Thursday, September 30, 2010

हिंदी का उद्भव एवं पूर्व मध्यकालीन बिहार

प्राकृत की अंतिम अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव माना जा सकता है।1 अपभ्रंश या प्राकृताभास हिन्दी के पद्यों का सबसे पुराना पता तांत्रिक और योगमार्गी बौद्धों की साम्प्रदायिक रचनाओं के भीतर विक्रम की सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण में मिलता है यद्यपि जनश्रुति इस काल का आरंभ और पीछे ले जाती है। पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी अपभ्रंश की ही एक स्थिति को पुरानी हिन्दी मानते हैं और उससे हिन्दी का विकास हुआ स्वीकार करते हैं।2 हिन्दी साहित्य के इतिहास में यह काल सिद्ध-काल के नाम से जाना जाता है। सिद्धों ने जिस अपभ्रंश में कविता की, उसके संबंध में जैसाकि कहा जा चुका है, इतिहासकार उसी में पुरानी हिन्दी की छाया देखते हैं। यह भी कहा जाता है कि पालि, प्राकृत तथा अपभ्रश भाषाओं में जो जैनों-बौद्धों का साहित्य मिलता है, उसमें भी हिन्दी के प्राचीन रूप के दर्शन होते हैं।3 जैन और बौद्ध धर्म का मुख्य केन्द्र होने के कारण बिहार की तत्कालीन भाषा का प्रचार-प्रसार धर्म-प्रचारकों द्वारा भारत के विभिन्न स्थानों के अतिरिक्त पड़ोसी देशों में भी हुआ। जैन नरेशों और बौद्ध-सम्राटों के प्रभाव से प्राकृत और पालि को उनके राज्यों में राजभाषा भी होने का गौरव प्राप्त हुआ।4 किंतु, अपभ्रश भाषा बिहार में या भारत के अन्य प्रांतों में यद्यपि राजभाषा के रूप में कभी प्रचलित न हुई तथापि जनपदीय भाषाओं से उसका संपर्क समझकर तत्कालीन साहित्यकारों ने अपनी पद-रचना के लिए उसे ही अपनाया। उसमें जो रचना की परंपरा चली, वह कालक्रम से विकास पाती हुई विद्यापति के काल तक चली आई। यहां तक कि थोड़ा-बहुत उसके बाद की रचनाओं भी उसकी छाया प्रतिबिंबित हुई है। गुलेरी जी ने जिसे पुरानी हिन्दी कहा है, उसी के एक रूप को विद्यापति अवहट्ट कहकर परिचय देते हैं। और यह अवहट्ट या अवहंस अपभ्रंश के अतिरिक्त अन्य कोई भाषा नहीं है।5

हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि सब प्रकार की जो प्राकृत भाषाएं जनता द्वारा नाना प्रांतों में बोली जाती थीं, हमारी हिन्दी उसकी उपज है; किंतु प्राकृत ग्रंथों की ‘साधु-भाषा’ में बोली जानेवाली भाषा कम मिलती है। स्वयं अपभ्रंश भाषा के ग्रंथों में प्रचलित भाषा को व्याकरण-सम्मत बनाने के प्रयत्न में लेखकों ने साहित्यिक भाषा का रूप देकर उसे इतना संवारा कि ‘साधु’ और ‘प्रचलित’ दो भिन्न भाषाएं बन गईं, जिनमें बहुत कम साम्य रह गया। इस पर भी प्राकृत तथा अपभ्रंश में हिन्दी व्याकरण का इतिहास स्पष्ट रूप से मिलता है और विशुद्ध हिन्दी शब्दों की व्युत्पत्ति भी उनमें मिलती है।6 हिन्दी का आधार केवल संस्कृत या मुख्यतः संस्कृत मानना भूल है। हिन्दी के अनेक शब्द प्राकृतों और देशी-अपभ्रंशों द्वारा आये हैं। अतः प्राकृत का मूल संस्कृत को बताना अवैज्ञानिक और भ्रमपूर्ण है।7 बहुत-सी बातों में प्राकृत भाषाएं मध्यकालीन भारतीय जनता की बोलियों से मिलती-जुलती हैं और ये सब बातें संस्कृत में बिल्कुल नहीं मिलतीं।8

चूंकि हिन्दी की आदि कविता केवल बिहार के ही बौद्ध-सिद्धों की मिलती है, इसलिए उसके सबसे प्राचीन रूप को बिहार की ही देन कहना युक्तिसंगत होगा।9 राहुल सांकृत्यायन के अनुसार चौरासी सिद्धों में छत्तीस बिहार के हैं।10 जो बिहार के निवासी नहीं थे उनका भी कार्य-क्षेत्र मुख्यतया बिहार ही रहा।11 ऐसा अनुमान है कि बिहार के नालंदा और विक्रमशिला विद्यापीठों से चौरासी सिद्धों का घनिष्ठ संपर्क था।12 कालांतर में बहुत से भोट आदि देशों को चले गये। यह भी अनुमान है कि बिहार से बाहर के जितने भी बौद्ध-सिद्ध रहे होंगे, उन सबकी साधना का केन्द्र-स्थल नालंदा और विक्रमशिला में ही कहीं होगा। इससे स्पष्ट होता है कि चौरासी सिद्धों की साहित्य-सेवा का मूल-स्रोत बिहार ही रहा है और वे पांडित्य तथा साहित्य-रचना की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।13

यह बात सिद्ध-युग में विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि आठवीं से तेरहवीं शताब्दी के समय में गद्य-लेखन में भी हमें साक्ष्य उपलब्ध होते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार एकमात्र चौरंगीपा ही गद्यकार प्रतीत होते हैं जिनकी प्राणसंकली  नामक गद्य-रचना सुरक्षित है। उनके गद्य में भोजपुरी भाषा की झलक मिलती है और ऐसा अनुमान है कि उनके समय से पहले भी गद्य-रचना होती थी।14 संभव है कि उनके अतिरिक्त अन्य बौद्ध-सिद्ध गद्यकार भी रहे हों, पर उनके रचे ग्रंथों के नाममात्र से  ठीक पता नहीं लगता कि वे ग्रंथ गद्य के हैं या पद्य के। यद्यपि चौरंगीपा के गद्य-ग्रंथ के संबंध में भी मतभेद है।

उपलब्ध और प्रकाशित रचनाओं के आधार पर भी विचार करने से ऐसा स्पष्ट लक्षित होता है कि सिद्ध-काल की भाषा-परंपरा विद्यापति के काल तक चली आई है।15 आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक मुख्यतः सिद्धों की रचनाएं अपभ्रंश तथा पुरानी हिंदी में है; पर तेरहवीं शताब्दी के कवि हरिब्रह्म और विद्यापति की अपभ्रंश रचनाओं से बहुत कुछ साम्य दीख पड़ता है।16

