Monday, October 4, 2010

निबंध, ललित निबंध


निबंध1 आधुनिक साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण विधा है। जीवन ज्यों-ज्यो जटिल, मशीनी, तर्कप्रधान और बौद्धिक होता जा रहा है, बहुत-सी भावात्मक विधाएँ अपना महत्त्व खोती जा रही हैं। कई को आधुनिक युग के अनुरूप अपने आत्मा और कलेवर में ऐसा परिवर्तन करना पड़ रहा है कि उन्हें पहचानना तक मुश्किल हो गया है। कविता के साथ ऐसा ही हुआ है। इसी प्रसंग में यह गद्य युग है’-जैसे वाक्यों का औचित्य कुछ-न-कुछ स्वीकार करना पड़ता है। अलगाव, बौद्धिकता और टूटते हुए मूल्यों के संक्रमण-काल में जो विधा सबसे अधिक उपयुक्त, सक्षम और अर्थ-संवहन के योग्य प्रमाणित हो रही है, वह निस्संदेह निबंध है।

निबंध शब्द स्वदेशी है। प्रयोग की दृष्टि से पुराना भी। संस्कृत निबंध का शाब्दिक अर्थ बाँधनाया सँवारकर सीनाहै।2 प्राचीनकाल में हस्तलिखित ग्रंथों के बाँधने या सीने के प्रसंग में इस शब्द ने रूप ग्रहण किया। जाहिर है कि इस शब्द में शुरू-शुरू में साहित्य-विधात्मक अर्थ सन्निहित नहीं था। संभवतः वासवदत्ता 3 में पहली बार इस शब्द का ऐसा प्रयोग मिलता है जिसमें काव्य विधा का कुछ-कुछ संकेत है। बाद में इस शब्द का प्रयोग व्याख्याओं क संग्रह के लिए किया जाने लगा। व्याख्याएं पूर्णतः सूत्र में बंधी होती थीं। यानी पूर्णतः सूत्रानुसारी सूत्र-निबद्ध। नितरां बद्ध। संस्कृत में ग्यारहवीं शती में लिखी गयी टीकाओं के लिए प्रयुक्त निबंध शब्द आज की एक गद्य विधा के लिए प्रयुक्त निबंध शब्द से पूर्णतः भिन्न नहीं तो काफी भिन्न अवश्य है।4 हालांकि कुछ विद्वान इसे प्रबंधकहना ज्यादा तर्कसंगत मानते हैं। हिन्दी शब्द-सागर ने इस शब्द का अर्थ वह व्याख्यामाना है जिसमें अनेक मतों का संग्रह हो5

वस्तुतः हिन्दी में प्रयुक्त निबंध शब्द अंग्रेजी एसेका समानार्थी है। एसे’6 शब्द का अर्थ होता है मुक्त, स्वच्छंद। डा. सैमुअल जॉनसन ने एसेकी परिभाषा यों की है-मस्तिष्क का शिथिल प्रक्षेपण। अनियमित, अपरिचित चीज। नियमबद्ध और क्रमबद्ध क्रिया नहीं।’7 इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में एडमंड गॉस ने लिखा-साहित्य विधा के रूप मे निबंध सामान्य आकार की प्रायः गद्य में लिखी वह रचना है जिसमें विषय के बाह्य रूपों का सहज चालू ढंग से वर्णन कर दिया जाता है बल्कि यों कहें कि सिर्फ उस विषय का जो लेखक को प्रभावित करता है।’8 जाहिर है कि एसेका जोर मुक्तता, सहजता और स्वच्छन्दता पर है। कहां नितरां बद्धऔर कहां मुक्त और स्वच्छन्द!

