Sunday, September 19, 2010

ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष के विविध आयाम

प्राचीन भारत में राज्य निर्माण की प्रक्रिया, वैधानिकता का बोध और उसके विकास-क्रम पर गौर करने से प्रभुत्त्वशाली वर्ग का अभ्युदय, दंडनीति का आरंभ और इस दंडनीति के साथ प्रभुत्त्वशाली वर्गों के जुड़ने की प्रक्रिया को आसानी से समझा जा सकता है। वैदिक काल में ही राज्य को महिमामंडित करने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी और विभिन्न आयोजनों के द्वारा सत्ता को धार्मिक तथा कानूनी मान्यता भी प्रदान किया जाने लगा था।1 राज्य के शक्तिशाली बनने और विभिन्न सामाजिक वर्गों के अभ्युदय के बीच सत्ता का नियमन तथा सामाजिक शक्तियों के पारस्परिक संबंधों के अंतर्विरोध भी सामने आने लगे थे। शस्त्र और शास्त्र के बीच उभरते नये समीकरण और अंतर्विरोध को भी तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य की रोशनी में ही देखना श्रेयस्कर है।2 वैदिक काल से छठी शती ई. पू. तक के संपूर्ण कालखंड में ‘बलि’ से ‘करारोपण’ तक की लंबी यात्रा में शस्त्र और शास्त्र के बीच उभरे अंतर्विरोध और समन्वय के तत्त्व निहित थे। कर के रूप में प्राप्त अंश की भागीदारी के प्रश्न से शुरू होकर राज्य की शक्ति के नियमन तक की प्रक्रिया में वर्गीय हितों की टकराहट ने जहां समाज के दो प्रभुत्त्वशाली समूहों के बीच संघर्ष उत्पन्न किया वहीं दूसरी तरफ इसकी परिणति समन्वय और आपसी तालमेल में भी होती दिखती है।3 संघर्ष के साथ समन्वय के इस प्रस्थान बिन्दु की तलाश भी प्रासंगिक होगी। ब्राह्मण-क्षत्रिय के बीच समन्वय के तत्त्वों की पहचान, एक दूसरे रूप में, संघर्ष की प्रकृति को ही स्पष्टतया परिभाषित करने में मदद करती लगती है।

बृहदारण्यक उपनिषद् में इस बात की अत्यंत सुंदर अभिव्यक्ति है कि धर्म ही वह मूल और अंतिम आधार है जो राजनीतिक सत्ता का स्रोत है।4 ब्राह्मण अपने को श्रेणीक्रम में बांटकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र पैदा करता है। इस श्रेणीक्रम में ब्राह्मण सबसे ऊपर विराजमान होता है किंतु उसे इतना ही से संतोष नहीं होता और वह सत्ता के नियामक के रूप में धर्म को आगे लाता है ताकि उसे स्थायित्त्व और कानूनी रूप प्रदान किया जा सके। धर्म सबसे ऊपर होता है और वही सारी शक्ति का स्रोत भी बनता है। धर्म से बढ़कर अथवा इससे ऊपर कुछ भी नहीं। इस प्रकार ब्राह्मणों ने इस बात को स्थापित किया कि कमजोर भी बलवान को नियमपूर्वक शासित कर सकता है। यह धर्म क्षत्रिय को और शक्ति प्रदान करता था, उसे संतुलित रखता था और अन्ततः अंतर्विरोध के प्रश्न पर निहत्था भी बना डालता था। लेकिन यह माध्यम अंततः कारगर और प्रभावी था। सम्प्रभुता के मूल स्रोत पर ही इसके माध्यम से वर्चस्व कायम किया जा सकता था और ठीक ऐसा ही हुआ भी। इस संपूर्ण प्रक्रिया में संघर्ष के साथ समन्वय का मार्ग भी प्रशस्त होता है। समन्वय की यह अनिवार्यता एक दिन में निर्मित न हुई और न ही यह अचानक घटित होनेवाली घटना ही थी। यह महज ब्राह्मण-क्षत्रिय की परस्पर सदिच्छा भी नहीं थी; बल्कि इसके कारण तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक परिवेश में खोजे जा सकते हैं। कालांतर में यह और ज्यादा मुखर रूप में प्रकट होता है।

ऋग्वैदिक काल से ही वर्गों के निर्मित हो रहे पारस्परिक संबंध को व्याख्यायित करना उचित और आवश्यक जान पड़ता है। ऋग्वेद में ब्राह्मणों के द्वारा शासकीय सर्वोच्चता का दावा किये जाने का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता बल्कि क्षत्रियों का ही एकाधिक स्थलों पर शासक रूप में उल्लेख है।5 राजन् और क्षत्रिय का उल्लेख साथ-साथ मिलता है। शासक वर्ग की उत्पत्ति इन्हीं के बीच से हुई मानी जाती है। राजा ही सर्वोच्च राजनीतिक अधिकारी होता था जिसमें सम्प्रभुता निहित होती थी।6 वरुण का राजा के रूप में आदि उल्लेख मिलता है जो राजा और सम्राज दोनों था। राजत्त्व (क्षत्र, क्षत्रिय) की प्रमुख विशेषता वरुण में समाहित थी। वही कानून और नैतिक नियमों का प्रधान संरक्षक था। वरुण अपने सहस्र नेत्रों से संपूर्ण विश्व की देखभाल करता था, पापियों को दंड देता था।7 वरुण की शक्ति और राजत्त्व संबंधी अधिकार मित्र से जुड़े हुए थे लेकिन यह वरुण और मित्र के प्रति किसी विरोधाभास का प्रतीक नहीं था बल्कि दोनों के परस्पर संबंध का प्रतीक था। इस संपूर्ण प्रक्रिया में ब्राह्मण साझीदार होता है। इसमें वह धर्म का ही सहारा लेता है जो राजन् और राजत्त्व को महिमामंडित करता है। धर्म के ही सहारे ब्राह्मण अपनी भागीदारी सुनिश्चित करता है। मजेदार बात यह है कि इस कालखंड में ब्राह्मण-क्षत्रिय के बीच कोई विरोधा-भाव देखने को नहीं मिलता। ब्राह्मणों ने वैसे भी राजसत्ता की प्राप्ति के लिए क्षत्रियों से सीधा संघर्ष और उनके अस्तित्त्व को चुनौती देने की रणनीति अख्तियार नहीं की बल्कि इस संपूर्ण प्रक्रिया में ब्राह्मणों ने सत्ता के द्वैध स्रोतों का आरोपण किया; सत्ता के स्रोत पर अपनी अग्रता स्थापित की और अंततः सत्ता के ऊपर अपनी ठोस दावेदारी सुनिश्चत की।8 राजसूय यज्ञ के क्रम में ब्राह्मण निम्नलिखित सूत्र-वाक्य को उच्चरित करता है-‘यह आदमी तुम्हारा राजा है, ऐ मनुष्य, सोम हम ब्राह्मणों का राजा है।’ यहां ब्राह्मण अपने और प्रजा के अलग-अलग राजा की बात करता है तथा अपने को राजा की अधीनता से मुक्त बताता है।9