राहुल सांकृत्यायन ने तिब्बत यात्रा करके बौद्ध-सिद्धों की रचनाओं का जब उद्धार किया तब बारहवीं शताब्दी के महाकवि चन्दबरदाई के समय से ही हिन्दी का उद्गम माननेवाले इतिहासकार आठवीं शताब्दी में बौद्ध-सिद्धों द्वारा रचित कविताओं में हिन्दी के प्राचीन रूप का आभास पाने लगे।17 इस प्रकार राहुल जी की खोजों से हिन्दी के उद्गम का समय पहले के अनुमानित समय से लगभग चार सौ वर्ष अधिक बढ़ गया। किंतु यह विचारणीय प्रश्न है कि आठवीं शताब्दी में हिन्दी के आदिकवि सरहपाद18 ने अपनी रचना के लिए जिस भाषा को अपनाया, उसमें उस समय से पहले कोई रचना थी या नहीं; क्योंकि सातवीं शताब्दी के आरंभ ही में महाकवि बाणभट्ट के परममित्र भाषा-कवि ईशान ने ‘भाषा’ में-संस्कृत और प्राकृत से भिन्न ‘भाषा’ में कविता की थी। हर्षचरित के प्रथम उच्छ्वास में प्राकृत-कवि और भाषा-कवि का अलग-अलग उल्लेख है।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि उस समय केवल ईशान ही भाषा-कवि नहीं रहे होंगे, बल्कि जिस लोक-प्रचलित भाषा में वे कविता करते थे, उसी भाषा में उस समय के अन्य कवि भी करते रहे होंगे। उसके प्रमाण में वही प्रकरण देखा जा सकता है, जिसमें बाणभट्ट ने अपने परममित्र ईशान के साथ-साथ वर्ण-कवि वेणी भारत19 का उल्लेख किया है। वहां कवि का नाम वेणी भारत और वर्ण कवि उनका विशेषण है। हर्षचरित  के टीकाकार और बारहवीं शताब्दी से पहले होनेवाले शंकर ने वर्ण कवि की व्याख्या करते हुए लिखा है, ‘भाषा में गाने योग्य विषयों को वाणी-रूप देकर कविता करनेवाला-अर्थात् गाथा रचकर कहनेवाला।’20 इससे भी स्पष्ट है कि ईशान की तरह वेणी भारत भी भाषा ही के गाथा कहनेवाले कवि थे।21 इसी तरह सरहपाद ने भी अपनी रचना के लिए कोई नई भाषा नहीं गढ़ी होगी बल्कि  जिस भाषा को उन्होंने अपने भावों को वहन करने में समर्थ पाया, उसका अस्तित्व निश्चय ही पहले से था।22

हिन्दी साहित्य-संसार में यह मान्यता सप्रमाण प्रतिपादित हो चुकी है कि बिहार के बौद्ध-सिद्धों की रचनाओं में हिन्दी का सबसे प्राचीन रूप है।23 किंतु बौद्धों-सिद्धों की रचनाओं में जिस भाषा का प्रयोग हुआ है, वह जनसाधारण की भाषा का एक ‘मानक’ रूप थी; क्योंकि बौद्ध-सिद्धों में से कई कवि भारत के अन्य दूसरे प्रांतों के भी थे और उन्होंने बिहार में आकर एकाएक यहां की जनभाषा में रचना कर डाली, यह सहसा विश्वसनीय प्रतीत नहीं होता।24 हालांकि कुछ विद्वान इसी तर्क को आधार बनाकर यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि बौद्धों-सिद्धों की रचना की भाषा शिष्ट भाषा थी जो जनसाधारण की भाषा से भिन्न थी। भाषा और साहित्य में वैसे लोगों की एक अविच्छिन्न परंपरा है जो रचना-कर्म के लिए शिष्ट भाषा के आग्रही कहे जा सकते हैं।

भाषा इतिहासकारों ने अब तक भाषा के संबंध में विचार करते समय अधिकतर अनुमान और परंपरागत धारणाओं ही के आधार पर अपने मत व्यक्त करते रहे हैं। एक तो भाषा-संबंधी विचार-विमर्श के लिए प्रामाणिक प्राचीन ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं इसलिए बुद्धिगम्य प्रमाणों के आधार पर इतना ही कहना उचित होगा कि बिहार की जनभाषा का नाम, समय और स्थान के भेद से पालि, प्राकृत आदि रहा, जिसके चार प्रधान रूप मैथिली, मगही, भोजपुरी और अंगिका वर्तमान हैं। वर्तमान हिन्दी की जड़ें अगर पूर्व मध्यकालीन बिहार के सिद्धों की रचनाओं में तलाशी जाय तो सर्वथा अनुचित नहीं। यहां यह भी टांक देना मुनासिब होगा कि आठवीं से बारहवीं शताब्दी के लगभग सभी सिद्ध कवि प्राचीन मगध एवं अंग क्षेत्र के हैं, मिथिला क्षेत्र से, अर्थात् विद्यापति के क्षेत्र से किसी रचनाकार के होने का साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता25 जबकि चौदहवीं शताब्दी से मिथिला का योगदान आश्चर्यजनक रूप से शुरू होता है। यह पहलू बहुआयामी शोध की मांग करता है। 

संदर्भ एवं टिप्पणियां:

1. रामचंद्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, पेपरबैक संस्मरण, प्रथम, संवत् 2058, पृष्ठ 3।

2. चंद्रधर शर्मा गुलेरी, पुरानी हिन्दी, प्रथम संस्करण, पृष्ठ 8।

3. शिवपूजन सहाय, हिन्दी साहित्य और बिहार, प्रथम खंड, पृष्ठ 17।

4. वही, पृष्ठ 107।

5. डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, भविसयत्तकहा तथा अपभ्रंश कथा काव्य, भारतीय ज्ञानपीठ, पृष्ठ 47।

6. आर. पिशेल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, हेमचंद्र जोशी की पाद-टिप्पणी, पृष्ठ 4-5।

7. इस विषय पर बेबर ने ‘इंडिशे स्टूडियन’ में जो लिखा है कि प्राकृत भाषाएं प्राचीन वैदिक बोली का विकास नहीं हैं, इसका तात्पर्य है कि वह भूल कर बैठा।

8. आर. पिशेल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 11।

9. शिवपूजन सहाय, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 18।

10. वही

11. वही

12. सरहपा, विसपा और भुसुकपा नालन्दा विहार के नियमित छात्र थे। गुह्यज्ञानव्रज दीपंकर श्रीज्ञान ने नालन्दा और विक्रमशिला दोनों विद्याकेन्द्रों में शिक्षा पायी थी। शांतिपा विक्रमशिला में शिक्षित होने के बाद ही सोमपुरीविहार के स्थविर नियुक्त हुए थे। बौद्ध दर्शन के पंडित कम्बला, महाराज धर्मपाल के लेखक आदिसिद्धाचार्य लुइपा और राजा शालिवाहन के पुत्र चौरंगीपा अशिक्षित थे, ऐसा मानना संभव नहीं, बल्कि मानना तो यह पड़ेगा कि ये सब नालंदा और विक्रमशिला के मेधावी स्नातक थे और तदन्तर स्वीकृत आचार्य होकर अपने युग के चिन्तन के प्रभावी माध्यम हुए। यह अकारण नहीं था कि सरह अध्ययनोपरान्त नालन्दा के ही, जहां के छात्र थे, प्रधान पुरोहित नियुक्त हुए। गुह्यज्ञानव्रज दीपंकर श्रीज्ञान ने मगधनृप न्यायांपाल के अनुरोध पर विक्रमशिला का महापंडित होना स्वीकार किया। नारोपा और शांतिपा विक्रमशिला विहार के पूर्वद्वार के महापंडित बनाये गये।’ देखें, केसरी कुमार, साहित्य के नये धरातल: शंकाएं और दिशाएं, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1980, पृष्ठ 136, पाद टिप्पणी संख्या-4। और देखें, रामचंद्र शुक्ल, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 5।
13. शिवपूजन सहाय, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 19।
14. वही

15. अपभ्रंश की यह परंपरा विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य तक चलती रही। एक ही कवि विद्यापति ने दो प्रकार की भाषा का व्यवहार किया है-पुरानी अपभ्रंश भाषा का और बोलचाल की देशी भाषा का। देखें, रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण, 1997 विक्रम, पृष्ठ 5।

