Friday, September 24, 2010

नालंदा: एक नई दृष्टि

न सिर्फ बिहार और भारत बल्कि संपूर्ण विश्व के बौद्ध धर्म के इतिहास में नालंदा का अपना एक खास महत्व है। यह बिहारशरीफ से लगभग 7 मील दक्षिण-पश्चिम में है। उत्तर में इतनी ही दूरी राजगीर से है। इतिहासकार बुकानन ने इस ऐतिहासिक स्थल को सरकारी अधिकारियों के कार्यालय एवं उनके आवासीय गृह के रूप में देखा है। जैन एवं बौद्ध ग्रंथों में इसे बाहिरिका की संज्ञा दी गई है जिसका मतलब यह होता है कि यह राजगीर की बाहरी सीमा मे पड़ता था, तथा राजगीर की तुलना में कम महत्वपूर्ण भी था। इसका कारण यह था कि राजगीर उन दिनों धर्म एवं शासन का केन्द्र था जबकि नालंदा की शोहरत लगभग पूर्व मध्यकाल में एक प्रमुख शिक्षा केन्द्र के रूप में पूरी दुनिया में फैलती है।

प्रारंभिक बौद्ध साहित्य में नालंदा के लिए नल, नालक, नालकरग्राम आदि नाम आते हैं, और यहां बुद्ध के प्रमुख अनुयायी सारिपुत्त की जन्मभूमि होने का धुंधला साक्ष्य भी प्राप्त होता है। कहना न होगा कि इन नामवाले स्थलों की चर्चा महाकाव्यों एवं पुराणों में नहीं है, जबकि महाभारत  में राजगीर का उल्लेख अक्सर होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि नालंदा के अभ्युदय में राजगीर बाधा उपस्थित कर रहा था। चूंकि नालंदा, राजगीर से काफी सटा था, और राजगीर अपने विकास के चरमोत्कर्ष पर था, इसलिए उसके समानांतर नालंदा की अपनी कोई पहचान कायम न हो सकी। जैसे ही राजगीर का पतन प्रारंभ होता है, नालंदा की प्रगति शुरू हो जाती है। बहुत दिनों बाद तक, जबकि राजगीर की ख्याति धूल में मिल चुकी थी, नालंदा अपने पूरे यौवन में होता है। मौर्य वंश का महान शासक अशोक ने नालंदा में ऐ चैत्य एवं स्तूप निर्मित कराया था। तिब्बती इतिहासकार तारानाथ ने लिखा था, ‘महायान बौद्ध का प्रख्यात दार्शनिक नागार्जुन दूसरी शती में नालंदा का विद्यार्थी रहा था, तथा जिसे बाद में वहां का प्रधान भिक्खु भी नियुक्त किया गया था।’ खुदाइयों से हमें जो साक्ष्य प्राप्त हुए हैं, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि नालंदा, जो कि बाद में एक प्रमुख शिक्षा केन्द्र के रूप में पूरी दुनिया में मशहूर हुआ, की स्थापना पांचवीं शताब्दी में कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में हुई।

इतिहासकार दामोदर धर्मानंद  कोसांबी ने लिखा है कि नालंदा का अभ्युदय नाग-पूजा स्थलों से हुआ है। कभी-कभी विशेष अवसरों पर भिक्षुओं से भोजन प्राप्त करने के लिए आदिम नाग दयालु सर्प के रूप में प्रकट होता था। बौद्ध कथाओं में भी सर्पनाग के बारे में जानकारी मिलती है। बुद्ध ने आदिवासी नागों को अपने धर्म में दीक्षित किया था, विषैले सर्प को अधिकार में किया था। मुचलिंद नामक दैवी नाग ने प्रकृति के प्रकोप से उसकी रक्षा की थी, और वह अपने पूर्वजन्म में एक उभयरूप साहिवक नाग भी था। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि नालंदा का बौद्ध केन्द्र के रूप में विकास धीरे-धीरे तथा नाग कबीले के लोगों के व्यापक धर्मांतरण के कारण हुआ था। कृषि के व्यापक प्रसार के फलस्वरूप नाग जैसी आदिम कबीलाई जातियां समय के परिवर्तन से अपने को बचा नहीं सकीं।