धर्मसूत्र में इस बात पर जोर दिया गया है कि धर्म ही वह सर्वोच्च आधार है जो राजा और राजसत्ता को बल प्रदान करता है। धर्मशास्त्र के रचयिता इस बात को स्पष्ट करते हैं कि धर्म राज्य में सर्वोच्च शक्ति है और यह राजा से ऊपर है; राजा धर्म के लक्ष्य और कार्य को निष्पादित मात्र करता है।10 धर्मसूत्र में शासनकला को राजधर्म कहा गया है।11 अगर राजा राजधर्म की अनदेखी करता है या इससे विमुख होता है तो ऐसा राजा पाप का भागी होगा।12 इन स्रोतों में धर्म के स्वरूप पर विचार करना अप्रासंगिक न होगा। यह जानना आवश्यक है कि धर्म, जो कि लेकोत्तर, परा-भौतिक एवं रहस्यमयी सत्ता के आचरण से आच्छादित था, कैसे अपना स्वरूप गढ़-बदल रहा था और तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक श्रेणीक्रम में अपना स्थान तय कर रहा था। ईश्वरीय सिद्धांत क्रमशः न्यायिक एवं विधिक श्रेणी में रूपांतरित हो रहा था।13 वर्णाश्रम धर्म के साथ धर्म अपनी नई भूमिका में भी सामने आ रहा था। प्रत्येक वर्ण और यहां तक कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए भूमिका और हैसियत निर्धारित की जाने लगी थी और उस पर नये प्रतिबंध भी लगने शुरू हो रहे थे। वर्ण और व्यक्ति का निर्धारित कार्य के विरुद्ध जाना अवैधानिक और साथ ही साथ इसीलिए अनैतिक घोषित किया जाया जाने लगा। धर्म, नीतिपरक सिद्धांतों से सामाजिक यथार्थ की ओर, भाव से भूमि की ओेर अग्रसर होने लगा।14 अगर धर्मशास्त्र सामाजिक यथार्थ का निरूपण कर रहा था तो निश्चित तौर पर राजा की सीमा निर्धारित की जाने लगी थी। राजा समय के साथ धर्म की लौकिकमान्यताओं  से शासित होने के लिए बाध्य हो रहा था।15 राजा के लिए उचित यही था कि वह धर्म का पालन करे जबकि ब्राह्मण धर्म का स्वरूप गढ़ने की अत्यंत महत्त्वपूर्ण और ‘दैवी’ जिम्मेवारी से ‘लैस’ थे। गौतम सूत्र में इस बात को उद्घाटित किया गया है कि वेद धर्म का स्रोत  है और परंपरा उसकी जानकारी का आधार।16 वशिष्ठ ने इसे और भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है और उल्लेख किया है कि अंत में तीनों वर्ण ब्राह्मणों द्वारा निर्देशित विधि के अनुकूल अपना जीवन-यापन करेंगे। ब्राह्मण उनके कर्तव्यों का निर्धारण करेंगे और राजा उसका पालन सुनिश्चित करेगा।17 ब्राह्मणों द्वारा विभिन्न रूपों में राजसत्ता में भागीदारी सुनिश्चित की जा रही थी। पुरोहित, आचार्य और राजगुरु के रूप में उनकी भूमिका उल्लेखनीय थी। वे राजा के पद से ज्यादा राजसत्ता के नियमन के प्रति आग्रही थे और इसके लिए इस वर्ग ने धर्म तथा धर्म की व्याख्या तक को अपने अधिकार में सुरक्षित रखा था। आपस्तंब पुरोहितों की अनिवार्यता पर जोर देता है क्योंकि वे धर्म के मर्मज्ञ थे।18 वशिष्ठ स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि पुरोहित, राजा को उसके गृहस्थ और राजा के रूप में कर्तव्य के पालन में मदद करते हैं।19 युद्ध में राजा की विजय-कामना से प्रेरित हो पुरोहित मंत्र-पाठ करते थे।20 इस प्रकार पुरेाहित को राज्य की राजनैतिक और वैधानिक संरचना में महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान करने का कार्य धर्मशास्त्रकारों ने किया है।21 वशिष्ठ के अनुसार अगर दोषी व्यक्ति सजा पाने से वंचित रह जाये तो राजा एक दिन, एक रात और पुरोहित को तीन दिन-तीन रात तक उपवास रखकर अपनी भूल का प्रायश्चित करना पड़ता था।22 वशिष्ठ के इस कथन से स्पष्ट है कि कानून के पालन की जिम्मेवारी ब्राह्मण ने राजा की अपेक्षा  अपने पास ज्यादा रखी थी।23

ब्राह्मणों ने जिस विधान के द्वारा सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने का प्रयास किया था, वह निश्चित रूप से क्रमिक और धार्मिक नियतिवाद से जुड़ा हुआ था। इस मुद्दे पर क्षत्रियों का सीधा विरोध शायद ही देखने को मिलता है क्योंकि क्षत्रिय भी ब्राह्मण परंपरा के एक अभिन्न अंग के रूप में उसी नियतिवाद से निर्देशित हो रहे थे जो एक सीमा के अंदर वर्गीय हितों को ध्यान में रखते हुए सर्वस्वीकार्य थे। ब्राह्मणों का अधिकार उसके ‘मुख’ में और क्षत्रियों का अधिकार उसकी ‘भुजा’ में अंतर्निहित था।24 इस प्रक्रिया में ब्राह्मण और क्षत्रिय ने परस्पर सामंजस्य को स्वीकार किया। राजसत्ता का नियमन धर्म से हो और धर्म ब्राह्मणों के मुख से निकलता था। अतएव ब्राह्मण और क्षत्रिय एक दूसरे के पूरक के रूप में सामने उभरकर आए। वैदिक काल से धर्मशास्त्रों के काल तक राजत्त्व के सिद्धांत की विकास-परंपरा को ध्यान में रखना महत्त्वपूर्ण होगा। राजत्त्व का दैवी सिद्धांत वैदिक साहित्य में अनुपस्थित है; लेकिन इसकी विकास-प्रक्रिया नये संबंधों के निर्माण की ओर संकेत देती है। इस विकास-प्रक्रिया से ब्राह्मण-क्षत्रिय संबंध की कई अन्य जटिलताएं भी स्पष्ट होती हैं।

आरंभिक काल में ब्राह्मण के पद की सीमा निश्चित रूप से अनुल्लंघनीय थी, लेकिन क्षत्रिय अभी इसमें प्रविष्ट कर सकता था। ब्राह्मण को क्षत्रिय बनने की तृष्णा कभी रही हो, ऐसा भारतीय पुराण, इतिहास या आख्यान में कहीं नहीं मिलता।25 आरंभिक काल के ब्राह्मण का पद अपनी शक्ति, सम्मान और अर्थ की दृष्टि से इतना ऊँचा रहा कि उसे इस ओर बढ़ने की आवश्यकता ही नहीं रही। पर आगे चलकर अपनी कार्य-परिधि तथा हितों के अत्यधिक निकट और प्रायः प्रतियोगी होने के कारण पुरोहित (ब्राह्मण) और क्षत्रियों में टकराव बढ़ता गया, तथा आगे चलकर यह टकराव भारतीय इतिहास एवं सामाजिक विकास का एक महत्त्वपूर्ण अंग हो गया। इतिहासकार पुरुरवा, नहुष, बेन, विश्वामित्र और परशुराम26 आदि के जीवन-वृत्तों द्वारा ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष का प्रमाण पेश करते हैं।

पौरोहित्य पद के अनंत लाभ थे जिसे क्षत्रिय राजा भी लोभ की दृष्टि से देखने लगे। आरंभिक ब्राह्मण-धर्म-व्यवस्था के सरल स्वरूप में देव-पूजा तथा पितृ-पूजा के लिए होनेवाले यज्ञ-अनुष्ठान में ब्राह्मण का स्थान सर्वोपरि था। पहले जो यज्ञ सामाजिक/सामूहिक स्तर पर होते थे अब कालक्रम से व्यक्तिगत स्तर पर होने लगे। कुछ और बाद तो ये यज्ञ राजाओं के राज्य-विस्तार और धनी वर्ग की धन-वृद्धि के लिए पुरोहित (ब्राह्मण) द्वारा आयोजित होने लगे। क्षत्रियों द्वारा, निहित लाभ एवं शक्ति के कारण इन यज्ञों और परिणामस्वरूप ब्राह्मणों का विरोध बढ़ना स्वाभाविक था।27 ब्राह्मण के अन्य विशेषाधिकार भी क्षत्रिय अथवा राजन्य को खटकने आरंभ हुए। उस समय राजा को नियंत्रित और सुरक्षित रखने के लिए बहुत से संस्कार होते थे, जैसे राजा को राज-सिंहासन से नीचे उतरकर ब्राह्मण को प्रणाम करना पड़ता था और उसे शपथ लेनी होती थी कि वह पुरोहित के साथ कभी धोखा नहीं करेगा।28 गऊ के समान ब्राह्मण अवध्य29 घोषित हुआ और क्षत्रिय का कतर्व्य इनकी रक्षा करना स्वीकार हुआ। राजा के अपने प्रत्येक कार्य में पुरोहित के अनुमोदन की आवश्यकता थी। क्रमशः अर्थव्यवस्था की संकुलता के कारण राजा के अधिकार-क्षेत्र में वृद्धि होती गई, और उधर पुरोहित भी स्वयं को कर्मकांड तक सीमित करता गया। अतः यह स्वाभाविक ही था कि शक्तिहीन पुरोहित-वर्ग ब्राह्मणों द्वारा दी गई व्यवस्थाओं की क्षत्रियों द्वारा अवहेलना होने लगे।3०                                                                                        

सूत्र साहित्य में धर्म के अतिरिक्त राजनीति और सामाजिक संबंधों पर भी प्रकाश डाला गया है, जिसमें क्षत्रिय के बढ़ते हुए प्रभाव को निस्तेज करने तथा ब्राह्मणों की स्थिति को सुदृढ़ करने का प्रयत्न किया गया है। इसके बाद ब्राह्मण को एक हाथ में ग्रंथ (धर्मशास्त्र) तथा दूसरे हाथ में तलवार पकड़नी पड़ी।31 क्षत्रिय को ब्राह्मण का उत्कर्ष भाया नहीं। अतः उसने ब्राह्मणों के सबसे मजबूत आधार अर्थात् कर्मकांड32 की निंदा की और कहा कि कर्मकांड तो छेदवाली नाव है।33 बीच भंवर में डूब जायेगी। उसका उपहास किया और आगे चलकर क्षत्रियों ने अपने धन के बल पर कुछ ब्राह्मणों को आश्रय दे, पिछले ऋग्वेदीय विराट को ब्रह्म की नई अवधारणा में निरूपित किया। गीता उसकी अंतिम कड़ी थी। आवगमन तथा संचित कर्म को नये सिद्धांत के रूप में क्षत्रिय ने पेश किया।