16. शिवपूजन सहाय, पूर्वोद्धृत, भूमिका से, पृष्ठ 20।

17. कुछ विद्वान तो हिन्दी का उद्भव कालिदास में खोजने लगे। ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास की पहली चिन्तनीय दुर्घटना तो यही है कि कालिदास के ‘विक्रमोर्वशीयम्’ के चतुर्थ अंक के उन अपभ्रंशांसों को ‘पुरानी हिन्दी’ नहीं कहा गया, जो इसके आरंभिक उत्तराधिकारी हैं, यद्यपि सरहपा, स्वयम्भू और अब्दुर्रहमान (अद्दहमाण) का हिन्दीपन उनमें विद्यमान है।

‘मोरा परहुअ हंस रहंग अलि अग पव्वय सरिअ कुरंगम।

तुज्झह कारण रण्णभभन्ते को णहु पुच्छिअ मइं रोअंते।।

‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ में वैदिक और ‘विक्रमोर्वशीयम्’ में दोहाक और सोहरख जैसे लौकिक छन्दों का प्रयोग भी इस तथ्य के समर्थक हैं कि ऋषि से भिन्न कवि के रूप में कालिदास यदि संस्कृत के प्रथम महाकवि हैं तो वे ही हिन्दी के प्रथम ज्ञात कवि भी हैं।’

क. मइं जानिअं मिलोअणी णिस अरू कोइ हरेइ।

जाव णु णवतलिसामल धराहरू वरिसेइ।।

ख. पुव्वदिसापवणाह अकल्लोलुग्ग अबाहइो,

मेहअअंगे णच्चइ सलिलअ जलणि हिणाहओ।

हंसविहंगसकुंकुमसंखकआभरण,

करिमअ राउलकसणकमलक आवरणु।

वेलासलिलुवेल्लि अहत्थदिणणतालु,

ओत्थरइ दस दिस संधेविणुणवमेहआलु।।

देखें, केसरी कुमार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 123, 136 पाद टिप्पणी 1, 2, 3।

18. ‘पा’ आदरार्थक ‘पाद’ शब्द है। देखें, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ 6।

19. ‘अभवंश्यास्य सवयसः समानाः सुहृदः सहायाश्च। तथा च भ्रातरौ पारशवौ चन्द्रसेनमातृसेनौ, भाषाकविरीशानः परं मित्रम प्रणयिनौ रुद्रनारायणौ वारवाणवासवाणौ वर्ण कविः वेणी भारतः।’ देखें, हर्षचरितम्, बाणभट्ट, प्रथम उच्छ्वास।

20. शंकर की टीका, ‘भाषागेयवस्तुवाचस्तेषु वर्ण कविः। गाथादिषु गीतद इत्यर्थः।’

21. शिवपूजन सहाय, हिन्दी साहित्य और बिहार, प्रथम खंड, भूमिका से, पृष्ठ 15।

22. वही

23. वही, पृष्ठ 16।

24. शिवपूजन सहाय, हिन्दी साहित्य और बिहार, प्रथम खंड, भूमिका से, पृष्ठ 16।

25. इस निष्कर्ष का आधार हिन्दी साहित्य और बिहार, प्रथम खंड के अंत में दिया गया परिशिष्ट है जिसमें रचनाकारों का जन्म-स्थान उल्लिखित है।

Wednesday, September 29, 2010

राहुल सांकृत्यायन और बिहार में किसान आंदोलन

राहुल सांकृत्यायन
बिहार में किसान आंदोलन के उद्भव एवं विकास को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। कुछ लोग मानते हैं कि यह राष्ट्रवाद के विकास के फलस्वरूप पैदा हुआ। अर्थात् राष्ट्रीय आंदोलन ने ही वह पृष्ठभूमि तैयार की जिसमें  किसानों की राजनीतिक चेतना का प्रसार तथा उसके संगठन एवं नेतृत्व को जिम्मेदारी संभालने के इच्छुक, सक्षम राजनीतिक कार्यकर्ताओं का उदय हुआ, फलस्वरूप किसान संघर्ष संभव हो सका।1 उनके लिए किसान आंदोलन की विचारधारा भी राष्ट्रीयता पर आधारित थी।2 जबकि वस्तुस्थिति यह है कि बिहार में राष्ट्रीय चेतना, जिसे हम गांधीवादी राष्ट्रवाद कह सकते हैं, का उद्भव सीधे तौर पर किसान आंदोलनों से जुड़ा हुआ है।3

इधर हाल के दिनों में क्षेत्रीय इतिहास पर जोर देने से बिहार में किसान आंदोलन पर कुछ महत्वपूर्ण काम हुए हैं, लेकिन किसान आंदोलन के आधार स्तंभ राहुल सांकृत्यायन को नजरअंदाज किया गया है। इसका महत्वपूर्ण कारण है कि वे जमींदारों के कट्टर आलोचक थे।4 किसान आंदोलन की जब भी हम चर्चा करते हैं, राहुल जी की बरबस याद हो आती है। हम साहस के साथ कह सकते हैं कि किसान आंदोलन को शुरू से अन्त तक जानने के लिए राहुल द्वारा दी गई कुर्बानियों को याद करना ही होगा।

जहां तक स्रोत की बात है-हमने सचेतन रूप से सरकारी दस्तावेजों का अनादर किया है क्योंकि कई बार हमें ऐसा प्रतीत होता है कि वे एक ही तरह की सूचनाएं देती हैं और तब हम किसी विशेष कालखंड को बार-बार दुहराते नजर आते हैं। दूसरे, राहुल जी पर लिखते वक्त उनकी साहित्यिक कृतियों की पारदर्शी ईमानदारी हमें अन्य स्रोतों के साथ मिलाकर इसकी सत्यता जांचने की जरूरत ही नहीं छोड़ती।

कहना न होगा कि राहुल जी का जन्म उत्तर प्रदेश में हुआ किंतु उनकी राजनीतिक और सार्वजनिक कर्मभूमि मुख्यतः बिहार ही रहा।5 सन् 1921 ई. से उनके सक्रिय राजनीतिक जीवन की शुरुआत होती है। 1921-25 ई. के बीच राहुल जी ने दो वर्षों तक बक्सर और हजारीबाग जेलों को आबाद किया। सन् 1930 ई. में कांग्रेस का उन्हें पदाधिकारी चुना गया और इस तरह राष्ट्रव्यापी संगठनकर्ता के रूप में उन्होंने सारण जिला में काम किया। 1931 ई. में बिहार सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हुई और वे उसके सचिव बनाये गये।6 1937 ई. में अंग्रेजी शासन के मातहत बिहार में कांग्रेस मंत्रिमंडल बना तो राहुल जी ने जमींदारी के खिलाफ किसान आंदोलन में अपने को न्योछावर कर दिया।7

भारत के किसान आंदोलन के इतिहास में साधु-संन्यससियों की एक महान परंपरा रही है। बिहार इससे अछूता नहीं है। क्या इस बात का सचमुच कोई आधार है कि जिन किसान नेताओं की जन साधारण के बीच पहुंच थी उनको किसानों ने साधु-संन्यासी के रूप में स्वीकार किया था। राहुल जी एवं स्वामी जी की छवि किसानों के बीच जो संत के रूप में बनी इसके क्या कारण हो सकते हैं जबकि वे सारे किसान नेता जो विशुद्ध रूप से कांग्रेसी राजनीति के तहत किसानों का नेतृत्व कर रहे थे, उनकी समाज में अलग पहचान थी। ऐसे प्रश्नों की गंभीर छानबीन करनी होगी और तब हम शायद बिहार में किसान आंदोलन तथा किसानों की मानसिक-मनोवैज्ञानिक संरचना का सही-सही अंदाजा लगा सकते हैं। क्या हम इसे एक तथ्य मान सकते हैं ? ऐसा नहीं है कि ये पहचान इन पर बाहर से थोपी जा रही है, बल्कि स्वामी जी ने तो 1937 में जोर देकर कहा था कि धर्म ने देश का काफी शोषण किया है, अब वे धर्म का किसानों के पक्ष में इस्तेमाल करेंगे।8 राहुल जी ने भी अमवारी सत्याग्रह के दौरान सचेतन मन से स्वीकार किया था कि ‘शायद मेरे शरीर पर जो पीले कपड़े थे उसकी वजह से उनको हाथ छोड़ने की हिम्मत नहीं पड़ती थी।’9 इस तरह किसान आंदोलन के स्वरूप पर जब भी हम बात करेंगे तो तो निश्चित रूप से इस परंपरा की पहचान करनी होगी एवं किसान आंदोलन के साथ उसका तारतम्य बिठाना होगा।

