Sunday, September 12, 2010

प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था एवं भाषा


भाषा के बारे में मार्क्सवादी चिंतन है कि ‘इसका निर्माण पूरे समाज के हितसाधन के लिए लोगों के पारस्परिक सम्पर्क-सूत्र के रूप में समाज के सभी सदस्यों के लिए हुआ है। पूरे समाज की एक भाषा होती है जो समाज के हर सदस्य का हितसाधन बिना उसकी वर्गीय स्थिति को ध्यान में रखे हुए करती है।’1 खासकर स्तालिनवादी मार्क्सवाद को माननेवाले लोगों की यह मान्यता है कि भाषा विचारधारा से मुक्त होती है,2 लेकिन वास्तव में भाषा विचारधारा से न केवल गहरे स्तर पर जुड़ी होती है बल्कि यह उस विचार के वर्चस्व का साधन बन जाती है।3 भारतीय समाज के जीवनानुभव इस बात को काफी हद तक पुष्ट करते हैं। प्राचीन भारतीय समाज में वर्णों के आधार पर भाषा-विधान प्रसिद्ध है।4 तत्कालीन साहित्य के अध्ययन से निश्चित पता लगता है कि जातियों/वर्णों के अनुसार भाषा-विधान तथा व्यवहार प्रचलित था।5 शायद इसीलिए शताब्दियों तक साहित्य-जगत में प्राकृत को वह मान्यता और प्रतिष्ठा न मिली जो संस्कृत को प्राप्त थी, उल्टे उसका निरंतर तिरस्कार होता रहा।

प्राचीन भारतीय समाज में ब्राह्मण अथवा श्रेष्ठ लोग संस्कृत का प्रयोग करते थे जबकि अन्य लोग प्राकृत। मार्कण्डेय के ग्रंथ में कोहल6 का मत है कि यह प्राकृत राक्षसों, भिक्षुओं, क्षपणकों, दासों आदि द्वारा बोली जाती है। नाट्यशास्त्र और साहित्यदर्पण में बताया गया है कि राजाओं के अंतःपुर में रहनेवाले आदमियों द्वारा मागधी व्यवहार में लाई जाती है। दशरूप का भी यही मत है। साहित्यदर्पण के अनुसार मागधी नपुंसकों, किरातों, बौनों, म्लेच्छों, आभीरों, शकारों, कुबड़ों आदि द्वारा बोली जाती है। नाट्यशास्त्र तक में बताया गया है कि मागधी नपुंसकों, स्नातकों और प्रतिहारियों7 द्वारा बोली जाती है। दशरूप में वर्णित है कि पिशाच और नीच जातियां मागधी बोलती हैं और सरस्वतीकण्ठाभरण का मत है कि नीच स्थिति के लोग मागधी प्राकृत काम में लाते हैं। मृच्छकटिक में शकार, उसका सेवक स्थावरक, मालिश करनेवाला जो बाद को भिक्षु बन जाता है; बसन्तसेना का नौकर कुम्भीलक वर्द्धमानक जो चारुदत्त का सेवक है, दोनों चाण्डाल, रोहसेन और चारुदत्त8 का छोटा लड़का मागधी में बात करते हैं। शकुन्तला नाटक में पृष्ठ 113 और उसके बाद, दोनों प्रहरी और धीवर, पृष्ठ 154 और उसके बाद शकुन्तला का छोटा बेटा सर्वदमन इस प्राकृत में वार्तालाप करते हैं। प्रबोधचन्द्रोदय के पृष्ठ 28 से 32 के भीतर चार्वाक का चेला और उड़ीसा से आया हुआ दूत, पृष्ठ 46 से 64 के भीतर दिगम्बर जैन मागधी बोलते हैं। मृच्छकटिक के पृष्ठ 29 से 39 तक में जुआघर का मालिक और उसके साथ जुआरी जिस बोली में बातचीत करते हैं, वह ढक्की है।9

