Sunday, October 3, 2010

औपनिवेशिक बिहार में बाल-शिक्षा एवं बाल-पत्रकारिता

उन्नीसवीं शती के अंतिम दशकों में बिहार के पत्रकारिता जगत में कई मासिक एवं साप्ताहिक पत्र-पत्रिकाओं का उदय हुआ। यह बिहार में नवजागरण का दौर था। किंतु यह कहना मुश्किल है कि नवजागरण पहले शुरू हुआ या पत्रकारिता पहले शुरू हुई। शिक्षा के क्षेत्र में सुधार अथवा प्रगति के बगैर किसी नवजागरण की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए सामान्य अखबारों के साथ ही साथ कुछ ऐसे भी पत्र प्रारंभ हुए जो शिक्षा, एवं विशेष रूप से बाल-शिक्षा को समर्पित थे।

खड्गविलास प्रेस, पटना ने सन् 1880 ई. में पटना कॉलेजिएट स्कूल के शिक्षक पंडित बद्रीनाथ1 के संपादन में ‘विद्या-विनोद’ 2 नामक मासिक 3 पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया, जिसे महज दो साल4 का जीवन प्राप्त था। कहना न होगा कि इसमें बालोपयोगी सामग्री ही छपा करती थी। साहित्यिक पुरुषों की जीवनी, हिंदुस्तान का इतिहास, चुटकुले, जीवन, स्वास्थ्य तथा नीतिपरक कहानियां इसमें धारावाहिक रूप से छपती थीं। इसमें खण्डशः पुस्तकें भी छपा करती थीं। श्रीसीतारामशरण भगवानप्रसाद रूपकलाजी-विरचित ‘पीपाजी की कथा’ सर्वप्रथम इसी में मुद्रित हुई थी।5   बिहार की हिंदी पत्रकारिता में इसका सर्वोपरि योगदान था क्योंकि बालोपयोगी अथवा बाल-पत्रकारिता की नींव इसी ने रखी थी जो ‘किशोर’, ‘छात्रबंधु’  और ‘बालक’  जैसी लोकप्रिय पत्रिकाओं के लिए प्रेरणाप्रद रही। उस समय तक बिहार से प्रकाशित होनेवाली कोई ऐसी पत्रिका न थी जो विद्यार्थियों के हित एवं उसके सिलेबस के अनुकूल पाठ्य-सामग्री प्रस्तुत करती थी। शायद इसी कारण से तत्कालीन सरकार के शिक्षा-विभाग द्वारा इसे बिहार के पुस्तकालयों एवं विद्यालयों के लिए स्वीकृति प्रदान की गई थी।6

शुरुआत खड्गविलास प्रेस, पटना से हुई। यह पूर्ण रूप से शिक्षा को समर्पित पत्रिका थी। यह शिक्षा-संबंधी समाचारों-इतिहास, वास्तु-क्रिया और नीति विषयक टिप्पणियों से युक्त होकर छपती थी। आरंभ में यह बालोपयोगी ही रही किंतु कुछेक अंकों के बाद इसका स्तरोन्नयन हो गया और ऊंची कक्षा के विद्यार्थियों के लिए सामग्री प्रकाशित होने लगी। लगभग चालीस वर्षों तक प्रकाशित होनेवाली यह एक दीर्घजीवी पत्रिका थी जिसके संपादकों के इतिहास में सकल नारायण शर्मा, ईश्वरी प्रसाद शर्मा, प्रो. अक्षयवट मिश्र और प्रो. थिकेट का नाम जुड़ा है। दुर्गाप्रसाद त्रिपाठी के संपादन-काल में इसने लोकप्रियता व विशिष्टता हासिल की।9   त्रिपाठी जी सन् 1921 से 29 ई. तक साप्ताहिक ‘शिक्षा’ के सहकारी संपादक एवं सन् 29 से 38 तक प्रधान संपादक रहे।10   इसकी प्रसार-संख्या भी अच्छी खासी थी। बिहार के अनेक डिस्ट्रिक्ट बोर्डों के प्रारंभिक एवं मध्य विद्यालयों में इसकी आपूर्ति की जाती थी।11

