Monday, September 20, 2010

ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष: बदलते संदर्भ ( 600 ई .पू. से 200 ई. पू. तक)

उत्तर वैदिक काल में जब बाह्य संघर्ष का अंत हुआ, अंतः-संघर्ष का आरंभ हुआ। कृषि और लूट, विजय और वाणिज्य से समाज में अर्थ और संपत्ति का संचय हो चला था, उनके अर्जन और शोषण के केंद्र बन चुके थे और इन केंद्रों पर अधिकार जमाने के लिए ब्राह्मणों और क्षत्रियों के वर्ग (वर्णों के आधार आर्थिक पेशे थे) आपस में परस्पर टकराने लगे।1  ब्राह्मण-गथों के शीघ्र ही बाद उपनिषदों  के उत्तर में उन्हीं के समय-स्तर में कुछ ब्राह्मण दर्शनों का भी ग्रंथन होने लगा था। ब्राह्मणों की भी यह देखने-दिखाने की प्रवृत्ति हो चली थी कि वे क्षत्रियों से शस्त्र-शास्त्र किसी क्षेत्र में कम नहीं हैं।2

कहना होगा कि ब्राह्मण और क्षत्रिय क्रमशः वैदिक समाज के उच्च वर्गों के रूप में प्रतिष्ठापित थे। यज्ञ, मंत्र, प्रार्थना आदि कार्यों में संलग्न वर्ग ब्राह्मण के अंतर्गत स्वीकार किया गया है। उसे सोम-पान करनेवाला तथा वार्षिक यज्ञ में मंत्र-पाठ करनेवाला कहा गया है।3 वह विद्वान, मनीषी और वाक्परिमिता है।4 दूसरी ओर क्षत्रिय को योद्धा, राजा और तीन वर्णों की रक्षा करनेवाला बताया गया है। ऐतरेय ब्राह्मण के एक प्रसंग में उल्लिखित है कि जब राजा को मुकुट पहनाया जाता था तो यह समझा जाता था कि सभी जीवों का स्वामी तथा ब्राह्मणों का रक्षक क्षत्रिय उत्पन्न हुआ।5  शतपथ ब्राह्मण  में भी यह उल्लेख है कि ये दोनों अभिजन समूह मनुष्यों में श्रेष्ठ हैं। अतः इनके आपसी सहयोग और परस्पर से ही राजनीतिक और सामाजिक सुव्यवस्था कायम रह सकती है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार दोनों वर्ण एक-दूसरे के कार्य को संपन्न करने में सहायता प्रदान करते थे।6

ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों के परस्पर सहयोग के कई उदाहरण वैदिक साहित्य में उपलब्ध हैं। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार क्षत्रिय तथा पुरोहित सर्वोच्च सामाजिक स्थिति को प्राप्त कर सकता है। इसके अतिरिक्त ब्राह्मण की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि ब्राह्मण बिना राजा के रह सकता है, किंतु एक राजा बिना ब्राह्मण के नहीं रह सकता।7  तैत्तिरीय ब्राह्मण के अनुसार, देवताओं को भी पुरोहित की आवश्यकता होती थी। उदाहरणस्वरूप, विश्वरूप (त्वस्त्र का पुत्र) देवताओं का पुरोहित था8 और सान्द तथा अमरक असुरों के पुरोहित के रूप में वर्णित हैं।9 इन्द्र का भी पुरोहित के रूप में उल्लेख है। पुरोहित बहुधा राजा के प्रति शुभकामना व्यक्त किया करते थे। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार पुरोहित क्षत्रिय की आत्मा का आधा अंग होता था।10 पुरोहितों का गुणगान करता एक प्रसंग हमें उपलब्ध है कि ‘देवता उस राजा द्वारा दिया गया भोज्य पदार्थ ग्रहण नहीं कर सकता जिस राजा का कोई पुरोहित न हो या पुरोहितों के अभाव में राजा किसी यज्ञ का संपादन नहीं कर सकता था।11 अतः ब्राह्मण और राजन्य का सहयोग देश-समाज की रक्षा एवं सुव्यवस्था के लिए अत्यावश्यक था।

ये सारे ही तथ्य इस बात के प्रमाण हैं कि क्षत्रियों की अपेक्षा ब्राह्मण ही उच्च सामाजिक स्थिति के अधिकारी थे। परंतु कभी-कभी क्षत्रियों को भी सामाजिक सर्वोच्चता तथा ब्राह्मणों द्वारा विशेष समादार प्राप्त करने का विवरण उपलब्ध होता है। शतपथ ब्राह्मण का एक उद्धरण इस बात की ओर संकेत करता है कि क्षत्रियों के बाद ही ब्राह्मणों को सम्मान प्राप्त होता था। अर्थात् यहां सम्मान एवं सामाजिक स्थिति के क्रम में पहले क्षत्रिय को रखा गया है, तत्पश्चात् ब्राह्मणों को।12 इस प्रसंग में यह वर्णन है कि सभी लोगों के बीच राजा सर्वोच्च स्थान ग्रहण करता था। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार राजा के समक्ष सभी लोग जमीन पर बैठते थे।13 ब्राह्मणों को राजसूय यज्ञ के अवसर पर क्षत्रियों के बगल में, उससे नीचे स्थान ग्रहण करने का विवरण भी उपलब्ध है।14 इसी प्रकार यह भी कि क्षत्र के अतिरिक्त कोई भी वस्तु सर्वोच्च नहीं है।15 काठक संहिता में भी यह उल्लिखित है कि क्षत्रिय, ब्राह्मण से श्रेष्ठ है।16 ऐसा प्रतीत होता है कि सामाजिक क्षेत्र में भी क्षत्रियों की स्थिति श्रेष्ठ थी और ब्राह्मण सहित नीचे के अन्य दो वर्ण उसका अनुगमन करते थे।17 तैत्तिरीय ब्राह्मण के अनुसार, यदि राजा चाहे तो ब्राह्मण को भी अपने अधीन कर सकता था।18

साक्ष्यों के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि समाज के ये दोनों ही उच्च वर्ण एक-दूसरे के एकाधिकार को समाप्त करने के प्रयास से सर्वथा मुक्त नहीं थे यद्यपि आपसी सहयोग और एका पर भी अपेक्षित बल था। विशेषतः क्षत्रियों को हम याज्ञिक कृत्यों एवं पौरोहित्य संबंधी कार्यों की ओर अग्रसर हुआ पाते हैं। इस संबंध में विश्वामित्र का, जो क्षत्रिय19 थे, उदाहरण दिया जा सकता है। दूसरी ओर वशिष्ठ, जो ब्राह्मण थे, क्षत्रिय-कर्म से संबद्ध थे।20 विश्वामित्र एवं वशिष्ठ की शत्रुता उल्लेखनीय है। विश्वामित्र क्षत्रिय होते हुए भी एक ऋषि के रूप में वर्णित हैं। इन्हें भरत कुल के कुशिक का पुत्र कहा गया है।21 ये किसी समय सुदास के पुरोहित थे।22 कुछ समय पश्चात् विश्वामित्र उस पद से हट गये और सुदास के शत्रुओं के पक्ष में जा मिले थे और सुदास के विरुद्ध भयंकर आक्रमण में उन्होंने साथ दिया था। विश्वामित्र के पश्चात् वशिष्ठ, सुदास के पुरोहित हुए। विश्वामित्र ने विशेष वाक्-शक्ति प्राप्त की थी और उन्होंने सुदास के परिचरों द्वारा शक्ति का वध करा दिया।23