अश्वपति केकय (पंजाब), प्रवाहण जैबलि (मध्य प्रदेश), अजातशत्रु (काशी) तथा जनक (विदेह)-ये चार क्षत्रिय राजा उपनिषदों में निहित ज्ञान के पंडित कहलाए। इस ब्रह्म के ज्ञान पर क्षत्रियों का एकाधिकार है,34 इस सत्य का उद्घाटन प्रवाहण जैबलि ने छान्दोग्य उपनिषद् में उद्दालक आरुणि के सम्मुख किया।

क्षत्रियों द्वारा प्रस्तुत काल्पनिक ब्रह्म निष्काम तथा निर्गुण और आकार रहित था। उसका जवाब ब्राह्मणों ने अपने दर्शनों के माध्यम से दिया। कपिल ने कहा कि सृष्टि का कारण पदार्थ है, ब्रह्म नहीं। कणाद ने कहा कि परमाणुओं  के संख्यात्मक योग से ही सृष्टि का विकास एंव संचालन होता है, किसी ब्रह्म द्वारा नहीं। गौतम ने अपनी तर्क-पद्धति से काल्पनिक ब्रह्म के पांव उखाड़ दिए। ये सभी ब्राह्मणों के यथार्थ चिंतन का फल है। लेकिन क्षत्रिय ने ब्राह्मण को हिंसक कहा और उसकी निंदा की। ‘तीन वर्ण’ का नारा आया। ब्राह्मण ने कहा, समाज में तीन वर्ण हैं। क्षत्रिय कोई वर्ण नहीं। इसी का प्र्रतिवाद करते क्षत्रिय ने कहा, समाज में तीन वर्ण हैं। ब्राह्मण हिंसक है और लुटेरा है, इसे पृथक करो।35

ब्राह्मण  ग्रंथों की रचना ब्राह्मणों ने की थी लेकिन उपनिषदों की दार्शनिक परिकल्पनाओं के क्षेत्र में क्षत्रियों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान था। उपनिषद् उस काल के द्योेतक हैं जब विभिन्न वर्णों का उदय हो चुका था और कबीले को संगठित करके राज्यों का निर्माण किया जा रहा था। राज्यों के निर्माण में क्षत्रियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी, हालांकि इस काम में उन्हें ब्राह्मणों का भी समर्थन प्राप्त था। उपनिषद्-काल के बहुत से राजा दार्शनिकों के मित्र और संरक्षक के रूप सामने आते हैं। विदेह के राजा जनक की याज्ञवल्क्य से, जो बृहदारण्यक उपनिषद् के एक अत्यंत महत्त्वपर्ण दार्शनिक थे, गहरी मित्रता थी। राजा जनक दार्शनिक गोष्ठियों की अध्यक्षता भी करते थे। हम पाते हैं कि काशी के राजा अजातशत्रु ब्राह्मण पुरोहित बालाकि से दार्शनिक वाद-विवाद करते हैं और अन्ततः उसे अपना शिष्य बना लेते हैं। छान्दोग्य उपनिषद् से पता लगता है कि कितने ही विद्वान ब्राह्मण अश्वपति केकय नामक राजा के पास आते हैं और उनके शिष्य बन जाते हैं।36

यह भी सत्य है कि उपनिषद्-काल के बहुत से विचारक कर्मकांडों और बलि इत्यादि को दार्शनिक चिंतन-मनन से गौण मानते थे, विशेषतः तब जब उनका चिंतन और भी गहन हो गया। मुंडक उपनिषद् में दो प्रकार के ज्ञान का उल्लेख किया गया हैः न्यून कोटि का ज्ञान और उच्च कोटि का ज्ञान। वेदों और कर्मकांडों का ज्ञान न्यून कोटि का माना गया है जबकि ब्रह्म का अक्षय और सर्वव्यापी यथार्थ का ज्ञान उच्च कोटि का। किंतु इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि परिकल्पनात्मक चिंतन के विकास के बाद भी वैदिक कर्मकांड ब्राह्मणवाद का अविच्छिन्न अंग बना रहा किंतु कोई भी सजग और निष्पक्ष अध्येता उपनिषदीय साहित्य पर एक विहंगम दृष्टि डालने पर यह सहज ही समझ सकता है कि इनकी प्रवृत्ति कर्मकांड से भिन्न और उसकी विरोधी है, और सृष्टि के बारे में ये जो सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं, वह ब्राह्मणों की यज्ञ-प्रधान शिक्षा में निहित सिद्धांत से बिल्कुल अलग है। सभी प्राचीन उपनिषदों में यह विरोध एक या दूसरे रूप में प्रकट हुआ है और कुछ में तो यह विरोध खुले रूप में दिखाई देता है। उदाहरणार्थ, मुडंक उपनिषद् में यज्ञ कर्म पर बिल्कुल खुला आक्रमण किया गया है और कहा गया है कि यज्ञों से श्रेय लाभ की आशा जो रखता है वह प्रमूढ़ अर्थात् महामूर्ख है।37

इस प्रकार वैदिक युग के यज्ञ, कर्मकांड, वर्ण-व्यवस्था एवं पुरोहितवाद आदि प्रस्थापनाओं के खिलाफ उपनिषद् एक विद्रोह है, संभवतः प्रथम विद्रोह। पुरोहितों के कृत्य पर उपनिषदों में स्थान-स्थान पर करारा व्यंग्य किया गया है। उदाहरणार्थ, निंदासूचक शब्दों के साथ छान्दोग्य उपनिषद् में कहा गया है कि पुरोहितों की शोभा-यात्रा उन कुत्तों की शोभा-यात्रा के समान है जिनमें से हरेक अपने आगे आनेवाले की पूंछ पकडे़ हुए है और कहता है, ‘ओम्, आओ खाएं। ओम्, आओ सुरापान करें।’38 इतना ही नहीं, कई स्थानों पर याज्ञिकों के गायन, उनके द्वारा यज्ञवेदी की परिक्रमा आदि कर्मकांडों की कुत्तों के भौंकने एवं भ्रमण करने से उपमा दी गई है।39

यज्ञ एवं तत्संबंधी कर्मकांडों और पुरोहितों पर सीधा प्रहार के अलावा विरोध दूसरे ढंग से भी किया गया है। इस क्रम में यज्ञों के शाब्दिक अर्थ की बजाय लाक्षणिक अर्थ प्रकट किया गया है।40 अश्वमेध यज्ञ प्रसिद्ध है। इसका प्रतिष्ठान विश्व के अधीश्वरत्त्व का सूचक है। इसे क्षत्रिय संपन्न करता है और इसमें बलि दिया जानेवाला मुख्य पशु घोड़ा होता है। बृहदारण्यक उपनिषद् इस यज्ञ को एक सूक्ष्म यज्ञ बना देता है तथा इसे ध्यान की एक क्रिया के रूप में रूपांतरित कर देता है,41 जिसमें ध्याता, अश्व के स्थान पर संपूर्ण जगत् को समर्पित करता है, और इस प्रकार प्रत्येक वस्तु का त्याग करके सच्चा स्वराज्य प्राप्त करता है। यह स्वराज्य स्थूल अश्वमेध के अनुष्ठान से प्राप्त माने जानेवाले अधीश्वरत्त्व के ही तुल्य है।42

बृहदारण्यक उपनिषद् अपने प्रथम अध्याय के प्रथम मंत्र ही में अश्वमेध के अश्व को कुछ इस तरह रूपांतरित करते हुए प्रारंभ होता है-‘उषा यज्ञ संबंधी अश्व का सिर है, सूर्य नेत्र है, वायु प्राण है, वैश्वानर अग्नि खुला हुआ मुख है, अंतरिक्ष उदर है, पृथ्वी पैर है, नक्षत्र अस्थियां हैं, आकाश मांस है...।’ आगे यह उपनिषद् यज्ञ के नाम पर गिरगिट तक को मारने का स्पष्ट निषेध करता है। पुनः इस विशालकाय उपनिषद् के अंत में एक ऐसा भी उदाहरण आता है, जिसके दो अभिप्राय समझ में आते हैं। प्रथमतः, यह उदाहरण यज्ञ संबंधी कर्मकांड को एक अश्लील गाली है और दूसरी यह कि जीवन के अत्यंत गोपनीय तथा अनिवार्य क्रिया मैथुन तक को यज्ञ घोषित कर देता है और उसे वाजपेय यज्ञ की उपमा देता है।43 इस तरह नर-नारी के बीच होनेवाली इस रति-क्रिया जैसे यज्ञ के अनुष्ठान में किसी पुरोहित की दुकानदारी की कोई गुंजाइश नहीं बचती है। उपनिषद् कहता है-‘स्त्री की उपस्थेन्द्रिय वेदी है, वहां के रोएं कुशा हैं, योनि का मध्य भाग प्रज्वलित अग्नि है...।’44