कहना होगा कि प्राकृत केवल जैन या बौद्ध सम्प्रदाय (पालि के रूप में) की भाषा न थी वरन् भील, कोल, शबर, दस्यु, चाण्डाल आदि से लेकर राजदरवार और रनिवासों तक में यह भाषा बोली जाती थी। आचार्य अभिनवगुप्त ने इसे अव्युत्पन्न (अनगढ़, ग्राम्य) जनभाषा कहा है।10 संस्कृत चूंकि शिष्ट जनों की भाषा थी, इसलिए उसे सर्वश्रेष्ठ आसन प्रदान किया गया। अकारण नहीं है कि कई विद्वान प्राकृतों को कृत्रिम कहते हैं और संस्कृत को इसका मूल बताते हैं। इसके प्रमाण में मार्कण्डेय, चण्ड तथा हेमचन्द्र आदि की ‘प्रकृतिः संस्कृतम्’ उक्ति उद्धृत की जाती है।11 किंतु आज प्राकृत का मूल संस्कृत को बताना वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित नहीं है, अथवा कहें कि भ्रमपूर्ण है।12

संस्कृत के वैयाकरणों ने शब्दकोशों की भी रचना की है। इसलिए व्याकरण ग्रंथों की ही भांति शब्दकोश भी पुरानी लीक पर चलते नजर आते हैं। उदाहरण के लिए, अपभ्रंश शब्द के लिए व्याकरण का सबसे पहला प्रयोग है-‘अपशब्द’। अमरकोश, विश्वप्रकाश, मेदिनि, अनेकार्थसंग्रह, विश्वलोचन, शब्दरत्नसमन्वय तथा शब्दकल्पद्रुम आदि कोशों में अपभ्रंश का अर्थ ‘अपशब्द’ एवं ‘भाषा विशेष’ भी मिलता है। मेदिनि तथा अन्य कोशों में भी दोनों अर्थ मिलते हैं पर अमरकोश में केवल ‘अपशब्द’ अर्थ है।13 संस्कृत व्याकरणशास्त्र के प्राचीन आचार्य व्याडि का मत उद्धृत करते हुए भर्तृहरि ने कहा है कि ‘शब्द संस्कार से हीन शब्दों का नाम अपभ्रंश है’।14 संस्कृत वैयाकरण इस तथ्य से अनजान न थे कि भाषा का स्वभाव ही अपभ्रंश है,15 पर वे ‘साधु भाषा’ के पक्षपाती थे। जो शब्द शिष्टजनों के द्वारा व्यवहृत नहीं होता वह ‘अवाचक’ है, ऐसे ही अवाचक शब्द जब प्रसिद्ध अथवा लोक प्रचलित हो जाते हैं तब वे अपभ्रंश हो जाते हैं।16 स्पष्ट है कि शिष्टजनों के द्वारा प्रयुक्त न होने से तथा इसीलिए संस्कारहीन होने से अव्यवहारणीय शब्दावली को अपभ्रंश कहते हैं। महाभाष्य में अपभ्रंश का उल्लेख तीन स्थलों पर तथा अपशब्द का कई बार हुआ है। महर्षि पतंजलि का अपशब्द से अभिप्राय व्याकरण के नियमों से पतित शब्द से है। प्रायः ‘म्लेच्छ’ लोग अपशब्दों का व्यवहार करते हैं इसलिए ब्राह्मणों को अपशब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।17 महाभाष्य के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि उस समय म्लेच्छ आदि आर्येतर जातियां तथा निम्न सामाजिक हैसियत प्राप्त जातियां शब्दों को ‘बिगाड़कर’ सहज प्रवृत्ति के अनुसार उनका उच्चारण करती थीं। शिष्ट भाषा के आग्रही वैयाकरणों/सिद्धांतकारों ने जब देखा होगा कि नीची जातियां भी एक शब्द के लिए कई ‘अप्रसिद्ध’ तथा शब्दानुशासन से हीन शब्दों का व्यवहार करती हैं तो उसे आर्य जाति और भाषा से गिरा हुआ, अपभ्रष्ट तथा अपभ्रंश कहा होगा। वैयाकरण इस बात से भलीभांति परिचित थे कि समाज में अपशब्दों का प्रचलन अधिक है और ‘शब्दों’ का व्यवहार कम है। पतंजलि हमें स्पष्ट बताते हैं कि प्रत्येक शब्द के कई ‘अशुद्ध’ रूप होते हैं। इन अशुद्ध रूपों को आपने अपभ्रंश कहा है। उदाहरण के बतौर उन्होंने गौ शब्द को लिया है जिसके अपभ्रंश रूप गावी, गोणी, गोता और गोपोतालिका दिये हैं।18 संस्कृत वैयाकरण जहां शिष्टों के प्रयोग से हीन भाषा को अपभ्रंश कहते हैं वहीं साहित्यशास्त्री अश्लील तथा ग्राम्यपदों को सदोष मानते हैं और काव्य में उनका निषेध करते हैं। स्पष्ट ही निम्नवर्गीय लोगों के शब्द-प्रयोग सुनने में बुरे लगते हैं और संभवतः इसीलिए वे काव्य में अनुचित माने जाते हैं। भोज ने भी कहा है कि लोक को छोड़कर और कहीं ग्राम्य प्रयोग नहीं चलते। अश्लील, अमंगल और घृणासूचक शब्दों को ग्राम्य कहते हैं।19