शुरू के दौर में किसान आंदोलनों के बारे में साम्राज्यवादियों की जो राय थी वही राय कांग्रेस ने 1937 के आसपास बना ली थी। अर्थात् जब अंग्रेजी सरकार इसे डकैती10 अथवा लूट की संज्ञा देती थी तो कांग्रेस भी अपने अंतिम दौर में किसान आंदोलन को डकैती अथवा लूट की संज्ञा देती है।11 दोनों के विचारों एवं दमन के तरीकों में कई अद्भुत समानताएं थीं बल्कि कई बार तो देशी सरकार अंग्रेजी सरकार को भी पीछे छोड़ देती थी। तथ्य यह है कि जिन प्रांतों में कांग्रेस की सरकार बन चुकी थी वहां भी किसानों पर दमन एवं सांप्रदायिक दंगों में किसी तरह की कमी नहीं आई।12 साम्राज्यवाद एवं बुर्जुआ राष्ट्रवाद की चिंतनधारा में कोई विशेष अंतर न था। बल्कि दोनों ही शासक वर्ग की सर्वमान्य नीतियों को प्रतिबिंबित कर रहे थे। राहुल जी के आंदोलन का एक प्रमुख अंग यह भी था कि कांग्रेसी सरकार किसान कैदियों को राजनैतिक बंदी मान ले।13 कांग्रेस मंत्रिमंडल ने अपने शासन के आखिरी दिनों तक इस बात को नहीं माना।14 जबकि इन किसानों ने ठीक उसी तरह अपने हक के लिए लड़ाई लड़ी थी और जेल आये थे जैसे कि कांग्रेसी सत्याग्रही अंग्रेजी सरकार से लड़ने के लिए जेल जाते थे।15 जो कांग्रेस कभी राजनीतिक बंदियों को विशेष सुविधाएं मुहैया कराये जाने की मांग कर रही थी, अब वही किसान सत्यागहियों को राजनीतिक बंदी नहीं चोर-डाकू घोषित कर रही थी।16 इन विशेष परिस्थितियों में कांग्रेस का अंतर्विरोध तीव्रतर होता दिखाई देता है।

राहुल सांकृत्यायन किसानों -मजदूरों के हितों एवं कांग्रेस (जिनमें जमींदार प्रमुख थे) के हितों की टकराहट को भलीभांति समझ रहे थे। इन्हें बहुत जल्दी मालूम हो गया कि ‘किसानों की जय’ का नारा लगाकर जिन लोगों ने लगातार किसानों से वोट लिये वही कांग्रेसी मंत्रिमंडल में पहुंचकर अब कोई बात करने से जमींदारों की तकलीफों का लेक्चर देने लगते हैं।17 इसलिए राहुल जी ने जिस स्वराज्य का सपना देखा था उसमें ‘सांवले से गोरे की पटरी’ बैठाने की बात न थी, ‘वह काले सेठों और बाबुओं का राज नहीं था, राज था किसानों और मजदूरों का, क्योंकि तभी गरीबी और अपमान से जनता मुक्त हो सकती थी।’ व्यापक पैमाने पर जो मुक्ति संघर्ष चलाया जा रहा था उसमें मूलतः एक तरफ भारतीय जनता और और बिटिश उपनिवेशवाद अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ था तो दूसरी तरफ देशी सामंतवाद एवं अभिजन वर्ग के खिलाफ था, और उतनी ही तन्मयता के साथ लड़ा जा रहा था। इसलिए हम कह सकते हैं कि राहुल जी के नेतृत्व में किसान आंदोलन दोनों मोर्चों पर एक साथ खड़ा किया गया था। यही इसकी असली सच्चाई है। सिर्फ साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चे पर यह आंदोलन निर्णायक रूप से सफल नहीं हो सकता था। यही कारण है कि भूमि-सुधार आंदोलन, जो कि राहुल जी के आंदोलन का एक प्रमुख हिस्सा था, को आजादी प्राप्ति के बाद भी कम्युनिस्ट पार्टी को एक प्रमुख कार्यभार के रूप में स्वीकार करना पड़ा था।

राहुल सांकृत्यायन को मार्क्सवाद का गहरा अध्ययन था। कार्ल मार्क्स के विचारों को हू-ब-हू वे याद करते पाये जाते हैं। मार्क्स ने कहा था कि दुनिया का सबसे क्रांतिकारी वर्ग सर्वहारा होता है क्योंकि उसके पास खोने के लिए दासता के सिवा कुछ भी नहीं होता। राहुल के लिए क्रांति को निर्णायक मोड़ तक पहुंचाने वाले सिर्फ किसान एवं मजदूर हैं, क्योंकि उन्हीं को सारी यातनाएं सहनी पड़ती हैं, और उन्हीं के पास लड़ाई में हारने के लिए संपत्ति नहीं है।19 वे मार्क्सवाद से प्रभावित तो थे ही सन् 1917 की सोवियत क्रांति से भी गहरे प्रभावित थे।20 रूस में वे किसानों-मजदूरों के संयुक्त मोर्चा को सफल होते देख चुके थे। सावियत क्रांति की खबरों  ने उन्हें एक नयी दृष्टि21 दी थी-किसानों-मजदूरों को आपस में मिलाकर एक संयुक्त मोर्चा बनाने की दृष्टि। राहुल जी सच्चे अर्थों में नेता की अपेक्षा एक कुशल कार्यकर्ता कहीं ज्यादा थे। वे जानते थे कि किसान अपने भीतर से नेता पैदा कर सकते हैं। किंतु कैसे, इसका जवाब उनके पास नहीं था।22

बिहार में किसानों का संघर्ष साम्राज्यवाद ही के खिलाफ न था बल्कि देशी जमींदारों के खिलाफ संघर्ष उतनी ही तीव्र गति से बढ़ रहा था। 1930-40 के दशक में विश्वव्यापी आर्थिक मंदी के फलस्वरूप किसानों पर लगातार गरीबी एवं कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा था। भूकंप ने इसमें और वृद्धि ला दिया। फलतः मालगुजारी दे पाने में किसान असमर्थ थे। बारी-बारी से किसानों की जमीनों को नीलाम कराकर जमींदारों ने हड़प लिया। कांग्रेस मंत्रिमंडल के कायम होने पर जमींदारों को डर हो गया था कि जिन खेतों को उन्होंने जबर्दस्ती किसानों से छीन लिया है, और जिन्हें अब भी किसान ही जोत रहे हैं, उनपर किसानों का हक हो जायेगा।23  इस डर का कारण यह था कि कांग्रेस मंत्रिमंडल ने लगान की दर कम करने और बकास्त जमीनों की वापसी के लिए कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी,24 लेकिन सच्चाई तो यह है कि बकास्त कानून ने किसानों को राहत देने की जगह जमींदारों के दमनचक्र को एक नई शक्ति प्रदान कर दी जिसके फलस्वरूप बिहार में बकास्त आंदोलन उत्तेजित हो उठा।25 सारे बिहार में वर्षों से किसानों के जोत में रहते खेतों को जमींदारों ने निकालना शुरू किया। किसान विरोध करते थे और अपने खेतों को छोड़ना नहीं चाहते थे, यही संघर्ष का कारण था। इस संदर्भ में राहुल ने अमवारी के किसानों का नेतृत्व किया।26 आंदोलन का मुख्य स्वरूप था सत्याग्रह तथा जबर्दस्ती बोआई और फसल कटाई।27 वैसे राहुल को मार-काट में कोई दिलचस्पी न थी, वे बौद्ध थे। लेकिन भला जमींदार इनको माननेवाले थे। इसलिए किसानों को लाठी रख देने के लिए कहना अहिंसा नहीं कायरता का प्रचार करना था।28 राहुल जी को ऐसी कायरता पसंद न थी।29