छान्दोग्य उपनिषद् में शूद्र राजा जानश्रुति और रैक्व मुनि के उपाख्यान45 द्वारा एक ही साथ कई निशाने साधे गये हैं। एक ओर तो शूद्र को ब्रह्मज्ञान दिलाकर एक जाति विशेष के विशेषाधिकार को तोड़ा गया है, दूसरी ओर ऋषि रैक्व का धन के प्रति नहीं बल्कि युवती कन्या के प्रति आकर्षण और उस युवती के सुंदर मुखड़े के बदले में उसके पिता को ब्रह्मज्ञान-दान को तैयार होना भी, ब्रह्मज्ञान की महत्ता एवं रहस्यमयता पर तीखा व्यंग्य है। ठीक उसी प्रकार सत्यकाम जाबाल की कहानी46 वर्ण, जाति, जन्म और योनि के कठघरे पर हथौड़े की चोट है।

जब औपनिषदिक सिद्धांत अधिकाधिक जोर पकड़ने लगा तब परंपरावादी ब्राह्मण समझौते पर उतर आया। उत्तरकालीन उपनिषदों में इस समझौते के स्पष्ट चिह्न मिलते हैं।47 श्वेताश्वतर उपनिषद् यज्ञ के दो मुख्य देवताओं अग्नि और सोम का सानुमोदन उल्लेख करता है, तथा पुरानी यज्ञोपासना का पुनः आश्रय लेने का समर्थन करता है।48 इस संदर्भ में एक दार्शनिक तथ्य स्मरणीय है कि समझौते में हमेशा सत्य की हार होती है और झूठ की जीत।

उपनिषदों में कुछ ऐसे स्थल हैं जहां कहा गया है कि स्वयं मनुष्य ही ब्रह्म है,49 मनुष्य से श्रेष्ठतर कुछ भी नहीं है।50 उदाहरण के लिए बृहदारण्यक उपनिषद् में ब्रह्म के आत्मा से संबंध के बारे में हम निम्नलिखित पंक्तियां पाते हैं: ‘जो यह जान लेता है कि ‘‘मैं ही ब्रह्म हू’’ स्वयं वही बन जाता है। देवता भी उसे ब्रह्म बनने से नहीं रोक सकते, क्योंकि  वह उनकी भी आत्मा बन जाता है। फलतः जो कोई यह सोचकर कि वह अलग है और ब्रह्म अलग है, किसी अन्य देवता की (अपने अतिरिक्त) पूजा करता है, वह अज्ञानी है। देवताओं के लिए वह पशु के समान है।’51 उपर्युक्त अवतरण संक्षेप में यह विचार प्रस्तुत करता है कि ‘ब्रह्म मनुष्य के अतिरिक्त  और कुछ नहीं है। मनुष्य में बसनेवाली आत्मा और समस्त ब्रह्मांड में संचार करनेवाली जीवन-शक्ति, दोनों एक ही हैं-अर्थात् ब्रह्म। ब्रह्म सर्वत्र है। वह हर चीज में व्याप्त है।’52 निस्संदेह, यह समस्त संसार ब्रह्म है, उससे ही यह उत्पन्न होता है। उसमें ही यह लीन हो जाता है और उससे ही यह अनुप्राणित है। इस प्रकार उपनिषदों के दार्शनिक चिंतन से ब्राह्मणों द्वारा दैवी शक्ति के आरोपण से अलग मनुष्य की गरिमा स्थापित करने में लगे थे जो प्रकारांतर से क्षत्रियों की ब्राह्मणों के ऊपर निर्भरता से मुक्ति दिलाने की सहज कोशिश भी थी।

उपनिषदों के काल में यज्ञ का स्थान ज्ञान ले लेता है।53 मोक्ष को संसार का समाधान बताया गया और यह भी कहा गया कि मोक्ष का मार्ग ज्ञान है।54 ज्ञान की, इस युग में इतनी महिमा बढ़ी कि वर्णाश्रम और यज्ञवाद, दोनों बहुत पीछे छूट गये।55 जाबाला पुत्र सत्यकाम को ब्रह्मविद्या का अधिकारी मानकर उपनिषद् के ऋषि ने, मानों यह खुली घोषणा की है कि ब्राह्मण-अब्राह्मण का भेद व्यर्थ है।56 मनुष्य जन्म से नहीं, शील से महान् होता है-यहां तक कि जारज संतान भी यदि सत्यवादी है तो उसे ब्राह्मण के सभी अधिकार मिलने चाहिएं। ऐसी बातें पूर्वी भारत में ज्यादा होने लगी थीं क्योंकि यहां का समाज किसानी समाज की ओर अग्रसर हो चुका था जिसमें ब्राह्मणवाद के दो प्रमुख आधार-यज्ञ और हिंसा के लिए बहुत जगह नहीं बची थी। कुरु-पंचाल के आर्य काशी, कोशल, मगध और विदेह के आर्यों से घृणा रखते थे, यह बात ब्राहमण-ग्रथों से स्पष्ट हो जाती है। शतपथ ब्राह्मण  में कहा गया है कि कुरु-पंचाल के ब्राह्मणों ने वैदिक धर्म यानी यज्ञ को छोड़ दिया है तथा वे एक नये धर्म का प्रचार कर रहे हैं जिनमें यज्ञ और पशु-हिंसा दोनों की मनाही है।57 यह भी कि पूर्वी देशों में समाज पतित हो गया है, क्यांेेेेकि उसमें ब्राह्मणों का स्थान क्षत्रियों ने ले लिया है,58 और तीनों वर्ण के लोग वहां क्षत्रियों की ही अधीनता में रहते हैं।59 क्षत्रियों की अधीनता से यहां यह अर्थ लगाया जा सकता है कि जन-साधारण के बीच ब्राह्मणवाद की पंेचीदगियां अस्वीकार्य हो गई थीं और क्षत्रिय वर्ण के लोगों ने इसका समुचित लाभ अपना समर्थन प्राप्त करने में उठाया। शतपथ ब्राह्मण में इस बात की भी शिकायत की गई है कि पूर्वी देशों के लोग संस्कृत शब्दों का सही-सही उच्चारण नहीं कर सकते और ‘र’ को ‘ल’ कहते हैं।60

यह बात भी ध्यान देने की है कि उपनिषद्ों के चरम उत्कर्ष के समय, विचारों का नेतृत्त्व पश्चिमी नहीं, पूर्वी भारत के हाथ में था और उपनिषदों के एक महान् ऋषि याज्ञवल्क्य कहीं बिहार में ही रहते थे जिनके पास शंका-समाधान के लिए कुरु-पंचाल देश के भी विद्वान आने लगे थे जो पूर्वी लोगों के लिए निंदा का भाव रखते थे।61

वैदिक काल में हिंसा और अहिंसा का संघर्ष चल रहा था। ब्राह्मणों ने हिंसा का पक्ष लिया; क्योंकि यज्ञ से उनकी रोजी-रोटी चलती थी और हिंसा के बिना यज्ञ संपन्न नहीं किया जा सकता था। कहना होगा कि कई बार पुरोहित लोग जान-बूझकर तरह-तरह के अनुष्ठानों के लिए अपने यजमानों को उत्प्रेरित करते रहते थे, क्योंकि ऐसे अनुष्ठानों से पुरोहित लोग तो मालामाल होते ही थे, साथ ही यजमान के प्रभुत्त्व को भी मान्यता प्राप्त होती थी और उनका अपना धार्मिक नेतृत्त्व स्थापित होता था।62 उत्तर वैदिक ग्रथों में ऐसे अनेक अनुष्ठानों का वर्णन और विधान है जिनका उद्येश्य राजकीय सत्ता या प्रभुता को मान्यता प्रदान करना है।63 इनके नाम हैं-राजसूय, वाजपेय, अश्वमेध, एन्द्रमहाभिषेक आदि। इन वैदिक यज्ञों का फल वैदिक कर्मकांड की व्याख्या करनेवाले ब्राह्मण-ग्रंथों में साफ-साफ बताया गया है। किंतु कृषि-कर्म और राजधर्म से जुड़े होने के कारण निरीह पशुओं की प्राण-रक्षा का भार क्षत्रियों पर आना पड़ा और इस तरह हिंसा-अहिंसा के संघर्ष में अहिंसावाद64 के नेता भी वही हुए। इसी परंपरा की कड़ी महात्मा बुद्ध और महावीर थे जो जन्म से क्षत्रिय थे। केवल वर्द्धमान और गौतम ही नहीं, जैन गुरु नाथपुत्र और बोधिसत्त्व के गुरु आलार कालाम और उद्रक राजपुत्र भी क्षत्रिय ही थे।65