सन् 1921 ई. में तत्कालीन हिंदी के बहुचर्चित लेखक ईश्वरी प्रसाद शर्मा ने आरा से ‘मनोरंजन’ नामक मासिक की शुरुआत की। यद्यपि यह पत्रिका अपने मिजाज में साहित्यिक थी किंतु शिक्षा संबंधी सामग्री की वजह से शीघ्र ही छात्रों के बीच लोकप्रिय हो चली।12    इस पत्रिका ने भी महज तीन वर्ष के अल्पकाल का जीवन प्राप्त किया था।13

विद्यार्थियों एवं किशोरों को प्रेरणास्पद एवं ज्ञानवर्धक पाठ्य-सामग्री प्रदान करनेवाला मासिक ‘किशोर’ हिंदी जगत में अपने ढंग का अकेला पत्र था। यदि ऐसा कहा जाये कि वह होनहार किशोरों को स्वस्थ विचार एवं स्फूर्ति तथा महापुरुषों के जीवन की शिक्षाप्रद घटनाओं से परिचित कराकर बहुज्ञ बनाने का एक भरोसे का गाईड था तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। अप्रैल 1938 में प्रवेशांक में संपादक ने इसके उद्येश्यों पर प्रकाश डालते हुए लिखा था, ‘जैसे टेढ़े-मेढ़े बांस को अपनी इच्छानुसार झुकाकर हम सीधा कर लेते हैं, वैसे ही किशोरों को भी बनाया जा सकता है। उपजाऊ जमीन में डाला हुआ बीज जैसे सुफल फलता है, वैसे ही किशोर भी हमारी चेष्टाओं से सुफल देनेवाले हो सकते हैं।’14

‘किशोर’ का प्रकाशन शिक्षा समिति के द्वारा पंडित रामदहिन मिश्र के नेतृत्व में प्रारंभ हुआ। यह ‘मासिक’ बारह वर्षों तक अबाध प्रकाशित होता रहा। उक्त मासिक जब प्रकाशित हुआ तो चारों ओर से उसके स्तर, विचार और संपादक की लगन की प्रशंसा होने लगी। बिहार में शिक्षा विभाग के प्रथम डायरेक्टर एच. आर. बायोजा ने लिखा था ‘किशोर के प्रकाशन का विचार उत्तम है। मैं इसका स्वागत करता हूं और इससे संबंधित महत्त्व का प्रशंसक हूं। अपने ढंग की यह अकेली पत्रिका भारत के भावी नागरिकों को मानसिक दृष्टि से स्वस्थ, सभ्य और सुसंस्कृत बनाने में मदद करेगी।’15    ‘जनता’ के संपादक रामवृक्ष बेनीपुरी की इसके बारे में सम्मति थी-‘तीन-चार महीनों में ही किशोरों के इस सचित्र मासिक ने हिन्दी के बाल साहित्य में अपने लिए गर्व और गौरव का स्थान बना लिया है। बाल शिक्षा समिति और ग्रंथमाला कार्यालय के संस्थापक और संपादक रामदहिन मिश्र प्रांत के उन कर्मठ व्यक्तियों में हैं जिन्होंने अपनी छोटी पूंजी और कांड़े की कलम से हिन्दी की सेवा शुरू की और कुछ ही दिनों में काफी पैसे और प्रसिद्धि प्राप्त कर ली। पंडित जी ने अपनी इस चतुर्थावस्था में अपनी प्रतिभा और अपने पैसे का सदुपयोग किशोरों के लिए करना शुरू किया है जो सर्वथा समुचित है। किशोर को पंडित जी ने बिल्कुल समयोपयोगी और युग के अनुकूल बनाया है। चित्रों की छपाई और अच्छी सज्जा से इसका महत्त्व और बढ़ गया है। हम बिहार सरकार से अपील करते हैं कि इसे पाठशालाओं और पुस्तकालयों के लिए स्वीकार ही नहीं करे, अच्छी संख्या में खरीदकर वितरण भी करे।’16  