नाग का दूसरा नाम तक्षक है जिसका शाब्दिक अर्थ बढ़ई लकड़ी का सामान बनाने वाला कलाकार  होता है। यह तक्षक एक बेहतर कलाकार था। तक्षशिला संकेत करता था। नाग जाति को आर्य संस्कृति की परिधि से बाहर रखा गया है । शाक्य, जिससे गौतम बु़द्ध का जन्म का संबंध है, का पड़ोसी कबीला कोलिया है। आर्य संस्कृति से प्रभावित दिखता है। शाक्य एवं कोलिया के बीच जल वितरण को लेकर एकबार झगड़ा हुआ था जिसमें शाक्यों ने युद्ध की अनार्य पद्धति  का सहारा लिया था। पालि ग्रंथों में जैसा कि इस बात का उल्लेख है, शाक्यों ने जल को विषैला बनाकर शत्रुओं को मारने के लिए अनार्य पद्धति अपनायी थी। महाभारत में नागों के रूप में चर्चित है। पांचाल  कन्या द्रौपदी की पाच पतियों के साथ शादी अनार्यों की सामान्य एवं सर्वेमान्य परंपरा को ही रेखांकित करती है। पांडवों की राजधानी हस्तिनापुर है। हस्तिनापुर नागों के शहर का पर्याय है। नाग शब्द का प्रयोग हाथियों के लिए भी किया जाता है क्योंकि उसकी सूड़ॅ ठीक सॉप की आकृति की होती है । श्रेष्ठ चरित्र वाले लोगों को भी नाग की संज्ञा से विभूषित किया जाता है। बौद्ध ग्रंथ  में अक्सर श्रेष्ठजनों को लाग कहकर पुकारा गया है । ग्यारहवीं शताब्दी के अभिलेखों  से इस बात का खुलासा होता है कि नाग कुल से सरोकार रखना राजाओं के लिए भी शान और मर्यादा की बात मानी जाती थी।

नाग जाति के संघर्ष में इन तथ्यों के अध्ययन से इस बात का स्पष्ट पता चल जाता है कि नालंदा में अनार्यों का वर्चस्व था और वे आर्य संस्कृति से अलग एवं उसके समानांतर नाग कबीलों की संस्कृति थी जिसका मूल आधार व्यापार एवं दस्तकारी था। वेदों की सत्ता के विरुद्ध वे जीवन की अनार्य धारणाओं में विश्वास रखते थे। आर्यों के विपरीत उनमें भौतिकवादी दर्शन - पद्धति  का ज्यादा विकास हो सका था। कला के क्षेत्र में उनकी दक्षता इस बात का पुष्ट प्रमाण है मगध क्षेत्र में बौद्ध धर्म के प्रचार का यह भी एक कारण था कि यहां की जनजातियों मे भौतिकवादी नजरिये का विकास हो चुका था। कहना न होगा कि मगध प्राचीन काल में अतिवादी भौतिकवाद का गढ़ रहा है। आर्य संस्कृति के संपर्क में आने से, इनके जीवन के तौर -तरीकों  से नाग जातियां  प्रभावित हुई । नालंदा के बारे में कोसाम्बी की यह धारणा कि उसका विकास नाग-पूजा स्थलों से हुआ है, सही  प्रतीत होता है। कहा जा सकता है कि नालंदा का बौद्ध धर्म के केन्द्र के रूप में उभार आर्य एवं अनार्य जातियों के बीच सम्मिलन एवं आत्मसातीकरण की चलने वाली लंबी प्रक्रिया का फल है। यही कारण है कि नालंदा को अपनी ऐतिहासिक भूमिका पूरी करने में अच्छा खासा समय का इंतजार करना पड़ा । बौद्ध धर्म ने अनार्य जातियों को प्रभावित करने में अच्छा समय लिया।