उत्तर वैदिक काल में लोहे के हथियारों के प्रयोग से सैन्य-सामग्री में एक क्रांति-सी आ गई तथा पुरोहितों की तुलना में योद्धाओं का राजनैतिक महत्त्व बढ़ गया। स्वाभाविक रूप से वे अन्य क्षेत्रों में समानता की स्थिति का दावा करने लगे। अनेक ग्रंथों में ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के हितों के मध्य संघर्ष स्पष्ट है।24 गौतम एवं महावीर की क्षत्रियोत्पत्ति की यह आंशिक रूप से व्याख्या करता है, और इस तथ्य को भी स्पष्ट करता है कि प्राचीन बौद्ध-ग्रंथ वर्ण-क्रम में क्षत्रियों को पहला स्थान तथा ब्राह्मणों को दूसरा क्यों प्रदान करते हैं।25 करों के नियमित भुगतान द्वारा ही क्षत्रिय राजा संपोषित हो सकते थे। बुद्ध के जमाने के बौद्ध तथा ब्राह्मण दोनों ही तरह के ग्रंथ इस आधार पर कृषकों के उत्पाद में राज्य-अंश को उचित ठहराते हैं कि राजा लोगों को संरक्षण प्रदान करता है। परंतु बौद्ध धर्म गृहीत ग्रंथ दीघनिकाय  ऐसा प्राचीनतम भारतीय स्रोत प्रतीत होता है, जो क्षत्रिय शासक वर्ग की उत्पत्ति के लिए तर्कयुक्त औचित्य प्रदान करता है। यह क्षत्रिय शासन की स्थापना द्वारा दुःख की अवस्था के अंत का विस्तृत रूप में चित्रण करता है।26 बौद्ध-काल में उत्तर पूर्वी भारत में व्यक्तियों के आधिक्य के खेतों के रक्षक के रूप में स्पष्टतः क्षत्रिय को प्रस्तुत किया गया है।27 करों का भुगतान कर सकने की योग्यता को बुद्ध द्वारा संपत्ति के पांच फलों में से एक माना गया है।28 यह नियमित करों पर आधारित राजनैतिक व्यवस्था को भी चलाने के लिए आवश्यक था। ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष की यह उत्तर वैदिककालीन आधारभूमि थी।

उत्तर वैदिक काल के आरंभ अथवा वैदिक और उपनिषद् काल की संधि पर जनपदीय राज्यों का उदय हुआ। अब राजा केवल दरिद्र जनराजा न होकर समृद्ध जनपदीय राज्यों का स्वामी था।29 अब विश्वामित्र अथवा देवापि का ऋत्विज होना संभव न था परंतु क्षत्रिय कम समर्थ न थे। उनका जीवन समृद्धि से पूर्ण था। समय का अभाव न था, पेट के लिए इधर-उधर झांकने की जरूरत नहीं रह गई थी। अतः उन्होंने भी अपना ‘ब्राह्मण’ बनाने की ठानी। दर्शन भरे पेट का परिणाम है, चिंतन बेकारी और समृद्धि का मनबहलाव। राजन्यों ने दर्शन की नींव डाली, उपनिषदों की रचना की, जिनके मूल-तत्त्व और भेद उन्होंने अपने पास रखे, जिनके मंत्र उन्होंने अरण्यों के एकांत में सन्निकट बैठे नव-दीक्षितों के कान में कहे।30 समर्थ राजन्य ने इस प्रकार अपने साधनहीन, दरिद्र प्रतिस्पर्धी के ऊपर दार्शनिक विजय पाई।

इस काल में क्षत्रिय वर्ण के सदस्य युद्ध-कौशल एवं प्रशासनिक योग्यता में तो आगे थे ही, दार्शनिक गवेषणा के क्षेत्र में भी अग्रणी भूमिका में आ गये। विदेह शासक जनक,31  प्रवाहण जैबलि,32 अश्वपति कैकेय33  और काशिनरेश अजातशत्रु ऐसे विद्वान शासक थे जिन्होंने विद्या एवं शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व उपलब्धि हासिल की थी। ऐसा भान होता है कि उत्तर वैदिक कालीन क्षत्रियों ने ब्राह्मणों के दार्शनिक पक्ष और तार्किक बुद्धि को समझते हुए समानता की ओर अग्रसर होकर दार्शनिक रहस्यों का अन्वेषण, उद्घाटन एवं उद्भेदन किया। इस आधार पर कुछ क्षत्रिय शासकों ने ब्राह्मणों के आचार्यत्त्व के एकाधिकार को चुनौती दी और अनेक ब्राह्मणों34 को दीक्षा प्रदान की। ब्राह्मण श्वेतकेतु के पिता उद्दालक पांचाल नरेश क्षत्रिय प्रवाहण जैबलि ने स्वयं आसन प्रदान करके उनका सम्मान किया और तदन्तर उन्हें अपना अन्तेवासी बनाकर उसकी जिज्ञासाओं का समाधान किया।35 कैकेय नरेश अश्वपति के यहां कुछ विद्वानों के साथ ब्राह्मण उद्दाक वैश्वानर विद्योपार्जन हेतु गये थे। अश्वपति ने उनका विनय पुरस्सर स्वागत करने के पश्चात् उन्हें उपदेश दिया।36 विदेह शासक जनक क्षत्रिय के निदेशन में अनेक गोष्ठियां आयोजित की जाती थीं जिनमें दार्शनिक विचार-विनिमय किया जाता था।37 काशि के क्षत्रिय शासक अजातशत्रु के यहां अनेक ब्राह्मण अध्यात्म ज्ञान के लिए प्रायः ही आते रहते थे।

कहना होगा कि वैदिक काल में क्षत्रियों की सामाजिक हैसियत दूसरे दर्जे की थी। कालांतर में, उपनिषदों के जमाने में क्षत्रियों ने ब्राह्मणों के सामाजिक एकाधिकार को चुनौती दी और निरंतर संघर्ष की स्थिति कायम रही। बौद्ध काल तक क्षत्रिय ने समाज में अपनी श्रेष्ठता लगभग मनवा ली। और संभवतः इसी कारण बौद्ध साहित्य में वर्णों की सूची में उनका उल्लेख सर्वप्रथम आता है।38 उदाहरणस्वरूप सीलवीमंस  जातक 39  को लिया जा सकता है।

तत्कालीन संपूर्ण सामाजिक संघर्ष श्रेष्ठता प्राप्त करने का था जिसमें क्षत्रिय वर्ण ने अभूतपपूर्व सफलता हासिल की। लगभग संपूर्ण बौद्ध साहित्य में क्षत्रियों को श्रेष्ठ बताया गया है एवं ब्राह्मणों की निंदा की गई है।40 स्वयं बुद्ध ने ब्राह्मण अम्बष्ठ से कहा-‘स्त्री की स्त्री से तुलना की जाए अथवा पुरुष से पुरुष की, क्षत्रिय ही श्रेष्ठ है और ब्राह्मण हीन।’41 दीघनिकाय के अम्बट्ठ सुत्त में उल्लेख है कि अम्बट्ठ नामक एक युवा ब्राह्मण गौतम बुद्ध के पास जाता है और यह दावा करता है कि चार वर्णों में से तीन क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र ब्राह्मण के सेवक हैं। उस ब्राह्मण के अहंकार का दमन गौतम उसे यह स्मरण दिलाकर करते हैं कि कृष्णायन गोत्र, जिसका वह अम्बट्ठ सदस्य था, एक कोलिय क्षत्रिय राजा की दासी से प्रारंभ हुआ था। उसे यह भी बताया गया कि दासी का पुत्र एक महर्षि बना और उसने क्षत्रिय राजा की कन्या से विवाह किया। इस प्रकार बुद्ध ने अम्बट्ठ नामक युवा ब्राह्मण के माध्यम से कर्म की महत्ता पर बल देते हुए क्षत्रिय को श्रेष्ठ बताया।42 ऐसे विवरण बौद्ध साहित्य में यत्र-तत्र भरे पड़े हैं।

दीघनिकाय  एवं अंगुत्तरनिकाय  के अनुसार क्षत्रिय अपने को जन्मना सर्वाधिक निष्कलंक मानते थे।43 जातक निदान कथा  में कहा गया है कि भगवान बुद्ध मनुष्य योनि में जन्म ग्रहण करने के पूर्व सभी वर्णों के गुण-दोषों पर गहन चिंतन करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि क्षत्रिय ही लोक-सम्मत है, जिसमें उन्हें जन्म लेना चाहिए।44 ठीक इसी प्रकार की गाथा जैन ग्रंथ कल्पसूत्र  में महावीर के जन्म के संबंध में मिलती है। महावीर को देवनंदा नामक ब्राह्मणी के गर्भ में प्रवेश करने पर अपनी भूल ज्ञात हुई तो वे त्रिशला नाम की क्षत्राणी के गर्भ में प्रविष्ट हो गये।45 सोनक जातक में राजा अरिन्दम अपनी जन्मना श्रेष्ठता की तुलना पुरोहित पुत्र सोनक से करते हुए कहते हैं-‘यह ब्राह्मण तो हीन जन्मा है, और मैं पवित्र क्षत्रिय कुलोत्पन्न हूँ ।46 संयुत्त निकाय के खत्तिय सुत्त में भी यह उल्लेख है कि मनुष्यों में क्षत्रिय सर्वश्रेष्ठ है।47