लेकिन संपादक की कुछ अपनी व्यावहारिक परेशानियां थीं। उन्होंने बड़े ही दुखी मन से लिखा था ‘हजारों रुपये विज्ञापन में खर्च करने के बावजूद परिमित ग्राहक हुए हैं, वे भी बिहार के बाहर के ही हैं।’17   सन् 1952 ई. में रामदहिन मिश्र के निधनोपरांत नये संपादक रघुवंश पांडेय के कार्यकाल में यह दो-तीन अंकों तक प्रकाशित हुआ पर उसके बाद बंद हो गया।18    इसके कई अंक जैसे ‘उपकथांक’, ‘रवीन्द्र-अंक’, ‘विक्रमांक’ और ‘कालिदासांक’ बड़े महत्त्वपूर्ण हुए।19

बच्चों की एक और सचित्र 20 मासिक पत्रिका ‘पुस्तक भंडार’ के मालिक रामलोचन शरण द्वारा सन् 1925 ई. में दरभंगा के लहेरियासराय से शुरू की गई।21    बाद में इसका प्रकाशन पटना से होने लगा।22   प्रारंभ में इसके संपादक श्री रामवृक्ष बेनीपुरी जी थे। बाद के दिनों में इसके संपादन का दायित्व बाबू शिवपूजन सहाय ने निबाहा।23    इस पत्रिका का संपादन शिव जी काफी श्रम और मनोयोग से करते।24    ‘बालक’ ने स्वस्थ, सुरुचिपूर्ण एवं ज्ञानवर्धक बाल सामग्री की प्रस्तुति में जो प्रतिमान उपस्थित किया उससे प्रेरित होकर जयनाथ मिश्र का मासिक ‘चुन्नू-मुन्नू ' (सन् 1950 ई., अजंता प्रेस), मोहनलाल बिश्नोई का ‘मुन्ना-मुन्नी' (1953 ई.) एवं  ‘उत्तर बिहार’ के संस्थापकों द्वारा ‘नन्हे मुन्ने’ प्रकाशित किये गए । इसी क्रम में सन् 1954 ई. में प्रकाशित हरनारायण प्रसाद सक्सेना का मासिक ‘बालगोपाल’ भी उल्लेखनीय है। ये सभी पत्रिकाएं बाल पत्रकारिता की दिशा में सुनहरे आर्थिक भविष्य की तलाश के क्रम में प्रकाशित हुई थीं। लेकिन ‘बालक’ की ख्याति उन्हें न मिली और न वैसा व्यवसाय ही। कहना प्रासंगिक  होगा कि सन् 1969 ई. में ‘बालक’ की प्रसार संख्या 22,000 थी।25   किसी भी साप्ताहिक या मासिक में सबसे ज्यादा इसी की बिक्री थी।26   हां, इनसे बिहार में सुरुचिपूर्ण बाल पत्रकारिता को बढ़ावा मिला। इन्होंने परियों की कहानियां, जानवरों का जीवन, कविताएं, चुटकुले, कार्टून, पौराणिक कथाएं तथा बच्चों के मन को भानेवाले लुभावने एवं आकर्षक चित्रों को छापकर बच्चों के मानसिक तथा बौद्धिक विकास में सहयोग किया। इनका महत्तम योगदान यह है कि इनसे बच्चों में साहित्यिक रुचि का विकास हुआ, उनकी भाषा-शक्ति बढ़ी, उनकी रुचियों का परिष्कार हुआ तथा उनके कोमल एवं भावुक मन में वैज्ञानिक ज्ञान की आशातीत वृद्धि हुई।

‘छात्रबंधु’ का प्रकाशन सन् 1958 ई. में प्रारंभ हुआ। यह छात्रों के चरित्र-निर्माण और मानसिक विकास का प्रयास करनेवाला सचित्र हिंदी मासिक था। इसका प्रवेशांक जनवरी 1958 ई. में प्रवीण चंद्र सिंह के संपादन में निकला था। यह इतिहास, विज्ञान, सामयिक घटनाओं, भाषा-विज्ञान तथा अनुसंधान और नैतिकता से संबद्ध लेख प्रकाशित कर छात्रों को राष्ट्र का उत्तरदायित्वपूर्ण नागरिक बनाने की दिशा में प्रयत्नशील था। 