गुप्तकाल से नालंदा की ख्याति शुरू होती है। ह्वेनसांग  ने लिखा है कि शक्रादित्य नामक शासक ने बहुत ही उपयुक्त जगह चुनकर संघाराम बनवाया था। उसकी देखा देखी अनेक शासकों ने नालंदा की समृद्धि में अपना योगदान दिया। हर्षवर्द्धन के शासनकाल में नालंदा अपने विकास की ऊंचाई  प्राप्त कर चुका था। ह्वेनसांग ने लिखा है कि हर्षवर्धन ने लगभग 100 ग्राम नालंदा के बौद्ध विहारों तथा भिक्षुओं के भरण-पोषण के लिए दान दिया था। ह्वेनसांग जिन दिनों नालंदा की यात्रा पर थे, उन्हीं दिनों हर्षवर्द्धन ने नालंदा में पीतल का संघाराम बनवाने का काम शुरू किया था। बौद्ध धर्म-शिक्षा के केन्द्र के रूप में उदित होकर नालंदा ने महत् सेवा की है। बौद्ध संघाराम इतने सुनियोजित तरीके से बनाये गये थे कि हर्षवर्द्धन के शासनकाल में जो राजनीतिक उठा-पटक हुई उसका इस पर असर लगभग न के बराबर देखने को मिलता है। एक दूसरा चीनी यात्री इत्सिंग जो 673 ई. के आसपास भारत आया, नालंदा में रहकर बौद्ध धर्म से संबंधित पुस्तकों का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया। इत्सिंग के काल में नालंदा के भिक्षुओं के भरण-पोषण के लिए लगभग 200 ग्राम थे।

8वीं से 12वीं शताब्दी तक पाल शासकों ने जिनका बंगाल एवं बिहार पर समान रूप से शासन था-नालंदा को काफी हद तक समृद्ध किया । इन शासकों में देवपाल ,महापाल प्रथम एवं गोपाल द्वितीय के नाम प्रमुख हैं। देवपाल के शासनकाल में नालंदा ने कुछ विदेशी शासकों का भी ध्यान अपनी तरफ आकृष्ट किया। देवपाल द्वितीय ने विक्रमशिला  में दूसरा बिहार बनवाकर अप्रत्यक्ष रूप से नालंदा की छवि को थोड़ा धूमिल किया। लेकिन नालंदा की प्रसिद्धि पर इसका कोई बुरा असर नहीं देखा गया। भारत में, जबकि अधिकतर जगहों पर बौद्ध धर्म लुप्त प्राय हो रहा था, नालंदा की समृद्धि लगातार बढ़ती ही जा रही थी। इसी समृद्धि ने बाद में नालंदा के अस्तित्व के लिए खतरा भी उपस्थित किया।

विभिन्न शासकों द्वारा नालंदा को जो भूमिदान दिए गए उसने ऐसी प्रक्रिया को जन्म दिया जिसके फलस्वरूप् नालंदा का विकास यूरोप के मध्यकालीन मठों की तर्ज पर हुआ। यहां के बौद्ध भिक्षु स्वयं खेती न करके दूसरे किसानों को जमीन सौंप देते थे। उपलब्ध साक्ष्यों से इस बात का स्पष्टीकरण अभी तक नहीं हो पाया है कि नालंदा के भिक्षु हल-बैल रखते थे या नहीं। ऐसा प्रतीत होता है कि किसानों को सारी भूमि सौंपकर उपज का छठा भाग वसूल कर लेते थे। उपज का छठा भाग लेने की राजकीय परंपरा का निर्वाह बौद्ध भिक्षु भी कर रहे थे। राज्य को इन्हें कोई कर देना नहीं पड़ता था। इस प्रकार बौद्ध विहारों एवं मठों को भूमिदान देने की परंपरा ने अर्थव्यवस्था के सामंती ढांचे को मजबूत किया। इन बौद्ध विहारों में अत्यधिक धन एकत्रित हो जाने से विदेशी आक्रमणकारियों का ध्यान इसकी तरफ आकर्षित हुआ।