ग्राम्यभाषा के प्रति शिष्टजनों की जो घृणा है, उसको शूद्र शब्द के व्युत्पत्यर्थ निकालने के प्रयासों से भी समझा जा सकता है। सबसे पहले वेदांत सूत्र में बादरायण ने इस दिशा में पहल की थी। इसमें शूद्र शब्द को दो भाग में विभक्त कर दिया गया है-‘शुक’ (शोक) और ‘द्र’ जो ‘द्रु’ धातु से बना है और जिसका अर्थ बताया गया है दौड़ना।20 इसकी टीका करते हुए शंकर ने तीन वैकल्पिक व्याख्या प्रस्तुत की है। पाणिनि के व्याकरण में उणादिसूत्र के लेखक ने भी इस शब्द की कुछ ऐसी ही व्युत्पत्ति दर्शायी है। ब्राह्मणों द्वारा प्रस्तुत व्युत्पत्ति में शूद्रों की दयनीय अवस्था का चित्रण किया गया है तथा उसे औचित्य प्रदान करने की कोशिश की गई है। उसे ‘पतित’ बताया गया है। मनुष्यों में शूद्र एवं भाषाओं में अपभ्रंश समान रूप से ‘घृणित’ एवं ‘पतित’ हैं।

प्राचीन भारतीय समाज में शूद्रों के प्रति घृणा को चरम अभिव्यक्ति मिली मनुस्मृति में। हालांकि शूद्रों की सामाजिक स्थिति के बारे में मनु के नियम बहुत हद तक पुराने विधि-निर्माताओं के विचारों की पुनरुक्ति लगते हैं।21 कुछ नये नियम भी बनाये हैं। उन्होंने सृष्टि-रचना की पुरानी कथा दुहराई है, जिसमें शूद्र का स्थान सबसे नीचे है।22 मनु ने चारों वर्णों के प्रति किये जानेवाले परस्पर अभिवादन की रीति की निर्धारक विधियों को भी दुहराया है।23 किंतु उन्होंने यह भी बताया है कि जो ब्राह्मण सही ढंग से अभिवादन का उत्तर नहीं दे उसे विद्वत्जन कभी अभिवादन नहीं करे, क्योंकि वह शूद्र के समान है।24 पतंजलि बताते हैं कि अभिवादन का उत्तर देने में शूद्रों के संबोधन का ढंग गैर शूद्रों से भिन्न था। शूद्रों का सम्बोधित करने का स्वर तेज नहीं होना चाहिए। यदि कोई शूद्र (और अक्सर वैश्य के लिए भी) अपने मालिक की तरफ आंख उठाकर देख लेता था या उसके सामने अपमानजनक तरीके से कुछ कह देता था, तो इस अपराध के लिए भारी दंड का प्रावधान था। अधीनता से इनकार करना उस समय सबसे ज्यादा असह्य था। कुछ स्मृतियों में तो शूद्रों द्वारा अपने मालिकों के प्रति उपयोग में लाये जानेवाले आदरसूचक शब्दों तक का प्रावधान कर दिया गया था ताकि भाषा के माध्यम से उनके भीतर नीचता की आत्मस्वीकृति का संस्कार पैदा किया जा सके।25 यदि शूद्र अपने मालिक के प्रति अभद्र भाषा का प्रयोग करे तो उसकी जीभ तक काट लेने की सजा दी जा सकती थी। शूद्रों को अक्सर द्वेषी, हिंसक, आत्मप्रशंसक, तुनकमिजाज, असत्यभाषी, अति लालची, कृतघ्न, विपथगामी, आलसी, प्रमादी और अशुद्ध आदि बतलाया गया है।26 वशिष्ठ धर्मसूत्र 27 कहता हैः ‘एक व्यक्ति को जानना चाहिए कि झूठ बोलना, ब्राह्मणों को दुर्वचन कहना, चुगली करना, निर्दयता, ईर्ष्या आदि शूद्रों की विशेषताएं हैं।’ अछूतों और चांडालों को विशेष तौर पर अशुद्ध, अविश्वासी, असत्यभाषी, चोर, दया के पात्र, क्रोधी और लालची बताया गया है। उन्हें निरर्थक झगड़े-फसादों में लगे रहनेवाला बताया गया है।28 मनु के अनुसार, यदि शूद्र जान-बूझकर वेदपाठ सुनता है तो उसके कानों में पिघले हुए सीसे अथवा लाख से भर दिया जायेगा। यदि वह वैदिक मंत्रों का पाठ करता है तो उसकी जीभ काट डाली जायेगी। यदि वह इन मंत्रों को कंठस्थ करता है तो उसके शरीर को बीच से चीर दिया जायेगा। यदि वह बैठने, सोने, बातचीत करने अथवा सड़क पर टहलने में द्विजों की बराबरी करता है तो उसे शारीरिक दंड दिया जायेगा।29