इस तरह बौद्ध-काल में एक ऐसी हवा चली कि ब्राह्मण-वर्ण को नीच और पतित कहा जाने लगा और क्षत्रिय वर्ण को सबसे श्रेष्ठ।48 बौद्ध-ग्रंथों में ब्राह्मणों के प्रति हिंसा की भावना और घृणा पराकाष्ठा पर पहंुची प्रतीत होती है। ज्ञात होता है कि ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष में ब्राह्मणों की विजय ने क्षत्रियों के मन में प्रतिहिंसा की भयानक अग्नि भड़का दी थी।49 साथ ही ऐसा भी लगता है कि बौद्ध धर्म का उस समय ब्राह्मणों ने डटकर विरोध किया था।50 इसलिए बौद्धों का आक्रोश प्रतिक्रियास्वरूप और इसीलिए तीखा प्रतीत होता है। ब्राह्मणों के प्रति बौद्धों का आक्रोश प्रस्तुत उदाहरणों के आलोक में बेहतर समझा जा सकता है:-
 ‘एक आचार्य ब्राह्मण श्राद्ध करने के लिए मेष की हत्या करना चाहता है। मेष हंसा फिर रोया-ब्राह्मणों को ज्ञान हो गया।51 एक ब्राह्मण को कहीं से बैल मिला। उसने बैल को मारकर हवन करना चाहा और मांस को सुस्वादु बनाने के लिए बैल को बांधकर नमक लाने गया।52 ब्राह्मण गोमांस खाते थे, इस गाथा में कहा गया; किंतु क्षत्रिय के संबंध में ऐसी बात कहीं नहीं आई और न वैश्य या शूद्र के संबंध में।53 क्या बौद्ध-काल में केवल ब्राह्मण ही गोमांस-भक्षी बचे थे, दूसरे वर्ण नहीं ? जाहिर है, यहां ब्राह्मणों द्वारा गोमांस-भक्षण किये जाने की बात का उल्लेख महज एक ऐतिहासिक तथ्य होने से ज्यादा महत्त्व का है।54

एक दूसरी गाथा55 इस प्रकार शुरू होती है-‘वह एक श्रद्धालु उपासक ब्राह्मण की ब्राह्मणी थी; बहुत दुश्चरित्र पापिन। रात को दुराचार करती थी।... ब्राह्मण घर आता तो (रोग का) बहाना बनाकर लेट जाती। उसके बाहर जाने पर ‘‘जारों ’’ के साथ गुजरती। वह ब्राह्मण बुद्धदेव का भक्त था-‘‘उपासक’’। गृहस्थ बौद्ध को उपासक कहा जाता है। वह ब्राह्मण तक्षशिला का स्नातक था और वाराणसी का प्रसिद्ध आचार्य भी था। सौ राजधानियों के क्षत्रिय राजकुमार उनके पास पढ़ा करते थे।56

एक दूसरे ब्राह्मण की स्त्री भी घोर दुश्चरित्रा थी। ब्राह्मण भी अपनी पत्नी के अनाचार को जानता था। जब ब्राह्मण व्यापार के लिए जाने लगा तो अपने दो पालित पुत्रों को सचेत करता गया-‘यदि माता ब्राह्मणी अनाचार करें, तो रोकना।’ पालित पुत्रों ने जवाब दिया-‘रोक सकेंगे तो रोकेंगे, नही ंतो चुप रहेंगे।’ जातक कथा में यह वाक्य है-‘उसके जाने के दिन से ब्राह्मणी ने अनाचार करना आरंभ किया। घर में प्रवेश करनेवालों और निकलनेवालों की गिनती नहीं रही। ब्राह्मण का वह घर क्या था, पूरा वेश्यालय! उसके धर्मपुत्र भी उदासीन रहकर सबकुछ देखते रहे।57

एक अन्य गाथा में ब्राह्मण चांडाल का जूठा भात खाता है फिर पछताता है। वह चांडाल के देने पर यह कहकर भात खाने से इनकार करता है कि ‘रे चांडाल, मुझे भात की जरुरत नहीं है।’ उसी ब्राह्मण ने चांडाल का जूठा भात भूख लगने पर छीनकर खा लिया।58 राधजातक के अनुसार, ‘एक ब्राह्मण ने दो तोते पाले। ब्राह्मणी व्यभिचारिणी थी। ब्राह्मण तोतों को निगाह रखने का आदेश देकर व्यापार के उद्येश्य से कहीं चला गया। मौका मिलते ही ब्राह्मणी ने खुलकर अनाचार करना शुरू कर दिया।’59

किसी ब्राह्मण की पत्नी दुश्चरित्रा थी। एक नट को उसने घर में बुला लिया। ब्राह्मण घर से बाहर गया हुआ था। ब्राह्मणी ने नट को भात-दाल पकाकर खिलाया। वह जैसे ही खाने बैठा कि ब्राह्मण आ गया। नट को ब्राह्मणी ने छिपा दिया। ब्राह्मण ने भोजन मांगा तो नट की जूठी थाली में थोड़ा-सा भात डालकर ब्राह्मण के आगे घर दिया। ब्राह्मण खाने लगा। एक नट भिखमंगा, जो दरवाजे पर बैठा सबकुछ देख रहा था, ने ब्राह्मण से सारी कथा कह दी।60

एक पुरोहित था। राजा ने उसे अलंकृत घोड़ा दिया, लोगों ने तारीफ की। ब्राह्मण बहुत ही मूर्ख था। उसकी स्त्री ने मजाक किया कि ‘अगर तुम घोड़े की साज पहनकर दरबार में जाओ, तो तुम्हारी भी तारीफ हो। घोड़े की जो प्रशंसा हो रही है, वह उसकी साज के कारण।’ ब्राह्मण ने ऐसा ही किया। जब राजा ने उसे समझाया तो वह अपनी स्त्री पर बहुत बिगड़ा और उसे घर से निकाल बाहर किया और दूसरी ब्राह्मणी लाकर घर बसा लिया।61 यहां ब्राह्मण की ‘मूर्खता’ की ओर जातक का इशारा है। ब्राह्मण वर्ण का इससे अधिक पतित रूप और भला क्या हो सकता है ? जातक कथाओं से ऐसा ज्ञात होता है कि उस समय जैसा ब्राह्मण और किसी काल में पतित ने थे। जातकों में ब्राह्मणों के अतिरिक्त किसी दूसरे वर्ण पर इस तरह का लांछन नहीं लगाया गया है।62

एक गाथा ऐसी है जिसमें बतलाया गया है कि एक ब्राह्मणी युवती ने अपने तुरंत के ब्याहे महापराक्रमी पति का खून डकैत सरदार के हाथ में तलवार पकड़ाकर करा दिया। उन्चास तीरों से उन्चास डकैतों को उस पराक्रमी ने ब्राह्मण ने मार गिराया। पचासवां व्यक्ति था डाकू-सरदार। अब ब्राह्मण के पास तीर न था। उसने डाकू सरदार को पटक दिया और अपनी स्त्री से तलवार मांगी। स्त्री उस डाकू-सरदार पर पहले ही मुग्ध हो चुकी थी। उसने तलवार डाकू-सरदार को पकड़ा दी और उस डाकू ने ब्राह्मण पर वार कर दिया। डाकू-सरदार के पूछने पर ब्राह्मणी ने कहा, ‘मैंने तुम पर आसक्त हो अपने कुल-स्वामी को मरवा दिया।’ वह डकैत भी ब्राह्मण ही था; क्योंकि उस ब्राह्मणी ने उसे ‘बाह्मण’ कह पुकारा था-‘सब्बं भण्डं समादाय पारं तिण्णोसि ब्राह्मण।’63

एक ब्राह्मणी ऐसी थी जिसने अपने पति को भीख मांगकर धन जमा करने के लिए बाहर भेज दिया और खुद अनाचार में लिप्त हो गई। धन कमाकर ब्राह्मण जब लौटा, तब ब्राह्मणी ने उस धन को अपने उपपति को दे दिया।64