बाल-शिक्षा की समस्याओं को अन्य पत्रिकाओं ने भी काफी शिद्दत के साथ उठाया। रमेश प्रसाद, जिन्होंने ‘रमेश प्रिंटिंग वर्क्स’27  और ‘रमेश मैनुफैक्चरिंग’ की स्थापना की, के लेख को मासिक ‘चांद’ ने चाव से छापा। यह लेख तत्कालीन दोषपूर्ण शिक्षण-पद्धति पर करारा प्रहार था। उन्होंने लिखा था, ‘इस देश की शिक्षण-पद्धति उन्नतिशील देशों की शिक्षा-पद्धति से सर्वथा भिन्न है। यहां के विद्यार्थी जिस विषय को सीखने से दिल चुराते हैं उसे छड़ी के हाथ सिखलाया जाता है। किन्तु, पाश्चात्य देशों में प्रत्येक विषय इस प्रकार मनोरंजक ढंग से विद्यार्थियों के सामने रक्खे जाते हैं कि उसे बालक खेल ही समझकर सीख लेते हैं। व्याकरण ही को लीजिए। व्याकरण का हर एक नियम रटने के लिए यहां बाधित किये जाते हैं। किन्तु, पाश्चात्य देशों में इन्हें खेल ही द्वारा समझाया और सिखाया जाता है। ...एक श्रेणी के बालकों का नाम जैसे बालक आसानी से स्मरण कर लेते हैं, उसी प्रकार व्याकरण के उन नामों को भी वे बात की बात में याद कर लेते हैं। बालकों में कोई-कोई मास्टरनाउन (छवनद) बनता है, कोई मास्टरवर्ब, कोई मास्टरसेण्टेन्स और कोई मास्टरफ्रेज या क्लाज कहिए, व्याकरण सिखाने की अभिनव प्रथा कैसी है ?

भारतवर्ष की शिक्षा-पद्धति बालकों के लिए भारस्वरूप है, किन्तु अन्य देशों की शिक्षा-पद्धति वहां के विद्यार्थियों के लिए मनोरत्र्जन। इस देश की शिक्षा की बागडोर जिन लोगों के हाथ में है, क्या वे न्यूयार्क के ‘फॉरेस्ट-हिल्स’ स्कूल से सबक सीखेंगे?’28

बिहार में उर्दू पत्रकारिता की हिंदी एवं अंग्रेजी की तुलना में पुरानी एवं समृद्ध परंपरा रही है। सन् 1872 ई. में हिंदी समाचार-पत्र बिहार बंधु के प्रकाशन के पहले सारे अखबार प्रायः उर्दू ही में प्रकाशित हुआ करते थे। उर्दू का अल पंच 29 अखबार शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण काम कर रहा था। इसके संपादक मौलवी सैयद रहीमुद्दीन थे। अल-पंच अखबार ने ऊंची कक्षाओं में मुस्लिम छात्रों की घटती संख्या के कारणों की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित किया। इसने लिखा कि स्कूलों में ऊपर की कक्षाओं में देय फीस की रकम बढ़ जाती है, इसलिए अधिकतर बच्चे स्कूल छोड़ने को बाध्य हो जाते हैं।30    इस अखबार ने मुस्लिम छात्रों के बीच धार्मिक शिक्षा के घोर अभाव 31 की भी बात कही।

संदर्भ एवं टिप्पणियां :