धर्मसूत्रों में वर्ण के अनुसार वंदना और अभिवादन के जो विधान निर्धारित किये गये हैं, उनसे स्पष्ट होता है कि शूद्र कितने पराधीन थे। आपस्तंब में बताया गया है कि ब्राह्मण अपनी दाहिनी बांह को अपने कान के समानांतर, क्षत्रिय उसे अपनी छाती के स्तर तक, वैश्य अपनी कमर तक, और शूद्र उसे अपने पांव की सीध में रखकर अभिवादन करे।30 पहली तीन जातियों के लोगों के नमस्कार का जवाब देते समय, जिस व्यक्ति को संबोधित किया जा रहा है, उसके नाम के अंतिम तीन अक्षर को तीन मात्रा तक बोलना चाहिए।31 विभिन्न वर्णों के लोगों के कुशल-क्षेम और स्वास्थ्य के संबंध में जिज्ञासा प्रकट करने के लिए भिन्न-भिन्न शब्द निर्धारित किये गये हैं।32 क्षत्रिय के स्वास्थ्य की जिज्ञासा के लिए ‘अमानय’ और शूद्र के लिए ‘आरोग्य’ ही विधिसम्मत है।33 यह भी बताया गया है कि किसी क्षत्रिय अथवा वैश्य का अभिवादन करने में लोगों को केवल सर्वनाम का प्रयोग करना चाहिए, न कि उसके नाम का।34 इसका अर्थ हुआ कि केवल शूद्र को ही उसके नाम से संबोधित किया जा सकता था। संबोधन की दृष्टि से द्विज वर्णों की स्थिति बहुत अच्छी मानी जा सकती है। प्राचीन पालि ग्रंथों में निम्न वर्ग/वर्ण के लोगों ने किसी क्षत्रिय को उसके नाम से या उत्तम पुरुष में संबोधित नहीं किया है।35 राजा उदय को गंगामाल हजाम पारिवारिक नाम से संबोधित करता है, इस पर उसकी मां बड़े रोष के साथ कहती हैः ‘इस नीच नापितपुत्र को इतना भी ज्ञान नहीं है कि वह मेरे बेटे को, जो पृथ्वी का मालिक है और क्षत्रिय जाति का है, ब्रह्मदत्त कहकर पुकारता है।’36