किसी राजा का एक पुरोहित था। वह अपने बाग में आनंद मना रहा था कि एक वेश्या पर लट्टू हो गया। उससे जो पुत्र हुआ उसका नाम ब्राह्मण ने उद्दालक रखा। यह उद्दालक बड़ा हुआ तो नकली तपस्वी बन इसने बड़ी लूट-पाट मचाई।65 एक गाथा एक कृतघ्न ब्राह्मण की भी है, जिसने मित्र बन्दर के साथ विश्वासघात किया था। काशी ग्राम का एक ब्राह्मण हल जोतता था। उसका एक बैल जंगल में खो गया। वह खोजता हुआ घने वन में चला गया। एक बन्दर उसका सहायक हुआ-रास्ता बतलाने में। जब वह बन्दर सो रहा था तब उस ब्राह्मण ने उसपर पत्थर फेंका। बन्दर ने शाप दिया और ब्राह्मण गलित कोढ़ का शिकार हो गया।66

इसी तरह की ढेर सारी गाथाएं जातकों  में ब्राह्मणों से संबंधित दी गई हैं जिनसे इस वर्ण की हीनता प्रकट होती है। उस काल में संभवतः कोई ऐसा दुष्कर्म न बचा जिसे ब्राह्मणों ने न किया हो। ध्यान देने की बात यह भी है कि क्षत्रिय वर्ण के संबंध में ऐसी गाथा एक भी नहीं है, जिससे वर्ण की हीनता प्रकट होती हो।67 जातकों  में इस बात पर जोर दिया गया लगता है कि ब्राह्मण-वर्ण बहुत ही गिरा हुआ था।68 यह युग यद्यपि ब्राह्मण वर्ण के लिय बहुत ही ‘भयानक’ था, फिर भी ऐसे ब्राह्मणों का भी वर्णन है जिन्होंने अपनी तेजस्विता, विद्या और तपस्या के बल पर सम्मान पाया था। जिन गाथाओं का यहां उल्लेख किया गया है वे ब्राह्मणों के संबंध में ही कही गई हैं। ऐसी भी बहुत-सी गाथाएं हैं जिनमें प्रसंगवश ब्राह्मणों की चर्चा है और इस वर्ण की हीनता सिद्ध की गई है। कहना होगा कि सामाजिक संस्तरण में ब्राह्मणों ने अपने लिए जो जगह बनाई थी, उसके खिलाफ उठाया गया एक कदम था यह। जातकों  में ब्राह्मणों के उस महत्त्व का मूलोच्छेद किया जा रहा था, जो इस वर्ण को वैदिक युग से प्राप्त होता आया था और जिसकी रक्षा ब्राह्मण जी-जान से करते आ रहे थे। भारत सरकार के एक प्रकाशन में लिखा है कि ‘ब्राह्मणों द्वारा प्रतिपादित धर्म के विरुद्ध जो आवाज उठाई गई, वह आगे चलकर जैन-धर्म और बौद्ध-धर्म के रूप में फलीभूत हुई।’69 विरोध की यह आवाज ‘‘ब्राह्मणों द्वारा प्रतिपादित’’ के ही नहीं अपितु ब्राह्मण-वर्ण के भी विरुद्ध थी।70

दीघनिकाय 71 में भी वर्णों की उत्पत्ति के संबंध में एक मौलिक बात कही गई है-‘तब वे प्राणी, जो उनमें वर्णवान, दर्शनीय, प्रासादिक और महाशक्तिशाली थे, उसके पास जाकर बोले-उचितानुचित का ठीक से अनुशासन करो... हमलोग तुम्हें शालि का भाग देंगे।’

‘‘महाजनों द्वारा सम्मान होने से उसी का नाम ‘महासम्मत’ पड़ा, क्षेत्रों का अधिपति होने के कारण ‘क्षत्रिय’ और धर्म से दूसरों का रंजन करने के कारण ‘राजा’ कहा जाने लगा।’’ इस तरह क्षत्रिय बनने की बात कही गई है। आगे कहा है-‘‘तब उन्हीं प्राणियों में किन्हीं -किन्हीं के मन में यह हुआ कि हम प्राणियों में पाप-धर्म प्रादुर्भूत हो गया है... अतः हम पाप का त्याग करें। पाप-धर्म को बहा दिया इसीलिए ‘ब्राह्मण’ नाम पड़ा।’’ आगे चलकर उनहोंने कहा है, ‘‘गोत्र लेकर चलनेवाले जनों में क्षत्रिय श्रेष्ठ है।’’ इस तरह श्रेष्ठत्व क्षत्रिय को प्रदान किया गया। उत्पत्ति-क्रम से भी प्राथमिकता क्षत्रिय-वर्ण को ही दी गई। बौद्ध-काल में ब्राह्मण बनाम् क्षत्रिय का यही मूल प्रश्न था। अम्बट्ठ सुत्त 72 में कहा गया है-‘‘तब भगवान बुद्ध ने अम्बष्ट माणवक 73 से पूछा-‘अम्बट्ठ, यदि एक राजकुमार ब्राह्मण-कन्या के साथ सहवास करे, उनके सहवास से पुत्र उत्पन्न हो, जो क्षत्रिय कुमार से ब्राह्मण-कन्या में पुत्र उत्पन्न होगा, वह ब्राह्मणों में आसन-पानी पावेगा ?’‘अम्बट्ठ बोले- पावेगा।  ब्राह्मण उसे श्राद्ध, यज्ञ, पहुनई में साथ खिलावेंगे, वेद भी पढ़ावेंगे, उसे ब्राह्मणी-स्त्री से व्याह भी करा दिया जायेगा।’ बुद्धदेव ने फिर प्रश्न किया-‘और क्षत्रिय उसे क्षत्रिय-अभिषेक करेंगे ?’ अम्बट्ठ-‘नहीं, क्योंकि माता की ओर से वह ठीक नहीं है।’

इसी तरह का एक प्रश्नोत्तर ब्राह्मण-कुमार का क्षत्रिय-कन्या से सहवास करने पर उत्पन्न होनेवाले पुत्र के संबंध में है। अम्बट्ठ कहता है कि ‘ऐसा लड़का ब्राह्मणों में स्थान पा जायेगा, क्षत्रियों में नहीं; क्योंकि पिता की ओर से वह ठीक नहीं है।’ एक ऐसी कथा भी आई है जब बुुद्ध ने कुत्तों से ब्राह्मणों की केवल तुलना ही नहीं की, उन्हें कुत्तों से हीन भी बतलाया। उन्होंने कहा कि ये कुत्ते ब्राह्मण-धर्म का पालन करते हैं, ब्राह्मण तो इतना भी नहीं करते।74                                                                     

पाणिनिकालीन भारतीय जनपदों में क्षत्रिय जनों का राजनीतिक एवं प्रशासनिक महत्त्व परिलक्षित होता है। क्षत्रियों के नाम के समूह पर ही जनपदों का नामकरण होता था।75 जैसे कुरवः क्षत्रिय और कुरवः जनपदः।76 क्षत्रिय के अतिरिक्त अन्य पेशों के लोग भी जनपदों में आकर बस जाते थे जो अत्यंत स्वाभाविक प्रतीत होता है। जनपदीय जीवन मे इतर लोगों के भर जाने पर भी राजनीतिक जीवन प्राचीन जन के उत्तराधिकार क्षत्रियों के हाथ में ही रहा। औरों से इनकी पृथकता सूचित करने के लिए ये क्षत्रिय लोग जनपदिन् कहलाए, अर्थात् प्राचीन जन के स्थान पर नई संज्ञा व्यवहार में आई।77 इस प्रकार, ऐसा प्रतीत होता है कि इस काल में क्षत्रियों का राजनीतिक प्रभुत्त्व वैदिक युग की अपेक्षा अधिक सुदृढ़ था। उन्हें शक्ति एवं सत्ता का प्रतीक मानने से बचा नहीं जा सकता था। परंतु दूसरी ओर ब्राह्मणों के नाम पर भी जनपदों के नामकरण के प्रमाण अष्टाध्यायी में उपलब्ध हैं।78 इसके आधार पर ऐसा माना जा सकता है कि ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों के बीच आपसी प्रतिस्पर्धा रही होगी जो एक-दूसरे के एकाधिकार को समाप्त कर स्वयं को प्रतिष्ठापित करने का प्रयास रहा होगा।79

ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष के स्वरूप में बदलाव लाने में भागवत धर्म के उदय का भी प्रमुख हाथ रहा। भागवत धर्म और भक्ति सम्प्रदाय के उदय ने ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष को दोतरफा कर दिया। एक तो ब्राह्मण-क्षत्रियों का संघर्ष प्राचीन था ही, अब ब्राह्मणों का निम्नवर्णीयों के साथ भी संघर्ष चल पड़ा।80 इसका कारण भागवत और बौद्ध धर्म का बीच में आ जाना था। भूलना न चाहिए कि भागवत और बौद्ध दोनों ही संप्रदाय क्षत्रिय प्रेरित थे।81 दोनों के पूजा केन्द्र क्षत्रिय थे।

महाकाव्यों  में ब्राह्मण एवं क्षत्रिय दोनों को ही पारस्परिक सहयोग एवं सद्भावना से कार्य करने के लिए निर्दिष्ट किया गया है।82 इसी संदर्भ में कहा गया है कि ब्राह्मण और क्षत्रिय का सहयोग शत्रु का उसी प्रकार विनाश करता था जिस प्रकार वायु और अग्नि का सहयोग वन का।83 ब्राह्मण एवं क्षत्रिय वर्णों के प्रति राजा का विशेष ध्यान रहता था।84

इस संपूर्ण प्रक्रिया में क्षत्रिय को राज और वैभव मिला और ब्राह्मण को प्रचुर धन और सम्मान मिला। पिछली कटुता की जगह ब्राह्मण तथा क्षत्रिय के बीच इक्की-दुक्की घटना को छोड़कर प्रायः तनावों में कमी आई। चंद्रवंशीय कुरु कुल के लोग हों या सूर्यवंशी इक्ष्वाकु कुल के-सभी ने ब्राह्मण की श्रेष्ठता को स्वीकार किया। ब्राह्मण ने अपनी विद्वता, सरलता, सदाचार, त्याग, तपस्या एवं अद्भुत सूक्ष्म दृष्टि के कारण राजन्य तथा सर्वसाधारण में अपने अधिनायक स्वरूप को सुरक्षित रखते हुए नेतृत्व प्रदान किया। इस काल में जो क्षत्रिय राजसत्ता के स्वामी थे, वे ब्राह्मणों के समक्ष विनम्र बने रहे।

ब्राह्मण समाज का मस्तिष्क था और क्षत्रिय भुजा। ब्राह्मण की अद्भुत विधियां तथा व्यवस्थाएं क्षत्रियों की छत्रछाया में पल्लवित, पुष्पित तथा फलित होती रहीं। राजा सगर की साठ हजार संतानों को ब्राह्मण के शाप ने नष्ट कर दिया फिर भी सगर ब्राह्मण के सम्मुख हाथ जोड़कर खड़ा है।85 राजा रघु ने दिग्विजय में प्राप्त सभी प्रकार के धनों को सौंपकर स्वयं मिट्टी के पात्र में अर्घदान किया। इसी तरह दशरथ आदि क्षत्रियों ने पुरोहित ब्राह्मण के राजतिलक समारोहों में तिलक करवाकर स्थिर रहने का आशीर्वाद प्राप्त किया। दशरथ और राम ने कड़वे वचन सुनकर भी ब्राह्मणों तथा राजन्य में परस्पर समन्वय को प्रकट किया। इस पूरे दौर में ब्राह्मण-क्षत्रिय सहयोग की बात लक्षित होती है क्योंकि राज्य अपनी जड़ें नये बसते इलाकों में जमा रहा था। इस अर्थ में महाकाव्यों की रचना एक संक्रमणशील समाज की अभिव्यक्ति है।

संघर्ष तो जैसा पहले कहा जा चुका है, दोरुखा था-ब्राह्मणों का क्षत्रियों से और ब्राह्मणों का निम्नवर्णीयों से।86 परंतु निम्नकुलीयों और निम्नवर्णीयों का रुख समान रूप से जब अभिजातकुलीयों की ओर मुड़ता तो यदा-कदा ब्राह्मण-क्षत्रिय मिलकर उसका मुकाबला करते, जब-तब ब्राह्मण उस संघर्ष से लाभ उठाकर अपने प्राचीन स्पर्धी क्षत्रियों के विरुद्ध उस शक्ति का मुख कर देते।87 इसका उदाहरण एक नंदवंश का इतिहास है, दूसरा कौटिल्य का अर्थशास्त्र।

इतिहास प्रसिद्ध है कि महापद्म शूद्र और निम्नकुलीय88 था जिसने क्षत्रिय शिशुनागों से मगध का साम्राज्य छीन लिया था। महापद्म नंद अमित कोष और अमित सेना वाला राजा था। इसी से उसका नाम भी ‘महापद्म’ पड़ा था। उसने क्षत्रियों का उसी प्रकार संहार किया जिस प्रकार कभी परशुराम ने किया था। उसका विरुद था ‘सर्वक्षतान्तक’89-सब क्षत्रिय राजाओं का संहारक। ऐसा विरुद क्षत्रिय राजा कभी धारण नहीं करता; कम से कम इतिहास में इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। महानंद की सेना के सिपाही भी संभवतः क्षत्रिय न थे, निम्नवर्णीय थे। परंतु महापद्म के इस क्षत्रिय-संहार में प्रमाणतः ब्राह्मणों ने सक्रिय साथ दिया। यह बात महत्व की है कि नंद के तीन मंत्री थे और तीनों ही ब्राह्मण थे।90 उनमें दो के नाम तो विशेष प्रसिद्ध हैं, कात्यायन (वररुचि) और राक्षस। दोनों ने उसकी क्षत्रिय-संहारक नीति का पूर्ण रूप से समर्थन दिया और दोनों ने ‘कण्टके नैव कण्टकम्’ का राजनीतिक आचरण किया। राक्षस तो नंदों की सहायता में शहीद तक हो गया। उसके सामने ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष का अतीत मूर्त्तिमान था और क्षत्रिय सत्ता का पुनरुदय उसकी दृष्टि में ब्राह्मण का अपकर्ष था। चाणक्य के सामने एक नये भविष्य का ‘भीषण’ दृश्य था, जिसमें शूद्र प्रबल जनसत्ता, अभिजातवर्गीय ब्राह्मण-क्षत्रिय दोनों ही को खात्मे की ओर ले जा रही थी। नवीन समाज का यह ‘डरावना’ रूप चाणक्य ने देखा जिसका पोषण नंद की शक्ति और क्षत्रिय-संहारक नीति ने किया था। इसी आधार पर चाणक्य और चन्द्रगुप्त में एका हुआ। ‘समान भय’ के सामने ब्राह्मण- क्षत्रिय आत्मरक्षा के लिए कटिबद्ध हुए। कालांतर में गुप्तकालीन क्षत्रिय नाटककार विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस में ब्राह्मण कर्मा राक्षस को ‘राक्षस’ कहा और चाणक्य को ‘ब्राह्मण’।91 वस्तुतः उसके लिए राक्षस दोनों ही थे, परंतु चाणक्य निस्संदेह प्रियतर था क्योंकि उसने क्षत्रिय की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया था। ब्राह्मण ने क्षत्रिय के साथ साझा किया था जो भावी जनसत्ता के संघर्ष में कुछ अपवादों के साथ यदा-कदा कायम रहा। भट्टिकाव्य में जो ‘क्षात्रद्विजत्वं च परस्परार्थम’-क्षत्रिय और ब्राह्मण की सार्थकता एक दूसरे का स्वार्थ सिद्ध करने में है-का उद्घोष हुआ वह इसी ब्राह्मण-क्षत्रिय साझेदारी का सबूत था। पहला बड़ा अपवाद इसी मौर्यकाल में सामने आया।

एक परंपरा वैयाकरणों की थी, दूसरी शास्त्रियों की। पहली शृंखला की कड़ियां थे पाणिनि-कात्यायन-पतंजलि, दूसरी के थे मनु, याज्ञवल्क्य, विष्णु, अष्टाध्यायी-वार्तिक-महाभाष्य और मनुस्मृति-याज्ञवल्क्यस्मृति-विष्णुस्मृति। चाणक्य का अर्थशास्त्र दोनों के मध्य था। अष्टाध्यायी का लेखक पाणिनि क्षत्रिय नंद की संरक्षा में था, स्वयं ब्राह्मण। उसने जनवर्ग की उठती हुई आंधी भागवत धर्म में देखी, उससे संत्रस्त हुआ। वार्तिककार कात्यायन न केवल अष्टाध्यायी का प्राश्निक था वरन् पाणिनि की क्षत्रिय-पोषक नीति का शत्रु भी था।92 राजनीति में उसने शूद्र जनसत्ता से साझा किया। पतंजलि व्याकरण में ही नहीं राजनीति में भी वार्तिककार कात्यायन का विरोधी था। वह क्षत्रिय-शत्रु और पुष्यमित्र का स्रष्टा था; इससे वह पाणिनि और कात्यायन दोनों का विरोधी था। शूद्र-शत्रु होने के कारण वह चाणक्य के समीप आ गया था।