1. एन कुमार, जर्नलिज्म इन बिहार , गवर्नमेंट ऑफ बिहार, 1971, पृष्ठ-65. पटना म्यूनिसिपल शताब्दी स्मारिका के पृष्ठ-61 पर संपादक के रूप में चंडी प्रसाद का नाम अंकित है. देखें, एन कुमार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-65 की पाद-टिप्पणी। ‘हरिऔध अभिनन्दन-ग्रन्थ’, पृष्ठ-538 पर जैसाकि लिखा है-‘बालोपयोगी पत्र ‘‘विद्याविनोद’’ के संपादक बाबू साहब प्रसाद सिंह के सहोदर भाई बाबू चण्डीप्रसाद सिंह थे।’ ‘इस उल्लेख से विदित होता है कि आप (बदरीनाथ) ‘‘विद्याविनोद’’ के आरंभिक वर्ष में कुछ दिन उसके संपादक थे।’ देखें, हिंदी-साहित्य और बिहार, पृष्ठ 137, पाद टिप्पणी-4.
2. विद्या विनोद के विषय में तारणपुर (पटना) के श्रीपारसनाथ सिंह जी ने 19 अक्तूबर, 1960 ई. के अपने पत्र द्वारा राष्ट्रभाषा परिषद् को सूचित किया कि यह एक प्रकार का संकलन है, जो 26 भागों में है। किन्तु बाबू शिवनन्दन सहाय इसे एक पत्र बतलाते हैं। देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार, चतुर्थ खंड, पृष्ठ 173, पाद टिप्पणी संख्या -1.
और देखें, शिवेंद्र नारायण, कांग्रेस अभिज्ञान ग्रंथ , जनवरी 1962, पृष्ठ-171.
3. कहना न होगा कि डा. कृष्णानंद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक बिहार की हिंदी पत्रकारिता , प्रवाल प्रकाशन, प्रथम संस्करण 1996, पृष्ठ-50 पर इसे ‘वार्षिक’ बताया है जबकि उसी पुस्तक में पृष्ठ-219 पर ‘प्रकाशित पत्रों की नामानुक्रमणिका’ में ‘मासिक’ प्रकाशित है।
4 ‘…but this too had a short career of only two years’.  एन कुमार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-65. जबकि डा. कृष्णानंद द्विवेदी ने लिखा है कि ‘1912 ई. तक इसके कुल अठारह अंक निकले।’ बिहार की हिंदी पत्रकारिता , पृष्ठ-50. बाबू शिवनन्दन सहाय ने लिखा है, ‘12 वर्ष से विद्या विनोद पत्र का यही (बाबू चण्डीप्रसाद सिंह) संपादन करते हैं। विद्या विनोद  स्कूल के छात्रों के लिए एक बड़ा ही उपयोगी पत्र है। शिक्षा विभाग के माननीय प्रधान से अनुमोदित होकर एवं अनेक लोकल और डिस्ट्रिक्ट बोर्डों से स्वीकृत होकर यह पत्र 12 वर्षों से प्रकाशित हुआ करता है और अपने ढंग का निराला पत्र है।’ देखिए, बाबू साहिबप्रसाद सिंह की जीवनी , पृष्ठ 60 और 61.
5. हरिऔध अभिनन्दन-ग्रन्थ , पृष्ठ 538. और देखें, हिंदी साहित्य और बिहार , द्वितीय खण्ड, पृष्ठ 137, पाद टिप्पणी -4.
6. डा. कृष्णानंद द्विवेदी, पूर्वोद्धृत , पृष्ठ 50.
7. डा. विजय चन्द्र प्रसाद चौधरी, ‘स्रोत-चयन में पूर्वाग्रह: पत्रकारिता की प्रासंगिकता’, इतिहास का मुक्ति-संघर्ष : स्वार्थ से यथार्थ तक, (संपादक) अमरेन्द्र कुमार ठाकुर, राहुल प्रेस, पटना 1991, पृष्ठ 64. डा. कृष्णानंद द्विवेदी ने बिहार की हिंदी पत्रकारिता , पृष्ठ 51 में प्रकाशन-वर्ष 1897 दिया है जो भ्रामक है।
8. एन. कुमार. ने लिखा है- ‘The Khadagvilas Press started a weekly (emphasis mine) called the Shiksha, mainly devoted to educational matters. It was edited by Mahamahopadhyaya Pandit Sakal Narayan Sharma of Arrha, and later by Durga Prasad Tripathi. After a career of about 40 years it ceased publication sometime near about 1940. देखें, जर्नलिज्म इन बिहार, पृष्ठ 65. डा. रामविलास शर्मा ने भी इसकी साप्ताहिक  के रूप में ही चर्चा की है। देखें, निराला की साहित्य साधना -3, पृष्ठ 396, किन्तु डा. कृष्णानंद द्विवेदी ने इसे आरंभिक दिनों में ‘मासिक’ बताया है। देखें बिहार की हिंदी पत्रकारिता , पृष्ठ-51.