मनु ने बच्चों के नामकरण संस्कार तक में वर्ण-विभेद का ध्यान रखा है, जिससे स्वभावतया शूद्रों की हीनता झलकती है।37 उनका स्पष्ट मत है कि ब्राह्मण का नाम मंगलसूचक, क्षत्रिय का नाम बलसूचक, वैश्य का नाम धनसूचक और शूद्र का नाम निंदासूचक होना चाहिए।38 इसी के अनुपूरक के तौर पर उन्होंने बताया है कि चारों वर्णों की उपाधि क्रमशः सुखवाचक (शर्मा), सुरक्षावाचक (वर्मा), समुन्नत्तिवाचक (भूति) और सेवावाचक (दास) होनी चाहिए।39 कुल्लूक ने टीका की है कि ये उपाधियां क्रमशः शर्मन्, वर्मन्, भूति और दास होनी चाहिए। विष्णुस्मृति स्पष्ट निर्देश देती है कि ब्राह्मणों के लिए जो नाम चुना जाये वह शुभ होना चाहिए। क्षत्रियों के संदर्भ में वह शक्ति को स्पष्ट करनेवाला; वैश्यों के संदर्भ में धन को दर्शानेवाला और शूद्रों के संबंध में तिरस्कार स्पष्ट करनेवाला होना चाहिए। इतना ही नहीं, ब्राह्मण के उपनाम से समृद्धि, क्षत्रियों से रक्षा, वैश्यों से संपत्ति एवं शूद्रों से सेवा-भावना झलकनी चाहिए।

हालांकि इसके यथेष्ट प्रमाण नहीं मिलते कि यह परिपाटी व्यापक रूप से प्रचलित थी,40 किंतु नामों के संबंध में बनाये मनु के नियमों से जान पड़ता है कि निम्न वर्ण के लोग प्राचीन भारतीय समाज में घृणा के पात्र थे। शूद्र के लिए प्रयुक्त ‘वृषल’ शब्द अपमानजनक माना-समझा जाता था। पाणिनि के समास संबंधी नियम का उदाहरण देते हुए पतंजलि ने बताया है कि ‘दासी के सदृश (दास्याः सदृशः) और वृषली के सदृश (वृषल्याः सदृश)’ पद गाली हैं।41 वृषल को चोर की कोटि में रखा गया था और ब्राह्मण-शासित समाज इसके प्रति वैर-भाव रखता और प्रदर्शित करता था।42 यह जानकारी भी मिलती है कि वृषल, दस्यु और चोर घृणा के पात्र माने-समझे जाते थे।43

संक्षेप में कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में वैयाकरणों, कोशकारों एवं साहित्यालोचकों का भाषा-चिंतन वर्ण/वर्ग-भेद जनित नियमों एवं आग्रहों का शिकार है। प्राकृतों के प्रति घृणा,44 शूद्रों के प्रति ब्राह्मणों/क्षत्रियों की घृणा से समझ में आ सकती है। इस दृष्टि से प्राचीन भारतीय भाषा-चिंतन को देखा-पढ़ा जाना चाहिए। प्राचीन भारतीय समाज की एक सही और समग्र तस्वीर के लिए भी ऐसा करना लाभप्रद हो सकेगा।

संदर्भ एवं टिप्पणियां:

1. जोसेफ स्तालिन, मार्क्सवाद और भाषाविज्ञान की समस्याएं, परिकल्पना प्रकाशन, द्वितीय (संशोधित) हिंदी संस्करण, लखनऊ, 2002, पृष्ठ १३.
2. मैनेजर पांडेय, ‘अश्लीलता के बहाने नारी के प्रश्न पर विचार’, हंस , नवंबर-दिसंबर 1994,पृष्ठ २९.
3. वही।
4. डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, भविसयत्तकहा तथा अपभ्रंश कथाकाव्य , भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 1970, पृष्ठ 18.
5. वही।
6. ‘राक्षसभिक्षुक्षपणक चेटाद्या मागधीं प्राहुः’ इति कोहलः।
7. औपस्थायिक (भरत नाट्यशास्त्र) निमुण्डाः का क्या अर्थ है, यह अस्पष्ट है।
8. यह बात स्टेंत्सलर की भूमिका के पृष्ठ 5 और गौडबोले के ग्रंथ पृष्ठ 493 में पृथ्वीधर ने बताई है। इन संस्करणों में वह शौरसेनी बोलता है; किंतु हस्तलिखित प्रतियों में इन स्थानों में सर्वत्र मागधी का प्रयोग किया गया है। देखें, आर. पिशेल् , प्राकृत भाषाओं का व्याकरण , (हिंदी अनुवाद), बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पृष्ठ ४६.
9. पृथ्वीधर का मत है कि शाकारी, चाण्डाली और शाबरी के साथ-साथ ढक्की भी अपभ्रंश की बोलियों में से एक है।
10. अव्युत्पादितप्रकृतेस्तज्जनप्रयोज्यत्वात् प्राकृतमिति केचित्। नाट्यशास्त्र की विवृति, अभिनवगुप्त
11. प्रकृतिः संस्कृतम्। तत्र भवं प्राकृतम् उच्यते।-मार्कण्डेयः प्राकृतसर्वस्व, 1,1। प्रकृतेः संस्कृताद् आगतं प्राकृतम्। वाग्भटालंकार की सिंहदेवगणिन् कृत टीका, 2, 2,। प्रकृतेरागतं प्राकृतम्। प्रकृतिः संस्कृतम्।-धनिकः दशरूपक की टीका, 2, 90। प्रकृतिः संस्कृतम्। तत्र भवत्वात् प्राकृतं स्मृतम्। प्राकृत चन्द्रिका, पीटर्सन की तीसरी रिपोर्ट से। प्रकृतेः संस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृती मता।-नरसिंहः प्राकृत शब्द प्रदीपिका। प्रकृतिः संस्कृतम्। तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम्। हेमचन्द्रः सिद्धहेमशब्दानुशासन, 1, 1। प्रकृतस्य तु सर्वम् एव संस्कृतम् यानिः। कर्पूरमंजरी, वासुदेवकृत संजीविनी टीका। सिद्धं प्राकृतं त्रेधा। सिद्धं प्रसिद्धं प्राकृतं त्रेधा भवति। संस्कृतं योनिः। तच्चेदं-मात्रा, मत्ता। नित्यं, णिच्चं इत्यादि।-चण्ड; प्राकृतप्रकाश, सटिप्पण हस्तलिखित ग्रंथ से।
12. इस विषय पर विस्तृत अध्ययन के लिए देखें, आर. पिशेल् , पूर्वोद्धृत
13. एम. एस. कत्रे, प्राकृत लैंग्वेज एंड देयर कंट्रिव्युशन टु इंडियन कल्चर , पृष्ठ 22.
14. शब्द संस्कारहीनो यो गौरिति प्रयुयुक्षिते। तमपभ्रंशमिच्छन्ति विशिष्टार्थनिवेशिनम्। वाक्यपदीय , ब्रह्मकांड, 148.
15. डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, पूर्वोद्धृत , पृष्ठ 16.
16. पारम्पर्यादपभ्रंशा विगुणेष्वभिधातृषु। प्रसिद्धिमागता येषु तेषां साधुरवाचकः।।-वही, १५४.
17. तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्तः पराबभूवुः। तस्माद् ब्राह्मणेन न म्लेच्छित वै नापभाषित वै, म्लेच्छो हव एष यदपशब्दः।-महाभाष्य अपशब्दत्वं व्याकरणानुगतशब्दस्येषद्..... एव प्रसिद्धिमिति भावः। वही।