चाणक्य, जैसाकि कहा जा चुका है, इन दोनों शृंखलाओं के बीच में है। वह शूद्र-ध्वंसक है। निम्नवर्णीयों से संत्रस्त उनके नंदीय उत्कर्ष को वह शक की दृष्टि से देखता है और क्षत्रिय सहायता से उसका विध्वंस भी करता है। फिर एक विशाल साम्राज्य खड़ा कर पंजाब और पश्चिमी भारत के गणराज्यों को नष्ट कर देता है।93 इन्हीं जनसत्ताक गणराज्यों में समता और ब्राह्मण-विरोध के बीज रोपे जाते एवं अंकुरित होते। चाणक्य ने अर्थशास्त्र में शूद्रों के विरुद्ध अनुचित, अन्यायपूर्ण नियम लिखे, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति आदि ने जिनको विस्तार दे देकर प्रकाशित किया। चाणक्य ने क्षत्रिय से साझा तो किया परंतु उसका स्वामी बनकर। शूद्र-शत्रु नंद की मार से मूर्छित क्षत्रिय ब्राह्मण की छाया में गिर पड़ा, ब्राह्मण ने उसे अस्त्र बनाकर समान शत्रु पर प्रहार के अर्थ धारण किया। लेकिन आगे यह साझा भी टूट गया। संभव है, ब्राह्मण के सतत् राजस आचरण के अंकुश और निर्मम रक्तपात से क्षुब्ध अथवा उसके नित्यप्रति के हस्तक्षेप और वृषल94 संबोधन से विरत होकर क्षत्रिय प्रवज्जित हो गया। यह अर्थ की बात है कि चन्द्रगुप्त ब्राह्मण-संन्यास की छाया में न आया और अपने स्वाभाविक बौद्ध-जैन संप्रदायों की ओर अनुरक्त होकर जैन हो गया। संभवतः उसके पुत्र बिंदुसार को कुछ काल तक चाणक्य ने चन्द्रगुप्त ही की भांति अपने चंगुल में डाल उसे विजय-संघर्ष में सक्रिय रखा, जैसा बिन्दुसार के विरुद ‘अमित्रघात’ से प्रकट है। परंतु अशोक के शासनकाल में पुराना संघर्ष एक बार फिर क्षत्रियों में घर कर बैठा। बौद्ध अशोक ने न्याय प्रशासन में वर्ण-विभेदों को दूर करने का जो प्रयास किया उससे प्रायः ब्राह्मण नाराज हो गए।95 

अशोक के प्रति ब्राह्मणों के ‘विद्वेष’ को ‘देवानांप्रिय’ शब्द में आये अर्थ-परिवर्तन से भी समझा जा सकता है। वी. ए. स्मिथ के मतानुसार ‘देवानांप्रिय’ आदरसूचक पद है और इसी अर्थ में राधाकुमुद मुखर्जी ने भी इसका प्रयोग किया है। किंतु ‘देवानां-प्रिय’ शब्द (देव-प्रिय नहीं) पाणिनि के एक सूत्र (6, 3, 21) के अनुसार अनादर का सूचक है। कात्यायन इसे अपवाद में रखता है। पतंजलि और यहां तक कि काशिका  भी इसे अपवाद मानता है। पर इन सब के उत्तरकालीन वैयाकरण भट्टोजीदिक्षित इसे अपवाद में नहीं रखते। वे इसका अनादरवाची अर्थ ‘मूख’ ही करते हैं। उनके मत से ‘देवानांप्रिय’ ब्रह्मज्ञान से रहित उस व्यक्ति को कहते हैं जो यज्ञ और पूजा से भगवान को प्रसन्न करने का प्रयत्न करता है, जैसे गाय दूध देकर मालिक को। इस प्रकार, एक संज्ञा जो नंदों, मौर्यों और शुंगों के युग में आदरवाची थी, उस महान राजा के प्रति ब्राह्मणों के दुराग्रह के कारण अनादरसूचक बन गई।96  
सदियों का दबा हुआ घाव फूट चला। धन और शक्ति क्षत्रियों के हाथ में थे, पर षडयंत्र-मेधा ब्राह्मणों के हाथ में थी। पतंजलि के तत्त्वावधान में उस षडयंत्र ने एक रूप धारण किया। उसके शिष्य पुष्यमित्र शुंग ने अंतिम मौर्य-सम्राट वृहद्रथ को मारकर ब्राह्मण-साम्राज्य की नींव डाली क्योंकि ब्राह्मणों के पास अपने पुनरुद्धार के लिए मौर्य-साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने के सिवा और कोई चारा न था। यह विद्रोह सुंग गोत्र के सामवेदी ब्राह्मण पुष्यमित्र ने किया, जो पशुबलि एवं मंत्रों में विश्वास रखता था। पुष्यमित्र ने ‘ब्राह्मणवाद’ की क्रांति ई. पू. 185 में प्रारंभ की थी। इस क्रांति का मकसद बौद्ध धर्म का विनाश एवं ब्राह्मण-वर्चस्व की स्थापना करना था।97  यह अंतिम मौर्य-सम्राट वृहदथ का वध करके राजा बना था। एक तरह से यह वर्ण-व्यवस्था के ‘सामान्य नियमों’ का ‘उल्लंघन’ था, जिसमें ब्राह्मण राजा नहीं हो सकता था। पुष्यमित्र ने वैदिक व्यवस्था के विरुद्ध जाकर न सिर्फ राज-हत्या की, न सिर्फ राजा होने का ‘अनुचित’ अधिकार लिया, बल्कि आयुध का व्यवसाय भी किया। डा. अम्बेदकर ने लिखा है कि इस क्रांति ने शुरू में ब्राह्मणों के लिए कठिनाई पैदा कर दी थी। लोग आसानी से इस क्रांति के साथ समझौता नहीं कर सके थे। जनता के इस विरोध को बाण कवि ने हर्षचरित में बहुत अच्छी तरह व्यक्त किया है। उसने पुष्यमित्र को अधम जाति का कहकर उसकी निंदा की है एवं उसके द्वारा की गई राज-हत्या को ‘आर्य नियम’ के विरुद्ध बताया है।

ब्राह्मणों को पुष्यमित्र द्वारा उत्पन्न इस परिस्थिति को सारी व्यवस्था में परिवर्तन करके नियमित करना पड़ा। मनु के कानून में ये परिवर्तन स्पष्टतया दिखाई देते हैं। डा. अम्बेदकर के अनुसार, ये नियम-परिवर्तन इसलिए किये गये थे, ताकि पुष्यमित्र द्वारा की गई राज-हत्या और हिंसक क्रांति को अधिनियमित और नियमित किया जा सके। इन वैधानिक परिवर्तनों से कोई भी ब्राह्मण राजा बन सकता था, किसी भी राजा को राजगद्दी से उतार या उसकी हत्या कर सकता था। मनु ने ब्राह्मणों को इस तरह नरसंहार का अधिकार दे दिया, बशर्ते यह उनके हितों की रक्षा के लिए आवश्यक हो। ‘ब्राह्मणवाद’ की यह क्रांति असफल हो सकती थी, यदि उसमें ब्राह्मणों की श्रेष्ठता स्वीकार न की गई होती और उन्हें विशेष सुविधाएं प्रदान न की गई होतीं। लगता है, मनु इस बात से पूरी तरह वाकिफ था। अतएव उसने ब्राह्मणों के लिए कुछ एकाधिकार, कुछ रियायतें और कुछ विशेषाधिकार स्वीकृत किये। एकाधिकार मनुस्मृति के दसवें अध्याय में एक से लेकर अस्सी तक के नियमों में मौजूद हैं।98 इस तरह पुष्यमित्र शुंग की क्रांति से विजयी ब्राह्मणवाद ने ब्राह्मणों को एकबार फिर विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग बना डाला।