चीनी यात्री ह्वेनसांग संस्कृत और भारतीय बौद्ध धर्म का विशिष्ट अध्ययन करने के लिए 630 ई. के तुरंत बाद नालंदा विहार के विद्यापीठ में पहुंचा। सम्मानित विदेशी विद्वान होने के नाते नालंदा विहार के प्रमुख आचार्य शीलभद्र ने उसका स्वागत किया। एक चीनी जीवनीकार ने ह्वेनसांग के बारे में लिखा है, ‘उन्हें राजा बालादित्य के प्रकोष्ठ में बुद्धभद्र के भवन की चौथी मंजिल पर ठहराया गया। सात दिन तक अतिथि सत्कार करने के बाद धर्मपाल बोधिसत्व के भवन के उत्तर में एक अतिथि गृह में उन्हें जगह दी गई। एक सेवक, एक ब्राह्मण उनकी परिचर्या के लिए नियुक्त था। विहार के सामान्य कार्य से उन्हें छूट मिली हुई थी; और बाहर निकलने पर सवारी के रूप् में उन्हें हाथी मिलता था। नालंदा विद्यापीठ में कुल मिलाकर दस हजार आतिथेय व अतिथि भिक्षुक थे, पर केवल दस व्यक्तियों को ही, जिनमें ह्वेनसांग भी एक थे, ये सुविधाएं प्राप्त थीं।’

स्वयं नालंदा विहार के बारे में जीवनीकार ने लिखा है, ‘ एक बाद एक छह राजाओं ने छह विहार बनवाये। फिर ईंटों का एक बाड़ा बनाया गया। इस प्रकार सभी भवनों को मिलाकर एक बड़ा विहार बन गया, जिसमें सबके लिए एक प्रवेश द्वार था। उद्यानों में नीले रंग की धाराएं बहती थीं, चंदन के वृक्षों की बहार के बीच हरे कमल चमकते थे, भारत में हजारों विहार हैं पर वैभव व भव्यता में नालंदा बेजोड़ हैं। यहां के भिक्षु  महायान और हीनयान की 18 शाखाओं के सिद्धांतों का अध्ययन करते थे। वे व्याकरण, चिकित्साशास्त्र, गणितशास्त्र आदि का भी  अध्ययन करते थे । निर्वाह के लिए राजा की ओर से उन्हें 100 ग्रामों का राजस्व मिला हुआ था और प्रत्येक गॉव में उन्हें प्रतिदिन कई सौंतान् चावल धी और दूध लाकर देते थे। इसी अनुदान के कारण वे विद्या के क्षेत्र में आगे बढ़ गये है।’’

नालंदा के ध्वंसावशेषों से भी सिद्ध होता है कि इस विवरण में कोई अतिशयोक्ति नहीं है, यद्यपि पुरातत्ववेता अभी एक भी विहार के क्रमिक विकास का सुनिश्चित ब्योरा नहीं प्रस्तुत कर पाये हैं। स्पष्टतः यह बौद्ध धर्म से कोसों दूर था जिसका ईसा पूर्व छठी शताब्दी में इसके संस्थापक ने मगध में  प्रतिपादन किया था। ऐसे तपस्वी भिक्षु अभी भी थे जो नंगे पैर यात्रा करते, खुले में सोते, बचे-खुचे अन्न की भिक्षा ग्रहण करके उदर निर्वाह करते और लोकभाषा में ग्रामवासियों या आटविकों को उपदेश देते। परंतु इनके संख्या और प्रतिष्ठा कम थी। भिक्षु के लिए निर्धारित चीथड़ों से सिले हुए वस्त्रों के स्थान पर अब कीमती केसरिया रंग में रंगे बढिया सूती कपड़े, उत्तम ऊन अथवा विदेशी रेशमी के सुरुचिपूर्ण वस्त्रों का इस्तेमाल होता है। लगता है कि यदि स्वयं बुद्ध जो अपनी अंतिम पार्थिव यात्रा के दौरान नालंदा ग्राम से गुजरे थे इस भव्य संस्थान में जो उनके नाम पर चलता था, पहुचते तो उनकी खिल्ली उड़ायी जाती और उन्हें निकाल दिया जाता। बुद्ध ने ऐसे चमत्कारों की हंसी उड़ायी थी, पर अब ये उस धर्म के अभिन्न अंग बन गये थे और बुद्ध के अलौकिक चमत्कारों की कथाएं भी फैल चुकी थीं।  

प्रकाशन: बिहार: स्थानीय इतिहास एवं परंपराजानकी प्रकाशन, पटना 1998, पृष्ठ 102-06।

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