18. भूयांसोऽपशब्दाः, अल्पीयांसः शब्दा इति। एकैकस्य ही शब्दस्य बहवोऽपभ्रंशाः। तद्यथा गौरित्यस्य शब्दस्य गावी गौणी गोता गोपोतलिकेत्यादयो बहवोऽपभ्रंशाः।
19. अश्लीलामङगलघृणावदर्थ गाम्यमुच्यते।-सरस्वतीकण्ठाभरण , 1, १४४.
20. वेदांत सूत्र , 1. 3. 34 ‘शुगस्य तदनादर श्रवणात तदाद्र्वनत सूच्यते।
21. रामशरण शर्मा, शूद्रों का प्राचीन इतिहास , राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1995, पृष्ठ...।
22. मनुस्मृति , 1. 31.
23. वही, 2. 127.
24. वही, 2. 126.
25. भगवतशरण उपाध्याय, खून के छींटे इतिहास के पन्नों पर , पी. पी. एच., नई दिल्ली, पृष्ठ 116.
26. एस. जी. सरदेसाई, प्राचीन भारत में प्रगति एवं रूढ़ि , पी. पी. एच., जयपुर, 1987, पृष्ठ 72.
27. अध्याय 6, श्लोक 24.
28. एस. जी. सरदेसाई, पूर्वोद्धृत , पृष्ठ 72.
29. मनुस्मृति , 12. 4-7; देखें, प्राचीन भारत में प्रगति एवं रूढ़ि , पृष्ठ 213.
30. आपस्तंब धर्मसूत्र , 1. 4. 14. 26-29; गौतम धर्मसूत्र , 5. 41-42.
31. आपस्तंब धर्मसूत्र , प्रश्न-1, पटल-2, खंड-5, सूत्र-17.
32. ऐसी परंपरा आधुनिक काल में भी देखी गई। स्वामी सहजानंद सरस्वती ने जैसाकि लिखा है, ‘ब्राह्मण ही परस्पर एक दूसरे को नमस्कार करते हैं और दूसरे लोग प्रणाम ही करते हैं परंतु यदि अन्य जाति नमस्कार शब्द का प्रयोग कर देवे तो दंगा मच जावे। हालांकि दोनों के अर्थ में कुछ भी भेद नहीं है। परंतु सांकेतिक भेद मान लिया गया है।’ देखें, ब्रह्मर्षि वंश विस्तर की भूमिका , पृष्ठ 19; ‘भो’ शब्द का प्रयोग राजन्य या वैश्य के संबोधन में किया जाता था, शूद्र के संबोधन में नहीं। (भो राजन्य विशां वा) पतंजलि ऑन पाणिनीज ग्रामर , 8. 2. 82-83.
33. आपस्तंब धर्मसूत्र , 1. 4. 14. 26-29; गौतम धर्मसूत्र 5। 41-42.
34. आपस्तंब धर्मसूत्र , 1. 4. 14. 23, ‘सर्वनाम्ना स्त्रियो राजन्यवैश्यो च न नाम्ना।’
35. फिक, दि सोशल ऑर्गेनाइजेशन ऑफ नॉर्थ ईस्टर्न इंडिया , पृष्ठ 83.
36. जातक , 3, पृष्ठ 452.
37. मनुस्मृति , 2. 31. ‘शूद्रस्य तु जुगुप्सितम्।’ और ‘दोनों बहिनें उसे कात्यूशा कहकर बुलातीं। यह नाम इतना परिष्कृत नहीं था जितना कि कातेन्का, पर साथ ही इतना भद्दा भी नहीं था जितना कि कात्का’ देखें, लेव तोलस्तोय, पुनरुत्थान (हिंदी अनुवाद), प्रगति प्रकाशन मास्को, 1977, पृष्ठ 14-15. ‘बिल्लेसुर नाम का शुद्ध रूप बड़े पते से मालूम हुआ-विल्वेश्वर है।’ देखें, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, बिल्लेसुर बकरिहा , पृष्ठ 1। पंकज कुमार चौधरी की कविता ‘श्राद्ध का भोज’ भी द्रष्टव्य है जिसमें गांव के सवर्ण एवं अवर्ण लोगों के लिए अलग-अलग संबोधनों का प्रयोग है। गांव के सवर्ण अरबिन्द के लिए ‘अरबिन्द बाबू’ और ‘राजा भाईजी’ जैसे संबोधनों का प्रयोग है जबकि अवर्ण पात्रों के नाम अकलूआ’, ‘चट्टूआ’, ‘बिसेसरा आदि हैं। भोज में खाद्य-सामग्री परोसनेवाला एक ही व्यक्ति अरबिन्द बाबू से पूछता है तो ‘सब्जी’ शब्द का प्रयोग करता है जबकि अकलूआ, चट्टूआ, बिसेसरा से पूछते हुए ‘तरकारी’ शब्द से ही काम चला लेता है।