राहुल जी ने तो किसानों के साथ सत्याग्रह करने के लिए अमवारी को चुना। सत्याग्रह था-एक किसान के खेत में उख काटना। जाहिर है, जमींदार इस खेत को अपना कहता था। राहुल जी ने सत्याग्रह तो किया लेकिन उन्हें बुरी तरह घायल कर दिया गया। पुलिस खड़ी तमाशा देखती रही। जमींदार के कहने पर पुलिस ने हाथीवान को भी, जिसने राहुल का सिर फोड़ा था, छोड़ दिया। यह सब कांग्रेसी राज में हो रहा था। इसी तरह के दमनचक्र चलानेवालों तथा किसान आंदोलनों को निर्ममतापूर्वक दबानेवाले जमींदारों में कई कांग्रेसी मंत्री भी शामिल थे।30 कैदी राहुल को सीवान से छपरा ले जाया जा रहा था। ऐसे मौके पर उन्होंने पैदल चलना ही मुनासिब समझा और रास्ते भर ‘इनक्लाब जिन्दाबाद’‘किसान राज कायम हो जमींदारी प्रथा नाश हो’, आदि नारे लगाते रहे। प्रचार के लिए पैदल चलना बहुत अच्छा था। शायद हफ्ता भी न लगा होगा कि अमवारी के सत्याग्रह में राहुल के सिर फूटने की खबर हरेक गांव में पहुंच गई।31

बिहार के संदर्भ में किसान आंदोलन पर शोध-पत्र पढ़ते वक्त शायद स्वाभाविक रूप से मुनासिब जान पड़ने लगता है कि इसका स्वभाव क्या कोई आंचलिक महत्त्व का था या फिर इसका स्वरूप नितांत राष्ट्रीय था, इसकी जांच की जाये। कहना न होगा कि अंग्रेजी शासन के आरंभिक सौ वर्षों का जो किसान आंदोलन था, उसका स्वरूप बिल्कुल ही स्थानीय था32 क्योंकि राष्ट्रवाद की विचारधारा जैसी कोई अनुभूति इनके पास नहीं थी। लेकिन किसान आंदोलन का जो बाद का दौर है, विशेष रूप से कहें कि 30-40 का जो दशक है-उसमें राष्ट्रवाद की लहर इतनी तेज हो जाती है कि किसान नेता भी देश की आजादी महत्वपूर्ण मानते हैं और उसे अपना प्रथम लक्ष्य के रूप में निर्धारित करते हैं।33 राष्ट्रवाद की लहर ने बिहार में प्रांतीयतावाद की संभावना को ही एक तरह से नष्ट कर दिया। बिहार के बंगाल से अलग होने के जो अपने कारण रहे उनमें ‘बिहारी पहचान’ या फिर क्षेत्रीयतावाद अपने न्यूनतम अंशों में भी उपस्थित नहीं था। यही वह वजह है कि बिहार में उस दौर का जो किसान आंदोलन है उसका कोई क्षेत्रीय अथवा प्रान्तीय स्वरूप अभिलक्षित न हो सका बल्कि साम्राज्यवाद एवं राष्ट्रवाद के अंतर्विरोधों यथा सामंतवाद के खिलाफ मुस्तैदी से आगे बढ़ता रहा। न सिर्फ बिहार में बल्कि इस दौर में उड़ीसा में भी किसान संघ के तहत जो आंदोलन चल रहा था वह भी निश्चित रूप से इन्हीं दो मोर्चों पर अपनी नजरें टिकाये था,34 जो किसान आंदोलन के राष्ट्रीय स्वरूप से मेल खाता था।

कुछ इतिहासकार किसान आंदोलन को राष्ट्रवादी विचारधारा के एक पूरक आंदोलन के रूप में देखते हैं। बल्कि हमारा तो मानना है कि इस तरह के निष्कर्ष बेहद सरलीकरण के शिकार हैं। बिहार में किसान आंदोलन को समग्रता में देखने की बात हो तो पता चलेगा कि इसने कई दफा बुर्जुआ राष्ट्रवाद के अंतर्विरोधों के खिलाफ लड़ने की कोशिश की है, और उसे नंगा किया है। किसान आंदोलन की असफलता इस कारण से भी हुई कि इसने राष्ट्रवादी विचारधारा के साथ किसी तरह का कोई तालमेल बिठाने में अपने को असमर्थ साबित कर दिया।35 दूसरी ओर वे राष्ट्रवाद को मात नहीं दे सकते थे क्योंकि जमाने का सबसे प्रासंगिक और सबसे लुभावना नारा था। आजादी देश की जनता के लिए सबसे अहम सवाल बन चुकी थी। इसलिए अकारण नहीं है कि राष्ट्रवाद की जब अंधी लहर चली तो इसके सदस्य कमने लगे और अंततः आंदोलन असफलता के अंधेरे में बढ़ चला। लेकिन राहुल जी ने बिहार के किसानों में जो राष्ट्रीय चेतना जगायी एवं उसके संघर्ष को जो दिशा दी इतिहास इसके लिए उन्हें कभी नहीं भूलेगा।   
                                                                    
संदर्भ-सूचीः                                                                                                              

1. बिपन चंद्र, (संपादित) भारत का स्वतंत्रता संघर्ष, दिल्ली विश्वविद्यालय, पृष्ठ 332।
2. वही।
3. सुमित सरकार, माडर्न इंडिया, मैकमिलन, 1983, पृष्ठ 155।
4. जनसत्ता, 17 जुलाई 1985।
5. कृष्णचंद्र चौधरी, (संपादित) राहुल जी, पृष्ठ 5।
6. वही।
7. वही।
8. सुमित सरकार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 364।
9. कृष्णचंद्र चौधरी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 49।
10. बिपन चंद्र, अमलेश त्रिपाठी एवं वरुण डे, (संपा.) स्वतंत्रता संग्राम, एन. बी. टी., पृष्ट 46।
11. कृष्णचंद्र चौधरी, पूर्वोद्धृत, 52।
12. सुमित सरकार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 355।
13. कृष्णचंद्र चौधरी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 52।
14. वही।
15. वही।
16. वही।
17. वही, पृष्ठ 33।
18. बिपन चंद्र (संपा.) पूर्वोद्धृत, भूमिका से, पृष्ठ 12।
19. कृष्णचंद्र चौधरी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 30।
20. वही।
21. वही।
22. वही, पृष्ठ 52।
23. वही, पृष्ठ 39।
24. बिपन चंद्र, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 326।
25. स्वामी सहजानन्द सरस्वती, दि अदर साइड ऑफ दि शिल्ड, पृष्ठ 14।
26. के. सी. चौधरी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 47;  बिपन चंद्र, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 327।
27. बिपन चंद्र, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 327।
28. के. सी. चौधरी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 70।
29. वही।
30. सुमित सरकार, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 350।
31. के. सी. चौधरी, पूर्वोद्धत, पृष्ठ 50।
32. संपादकत्रय, पूर्वोद्धत, पृष्ठ 41।
33. सोशल साइंटिस्ट, वॉल्यूम-20, अंक 5-6, मई-जून 1992, पृष्ठ 68।
34. वही, पृष्ठ 66।
35. बिपन चंद्र, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 333।                                                                                                             
प्रकाशनरीजन इन हिस्ट्री : पर्सपेक्टिवाइजिंग बिहार, (संपादित) रत्नेश्वर मिश्र, जानकी प्रकाशन, पटना, 2002।