पश्चिमी एसेके पितामह माइकेल द मान्तेन ने अपने एसाइको मात्र प्रयत्नकहा। उसने मुख्यतया अपनी आत्माभिव्यक्तिको रेखांकित कियाः इनके माध्यम से मैं अपने सच्चे, सहज, सामान्य तरीके से अपने को प्रकट करना चाहता हूं बिना किसी उद्येश्य, कला या अध्ययन की बाध्यता के, क्योंकि यहां मैं सिर्फ अपनी आकृति उरेह रहा हूं।’9 पुरानी अंग्रेजी में पुरानी फ्रेंच से अनूदित ये पंक्तियां इस बात की सबूत हैं कि सोलहवीं शताब्दी के मान्तेन ने एसेनामक एक नयी विधा को जन्म इसलिए दिया कि वह इसके द्वारा  सिर्फ अपने मैंको उपस्थित करना चाहता था। मान्तेन ने ऐसे निबंधों को आत्मा के संवाहन का प्रयत्न कहाहै। उन्होंने निबंध को आत्मा का संवाहन कहकर उसकी आत्मनिष्ठता को आत्मकथा की कोटि में ला दिया है। इस प्रकार मान्तेन के अनुसार निबंध का उद्येश्य केवल आत्मनिवेदन है। इस आत्मनिवेदन की प्रक्रिया में कोई-न-कोई मनःस्थिति काम करती है। उसी मनःस्थिति के अनुरूप निबंध व्यंग्यपूर्ण, विनोदात्मक अथवा गंभीर हो जाता है। यह मैंवैसे तो साहित्य की दूसरी विधाओं में भी कुछ-न-कुछ लुकाछिपी का खेल खेलता है; पर एसेमें उसकी आंखमिचौनी नहीं चलती, यहां वह खुलकर खेलता है, क्योंकि वह अपनी रूप रचनागत क्षेत्रीयता के कारण यही उसकी क्रीड़ा का एकमात्र उपयुक्त क्षेत्र बन जाता है।10 

कहना न होगा कि अंग्रेजी के समर्थ आलोचक और निबंधकार जॉनसन ने निबंध को जब मन का एक हठात् अस्तव्यस्त आक्रमणतथा एक अव्यवस्थित अधपका संदर्भकहा तो, मान्तेन ही की दार्शनिक परंपरा को आगे बढ़ाया। निबंध में आत्मचिंतन की प्रधानता होती है, आदर्श वा संदेश का आग्रह नहीं। इसी तत्त्व को ध्यान में रखकर किसी ने निबंध को भोजनोपरांत का स्वगतऔर किसी ने निबंधकार को आरामकुर्सी में पौढ़ा हुआ दार्शनिककहा है। थैकरे ने इस प्रकार के निबंध को चक्करदार लेखकहा है क्योंकि वह वर्ण्य-विषय को केंद्र में रखकर विशेष मनोदशा में स्थित व्यक्तित्व के सहारे विषय के चारों ओर दूर-दूर चक्कर काटता रहता है। निबंधकार रोजर बेकन के बिखरे चिन्तनको इसी मानी में समझा जा सकता है। निबंध की विशेषता उसके वर्ण्य-विषय में नहीं, क्योंकि कोई भी विषय उसके लिए पर्याप्त होगा, वरन लेखक के व्यक्तित्व-आकर्षण में है या प्रीस्टले के शब्दों में निबंधकार का विषय होता ही नहीं, संसार में जितने भी विषय संभव हैं सभी उसके बन्दे हैं। इसका साधारण कारण यह है कि लेखक का काम अपनी या अपने एवं विषय के संबंधों की अभिव्यक्ति करना है। वह निबंध के एक-एक मुहावरे को व्यक्तित्व में पगा देखता है।11