अकारण नहीं है कि पुष्यमित्र शुंग की संरक्षा में मनुस्मृति में श्रमण एवं शूद्र दोनों ही के विरोध में खासे नियम बने। उस समय योजनाबद्ध होकर पश्चिम से पूर्व के तमाम पुरोहित वर्ग ब्राह्मण की शक्ति पुष्यमित्र शुंग की पीठ पर थी। महर्षि पतंजलि ने इस परिवर्तन का खुलकर समर्थन किया और डंके की चोट पर कहा कि क्षत्रिय के मुकाबले में ब्राह्मण का राज्य क्षत्रिय के राज्य से श्रेष्ठ है,99 और फिर उसके हितार्थ अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया और स्वयं ऋत्विज बना। मनु ने उसे ‘भूसुर’100 कहकर प्रतिष्ठा दी। अयोध्या के अभिलेख में पुष्यमित्र शुंग द्वारा दो अश्वमेध यज्ञों के आयोजन किये जाने का उल्लेख हुआ है। दूसरे अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख महाकवि कालिदास ने अपने नाटक मालविकाग्निमित्र में भी किया है। कालिदास का निम्नवर्णीय विरोध स्पष्ट है। शूद्र तपस्वी शम्बूक के राम द्वारा रघुवंश में मारे जाने पर महाकवि की लेखनी में बल तक नहीं पड़ता, उल्टे वह स्वयं उस तपस्वी को उसके ‘अनाचार’ पर धिक्कारता है।101                                                                                                                                                                 

स्मृतियों  की रचना ब्राह्मण पुरोहितों ने की थी। ये संहिताएं एक सीमा तक जीवन के बारे में ब्राह्मणों की अभिलाषा को व्यक्त करती हैं कि वे किस तरह के जीवन को पसंद करते थे। इनमें वर्णित कुछ बातें ऐसी हैं जो लगभग सभी स्मृतियों में समान रूप से मौजूद हैं। कमोबेश सभी शूद्रों का कर्तव्य निर्धारित करती हैं कि वे तीन उच्च वर्णों की सेवा करें। शूद्रों को किसी भी तरह ‘धन’ संचय करने की अनुमति नहीं थी। कुछ स्मृतियों में तो इस बात तक को लिख दिया गया है कि यदि वैश्य और शूद्र अपने से उच्च वर्णों की टहल-चाकरी करने को मजबूर नहीं किये जाएंगे, यदि वे अपने कर्तव्यों को पूरा करने में विफल रहते हैं तो घोर कलियुग आ जाएगा और समाज वर्ण-संकर हो जाएगा, यानि घोर सामाजिक अराजकता एवं दुरवस्था। वर्ण-संकर का शाब्दिक अर्थ है चार वर्णों का रक्त-मिश्रण। लेकिन इस संदर्भ में वर्ण-संकर शब्द का रक्त-मिश्रणवाला अर्थ नहीं है। वह बहुत ही ‘भयावह’ था। लेकिन वर्ण-संकरता का अर्थ निम्न वर्णों द्वारा अपने कर्तव्यों का उल्लंघन करने से भी था। उच्च वर्णों के लिए यह बात कम ‘भयावह’ नहीं था कि वे इस तरह कृषि, पशुपालन और दस्तकारी के धंधों में लगे लोगों के शारीरिक श्रम को गंवा बैठे। श्रमिकों का परमपावन कर्तव्य यही है कि वह अपना काम करता रहे तथा उसका सबसे बड़ा अपराध भी यही है कि वह काम करने से इनकार करे। अधीनता से इनकार करना उस समय सबसे ज्यादा असह्य था। कुछ स्मृतियों में तो शूद्रों द्वारा अपने मालिकों के प्रति उपयोग में लाये जानेवाले आदरसूचक शब्दों तक का प्रावधान कर दिया गया था। इसके विपरीत, शूद्रों को संबोधित शब्दों को जान-बूझकर अपमानजनक बनाया गया था, जिसससे भाषा के माध्यम से उनके भीतर नीचता की आत्मस्वीकृति का संस्कार पैदा किया जा सके।102 शूद्रों के मालिकों को अपने सेवक या शूद्रों के प्रति अभद्र (गाली-गलौज युक्त) भाषा का प्रयोग करने की ‘सलाह’ दी गई थी, लेकिन यदि शूद्र अपने मालिक के प्रति इसी तरह की अभद्र भाषा का व्यवहार करे तो उसकी जीभ तक काट लेने की सजा दी जा सकती थी।103 यह तस्वीर कलियुग की है। कलियुग, वर्ण-संकर और अराजक स्थितियों का मतलब है-चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का छिन्न-भिन्न होना। इस काल में कुछ इस तरह की भी शिकायतें हैं कि कुछ शूद्र वेदों का अध्ययन करने लगे हैं और ‘ब्राह्मणों की तरह आचरण’ करते हैं। ऐसे प्रसंग भी हैं जब शूद्रों द्वारा फसलों को छीने जाने का वर्णन मिलता है तथा असहनीय कर-भार, बेगार तथा प्रशासनिक पदाधिकारियों द्वारा दंडित किये जाने की वजह से किसान बड़े पैमाने पर एक स्थान से दूसरे स्थान को चले गये हैं। ऐसे लगभग प्रत्येक काल में ब्राह्मण-क्षत्रिय ‘पारिवारिक’ विवादों को भूल अद्भुत ‘साम्य’ एवं ‘ऐक्य’ का परिचय देते हैं।104 ब्राह्मण कानून का निर्धारण करता है और क्षत्रिय उसका पालन सुनिश्चित करता है। नीचे से जैसे ही चुनौती मिलनी कम होती है, ब्राह्मण-क्षत्रिय प्रभुत्त्व का अंतर्विरोध केंद्रीय समस्या (जीवन-मरण का प्रश्न) बनकर सामने आ खड़ा होता है।

संदर्भ एवं टिप्पणियां: 