ब्राह्मणों की प्रभुता का एक मुख्य आधार वर्ण व्यवस्था थी। भारतीय संस्कृति की एक विशेषता यह बतायी जाती है कि, ईश्वर है या नहीं, इस प्रश्न पर हमारे पूर्वज उदारमतवादी थे। मध्ययुगीन यूरोप में निरीश्वरवादियों को भयंकर यातनाएं दी गईं। कुछ को तो जिंदा ही जला दिया गया। वैसा कुछ हमारे यहां नहीं हुआ। इस कथन में तथ्य है। आप ईश्वर को मानिए या न मानिए, एक ईश्वर मानिए या अनेक ईश्वर मानिए, मूर्तिपूजा कीजिए अथवा अमूर्त कैवल्य का चिंतन कीजिए, परंतु वर्ण-व्यवस्था और जाति-धर्म के सवाल पर वे लेशमात्र भी समझौता करने को तैयार नहीं थे। ईश्वर को चाहंे तो घर से बाहर फेंक दीजिए, पर जाति-धर्म का यत्किंचित भी उल्लंघन हुआ तो खैर नहीं। इस मामले में कोई समझौता नहीं, इस ‘पाप’ के लिए कोई क्षमा नहीं! गौतम बुद्ध चूँकि एक तत्त्वचिंतक से ज्यादा समाज-सुधारक थे; इसलिए इन चीजों की स्पष्ट परख रखते थे। अतः उनहोंने ‘शील’ को सर्वोपरि महत्त्व देकर ‘वर्ण’ और ‘ब्राह्मण’ दोनों की प्रभुता को चुनौती दे डाली।66

बुद्ध बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहते हैं, ‘माता की योनि से उत्पन्न होने के कारण किसी को मैं ब्राह्मण नहीं मानता और जो ‘‘भो-वादी’’67  तथा संग्रही है, उसे भी मैं ब्राह्मण नहीं मानता। मैं ब्राह्मण उसी को कहता हूं जो अपरिग्रही और सर्वत्यागी है।’
न चाहं ब्राह्मणं ब्रूमि योनिजं मतिसम्भवं।
‘भोवादि’ नाम सो होति स च होति सकिन्न्चनो।
अकिंचनं अनादनं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं।।68           
आगे कहा है-जो सारे बंधनों को काटकर (तृष्णा) से नहीं डरता, उस (रागादि के) संग और आसक्ति से विरत को मैं ब्राह्मण कहता हूं।
सब्बसन्न्ञोजनं छेत्वा यो वे न परितस्सति।
संगातिगं विसन्न्ञुत्तं तमह ब्रूमि ब्राह्मण।।69        

स्पष्ट हुआ कि ब्राह्मण-वर्ण को स्वीकार तो करते थे, किंतु इस वर्ण के लोगों में उन गुणों को देखना चाहते थे, जिन गुणों के कारण वह वर्ण पूजनीय माना जाता था। महाभारत के सभापर्व में राजसूय यज्ञ का वर्णन आया है। उसमें कहा गया है कि यज्ञ-मंडप में कोई भी सदस्य (ब्राह्मण) ऐसा न था, जो वेद के छहों अंगों का ज्ञाता, बहुश्रुत शीलव्रत, अध्यापक, पापरहित, क्षमाशील और सामर्थ्यशील न हो-
नाषऽड.ग विद्यासीत् सदस्यो नाबहुश्रुतः।
नाव्रतो नानुपाध्यो नापापो नाक्षमो द्विजः।।70 
आगे कहा है-
ब्राह्मण वेदशास्त्रज्ञाः कथाश्चकुश्च सर्वदा।

यह भी स्पष्ट हुआ कि ब्राह्मण-वर्ण का होने से किसी को उस ‘महापुण्य’ कार्य में हाथ बंटाने का अधिकार न था-वे ब्राह्मण तो हों ही, साथ ही विद्वान, पापरहित, क्षमाशील, शीलव्रत धारण करनेवाले तथा सामर्थ्यवान भी हों।
श्रावस्ती71 के अनाथपिंडिक72 के जेतवन में रहते समय बुद्ध ने एसुकारि ब्राह्मण को उपदेश देते हुए कहा था-‘न तो उच्चकुलीनता को अच्छी बतलाता हूं और न बुरी, न मैं उच्च वर्ण को अच्छा कहता हूं और न बुरा, न मैं बहुधन-धान्यसंपन्न को भला कहता हूं और न बुरा। ब्राह्मण ऊंचे कुलवाला भी हिंसक, चोर, काम-मिथ्याचारी, झूठा, चुगलखोर, परुषभागी, बकवादी, लोभी और झूठी धारणावाला होता है।’

इच्छानंगल72  में जब बुद्ध थे, तो उनकी सेवा में विद्वान एवं धनी ब्राह्मणों का एक छोटा-सा मंडल उपस्थित हुआ। सवाल था-‘जन्म से ब्राह्मण होता है या कर्म से ?’ बुद्ध ने कहा, ‘प्राणियों की जातियों में एक-दूसरे से जाति-भेद है। वृक्ष, कीट, पतंग में जैसा जाति का पृथक लिंग है, वैसा मनुष्य के शरीर में यह (भेदक लिंग) नहीं मिलता। मनुष्यों में भेद केवल संज्ञा में है। मनुष्यों में जो गोरक्षा से जीविका करता है, वह कृषक है-ब्राह्मण नहीं। शिल्प से जीविका चलानेवाला शिल्पी है, व्यापार करनेवाला वणिक्, चोरी करनेवाला चोर, शस्त्र धारण करके पेट चलानेवाला सैनिक, पुरोहिती से जीनेवाला पुरोहित और ग्राम, राष्ट्र का उपयोग करनेवाला राजा है। माता की योनि से उत्पन्न होने के कारण मैं ब्राह्मण नहीं कहता। मैं उसे ब्राह्मण मानता हूं जो अपरिग्रही है तथा सारे संयोजनों (बंधनों) को काटकर निर्भय और संग-आसक्ति से अलग रहता है।’

किंतु ऐसा भी नहीं कि बुद्ध को वर्णों के अस्तित्त्व में विश्वास ही न हो। यहां तक कि भिक्षुओं में जो हीन कुलोत्पन्न होते थे, उन्हें श्रेष्ठ कुलोत्पन्न के साथ बराबरी करने पर अपमान सहन करना पड़ता था-गालियां खानी पड़ती थीं। कोकाकिल73 नाम का एक भिक्षु था। दूसरे बहुश्रुत भिक्षुओं के द्वारा धर्मग्रंथ बांचते देखकर उसने भी बांचने के लिए सोंचा। यह समाचार जब बुद्ध के पास पहुंचाया गया तो, उन्होंने एक कहानी सुनाते हुए कोकाकिल को लताड़ा-‘एक शृगाली के साथ सिंह को प्रेम हो गया। फलस्वरूप एक बच्चे का जन्म हुआ। उस बच्चे का आकार-प्रकार सिंह का था। सिंह-शावक जब क्रीड़ा करते दहाड़ते रमते थे, तब वह जारज सिंह भी दहाड़ने का प्रयास करता था; मगर उसके मुंह से गीदड़ जैसी आवाज निकलती थी। उसकी बोली सुनकर सिंह चुप लगा जाते थे-गीदड़ के साथ स्वर मिलाना सिंहों के लिए अपमान था।’

