहा था वह भी निश्चित रूप से इन्हीं दो मोर्चों पर अपनी नजरें टिकाये था,34 जो किसान आंदोलन के राष्ट्रीय स्वरूप से मेल खाता था।

कुछ इतिहासकार किसान आंदोलन को राष्ट्रवादी विचारधारा के एक पूरक आंदोलन के रूप में देखते हैं। बल्कि हमारा तो मानना है कि इस तरह के निष्कर्ष बेहद सरलीकरण के शिकार हैं। बिहार में किसान आंदोलन को समग्रता में देखने की बात हो तो पता चलेगा कि इसने कई दफा बुर्जुआ राष्ट्रवाद के अंतर्विरोधों के खिलाफ लड़ने की कोशिश की है, और उसे नंगा किया है। किसान आंदोलन की असफलता इस कारण से भी हुई कि इसने राष्ट्रवादी विचारधारा के साथ किसी तरह का कोई तालमेल बिठाने में अपने को असमर्थ साबित कर दिया।35 दूसरी ओर वे राष्ट्रवाद को मात नहीं दे सकते थे क्योंकि जमाने का सबसे प्रासंगिक और सबसे लुभावना नारा था। आजादी देश की जनता के लिए सबसे अहम सवाल बन चुकी थी। इसलिए अकारण नहीं है कि राष्ट्रवाद की जब अंधी लहर चली तो इसके सदस्य कमने लगे और अंततः आंदोलन असफलता के अंधेरे में बढ़ चला। लेकिन राहुल जी ने बिहार के किसानों में जो राष्ट्रीय चेतना जगायी एवं उसके संघर्ष को जो दिशा दी इतिहास इसके लिए उन्हें कभी नहीं भूलेगा।   
                                                                    
संदर्भ-सूचीः                                                                                                              

1. बिपन चंद्र, (संपादित) भारत का स्वतंत्रता संघर्ष, दिल्ली विश्वविद्यालय, पृष्ठ 332।
2. वही।
3. सुमित सरकार, माडर्न इंडिया, मैकमिलन, 1983, पृष्ठ 155।
4. जनसत्ता, 17 जुलाई 1985।
5. कृष्णचंद्र चौधरी, (संपादित) राहुल जी, पृष्ठ 5।
6. वही।
7. वही।
8. सुमित सरकार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 364।
9. कृष्णचंद्र चौधरी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 49।
10. बिपन चंद्र, अमलेश त्रिपाठी एवं वरुण डे, (संपा.) स्वतंत्रता संग्राम, एन. बी. टी., पृष्ट 46।
11. कृष्णचंद्र चौधरी, पूर्वोद्धृत, 52।
12. सुमित सरकार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 355।
13. कृष्णचंद्र चौधरी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 52।
14. वही।
15. वही।
16. वही।
17. वही, पृष्ठ 33।
18. बिपन चंद्र (संपा.) पूर्वोद्धृत, भूमिका से, पृष्ठ 12।
19. कृष्णचंद्र चौधरी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 30।
20. वही।
21. वही।
22. वही, पृष्ठ 52।
23. वही, पृष्ठ 39।
24. बिपन चंद्र, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 326।
25. स्वामी सहजानन्द सरस्वती, दि अदर साइड ऑफ दि शिल्ड, पृष्ठ 14।
26. के. सी. चौधरी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 47;  बिपन चंद्र, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 327।
27. बिपन चंद्र, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 327।
28. के. सी. चौधरी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 70।
29. वही।
30. सुमित सरकार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 350।
31. के. सी. चौधरी, पूर्वोद्धत, पृष्ठ 50।
32. संपादकत्रय, पूर्वोद्धत, पृष्ठ 41।
33. सोशल साइंटिस्ट, वॉल्यूम-20, अंक 5-6, मई-जून 1992, पृष्ठ 68।
34. वही, पृष्ठ 66।
35. बिपन चंद्र, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 333।                                                                                                             
प्रकाशनरीजन इन हिस्ट्री : पर्सपेक्टिवाइजिंग बिहार, (संपादित) रत्नेश्वर मिश्र, जानकी प्रकाशन, पटना, 2002।

1 comment:

चंदन कुमार मिश्र said...

राहुल जी पर लेख के लिए धन्यवाद। लेकिन बार-बार संख्याएँ पढ़ने में बाधा पैदा करती हैं। उन्हें उपर लिखना चाहिए था न कि सीधे। शब्द सत्यापन यानि वर्ड वेरिफ़िकेशन्हटा दीजिए।