Friday, September 24, 2010

नालंदा: एक नई दृष्टि

न सिर्फ बिहार और भारत बल्कि संपूर्ण विश्व के बौद्ध धर्म के इतिहास में नालंदा का अपना एक खास महत्व है। यह बिहारशरीफ से लगभग 7 मील दक्षिण-पश्चिम में है। उत्तर में इतनी ही दूरी राजगीर से है। इतिहासकार बुकानन ने इस ऐतिहासिक स्थल को सरकारी अधिकारियों के कार्यालय एवं उनके आवासीय गृह के रूप में देखा है। जैन एवं बौद्ध ग्रंथों में इसे बाहिरिका की संज्ञा दी गई है जिसका मतलब यह होता है कि यह राजगीर की बाहरी सीमा मे पड़ता था, तथा राजगीर की तुलना में कम महत्वपूर्ण भी था। इसका कारण यह था कि राजगीर उन दिनों धर्म एवं शासन का केन्द्र था जबकि नालंदा की शोहरत लगभग पूर्व मध्यकाल में एक प्रमुख शिक्षा केन्द्र के रूप में पूरी दुनिया में फैलती है।

प्रारंभिक बौद्ध साहित्य में नालंदा के लिए नल, नालक, नालकरग्राम आदि नाम आते हैं, और यहां बुद्ध के प्रमुख अनुयायी सारिपुत्त की जन्मभूमि होने का धुंधला साक्ष्य भी प्राप्त होता है। कहना न होगा कि इन नामवाले स्थलों की चर्चा महाकाव्यों एवं पुराणों में नहीं है, जबकि महाभारत  में राजगीर का उल्लेख अक्सर होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि नालंदा के अभ्युदय में राजगीर बाधा उपस्थित कर रहा था। चूंकि नालंदा, राजगीर से काफी सटा था, और राजगीर अपने विकास के चरमोत्कर्ष पर था, इसलिए उसके समानांतर नालंदा की अपनी कोई पहचान कायम न हो सकी। जैसे ही राजगीर का पतन प्रारंभ होता है, नालंदा की प्रगति शुरू हो जाती है। बहुत दिनों बाद तक, जबकि राजगीर की ख्याति धूल में मिल चुकी थी, नालंदा अपने पूरे यौवन में होता है। मौर्य वंश का महान शासक अशोक ने नालंदा में ऐ चैत्य एवं स्तूप निर्मित कराया था। तिब्बती इतिहासकार तारानाथ ने लिखा था, ‘महायान बौद्ध का प्रख्यात दार्शनिक नागार्जुन दूसरी शती में नालंदा का विद्यार्थी रहा था, तथा जिसे बाद में वहां का प्रधान भिक्खु भी नियुक्त किया गया था।’ खुदाइयों से हमें जो साक्ष्य प्राप्त हुए हैं, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि नालंदा, जो कि बाद में एक प्रमुख शिक्षा केन्द्र के रूप में पूरी दुनिया में मशहूर हुआ, की स्थापना पांचवीं शताब्दी में कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में हुई।

इतिहासकार दामोदर धर्मानंद  कोसांबी ने लिखा है कि नालंदा का अभ्युदय नाग-पूजा स्थलों से हुआ है। कभी-कभी विशेष अवसरों पर भिक्षुओं से भोजन प्राप्त करने के लिए आदिम नाग दयालु सर्प के रूप में प्रकट होता था। बौद्ध कथाओं में भी सर्पनाग के बारे में जानकारी मिलती है। बुद्ध ने आदिवासी नागों को अपने धर्म में दीक्षित किया था, विषैले सर्प को अधिकार में किया था। मुचलिंद नामक दैवी नाग ने प्रकृति के प्रकोप से उसकी रक्षा की थी, और वह अपने पूर्वजन्म में एक उभयरूप साहिवक नाग भी था। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि नालंदा का बौद्ध केन्द्र के रूप में विकास धीरे-धीरे तथा नाग कबीले के लोगों के व्यापक धर्मांतरण के कारण हुआ था। कृषि के व्यापक प्रसार के फलस्वरूप नाग जैसी आदिम कबीलाई जातियां समय के परिवर्तन से अपने को बचा नहीं सकीं।

नाग का दूसरा नाम तक्षक है जिसका शाब्दिक अर्थ बढ़ई लकड़ी का सामान बनाने वाला कलाकार  होता है। यह तक्षक एक बेहतर कलाकार था। तक्षशिला संकेत करता था। नाग जाति को आर्य संस्कृति की परिधि से बाहर रखा गया है । शाक्य, जिससे गौतम बु़द्ध का जन्म का संबंध है, का पड़ोसी कबीला कोलिया है। आर्य संस्कृति से प्रभावित दिखता है। शाक्य एवं कोलिया के बीच जल वितरण को लेकर एकबार झगड़ा हुआ था जिसमें शाक्यों ने युद्ध की अनार्य पद्धति  का सहारा लिया था। पालि ग्रंथों में जैसा कि इस बात का उल्लेख है, शाक्यों ने जल को विषैला बनाकर शत्रुओं को मारने के लिए अनार्य पद्धति अपनायी थी। महाभारत में नागों के रूप में चर्चित है। पांचाल  कन्या द्रौपदी की पाच पतियों के साथ शादी अनार्यों की सामान्य एवं सर्वेमान्य परंपरा को ही रेखांकित करती है। पांडवों की राजधानी हस्तिनापुर है। हस्तिनापुर नागों के शहर का पर्याय है। नाग शब्द का प्रयोग हाथियों के लिए भी किया जाता है क्योंकि उसकी सूड़ॅ ठीक सॉप की आकृति की होती है । श्रेष्ठ चरित्र वाले लोगों को भी नाग की संज्ञा से विभूषित किया जाता है। बौद्ध ग्रंथ  में अक्सर श्रेष्ठजनों को लाग कहकर पुकारा गया है । ग्यारहवीं शताब्दी के अभिलेखों  से इस बात का खुलासा होता है कि नाग कुल से सरोकार रखना राजाओं के लिए भी शान और मर्यादा की बात मानी जाती थी।

नाग जाति के संघर्ष में इन तथ्यों के अध्ययन से इस बात का स्पष्ट पता चल जाता है कि नालंदा में अनार्यों का वर्चस्व था और वे आर्य संस्कृति से अलग एवं उसके समानांतर नाग कबीलों की संस्कृति थी जिसका मूल आधार व्यापार एवं दस्तकारी था। वेदों की सत्ता के विरुद्ध वे जीवन की अनार्य धारणाओं में विश्वास रखते थे। आर्यों के विपरीत उनमें भौतिकवादी दर्शन - पद्धति  का ज्यादा विकास हो सका था। कला के क्षेत्र में उनकी दक्षता इस बात का पुष्ट प्रमाण है मगध क्षेत्र में बौद्ध धर्म के प्रचार का यह भी एक कारण था कि यहां की जनजातियों मे भौतिकवादी नजरिये का विकास हो चुका था। कहना न होगा कि मगध प्राचीन काल में अतिवादी भौतिकवाद का गढ़ रहा है। आर्य संस्कृति के संपर्क में आने से, इनके जीवन के तौर -तरीकों  से नाग जातियां  प्रभावित हुई । नालंदा के बारे में कोसाम्बी की यह धारणा कि उसका विकास नाग-पूजा स्थलों से हुआ है, सही  प्रतीत होता है। कहा जा सकता है कि नालंदा का बौद्ध धर्म के केन्द्र के रूप में उभार आर्य एवं अनार्य जातियों के बीच सम्मिलन एवं आत्मसातीकरण की चलने वाली लंबी प्रक्रिया का फल है। यही कारण है कि नालंदा को अपनी ऐतिहासिक भूमिका पूरी करने में अच्छा खासा समय का इंतजार करना पड़ा । बौद्ध धर्म ने अनार्य जातियों को प्रभावित करने में अच्छा समय लिया।