आत्मनिवेदन की यह भावना, अंतर्मुखी प्रवृत्ति, मनःस्थिति की प्रधानता निबंध को गीतिकाव्यके निकट ला देती है। इसलिए निबंध को गद्यगीतभी कहा गया है। स्मिथ ने निबंध के गीतिसाम्य पर विचार करते हुए लिखा है कि साहित्य-रूप के विचार से निबंध गीतिकाव्य से मिलता-जुलता है, उस हद तक जिस हद तक वह किसी केंद्रीय मनःस्थिति-प्रक्षेप, गंभीर अथवा व्यंग्यपूर्ण-से उत्प्रेरित रहता है। मनःस्थिति को रूप दीजिए और निबंध प्रथम वाक्य से अंतिम तक उसके चतुर्दिक उठ खड़ा होगा, जैसे रेशम के कीड़े के चारों ओर रेशम उगता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आधुनिक निबंध की पाश्चात्य व्याख्या पर विचार करते हुए हिन्दी साहित्य का इतिहास में लिखा है कि आधुनिक पाश्चात्य लक्षणों के अनुसार निबंध उसी को कहना चाहिए जिसमें व्यक्तित्व अर्थात व्यक्तिगत विशेषता हो।’12

किन्तु एसाइके जन्म का उद्येश्य जो भी रहा हो, बौद्धिक सिर्फ अपने मैंको अभिव्यक्त करने की बाध्यता को अवर कोटि का उद्येश्य मानकर मैंकी पूर्णतः अवहेलना करके मात्र विषय को दृष्टि में रखकर निबंध के अंदर ब्रह्मांड को उतारने का प्रयत्न भी अरसे से करते आ रहे हैं, इसलिए यदि ऐसे निबंध अपेक्षाकृत अधिक संख्या में लिखे गये और लिखे जाते हैं, जिनमें दुनिया का सब कुछ होता है, सिर्फ मैंनहीं तो, उसमें आश्चर्य क्या! मैंकी सीमा पर खड़ा होकर यदि सर्वेक्षण करें तो मालूम होगा कि निबंध को मोटे तौर से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-विषयी प्रधान, मैं प्रधान या व्यक्तिगत एवं विषय प्रधान, इदम्-प्रधान या वस्तुगत।

दूसरे वर्ग में वे सभी निबंध परिगृहीत किये जा सकते हैं जिसमें लेखक वस्तुपरक दृष्टि से किसी भी विषय पर क्रमबद्ध विवेचन उपस्थित करता है। शोधात्मक लेख, आलोचनाएं, सम्पादकीय, ऐतिहासिक जीवनियां, पुस्तक समीक्षाएं, वैज्ञानिक लेख सभी इस वर्ग में आते हैं। इस वर्ग के निबंधों की विशेषता उनकी वैचारिक समृद्धि, सुसंबद्धता और विवेचन की सांगोपांगता होती है न कि लेखकीय व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति अथवा माध्यम की कलात्मकता। साहित्य में ऐसे निबंधों का भी बहुत महत्त्व होता है किन्तु निबंध विधा की सार्थकता और कलात्मक पूर्णता तो प्रथम वर्ग के आत्मपरक निबंधों पर ही आधारित है, इसमें सन्देह नहीं।  

व्यक्तिगत13 या आत्मपरक निबंधों के भी अनेक भेद होते हैं। शुद्ध आत्मपरक निबंध स्वभावतः ही व्यक्तिव्यंजक होता है। ऐसे निबंधों में वस्तु का नहीं लेखक के व्यक्तित्व का महत्त्व होता है। लेखक की अपनी रुचि, प्रतिक्रियाएं, अनुभूतियां, धारणाएं ऐसे निबंधों में खुलकर व्यक्त होती हैं। यहां आत्माभिव्यक्ति ही मुख्य ध्येय होती है और स्वच्छंद अभिव्यक्ति प्रवाह उसका माध्यम। सुप्रसिद्ध निबंधकार और आलोचक अलेक्जेंडर स्मिथ ने ऑन द राइटिंग ऑव एसेज में इसी बात की व्याख्या करते हुए लिखा-निबंधकार अपने विषय के साथ मनोविनोद करता हुआ चलता है। कभी उसकी मनःस्थिति गंभीर होती है, कभी जिद्दी, कभी उदास। जै क्यू की तरह वह घास भरे किनारे पर लेटा रहता है और जगत की दरिया नीचे से गुजरती चली जाती है और अगल-बगल की वस्तुओं और दृश्यों से वह अपनी रुचि के अनुसार उल्लास और धारणाएं प्राप्त कर लेता है। उसका सबसे बड़ा संबल है उसकी वह दृष्टि जो सामान्य-से-सामान्य वस्तुओं से सांकेतिक अर्थ और अपदार्थ-से-अपदार्थ पुस्तकों से नीति भरे वाक्य ढूंढ़ लेती है।