सिंह के शुद्ध (जोर मेरा है) पुत्र ने अपने पिता से पूछा ‘यह देखने में तो हमारे ही जैसा है, मगर बोलता है दूसरी तरह, उसका क्या कारण है ?’ सिंह ने कहा, ‘तेरा यह भाई शृगाली के पेट से पैदा हुआ है।’ फिर उसने अपने जारज पुत्र को बुलाकर डांटा और कहा-‘चुप रहा कर, बोलने से सब जान लेंगे कि तू गीदड़ है।’74 इस तरह सिंहों की जमात में बोलने की कामना करनेवाला ‘कोकाकिल’ भिक्षुक सिंह न होकर सिंह का जना गीदड़ी का पुत्र था, अतः उसका चुप रहना ही श्रेयस्कर माना गया। अब एक दूसरी गाथा पर ध्यान दीजिए। यह गाथा75 भी उसी ‘कोककिल’ की है जो सूत्रों का स-स्वर पाठ करना चाहता था। शेर की खाल ओढ़कर खेतों में स्वच्छंद विचरण करनेवाले गधे की कहानी कहकर बुद्ध ने कहा-
नेतं सीहस्स नदितं न व्यग्घस्स न दीपिनो।
पारुतो सीहचम्मेन जम्मो नदति गद्दभो।।
शेर की खाल ओढ़कर यह दुष्ट गधा चिल्लाता है-यह न शेर की आवाज है न व्याघ्र या चीते की। इस गाथा से भी यही सिद्ध होता है कि जो हीन-कुल में उत्पन्न हुआ है उसे उत्तम काम भी करने का अधिकार नहीं है; क्योंकि वह उत्तम काम कर ही नहीं सकता।76 सही है कि बौद्ध-काल में ‘जन्म से जाति’ को उतना महत्त्व नहीं दिया जाता था-जातिगत गुणों की प्रधानता थी। किंतु इससे बौद्ध-धर्म की क्रांतिकारिता नहीं प्रमाणित होती। वैदिक काल से महाभारत युग तक वर्ण-व्यवस्था के संबंध में जो मान्यताएं स्थिर की गई थीं, मोटे तौर पर इस काल में भी वहीं चीजें असरदार थीं। बुद्ध ने भी कोई नई कसौटी वर्ण-व्यवस्था के संबंध में नहीं रखी, पुरानी मान्यता को ही थोड़े हेर-फेर के साथ स्वीकार कर लिया।77 ऐसा भी नहीं माना जा सकता कि बुद्ध ने ‘जन्म से जाति’ की दीवार पर प्रहार करके वर्ण-व्यवस्था का विरोध किया हो या गला घोंटा हो, बल्कि उन्होंने वर्ण-व्यवस्था के भीतर की उमस और अचलता को कम करना चाहा।78 क्योंकि इसके बगैर वर्ण-व्यवस्था में क्षत्रियों को प्रथम स्थान पर आरोपित करना लगभग असंभव-सा था। फिर दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि वर्ण-व्यवस्था की खोज ब्राह्मणों की कोई अकेले की चीज तो थी नहीं! और यह भी उतना ही स्पष्ट है कि वर्ण-व्यवस्था को अपरिहार्य बनाने में दोनों ही वर्णों के नायकों का समान योगदान था।79 सभी देशों और समाजों का अनुभव है कि वर्गभेद के साथ राजसंस्था का निर्माण होता है। आर्थिक शोषण करनेवाले वर्ग को अपनी राजसत्ता भी स्थापित करनी होती हैं। अन्यथा, अर्थ-व्यवस्था और शोषितों से चुपचाप अर्थोत्पादन करा लेना संभव नहीं होता।80 और इस बात से अब शायद ही किसी को असहमति हो कि प्राचीन भारत में वर्ग, मोटे तौर पर वर्ण से अभिन्न था। वर्ण-निर्धारण में कर्म-सिद्धांत के मानने से यह लड़ाई ब्राह्मण-क्षत्रिय की आपस की बनी रही; वर्ण के अस्तित्त्व को इनकार करने से, संभव था, मामला जनता की अदालत को पहुंच जाता।

ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष को प्राचीन भारत में गणतंत्रात्मक तथा राजतंत्रात्मक शासन-पद्धतियों की आपस की टकराहट में भी चिह्नित किया जा सकता है। एकसत्तात्मक राज्य में पुरोहित का काम वंश-परंपरा से या ब्राह्मण-समुदाय की सम्मति से ब्राह्मण को ही मिलता था।81 प्रधानमंत्री आदि के कार्य भी ब्राह्मणों को ही मिलतेे थे। इससे ब्राह्मण लोग एकसत्तात्मक शासन प्रणाली के प्रबल समर्थक बन गये। यह बात विचार करने योग्य है कि ब्राह्मण-ग्रंथों में गणसत्तात्मक राजाओं का नाम-निर्देश भी नहीं है।82 इससे ऐसा लगता है कि ब्राह्मणों को गणतंत्रात्मक शासन-प्रणाली बिल्कुल पसंद नहीं थी। अंबट्ठसुत्त में यह उल्लेख पाया जाता है कि शाक्यों जैसे गणराजा ब्राह्मणों का सम्मान नहीं करते, यह आरोप अम्बट्ठ83 ब्राह्मण ने उन पर लगाया था।

गणराज्यों में यज्ञ-यागों को बिल्कुल प्रोत्साहन नहीं मिलता था,84 और एकसत्तात्मक राज्यों में तो महाराज यज्ञ-याग चलाने के लिए ब्राह्मणों को वंश-परंपरा से भूमि या अन्य इनाम देते थे। सुत्तपिटक से मालूम होेता है कि अकेले बिंबिसार के राज्य में सोणदंड, कूटदन्त आदि ब्राह्मणों को और कोसल देश में पोक्खरसाति (पौष्करसादि), तारुक्ख (तारुक्ष) आदि ब्राह्मणों को बडे़-बड़े इनाम-इकराम मिले हुए थे। अतः ‘परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमावापस्यथ’ के न्याय से ब्राह्मण जाति और एकतंत्रात्मक शासन-प्रणाली का प्रभाव एक-दूसरे की सहायता से बढ़ जाना स्वाभाविक हो गया। इसके ठीक उलट गणसत्तामक राज्यों के प्रति श्रमणों के मन में आदर होता था क्योंकि ऐसे राज्यों में यज्ञ-यागों को कोई पूछता तक न था।85 दीघनिकाय में आदर्श शासन-प्रणाली बतानेवाले चक्कवत्तिसुत्त और महासदस्सन सुत्त नाम के दो सुत्त हैं। उनमें चक्रवर्ती राजा का महत्त्व अतिशयोक्तिपूर्ण है। ब्राह्मणों के सम्राट और इस चक्रवर्ती में इतना ही अंतर है कि पहला जहां साधारण जनता की चिंता न करके बहुत से यज्ञ-याग करके केवल ब्राह्मणों की चिंता करता है,86 वहीं दूसरा सारी जनता के साथ बर्ताव कर सुखी बनाने में दक्ष रहता है।

कोसल देश का राजा पसेनदि (प्रसेनजित्) यद्यपि वैदिक धर्म का अनुयायी था और बड़े-बड़े यज्ञ संपन्न करता था फिर भी उसके राज्य में श्रमणों का सम्मान किया जाता था। पसेनदि राजा बुद्ध को बहुत चाहता था। उसके शाक्य-कुल की किसी राजकन्या से विवाह करने का विचार पसेनदि ने किया। परंतु शाक्य राजा कोसल राजकुल को नीच मानते थे,87 अतः अपनी कन्या कोसलराज को देना उचित न समझा। फिर भी चूंकि शाक्यों पर कोसलराज का दबदबा था इसलिए उसकी मांग को अस्वीकार करना भी उनके लिए कूटनीतिक रूप से संभव न था। अंत में महानाम शाक्य ने दासी-कन्या वासभरवत्तिया को निजी कन्या के रूप में दे दिया। उसका लड़का विडूडभ सोलह वर्ष की उम्र हो जाने पर अपनी ननिहाल (यानी शाक्यों के यहां) गया। शाक्यों ने अपने संथागार (नगर-मंदिर) में उसका उचित सम्मान किया। किंतु उसके चले जाने के बाद उसका आसन पानी से धो डाला गया।88

इसके समानांतर दीघनिकाय में यह उल्लेख है कि यद्यपि सोणदंड, बुद्ध का उपासक हुआ तथापि उसने ब्राह्मण-धर्म को नहीं छोड़ा। ब्राह्मण-परिषद् की कड़ाई के कारण ही वह परिषद् में बैठने पर, बुद्ध को उठकर प्रणाम नहीं करता था।89 केवल अभिवादन के लिए बैठे-ही-बैठे माथे की पगड़ी हटा लेता था। यदि वह रथ पर सवार कहीं जा रहा होता था, तो उतरकर अभिवादन नहीं करता था, केवल चाबुक उठा देता था अथवा केवल हाथ उठा देता था।90 एक अन्य घटना में सुकुलुदायि बौद्ध धर्म स्वीकार ही करना चाहता था कि उसकी परिषद् बिल्कुल बिगड़ गई और चिल्ला पड़ी-‘परिव्राजक उदायि! इससे हम तो अपने मत से नष्ट हो जाएंगे, सब धर्म-विरोधी हो जाएंगे।91