गुप्तकाल से नालंदा की ख्याति शुरू होती है। ह्वेनसांग  ने लिखा है कि शक्रादित्य नामक शासक ने बहुत ही उपयुक्त जगह चुनकर संघाराम बनवाया था। उसकी देखा देखी अनेक शासकों ने नालंदा की समृद्धि में अपना योगदान दिया। हर्षवर्द्धन के शासनकाल में नालंदा अपने विकास की ऊंचाई  प्राप्त कर चुका था। ह्वेनसांग ने लिखा है कि हर्षवर्धन ने लगभग 100 ग्राम नालंदा के बौद्ध विहारों तथा भिक्षुओं के भरण-पोषण के लिए दान दिया था। ह्वेनसांग जिन दिनों नालंदा की यात्रा पर थे, उन्हीं दिनों हर्षवर्द्धन ने नालंदा में पीतल का संघाराम बनवाने का काम शुरू किया था। बौद्ध धर्म-शिक्षा के केन्द्र के रूप में उदित होकर नालंदा ने महत् सेवा की है। बौद्ध संघाराम इतने सुनियोजित तरीके से बनाये गये थे कि हर्षवर्द्धन के शासनकाल में जो राजनीतिक उठा-पटक हुई उसका इस पर असर लगभग न के बराबर देखने को मिलता है। एक दूसरा चीनी यात्री इत्सिंग जो 673 ई. के आसपास भारत आया, नालंदा में रहकर बौद्ध धर्म से संबंधित पुस्तकों का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया। इत्सिंग के काल में नालंदा के भिक्षुओं के भरण-पोषण के लिए लगभग 200 ग्राम थे।

8वीं से 12वीं शताब्दी तक पाल शासकों ने जिनका बंगाल एवं बिहार पर समान रूप से शासन था-नालंदा को काफी हद तक समृद्ध किया । इन शासकों में देवपाल ,महापाल प्रथम एवं गोपाल द्वितीय के नाम प्रमुख हैं। देवपाल के शासनकाल में नालंदा ने कुछ विदेशी शासकों का भी ध्यान अपनी तरफ आकृष्ट किया। देवपाल द्वितीय ने विक्रमशिला  में दूसरा बिहार बनवाकर अप्रत्यक्ष रूप से नालंदा की छवि को थोड़ा धूमिल किया। लेकिन नालंदा की प्रसिद्धि पर इसका कोई बुरा असर नहीं देखा गया। भारत में, जबकि अधिकतर जगहों पर बौद्ध धर्म लुप्त प्राय हो रहा था, नालंदा की समृद्धि लगातार बढ़ती ही जा रही थी। इसी समृद्धि ने बाद में नालंदा के अस्तित्व के लिए खतरा भी उपस्थित किया।

विभिन्न शासकों द्वारा नालंदा को जो भूमिदान दिए गए उसने ऐसी प्रक्रिया को जन्म दिया जिसके फलस्वरूप् नालंदा का विकास यूरोप के मध्यकालीन मठों की तर्ज पर हुआ। यहां के बौद्ध भिक्षु स्वयं खेती न करके दूसरे किसानों को जमीन सौंप देते थे। उपलब्ध साक्ष्यों से इस बात का स्पष्टीकरण अभी तक नहीं हो पाया है कि नालंदा के भिक्षु हल-बैल रखते थे या नहीं। ऐसा प्रतीत होता है कि किसानों को सारी भूमि सौंपकर उपज का छठा भाग वसूल कर लेते थे। उपज का छठा भाग लेने की राजकीय परंपरा का निर्वाह बौद्ध भिक्षु भी कर रहे थे। राज्य को इन्हें कोई कर देना नहीं पड़ता था। इस प्रकार बौद्ध विहारों एवं मठों को भूमिदान देने की परंपरा ने अर्थव्यवस्था के सामंती ढांचे को मजबूत किया। इन बौद्ध विहारों में अत्यधिक धन एकत्रित हो जाने से विदेशी आक्रमणकारियों का ध्यान इसकी तरफ आकर्षित हुआ।

चीनी यात्री ह्वेनसांग संस्कृत और भारतीय बौद्ध धर्म का विशिष्ट अध्ययन करने के लिए 630 ई. के तुरंत बाद नालंदा विहार के विद्यापीठ में पहुंचा। सम्मानित विदेशी विद्वान होने के नाते नालंदा विहार के प्रमुख आचार्य शीलभद्र ने उसका स्वागत किया। एक चीनी जीवनीकार ने ह्वेनसांग के बारे में लिखा है, ‘उन्हें राजा बालादित्य के प्रकोष्ठ में बुद्धभद्र के भवन की चौथी मंजिल पर ठहराया गया। सात दिन तक अतिथि सत्कार करने के बाद धर्मपाल बोधिसत्व के भवन के उत्तर में एक अतिथि गृह में उन्हें जगह दी गई। एक सेवक, एक ब्राह्मण उनकी परिचर्या के लिए नियुक्त था। विहार के सामान्य कार्य से उन्हें छूट मिली हुई थी; और बाहर निकलने पर सवारी के रूप् में उन्हें हाथी मिलता था। नालंदा विद्यापीठ में कुल मिलाकर दस हजार आतिथेय व अतिथि भिक्षुक थे, पर केवल दस व्यक्तियों को ही, जिनमें ह्वेनसांग भी एक थे, ये सुविधाएं प्राप्त थीं।’

स्वयं नालंदा विहार के बारे में जीवनीकार ने लिखा है, ‘ एक बाद एक छह राजाओं ने छह विहार बनवाये। फिर ईंटों का एक बाड़ा बनाया गया। इस प्रकार सभी भवनों को मिलाकर एक बड़ा विहार बन गया, जिसमें सबके लिए एक प्रवेश द्वार था। उद्यानों में नीले रंग की धाराएं बहती थीं, चंदन के वृक्षों की बहार के बीच हरे कमल चमकते थे, भारत में हजारों विहार हैं पर वैभव व भव्यता में नालंदा बेजोड़ हैं। यहां के भिक्षु  महायान और हीनयान की 18 शाखाओं के सिद्धांतों का अध्ययन करते थे। वे व्याकरण, चिकित्साशास्त्र, गणितशास्त्र आदि का भी  अध्ययन करते थे । निर्वाह के लिए राजा की ओर से उन्हें 100 ग्रामों का राजस्व मिला हुआ था और प्रत्येक गॉव में उन्हें प्रतिदिन कई सौंतान् चावल धी और दूध लाकर देते थे। इसी अनुदान के कारण वे विद्या के क्षेत्र में आगे बढ़ गये है।’’