यानी व्यक्तिव्यंजक निबंध लेखक के व्यक्तित्व का पारदर्शी आइना हेता है। व्यक्तित्व रूप, रंग, वेशभूषा या अन्य बाह्य उपादानों का समुच्चय नहीं होता बल्कि प्रत्येक व्यक्ति की एक मानस-आकृति होती है जो अतीत और भविष्य के संधिस्थल पर नाना प्रकार के सामाजिक-सांस्कृतिक और भौतिक आध्यात्मिक दबावों के कारण निर्मित होती है, एक सजीव ईथरिक चेतना, जो सामान्य से सामान्य बाहय कर्मों और क्रियाकलापों तक को अपनी चैतन्य शक्ति से निरंतर प्रभावित करती रहती है। इसी कारण व्यक्तिव्यंजक निबंध लेखक के व्यक्तित्व के सच्चे अभिसाक्ष्य होते हैं। निबंधकार अपना फोटोग्राफर स्वयं हैजैसाकि ओरलो विलियम्स कहता है-निबंध लेखक अपनी वैयक्तिकता की समूची विचित्रताओं को चित्रित करने के लिए अपनी लेखनी को स्वच्छन्द छोड़ देता है।

इसे किसी भी प्रकार का दंभ नहीं मानना चाहिए। अपने बारे में, या अपने व्यक्तित्व के बारे में इतनी सजगता कभी-कभी पाठकों को अहम्मन्यता-सी लग सकती है। अलेक्जेंडर स्मिथ ने इसी का उत्तर देते हुए कहा था-अपने आत्मके बारे में बातें करना कोई जरूरी नहीं कि अहंकार ही मान लिया जाय। एक सही, सामान्य और सच्चा इंसान दुनिया की तमाम बातों की अपेक्षा अपने बारे में कहीं ज्यादा ईमानदारी से कुछ कह सकता है, इसीलिए कम-से-कम ईमानदार बातें जानने की दृष्टि से, पाठक निबंधकार से बहुत कुछ उपलब्ध भी कर सकता है।’14

क्या पूर्णसिंह के निबन्धों में एक जीवन्त सदाचारपूर्ण उच्च विचार और सादे रहन-सहन के गृहस्थचिन्तक के दर्शन नहीं होते? क्या रामचन्द्र शुक्ल के साथ बैठने पर साहित्य जगत की बारीकियों से जूझनेवाले एक खांटी आचार्य का भारी-भरकम गंभीर व्यक्तित्व अपनी छाप नहीं छोड़ता। क्या हजारीप्रसाद द्विवेदी का व्यक्तित्व अपनी आत्मीयता के द्वारा अतीत और भविष्य के बीच एक विश्वसनीय सेतु नहीं बनता ? उसी प्रकार क्या महादेवी की सरल गंभीरता, शियारामशरण की निश्छल मानवीयता, माचवे, हरिशंकर परसाई, के चुभते हुए व्यंग्य, विद्यानिवास मिश्र, भारती और कुबेरनाथ राय के सांस्कृतिक भावजगत की रसमयता पाठकों को आकृष्ट नहीं करती ? यद्यपि ये सभी-के-सभी शुद्ध व्यक्तिव्यंजक निबंधकार नहीं हैं; पर इनकी रचनाओं में इनका अलग-अलग व्यक्तित्व पूरी तरह प्रस्फुटित होता है, इसमें संदेह नहीं।15
                                                                                                             