9. डा. कृष्णानंद द्विवेदी, बिहार की हिंदी पत्रकारिता , प्रवाल प्रकाशन, पटना, प्रथम संस्करण 1996, पृष्ठ-50.   
10. हिन्दी-साहित्य और बिहार , तृतीय खंड, पृष्ठ 210.
11. एन. कुमार, जर्नलिज्म इन बिहार, पृष्ठ 65, पाद टिप्पणी
12. वही, पृष्ठ 66.
13. वही।
14. किशोर, प्रवेशांक, अप्रैल 1938, पृष्ठ 5.
15. किशोर, वर्ष 1, अंक 3, जून 1938, पृष्ठ 46.
16. किशोर, वर्ष 1, अंक 6, अक्तूबर 1938, पृष्ठ-48.
17. किशोर, अगस्त 1938, पृष्ठ-46.
18. कृष्णानंद द्विवेदी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-94.
19. हिन्दी-साहित्य और बिहार, तृतीय खंड, पृष्ठ 474.
20. आचार्य शिवपूजन सहाय ने निराला को पत्र (16. 2. 28) लिखने के लिए अपने जिस पैड का इस्तेमाल किया है, उस पर ‘बालक’ सचित्र मासिक छपा है। देखें, रामविलास शर्मा, निराला की साहित्य साधना, भाग 3, पृष्ठ 12.
21. एन. कुमार, जर्नलिज्म इन बिहार, पृष्ठ-76.
22. वही।
23. 'बेनीपुरी ने ‘बालक’ और लहेरियासराय को छोड़ दिया। अब शिवपूजन जी एकच्छत्र सम्राट हैं।' देखें, शांतिप्रिय द्विवेदी का निराला को लिखा पत्र (11. 6. 1928), निराला की साहित्य साधना, भाग 3, पृष्ठ 137-38 में उद्धृत।
24. 'शिव जी (शिवपूजन सहाय) को अपने कार्य से छुट्टी नहीं मिलती, वह ‘बालक’ में ही व्यस्त रहते हैं।' देखें, विनोदशंकर व्यास का निराला को लिखा पत्र (15. 7. 27), निराला की साहित्य साधना, भाग 3, पृष्ठ138 में उद्धृत।
25. यह आंकड़ा प्रेस इन इंडिया (1968-69), मिनिस्ट्री ऑफ इनफॉर्मेशन एंड ब्रॉडकास्टिंग, गवर्नमेंट ऑफ इंडिया, नई दिल्ली से लिया गया है।
26. एन. कुमार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 106.
27. ‘रमेश प्रिंटिंग प्रेस’ से पंडित कृपानाथ मिश्र लिखित ‘प्यास’ और श्री केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’-लिखित ‘ज्वाला’ नामक पुस्तकें प्रकाशित हुई थीं। इस प्रेस के द्वारा हिन्दी-प्रचार विशयक और भी कई महत्त्वपूर्ण कार्य हुए थे। देखें, हिन्दी-साहित्य और बिहार, तृतीय खंड, पृष्ठ-417. 
28. देखें, चांद, मासिक, वर्ष 6, खंड 2, संख्या 3, जुलाई, सन् 1929 ई., पृष्ठ-313. और देखें, हिन्दी साहित्य और बिहार, तृतीय खंड, पृष्ठ-419.
29. इस अखबार का नाम अल-पंच  लंदन से प्रकाशित पंच  के नाम से प्रेरित होकर रखा गया था। हिंदी में हिंदू-पंच  शायद इसी से प्रेरणा पाकर शुरू किया गया हो। अल-पंच  शुरू में पटना से प्रकाशित होता था, बाद में यह अस्थावां (बिहार शरीफ) से छपने लगा। देखें, डा. जटाशंकर झा, आस्पेक्ट्स ऑफ द हिस्ट्री ऑफ मॉडर्न बिहार, काशी प्रसाद जायसवाल शोध-संस्थान, पटना 1988, पृष्ठ 75, पाद टिप्पणी-2.
30. अल-पंच, 27 अगस्त 1886.
31. अल-पंच, 12 जुलाई 1894.                                  

1 comment:

Dr. Braj Kishor said...

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