1. भगवतशरण उपाध्याय, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, 1973, पृष्ठ 16।
2. वही, पृष्ठ 17।
3. ऋग्वेद, 7. 103. 8, ब्राह्मणासः सोमिनो वाचमकत् ब्रह्म कृण्वन्तः पश्विन्सरीणम्।
4. वही, 1. 164. 45, चत्वारि वाक्परिमिता पदानि तानि विदुः ब्राह्मण मनीसिणः।
5. ऐतरेय ब्राह्मण, 38. 39. 3, क्षत्रियोऽजनि विन्न्वस्य भू स्थाधिपतिरजनि विशामत्ताजनि...ब्राह्मणो गोप्ताजनि धर्मस्य गोप्ताजनि। तस्मादु क्षत्रियेण कर्म करिष्यमाणेनो पर्सार्स्य एव ब्राह्मणः। सहैवास्मै तदु ब्रह्मप्रसूतं कर्मध्यति। सैक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट, जिल्द-26, पृष्ठ 270-71 में उद्धृत।
7. वही।
8. तैत्तिरीय संहिता, 11. 5. 1।
9. काठक संहिता, 4. 4।
10. ऐतरेय ब्राह्मण, 34. 8।
11. वही।
12. एस. बी. ई., जिल्द-41, पृष्ठ 46। ध्यातव्य है कि क्षत्रियों की समाधि सबसे ऊँची होती थी और उसके बाद ब्राह्मणों की, शतपथ ब्राह्मण, 13. 8. 3. 11।
13. वही, जिल्द-12, पृष्ठ 94।
14. शतपथ ब्राह्मण, 14. 4. 1. 23, 30. 1. 4. 11।
15. एस. बी. ई., जिल्द-26, पृष्ठ 228।
16. काठक संहिता, 28. 5।
17. शतपथ ब्राह्मण, 6.4.13।
18. तैत्तिरीय ब्राह्मण, 6. 4. 13।
19. घूर्ये, कास्ट एण्ड क्लास इन इंडिया, पृष्ठ 68।
20. वही। विस्तृत अध्ययन के लिए देखें, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, पृष्ठ 72।
21. ऋग्वेद, 3. 33. 5, 3. 53. 7।
22. वही, 3. 33. 53।
23. वही, 3. 53. 15।
24. तैत्तिरीय संहिता, 4. 7. 4, पंचविंश ब्राह्मण, 4. 7. 3, 8. 2. 3; 13. 9. 8; 21. 11. 2।
25. रामशरण शर्मा, भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएं, हिंदी संस्करण, 1992, पृष्ठ 178।
26. वही, पृष्ठ 178।
27. दीघनिकाय, 3, 93 और आगे।
28. अनाथपिंडक शब्द के अंतर्गत, डिक्शनरी ऑफ पालि प्रॉपर नेम्स, 1, 70।
29. भगवतशरण उपाध्याय, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 2।
30. वही, पृष्ठ 3।
31. शतपथ ब्राह्मण, 11. 6. 2. 1, कौषीतकि उपनिषद्, 4. 1 ।
32. बृहद जातक, 6. 1. 1, छान्दोग्य उपनिषद्, 1. 8. 1; 5. 3. 1।
33. शतपथ ब्राह्मण, 10. 6. 1. 2 एवं आगे।
34. बृहदारण्यक उपनिषद्, 2. 1. 1, कौषीतकि उपनिषद्, 4. 1।
35. ब्रह्म के रहस्य को ब्राह्मणों के अलावा दूसरा कोई समझ भी तो नहीं सकता!
36. छान्दोग्य उपनिषद्, 5. 3. 6; सह गौतमी राज्ञौ धर्मयाय। तस्मै ह प्राप्तायार्राचकार। बृहदारण्यक उपनिषद्, 6. 2. 4; आजगाम गौतमी यत्र प्रबाहणस्य जैबलेरास। तस्मा आसनमाह त्योदक माहार चांचकाराय हारमा अर्ध्य चकार।
37. छान्दोग्य उपनिषद्, 5. 11. 5, तेन्यो ह प्राप्तेभ्यः पृथगर्हाणि कारयंचकार।
38. चुल्लवग्ग, 91. 4, मज्झिम निकाय, 2, पृष्ठ 128, 3, पृष्ठ 177, अंगुत्तर निकाय, 2 पृष्ठ 194, 3, पृष्ठ 214, जातक 1, पृष्ठ 326।
39. खत्तिया ब्राह्मण वेस्सा, सूद्रा चण्डाल पुक्कुसा। इध धम्मं चरित्वान, भवन्ति तिदिवे समा।। देखें, जातक, भाग 1, पृष्ठ 119।
40. शिवबहादुर सिंह, प्राचीन भारत में क्षत्रिय, जानकी प्रकाशन, पटना, 1999, पृष्ठ 41।
41. दीघनिकाय, 1, पृष्ठ 98।
42. शिवबहादुर सिंह, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 87।
43. दीघनिकाय, 1 पृष्ठ 99; अंगुत्तरनिकाय, 5 पृष्ठ 327-28।
44. जातक, 1 पृष्ठ 49।
45. एस. बी. ई., 22, पृष्ठ 218-29।
46. जातक, 5, पृष्ठ 257।
47. खत्तियो द्विपदं सेट्ठो, बलिबादो चतुष्पदं।
कोमारी सेट्ठा भरियानं, यो च पुत्तान पुब्बजोति।।
संयुत्त निकाय, 1 पृष्ठ 8।
48. मोहनलाल महतो वियोगी, जातककालीन भारतीय संस्कृति, पृष्ठ 147।
49. वही।
50. वही।
51. मतंकभत्त जातक-18।
52. नड्.गुट्ठजातक, 144।
53. मोहनलाल महतो वियोगी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 147।
54. वही, (जोर हमारा)।
55. कोलिय जातक, 130।
56. मोहनलाल महतो वियोगी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 148।
57. राधजातक, 145।
58. सतधम्म जातक, 179।
59. राधजातक, 198।
60. उच्छिट्ठभत्त जातक, 212।
61. रुहक जातक, 191।
62. मोहनलाल महतो वियोगी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 149।
63. चुल्लधनुग्गह जातक, 374।
64. सत्तुभस्त जातक, 402।
65. उद्दालक जातक, 487।
66. महाकपि जातक, 516।
67. मोहनलाल महतो वियोगी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 149।
68. वही।
69. भारत 1955, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली।
70. मोहनलाल महता वियोगी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 150।
71. अग्गन्न्ञ सुत्त, दीघनिकाय, 3. 4।
72. अम्बट्ठ सुत्त, दीघनिकाय, 13।
73. ‘माणवक’ का अर्थ छोटे कद का मनुष्य है। देखें, युधिष्ठिर मीमांसक, संस्कृत व्याकरण का इतिहास, पृष्ठ 59; और देखें, प्रभात रंजन सरकार, शब्द चयनिका, भाग 2, पृष्ठ 18।
74. देखिए सुनकसुत्त ।
75. शिवबहादुर सिंह, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 65।
76. वही।
77. जनपदिनः-जनपदस्वामिनः क्षत्रियाः, 4. 3. 100 सूत्र पर काशिका ।
78. अष्टाध्यायी, 5. 4. 104, ब्राह्मणो जनपदाख्याँ।
79. शिवबहादुर सिंह, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 65।
80. भगवतशरण उपाध्याय, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 20।
81. वही।
82. आर. एस. शर्मा, प्राचीन भारत में भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएं, पृष्ठ 81-82।
83. वही, पृष्ठ 135।
84. लीलाधर दुखी, ब्राह्मण, मानक पब्लिकेशंस, दिल्ली, 1992, पृष्ठ 45।
85. वही, पृष्ठ 70।
86. भगवतशरण उपाध्याय, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 22।
87. वही।
88. वही।
89. ब्राह्मणों के पुराणों की कटुताभरी पंक्ति में शोक जाहिर किया गया है कि मगध-सम्राट महापद्म नंद ने सभी क्षत्रियों का मूलोच्छेदन किया; उसके बाद कोई भी क्षत्रिय कहने लायक नहीं बचा। देखें, दामोदर धर्मानन्द कोसांबी, प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता, हिन्दी संस्करण, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 183।
90. भगवतशरण उपाध्याय, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 42।
91. वही, पृष्ठ 73।
92. वही।
93. वही, पृष्ठ 85।
94. ‘वृषल’ शब्द अपमानजनक माना-समझा जाता था। पाणिनि के समास संबंधी नियम का उदाहरण देते हुए पतंजलि ने बताया है कि ‘दासी के सदृश (दास्याः सदृशः) और वृषली के सदृश (वृषल्याः सदृश)’ पद गाली हैं। (पतंजलि ऑन पाणिनीज ग्रामर, 6. 2. 2)। वृषल को चोर की कोटि में रखा गया था और ब्राह्मण-शासित समाज इसके प्रति वैर-भाव रखता और प्रदर्शित करता था। ( वही, 2. 2. 2 और 3. 2. 127)। यह जानकारी भी मिलती है कि वृषल, दस्यु और चोर घृणा के पात्र माने-समझे जाते थे। (वही, 5. 3. 36)। देखें, राजू रंजन प्रसाद, ‘प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था एवं भाषा’, जन विकल्प, जनवरी, 2007।
95. आर. एस. शर्मा, प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएं, पृष्ठ 108।
96. राधाकुमुद मुखर्जी, अशोक, मोतीलाल बनारसीदास, पटना, अंग्रेजी के तृतीय संस्करण 1962 का हिंदी रूपांतर, प्रथम संस्करण, 1974, पृष्ठ 90।
97. कंवल भारती, दलित विमर्श की भूमिका, इतिहास बोध प्रकाशन, पृष्ठ 172।
98. वही, पृष्ठ 103।
99. भगवतशरण उपाध्याय, पूर्वोक्त, पृष्ठ 34।
100. भगवतशरण उपाध्याय, खून के छींटे इतिहास के पन्नों पर, पृष्ठ 41।
101. वही, पृष्ठ 85।
102. विस्तृत अध्ययन के लिए देखें, राजू रंजन प्रसाद, ‘प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था एवं भाषा’, जन विकल्प, ।                                                   
103. एस. जी. सरदेसाई, प्राचीन भारत में प्रगति एवं रूढ़ि, पृष्ठ 193।
104. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 393।

3 comments:

sunildutt said...

itni khoj agar apne baare main ki hoti to amrit ko paa gaya hota..
easa koi kul nahi jismain dosh na ho apna bhi check kar lena....
ved vyas ne apne kul ke baare main bhi khub likhaa hai...

Unknown said...

Bramand ki itni tarif pahle na suni. Tum thak gaye hoge aram kr lo thoda.

riya daily vlog said...

सराहनीय