व्यक्तिव्यंजक निबंधकार बड़े महत्व के गुरु-गंभीर विषय नहीं चुनता। अति समान्य दैनंदिन जीवन के बीच से वह कोई भी विषय चुन लेता है। उसकी सिद्धि इस बात में है कि वह अति सामान्य-से-सामान्य विषय के माध्यम से ही अपने व्यक्तित्व के भीतर से ऐसे दृष्टिकोण उभार देता है कि पाठक को अनायास लगता है कि बातें तो सब जानी-पहिचानी ही हैं; पर उसने इन पर इस ढंग से नहीं सोचा था। यही मौलिकता की एकमात्र परख है।जैसाकि विलियम हेजलिट, ने लिखा है कि-निबंधकार का कार्य यह दिखाना नहीं जो कभी हुआ नहीं, न तो उसका प्रस्तुतीकरण जिसका हमने सपना भी नहीं देखा बल्कि वह दिखाना जो रोज हमारी आंखों के आगे से गुजरता है और जिसके बारे में हम ख्याल भी नहीं कर सकते, क्योंकि हमारे पास वह अंतर्ज्ञान नहीं होता या बुद्धि की वह पकड़ नहीं होती जो इन्हें संभाल सके।’16

व्यक्तिव्यंजक निबंधकार अपनी रचनाओं में अपनी विशिष्ट, व्यक्तिगत रुचि (कभी-कभी जिद की हद तक) को महत्व देता है। वह हास्यविनोद, व्यंग्य, हल्की चुटकियों को अपना शस्त्र मानता है। किंतु उसका व्यंग्य-विनोद कभी अभद्रता को प्रश्रय नहीं देता। वह अपने और पाठक के बीच एक परस्परस्पर्धि विश्वसनीयता और निकटता हमेशा कायम रखता है। हेरल्ड जी मरियम ने शिप्ले साहित्यकोष में निबंधों की विशेषता बताते हुए लिखा है-व्यक्तिव्यंजक निबंधों में व्यक्तिगत अनुभूतियों की उतनी ही प्रधानता होती है जितनी तथ्यात्मक ज्ञान की, किंतु उसका लक्ष्य सही निष्कर्षों, रुचि और मौलिकता की अभिव्यक्ति पर केंद्रित होता है।रुचि और मौलिकता का आग्रह और पदार्थों को नितांत व्यक्तिगत दृष्टि से देखने की प्रवृत्ति ललित निबंधों को लघुकथा या कहानी के निकट ले जाती है। सन् 1950 के आसपास से हिंदी में जिस नयी कहानी का जन्म हुआ, उसने पुराने किस्सागो ढंग के ढांचों को तोड़ दिया। उन दिनों दादी मां,’ ‘गुलरा के बाबा’, ‘देउदादा,’ ‘देवा की मांजैसी रेखाचित्रात्मक संस्मरण-बहुल बहुत-सी कहानियां लिखी गयीं। आलोचकों ने इन ताजी कहानियों की सराहना तो की; पर इस आरोप के साथ कि ये कहानियां नहीं रेखाचित्र हैं।  

इस तरह की स्थिति का मूल रहस्य क्या है ? वस्तुतः ललित निबंध और कहानी के बीच कलेवर और अभिव्यक्ति के कौशलों की इतनी समानता है कि दोनों को अलगाना बहुत सूक्ष्म विश्लेषण की दरकार रखता है । दोनों ही विधाओं की निकटता को क्रिस्टोफर मॉर्ले ने सीमासंधि कहकर व्यक्त किया है। अपनी पुस्तक मॉडर्न एसे की भूमिका में उन्होंने लिखा-निबंध कोई विधा नहीं, सिर्फ मनःस्थिति है। निबंध और कहानी के बीच की सीमा अविभाज्य और अविश्लेष्य है। मैपन और डिक्सन सीमारेखा की तरह। सच तो यह है कि इन दोनों राज्यों की सीमा के परे वाले हिस्सों में कुछ ऐसे उर्वर भूमिखंड हैं जिनमें समान भाव से गद्यकथा की बेहतरीन उपज होती है; जिनमें अनुभव, चरित्र और वातावरण की प्रधानता है, कथावस्तु और कार्य की नहीं। ये कथात्मक फल निबंधकार की मनःस्थिति की धूप में निरंतर पकते रहे हैं।