चेती राष्ट्र की जानकारी चेतिय और वेस्सन्तर नामक दो जातकों में मिलती है। स्वयं वेस्संतर का देश शिवि इस चेतिय राष्ट के पास ही था। वहां के शिवि राजा के द्वारा अपनी आंखें ब्राह्मण को दिए जाने की कहानी जातक में प्रसिद्ध है।92 वेस्सन्तर जातक के अनुसार वेस्सन्तर राजकुमार ने भी अपना मंगल हाथी, अपनी स्त्री तथा दोनों  बच्चे ब्राह्मण को दान में दे दिए थे।93 इसकी कथा वेस्सन्तर जातक में आ गई है। इससे यह सिद्ध होता है कि शिवियों और चेतियों के राष्ट्रों में ब्राह्मणों का महत्त्व बहुत अधिक था और इसलिए ये राज्य कहीं पश्चिम की ओर रहे होंगे। बुद्ध उनके राज्यों में कभी गये हों, ऐसा प्रतीत नहीं होता। बुद्ध की जीवनी के साथ इन राज्यों का किसी भी प्रकार का संबंध नहीं था।94

कुरु देश की राजधानी इन्द्रप्रस्थ नगर में थी। इस देश में बौद्ध के भिक्षु-संघ के लिए एक भी विहार नहीं था।95 बुद्ध उपदेश करते-करते जब इस देश में थक जाते तो किसी पेड़ के नीचे या ऐसे ही किसी अन्य स्थान पर निवास करते थे। कुरु देश के कम्मासदम्म (कल्माषदम्य) नामक नगर के पास बुद्ध द्वारा सतिपट्ठान जैसे कुछ उत्तम सुत्तों के उपदेश दिए जाने का उल्लेख सुत्तपिटक में मिलता है। इससे प्रतीत होता है कि वहां की साधारण जनता तो बुद्ध का आदर-सम्मान करती थी; मगर अधिकारियों में कोई उनका भक्त नहीं था और वहां वैदिक धर्म का ही बोलबाला था।96 मत्स और पंचाल जैसे देशों की भी बुद्ध ने यात्रा शायद नहीं की थी क्योंकि वहां के लोगों और शहरों के विषय में बौद्ध-ग्रंथों में विशेष जानकारी नहीं मिलती।97 सूरसेन देश में बुद्ध शायद ही कभी जा सके थे। अंगुत्तर निकाय के पंचक निपात सुत्त से ऐसा लगता है कि उन्हें मथुरा विशेष प्रिय नहीं थी। उन्होंने कहा-‘हे भिक्षुओ, मथुरा में ये पांच दोष हैं। कौन-से पांच ? वहां के रास्ते उबड़-खाबड़ हैं, वहां धूल बहुत है, कुत्ते बदमाश हैं, यक्ष क्रूर हैं और वहां भिक्षा मिलना बहुत कठिन है। भिक्षुओ, मथुरा में ये पांच दोष हैं।’98

ऐसा लगता है कि बुद्ध, प्रद्योत के राज्य अवंती भी कभी नहीं गये।99 प्रद्योत के अत्यंत क्रूर स्वभाव के कारण ही उसके नाम के साथ ‘चंड’ विशेषण लगाया जाता रहा होगा। वहां के पुरोहित का लड़का मध्य देश में जाकर बुद्ध का शिष्य हो गया। महाकात्यायन के स्वदेश लौटने पर प्रद्योत तथा अन्य लोगों ने उसका अच्छा आदर-सत्कार किया। मथुरा और उज्जैन में महाकात्यायन प्रसिद्ध था फिर भी ऐसा नहीं प्रतीत होता कि बुद्ध के जीवन-काल में वहां बौद्ध-मत का अधिक प्रचार-प्रसार हुआ हो। बुद्ध के भिक्षु शिष्य बहुत थोड़े थे; अतः इस प्रदेश के लिए ऐसी आज्ञा थी कि पांच भिक्षु भी दूसरे भिक्षु को उपसंपदा देकर संघ में प्रवेश करा सकते हैं जबकि ठीक इसी कार्य के लिए मध्य देश में कम-से-कम बीस भिक्षुओं की आवश्यकता पड़ती थी।100 

कहना होगा कि बुद्ध के समय में ब्राह्मणों की अपेक्षा श्रमणों (परिव्राजकों )का महत्त्व अधिकाधिक बढ़ चुका था। गणसत्तात्मक राज्यों के प्रति इन श्रमणों के मन में पर्याप्त आदर-भाव होता था।101 गणराजाओं के प्रति स्वयं बुद्ध का आदर भी स्पष्ट लक्षित होता है।102 उत्तर पूर्वी भारत के शाक्य, लिच्छवि आदि गण क्षत्रिय बहुल एवं शब्दोपजीवी थे। कदाचित् इन गणों के मुख्य क्षत्रिय कुलों के प्रधान थे। इन गणों में तुलनात्मक रूप से ब्राह्मणों का निरादर और क्षत्रियों को विशेष सम्मान प्राप्त होता था।103 ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष की परंपरा को समझने में प्राचीन भारत की राजतंत्रात्मक एवं गणतंत्रात्मक शासन-पद्धतियों के अंतर्विरोध को एक संभव साक्ष्य के रूप में रेखांकित किया जा सकता है।                  

संदर्भ एवं टिप्पणियां :