38. प्राचीन भारत में कुत्तों तक के संबोधन में उच्चरित ‘अत्तु’ शब्द संस्कृत भाषा का ही है। यह आदरार्थ प्रयुक्त है। अर्थात् आदर (सम्मान) में कहा गया शब्द जिसका भाषिक अर्थ है-‘आइए खाइए’। देखें, राजू रंजन प्रसाद, ‘संस्कृति और इतिहास बोध’, प्रभात खबर , नई दिल्ली, 29 अगस्त 2004.
39. मनुस्मृति , 2. 32; मध्यकाल में भक्तिमार्ग के अधिकतर कवि जो सामाजिक रूप से निम्न वर्ण/वर्ग के लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, अपने नाम के अंत में दास लगाते थे। मनुस्मृति , 2. 32 का संदर्भ देखें, ‘शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञोरक्षासमन्वितम् वैश्यस्यपुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुक्तम्।
40. डा. रामविलास शर्मा की राय में ‘अंग्रेजी राज में जाति-प्रथा अधिक कठोर हुई, यह तो इसी बात से देखा जा सकता है कि व्यक्ति के नाम के साथ उसकी जाति के नाम जोड़ने का सिलसिला जितने बड़े पैमाने पर उन्नीसवीं सदी में और फिर बीसवीं सदी में देखा गया, उतने बड़े पैमाने पर ऐसा सिलसिला भारत में कभी था ही नहीं। तीन-चार जातिवाचक शब्द शर्मा, भट्ट, मिश्र आदि संस्कृत ग्रंथों में पंडितों के नाम के साथ मिलते हैं। लेकिन आधुनिक काल में व्यक्ति के नाम के साथ पचासों नए जातिसूचक शब्द जोड़े जाने लगे।’ देखें, भारतीय इतिहास और ऐतिहासिक भौतिकवाद , नई दिल्ली, पृष्ठ 47-48.
41. पतंजलि ऑन पाणिनीज ग्रामर, 6.2.2.
42. वही, 2. 2. 2 और 3. 2. 127.
43. वही, 5. 3. 36.
44. ‘हाल’ प्राकृत साहित्य के उसी प्रकार पुरस्कर्त्ता थे जिस प्रकार विक्रमादित्य संस्कृत साहित्य के। ब्राह्मण-साहित्य में अपने प्राकृत-प्रेम के कारण इन्हें कई बार उपहास का पात्र बनना पड़ा है। गुणाढ्य को भी ऐसे ही उपहास का पात्र बनना पड़ा था। उनकी रचना सुनकर एक राजा की टिप्पणी थी कि जिस पुस्तक की भाषा पैशाची हो उसकी कथा में विचारने योग्य हो ही क्या सकता है-पैशाची वाग् मषी रक्तं मौनोन्मत्तश्च लेखकः। इति राजाऽब्रवीत् का वा वस्तुसारविचारणा।। (बृहत्कथामंजरी , 1. 87)। देखें, डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी-साहित्य का आदिकाल , बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्, चतुर्थ संस्करण, 1980, पृष्ठ 59-60.

प्रकाशन:
जन विकल्प, वर्ष 1, अंक 1, जनवरी, 2007; संशोधित संस्करण: प्रयोग, वर्ष 3, अंक 5, 2008.

2 comments:

शेष नारायण सिंह said...

Very well written piece. Congratulations.

Hitendra Patel said...

मुझे यह लेख अच्छा लगा. लेखक विद्वान हैं. लेकिन, ऐसा लगा कि वे जानबूझकर एक पक्ष को छोड देते हैं.रामविलास जी को एक संदर्भ में याद तो करते हैं लेकिन उनकी प्राचीनकाल की भाषा संबंधी मान्यताओं को इसमें सामने नहीं रखा गया है. बातें एक तरफ ही जाती हैं.
फिर भी यह मुझे उत्कृष्ट कोटि का लेख लगा. इसे अधिक लोग पढें. स्टालिन से लेख की शुरूआत करके लेखक ने चौंकाया.