इतना होते हुए भी कहानी और ललित निबंधों के बीच की एकरूपता कितनी भ्रामक है। निबंधकार अपनी मनःस्थिति के अनुसार जहां चाहे वहीं विरम रहने की स्वतंत्रता का नाजायज फायदा उठा सकता है; पर कहानीकार को एक बार चरित्रों और घटनाओं के बीच तालमेल बैठाकर यात्रा शुरू करने पर मंजिल तक पहुंचना ही होगा। वह कहानी को निरुद्येश्य भटकने के लिए नहीं छोड़ सकता। उसे बीच में रुकने की फुर्सत नहीं होती। निबंधकार पर ऐसा कोई बंधन नहीं होता, वह अपने ठहराव का भी एक क्षणिक उद्येश्य खोज लेने के लिए स्वतंत्र होता है।17

और फिर दोनों के ट्रीटमेंटया तरीके में भी कितना अंतर होता है ? कहानीकार को पाठक सुनता है, निबंधकार के साथ वार्तालाप करता है। कहानीकार के सामने पाठक अदृश्य होता है, निबंधकार के लिए हमेशा सामने बैठा हुआ। कहानी ही की तरह गीत की विधा भी निबंध के बहुत नजदीक पड़ती है। अभिव्यक्ति की अन्विति और एकाग्रता की दृष्टि से ही। वैसे गीत को छन्दों का बंधन काफी तीव्र और गत्वर बनाये रहता है। कहना न होगा कि वस्तु और ट्रीटमेंटकी दृष्टि से निबंध कई-कई रूप ग्रहण करता है। व्यक्ति या प्राकृतिक दृश्य के अंतःबाहय को चित्रांकित करने के प्रयत्न में वह रेखाचित्र बनता है। जिस तरह चित्रकला में रेखाचित्र कम से कम रेखाओं के द्वारा व्यक्ति या पदार्थ के आंतरिक छंद को अभिव्यक्त करने का कौशल है, उसी प्रकार निबंधों के क्षेत्र में भी। अंतर सिर्फ यह है कि एक में साधन और माध्यम रेखाएं होती हैं दूसरे में शब्द। इसीलिए बहुत-से लोग इसे शब्दचित्र कहना ज्यादा सही मानते हैं। हिंदी में महादेवी वर्मा के रेखाचित्रों में चित्रकार की दक्षता और निबंधकार की मनःस्थिति का बहुत ही सुंदर समन्वय दिखाई पड़ता है। जिस तरह रेखाचित्र, चित्रकला जगत का शब्द है उसी प्रकार रिपोर्ताज पत्रकारिता जगत का। पत्रकार की रिपोर्ट और साहित्यकार के रिपोर्ताज के बीच के फ्रंटियर्सभी अविभाज्य ही हैं।18 

संस्मरण ललित निबंध का एक बहुत ही लोकप्रिय प्रकार है। बीते काल और घटना को बार-बार दुहराकर न सिर्फ मनुष्य संतोष पाता है बल्कि वह अपने वातावरण में घटित समसामयिकता की अतीत के चित्रों से तुलना करके अपने को जांचता-बदलता भी रहता है। संस्मरणात्मक निबंध मुख्यतया महान व्यक्तियों की सन्निधि में अपने को तथा समाज को रखकर देखने की नयी दृष्टि देते हैं।