1. राज्यारोहन समारोह के महत्त्व और इससे संबंधित अनेक प्रश्नों पर यू. एन घोषाल ने स्टडीज इन इंडियन हिस्ट्री एण्ड कल्चर, कलकत्ता, 1965 में काफी विस्तृत चर्चा की है।
2. डा. अशोक कुमार, बौद्ध धर्म का सामाजिक आधार, पी-एच. डी. थीसिस, इतिहास विभाग, पटना विश्वविद्यालय, पटना, 1999 (अप्रकाशित), पृष्ठ 96।
3. सिवेश भट्टाचार्य, द इंडियन हिस्टॉरिकल रिव्यू, जुलाई 1983-जनवरी 1984, खंड 10, अंक 1-2, पृष्ठ 20।
4. बृहदारण्यक उपनिषद्, 1.4.11-15।
5. सिवेश भट्टाचार्य, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 5।
6. ऋग्वेद, 10. 173; 10. 174।
7. वही, 1. 25. 5; 1. 24. 13; 10. 123. 6; 8. 34. 10 आदि।
8. सिवेश भट्टाचार्य, पूर्वोद्धृत।
9. वाजसनेयि संहिता, 10. 18; तैत्तिरीय संहिता, 1. 8. 12; शतपथ ब्राह्मण, 5, 3. 3. 12; 5. 4. 2. 3 आदि।
10. पी. वी. काणे, हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र, खंड-3, पूना, 1973, पृष्ठ 241।
11. आपस्तंब धर्मसूत्र, 11. 10. 25. 1।
12. गौतम धर्मसूत्र, 18. 32।
13. जे. डी. एम. डेरिट, धर्मशास्त्र एण्ड जूरिडिकल लिटरेचर, वेसकाडेन, 1973, पृष्ठ 2-6, 10-11।
14. बी. के. सरकार, ‘सम बेसिक आइडियाज ऑफ पॉलिटिकल थिंकिंग इन एंशिएण्ट इंडिया’, दि कल्चरल हेरिटेज ऑफ इंडिया, खंड-2, कलकत्ता, 1962, पृष्ठ 516-18।
15. डा. अशोक कुमार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 101।
16. गौतम सूत्र, 1.1-2।
17. वशिष्ठ धर्मसूत्र, 1.39-41।
18. आपस्तंब धर्मसूत्र, 2. 5. 10. 14।
19. वशिष्ठ सूत्र, 19. 3-6।
20. गौतम सूत्र, 11. 17।
21. पुरोहित आरंभिक सभ्यताओं के राजनैतिक जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे। देखें, कार्ल. ए. विटफोगेल, ऑरिएंटल डिस्पॉटिज्म, येल यूनिवर्सिटी प्रेस, 1976, पृष्ठ 87-100। और देखें, सिवेश भट्टाचार्य, द इंडियन हिस्टॉरिकल रिव्यू, वॉल्यूम-10, पृष्ठ 1-20।
22. वशिष्ठ धर्मसूत्र, 19. 40-43।
23. पुराहितों की भूमिका को विस्तार से जानने के लिए देखें, यू. एन. घोषाल, ए हिस्ट्री ऑफ इंडियन पब्लिक लाइफ, खंड-2, बंबई, 1966, पृष्ठ 23।
24. वही।
25. लीलाधर दुखी, ब्राह्मण, मानक पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, 1992, पृष्ठ 58।
26. परशुराम की क्षत्रियों के प्रति घृणा का अंदाजा संस्कृत साहित्य में यत्र-तत्र बिखरे संवादों से भी होता है।
27. लीलाधर दुखी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 12।
28. वही, पृष्ठ 13।
29. भगवतशरण उपाध्याय, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, पृष्ठ 78।
30. लीलाधर दुखी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 13।
31. वही, पृष्ठ 86।
32. इसकी परंपरा महाभारत के जमाने तक देखी जा सकती है। महाभारत में एक अत्यंत सामान्य कथा है-नेवला-कथा। संभव है, यह लोक में प्रचलित रही हो। किंतु इसे महाभारत में ऐसे स्थान पर प्रस्तुत किया गया है कि यह महाभारत को ही एक नया अर्थ नहीं देती, जीवन को जीने की एक सरणि भी देती है-दान-धर्म, यज्ञानुष्ठान आदि के ढोंग को उलट-पलट देती है। कथा कुछ इस तरह है-‘अश्वमेध के बाद युधिष्ठिर चक्रवर्ती सम्राट हो गये हैं। ब्राह्मणों को अभूतपूर्व दान दिया जा रहा है। पांडव अपने वैभव-ऐश्वर्य को देखकर पुलकित हैं। धर्मराज ‘धर्मराज’ बन गए। किंतु एक नेवला, जिसकी देह सोने की है, आया और अश्वमेध-भूमि में लोटने लगा। युधिष्ठिर ने उससे लोटने का कारण जानना चाहा। उसने बताया कि एक अत्यंत निर्धन ने कई दिनों के बाद प्राप्त सत्तू को सपरिवार भूखा रहकर एक भूखे भिक्षुक को खिला दिया। भूख से तड़प-तड़पकर वे मर गए। धूल में गिरे सत्तू के जूठे कणों पर लोटने पर मेरा आधा शरीर सोने का हो गया। आपने इतना बड़ा यज्ञ किया है, अकूत दक्षिणा भी दी है, दुर्लभ भोजन कराया है, लेकिन चारों ओर लोटने पर भी मेरा बाकी आधा शरीर सोने का नहीं हुआ।’ यहां यज्ञानुष्ठानों की महिमा का महल धूलिसात् हो जाता है। देखें बच्चन सिंह का लेख, ‘महाभारत की बुनावट’, कसौटी (हिंदी पत्रिका, संपादक-नंदकिशोर नवल), अंक-8।
33. ‘प्लवा ध्येते अदृढ़ा यज्ञरूपा अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म।
   एतच्छ यो येऽभिनन्दन्ति मूढ़ाः जरामृत्युं ते पुनरेवापि यन्ति।।’ (मुंडकोपनिषद्)
भावार्थः अठारह प्रकार के जो यज्ञ कहे गये हैं, वे वस्तुतः छोटी-छोटी कमजोर नावों के समान हैं (जिनसे समुद्र के पार जाना असंभव है)। इन यज्ञों को जो व्यक्ति श्रेय मानकर उनका अभिनंदन करता है वह मूढ़ है और वह फिर-फिर वृद्धत्त्व और मरण को प्राप्त होता है। देखें, रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय, पृष्ठ 94। 
34. लीलाधर दुखी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 87।
35. वही।
36. वही।
37. मुंडक उपनिषद्, 1. 2. 7।
38. छांदोग्य उपनिषद्, 1. 12, 5।
39. वही।
40. रुद्रकांत अमर, ‘वेदों के विरुद्ध विद्रोह हैः उपनिषद्’, हंस (हिंदी पत्रिका, संपादक-राजेन्द्र यादव), नई दिल्ली, जुलाई,  2001।
41. वही।
42. वही।
43. बृहदारण्यक उपनिषद्, 1. 1. 1।
44. रुद्रकांत अमर, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 33।
45. बृहदारण्यक उपनिषद्, 6. 4. 3।
46. छांदोग्य उपनिषद्, 4. 1. 2।
47. रुद्रकांत अमर, पूर्वोद्धृत।
48. श्वेताश्वतर उपनिषद्,  2: 6,7।
49. आर. एस. शर्मा, प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएं, पृष्ठ 93।
50. एस. जी. सरदेसाई, प्राचीन भारत में प्रगति एवं रूढ़ि, पृष्ठ 85।
51. भगवतशरण उपाध्याय, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, पृष्ठ 86।
52. वही।
53. रामधारी सिंह दिनकर, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 98।
54. वही।
55. वही।
56. वही।
57. वही।
58. वही।
59. वही।
60. देश के ऐसे ही पूर्वी एवं उत्तरी भाग में क्षत्रिय वर्ण की श्रेष्ठता का दावा करनेवाले बुद्ध का जन्म हुआ था।
61. रामधारी सिंह दिनकर, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 109।
62. रुद्रकांत अमर, पूर्वोद्धृत।
63. रामशरण शर्मा, भारत में राज्य की उत्पत्ति, पी. पी. एच., 2001, पृष्ठ 12-13।
64. बुद्ध एवं महावीर की जन्म-कथा से यह निष्कर्ष निकलता है कि उन दिनों यह अनुभव किया जाने लगा था कि अहिंसा धर्म का महाप्रचारक एक ब्राह्मण नहीं हो सकता है, इसलिए उनके क्षत्रिय वंश में उत्पन्न होने की कल्पना बहुत अच्छी लगने लगी। देखें, संस्कृति के चार अध्याय, पृष्ठ 110।
65. रामधारी सिंह दिनकर, पूर्वोद्धृत, पाद-टिप्पणी में उद्धृत, पृष्ठ 110।
66. मोहनलाल महतो वियोगी, जातक-कालीन भारतीय संस्कृति, पृष्ठ 136।
67. बौद्ध-काल में ब्राह्मण एक-दूसरे को संस्कृत का ‘भो’ कहकर संबोधित करते थे। देखें एन.वाग्ले,
68. धम्मपद, 396।
69. वही, 397।
70. वही, 399।
71. एसुकारि सुतन्त (मज्झिमनिकाय-2. 5. 6)।                                                                       
72. इसका असली नाम सुदत्त था। वह अनाथों को भोजन (पिंड) देता था, इसलिए उसे अनाथपिंडिक कहा जाता था। देखें, धर्मानन्द कोसम्बी, भगवान बुद्ध: जीवन एवं उपदेश, लोकभारती प्रकाशन, 1987, पृष्ठ 46, पाद टिप्पणी संख्या 1।
73. वासट्ठेसुतन्त (मज्झिमनिकाय-2. 5. 8 )।
74. सीहकोत्थुक जातक-188, जातक-कालीन भारतीय संस्कृति, पृष्ठ 143-44 में उद्धृत।
75. मा त्वं नदि राजपुत्त, अप्पसद्दो वने वस।
   सरेन खो तं जानेय्युं न हिते पेत्तिको सरो।।
देखंे, जातक-कालीन भारतीय संस्कृति, पृष्ठ 142।
76. सीहचम्मजातक, 189।
77. मोहनलाल महतो वियोगी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 144।
78. वही, पृष्ठ 138।
79. वही।
80. एस. जी. सरदेसाई, प्राचीन भारत में प्रगति एवं रूढ़ि, पृष्ठ 48।
81. एस. जी. सरदेसाई, भारतीय दर्शन: वैचारिक और सामाजिक संघर्ष (हिंदी) पी. पी. एच., नई दिल्ली, 1978, पृष्ठ 50।
82. धर्मानन्द कोसांबी, भगवान बुद्ध: जीवन और दर्शन, लोकभारती प्रकाशन, 1987, पृष्ठ 62।
83. वही।
84. अम्बट्ठ मानवक नामक एक निखिल-वेद-वेदांग-शास्त्र-पुराण-निष्णात व्यक्ति ने बातचीत के सिलसिले में कहा, ‘हे गौतम, शाक्य जाति चंड है, शूद्र है, बकवादी है और नीच (इभ्य) भी है; क्योंकि वह ब्राह्मणों का सत्कार नहीं करते।’ देखें, अम्बट्ठ सुत्त (दीघनिकाय-1.3)। चण्डा भो गोतम सक्य जाति...इब्भा सन्ता इब्भा समाना न ब्राह्मणे रुंगकरोन्ति, न ब्राह्मणे मानेन्ति, इत्यादि।
85. धर्मानन्द कोसांबी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 62।
86. वही, पृष्ठ 63।
87. वही।
88. वही, पृष्ठ 47।
89. वही।
90. श्रीहवलदार त्रिपाठी ‘सहृदय’, बौद्ध धर्म और बिहार, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, 1960, पृष्ठ 95।
91. वही।
92. वही, पृष्ठ 100।
93. देखिए, सिविजातक, नं. 488।
94. धर्मानन्द कोसंबी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 48।
95. वही।
96. वही, पृष्ठ 52।
97. वही।
98. वही।
99. ‘पंचिमें भिक्खवे आदीनवा मधुरायं। कतमे पंच? विसमा बहुराजा, चण्डसुनरवा, वालयक्खा, दुल्लभपिण्डा। इमे खो भिक्खवे पंच आदीनवा मधुरायं ति।’ देखें, धर्मानन्द कोसंबी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 53।
100. धर्मानन्द कोसंबी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 54।
101. महावग्ग, भाग-8; बौद्ध संघाचा परिचय, पृष्ठ 30-31।
102. धर्मानन्द कोसंबी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 63।
103. वही।

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