संसार की हर बात और सब बातों से संबद्ध है। अपने मानसिक संघटन के अनुसार किसी का मन किसी संबंधसूत्र पर दौड़ता है, किसी का किसी पर। ये संबंधसूत्र एक दूसरे से नथे हुए, पत्तों की नसों के समान चारों ओर एक जाल के रूप में फैले हैं। तत्त्वचिंतक या दार्शनिक केवल अपने व्यापक सिद्धांतों के प्रतिपादन के लिये उपयोगी कुछ संबंधसूत्रों को पकड़कर किसी ओर सीधा चलता है और बीच के ब्यौरे में कहीं नहीं फंसता। निबंध लेखक अपने मन की प्रकृति के अनुसार स्वच्छंद गति से इधर उधर फूटी हुई सूत्रशाखाओं पर विचरता चलता है। यही उसकी अर्थसंबंधी व्यक्तिगत विषेशता है। अर्थसंबंधसूत्र की टेढ़ी टेढ़ी रेखाएं ही भिन्न भिन्न लेखकों का दृष्टिपथ निर्दिष्ट करती हैं। एक ही बात को लेकर किसी का मन किसी संबंधसूत्र पर दौड़ता है, किसी का किसी पर। इसी का नाम है एक ही बात को भिन्न-भिन्न दृष्टियों से देखना। व्यक्तिगत विशषता का मूल आधार यही है।19   

तत्वचिंतक या वैज्ञानिक से निबंधलेखक की भिन्नता इस बात से भी है कि निबंधलेखक जिधर चलता है उधर अपनी संपूर्ण मानसिक सत्ता के साथ अर्थात बुद्धि और भावात्मक हृदय दोनों लिए हुए। जो करुण प्रकृति हैं उनका मन किसी बात को लेकर, अर्थ संबंध सूत्र पकड़े हुए, करुण स्थलों की ओर झुकता है और गंभीर वेदना का अनुभव करता चलता है। जो विनोदशील हैं उनकी दृष्टि उसी बात को लेकर ऐसे पक्षों की ओर दौड़ती है जिन्हें सामने पाकर कोई हंसे बिना नहीं रह सकता है। इसी प्रकार कुछ बातों के संबंध में लोगों की बंधी हुई धारणाओं के विपरीत चलने में जिस लेखक को आनंद मिलेगा वह उन बातों के ऐसे पक्षों पर वैचित्र्य के साथ विचरेगा जो उन धारणाओं को व्यर्थ या अपूर्ण सिद्ध करते दिखाई देंगे। उदाहरण के लिये आलसियों और लोभियों को लीजिए, जिन्हें दुनिया बुरी कहती चली आ रही है। कोई लेखक अपने निबंध में उनके अनेक गुणों को विनोदपूर्वक सामने रखता हुआ उनकी प्रशंसा का वैचित्र्यपूर्ण आनंद ले और दे सकता है। इसी प्रकार वस्तु के नाना सूक्ष्म ब्यौरों पर दृष्टि गड़ानेवाला लेखक किसी छोटी से छोटी तुच्छ से तुच्छ बात को गंभीर विषय का रूप देकर, पांडित्यपूर्ण भाषा की पूरी नकल करता हुआ सामने रख सकता है। पर सब अवस्थाओं में कोई बात अवश्य चाहिए।20    

संदर्भ एवं टिप्पणियां:

1. नासिक गुहा लेख में वर्णन मिलता है कि दान की घोषणा कर तथा लेखन कार्य संपन्न होने के पश्चात् ताम्रपत्र (फलक) को निगम सभा को रजिस्ट्री (निबंध) कर वहीं कार्यालय (फलकवार) में सुरक्षित रखा जाता था ताकि भविष्य में उसी लिखित नियम का पालन हो सके। उल्लेख पठनीय हैः-एत च सर्वं स्रावित निगम सभाय निबंध च फलकवारे चरित्रतोति। भूयोनेन दत्तं वसे 40 जोड़ 1 कार्तिक शूधेपनरसपुवाक वसे 40 जोड़ 5 स्रावितं...फलकवारे चरित्रतो ति। (एपिग्राफिका इण्डिका, भाग 8, पृष्ठ 82)। दान लिखकर राजकीय कार्यालय (फलकवार) में सुरक्षित रखा जाता था यानी रजिस्ट्री (निबंध) किया जाता था। देखें, डा. वासुदेव उपाध्याय, प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, प्रज्ञा प्रकाशन, पटना, पृष्ठ 213.
2. निबध्यतेऽनेनास्मिन्वा (अमरकोष 1.7.7)
3. ‘प्रत्यक्षरष्लेशमयप्रबन्धविन्यास वैदग्ध्यनिधिर्निबंधं चक्रे’ (वासवदत्ता-5)
4. डा. शिवप्रसाद सिंह (संपादक) हिन्दी निबन्ध, हिन्दी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, तृतीय संस्करण, 1983, पृष्ठ-2.                               
5. केसरी कुमार (संपादक) ललित निबंध, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, छठा संस्करण, 1977, पृष्ठ-152.
6. अंग्रेजी का एसे शब्द फ्रेंच एसाइ से बना है। एसाइ का अर्थ होता है- 'to attempt' अर्थात् प्रयास करना। निबंध में निबंधकार अपने सहज, स्वाभाविक रूप को पाठक के सामने प्रकट करता है। आत्मप्रकाशन ही निबंध का प्रथम और अंतिम लक्ष्य है। देखें, डा. वासुदेवनंदन प्रसाद, आधुनिक हिन्दी व्याकरण और रचना, भारती भवन, पुनरीक्षित सोलहवां संस्करण, 1983, पृष्ठ 315
7- A loose sally of the mind, an irregular, undigested piece, not a regular and orderly              
   Performance.
8- As a form of literature, the essay is a composition, which deals in a easy, cursory way
   With the external condition of a subject and in strictness, with that subject as it affects
  the writer.
9- I desire their in to be delineated in mine own genuine simple and ordinary fashion, without contention, art, or study, for it is myself I portray.     
10. डा. शिवप्रसाद सिंह, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-3।  
11. केसरी कुमार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-154
12. ‘व्यक्तिगत विशेषता का यह मतलब नहीं कि उसके प्रदर्शन के लिये विचारों की शृंखला रखी ही न जाय या जान बूझकर जगह-जगह से तोड़ दी जाय, भावों की विचित्रता दिखाने के लिये ऐसी अर्थयोजना की जाय जो उनकी अनुभूति के प्रकृत या लोकसामान्य स्वरूप से कोई संबंध ही न रखे अथवा भाषा से सरकसवालों की सी कसरतें या हठयोगियों के से आसन कराए जायँ जिनका लक्ष्य तमासा दिखाने के सिवा और कुछ न हो।देखें, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, पेपरबैक संस्मरण, प्रथम, संवत् 2058, पृष्ठ-276.
13. मराठी में व्यक्तिगत निबंधके लिए ललित निबंधका प्रयोग चल पड़ा है। प्रो. फड़के का नवें लेंणे ऐसे ही ललित निबंधोंका प्रसिद्ध संग्रह है। देखें, केसरी कुमार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-152.
14. प्रेम जनमेजय, ‘हिंदी व्यंग्य की यात्रा-कथा’, नवनीत, मार्च, 2009, पृष्ठ-11.
15. हडसन, ऐन आउटलाइन हिस्ट्री ऑफ इंग्लिश लिटरेचर, प्रथम भारतीय संस्करण, बी आई पब्लिकेशंस, नयी दिल्ली, 1961, पुनर्मुद्रण, 1989, पृष्ठ-208, 213-14.
16. डा. नगेन्द्र (संपादक), हिंदी साहित्य का इतिहास, मयूर पेपरबैक्स, चौंतीसवां संस्करण, नोएडा, 2007, पृष्ठ-606.
17. शिवप्रसाद सिंह, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-4.
18. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ-276.
19. वही।
20. रामविलास शर्मा, भारतेंदु-युग और हिन्दी भाषा की विकास-परंपरा, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 1975, नयी दिल्ली, पृष्ठ-70.

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