नालंदा के ध्वंसावशेषों से भी सिद्ध होता है कि इस विवरण में कोई अतिशयोक्ति नहीं है, यद्यपि पुरातत्ववेता अभी एक भी विहार के क्रमिक विकास का सुनिश्चित ब्योरा नहीं प्रस्तुत कर पाये हैं। स्पष्टतः यह बौद्ध धर्म से कोसों दूर था जिसका ईसा पूर्व छठी शताब्दी में इसके संस्थापक ने मगध में  प्रतिपादन किया था। ऐसे तपस्वी भिक्षु अभी भी थे जो नंगे पैर यात्रा करते, खुले में सोते, बचे-खुचे अन्न की भिक्षा ग्रहण करके उदर निर्वाह करते और लोकभाषा में ग्रामवासियों या आटविकों को उपदेश देते। परंतु इनके संख्या और प्रतिष्ठा कम थी। भिक्षु के लिए निर्धारित चीथड़ों से सिले हुए वस्त्रों के स्थान पर अब कीमती केसरिया रंग में रंगे बढिया सूती कपड़े, उत्तम ऊन अथवा विदेशी रेशमी के सुरुचिपूर्ण वस्त्रों का इस्तेमाल होता है। लगता है कि यदि स्वयं बुद्ध जो अपनी अंतिम पार्थिव यात्रा के दौरान नालंदा ग्राम से गुजरे थे इस भव्य संस्थान में जो उनके नाम पर चलता था, पहुचते तो उनकी खिल्ली उड़ायी जाती और उन्हें निकाल दिया जाता। बुद्ध ने ऐसे चमत्कारों की हंसी उड़ायी थी, पर अब ये उस धर्म के अभिन्न अंग बन गये थे और बुद्ध के अलौकिक चमत्कारों की कथाएं भी फैल चुकी थीं।  

प्रकाशन: बिहार: स्थानीय इतिहास एवं परंपराजानकी प्रकाशन, पटना 1998, पृष्ठ 102-06।

Thursday, September 23, 2010

प्राचीन सामाजिक संरचना और साहित्य

परिशिष्ट


ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि सामाजिक वर्गों अथवा राजन् आदि शब्द एवं इसके पर्यायों का अध्ययन करने के लिए ऋग्वेद का उपयोग करने में इसके प्रथम और दशम् मंडलों में इन शब्दों के उल्लेख के प्रति सजग दृष्टि से काम लेना चाहिए। ये मंडल बाद में जोड़े गये मालूम पड़ते हैं। आठवें और नवें मंडल भी बाद ही के मालूम पड़ते हैं।1 कहना होगा कि ऋग्वेद के वर्तमान मूल पाठ में मंत्रों का जो वर्गीकरण हुआ है उसे वेदशास्त्री और इतिहासकार प्रायः ऐतिहासिक स्तर विन्यास का आधार मानते हैं। इसके अनुसार दूसरे से सातवें मंडल तक को मूल अंश मान लिया गया है।2 चूंकि मूल अंश का पहले रचे जाना संभव है, अतः इसे ऋग्वेद का पूर्ववर्ती अंश माना गया है। ऋग्वैदिक कालक्रम का यह सरलीकरण बहुत ही विडंबना का कारण बना है, क्योंकि इससे इतिहासकारों के निष्कर्ष प्रभावित होते रहे हैं। ध्यान देने की बात यह है कि ऋग्वेद के  वर्तमान मूल पाठ में वर्गीकरण मंत्रों का हुआ है, मंत्रों की विषय-वस्तुओं का नहीं।3 मंत्रों की विषय-वस्तुएं तो भिन्न-भिन्न युगों की भौतिक संस्कृतियों का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं। इनसे गुहा-मानवों एवं पशुहरण करनेवाले आर्यों से लेकर कृषि अधिशेष तथा उस पर निर्भर सरदार तंत्रों तक का परिचय मिलता है। मंत्रों के संकलन के समय से ये सभी प्राचीन हैं और यदि गुहा मानव संस्कृतियों को मापदंड रखें तो इनका काल ई. पूर्व चौथी से तीसरी सहस्राब्दी भी हो सकता है।4

फिर दसवें मंडल का उदाहरण देखें। इसमें मृतकों के अग्नि संस्कार के साथ उनके दफन किये जाने की भी चर्चा मिलती है,5 जबकि उत्तर वैदिक काल में सिर्फ अग्नि संस्कार की चर्चा है।6 फिर दीर्घ स्वरों का हृस्व बनना7 भाषा के विकास का एक मापदंड माना जाता है, पर ऋग्वेद के तथाकथित आधुनिक अंशों में ऐसे दीर्घ स्वरों का प्रयोग बार-बार देखा जा सकता है।8 प्रारंभिक सूक्तों में जहां ‘गृत्समद’ आर्यों का समाज विभेदहीन है, वहीं बाद के सूक्तों में आठ9 तरह के पुरोहितों का जिक्र मिलता है। ‘देवरात’ एवं ‘देवश्रवस’ नामक सरदारों का भी उल्लेख हुआ है। कुछ लोग धनवान हैं, तो कुछ लोग ऋण के अपमान से पीड़ित। कुछ लोग भूमि के स्वामी हैं, तो कुछ दूसरों की भूमि पर खटनेवाले मजदूर हैं। अर्थात् ‘गृत्समदों’ के अंतर्गत न सिर्फ विभिन्न युगों की भौतिक संस्कृतियों का परिचय मिलता है, बल्कि सामाजिक विभेदीकरण तथा स्तर विन्यास के लक्षण भी प्रकट हैं।10

रामविलास शर्मा का मानना है कि ‘जब तक बहुत ही पुष्ट पुरातात्त्विक प्रमाण न हों, ऋग्वेद का रचनाकाल दूसरी सहस्राब्दी ई. पूर्व के मध्य में निश्चित नहीं किया जा सकता।’11  अपने पक्ष में वे मैक्स मूलर का हवाला देते हैं, ‘जहां तक वेदों के वास्तविक रचनाकाल का संबंध है, मैंने तत्परता से मान लिया था कि कालक्रम विचार में वह उतना प्राचीन नहीं है जितना कि पिरामिड, पर मान लीजिए कि वह होता, तो क्या हमारे अध्ययन के लिए उसका मूल्य इससे किसी प्रकार बढ़ जाता ? यदि हम 5000 ई. पूर्व स्थिर करें तो कोई इस काल का खंडन कर सकेगा, इसमें मुझे संदेह है। और यदि हम वेद से और पहले जाएं, संस्कृत के तथा आर्य भाषा के आदिम रूप के निर्माण के लिए जो समय दरकार था, उसे नापने बैठें, तो मुझे संदेह है कि 5000 वर्षों का समय भी पर्याप्त होगा। भाषा में अथाह गहराई है, एक स्तर के नीचे दूसरा स्तर मिलता चला जाता है...।’12 ऋग्वेद की रचना ईसा से पांच हजार साल पहले हुई हो, यह बिल्कुल संभव है। वैदिक भाषा का विकास उससे पहले हुआ था, यह मान्यता स्वाभाविक है।

ऋग्वेद के वर्तमान रूप में जो सूक्त मिलते हैं, वे चाहे जब रचे गये हों, एक सुदीर्घ काव्य-परंपरा के परिणाम हैं।13 ऋग्वेद की रचना का जो भी समय निर्धारित किया जाये, मानना होगा कि ऋग्वैदिक काव्य-परंपरा की शुरुआत उससे बहुत पहले हो चुकी है।14 इसका प्रमाण स्वयं ऋग्वेद के कवि हैं। वे बार-बार अपने पूर्वज कवियों को याद करते हैं, पुरातन सूक्तों की तुलना में उनके स्तोत्र नये हैं, इस बात पर जोर देते हैं। ऋग्वेद के कवियों से पूर्व अथर्वा एवं पिता मनु हैं और इन्होंने पूर्वथा, पहले की तरह इन्द्र को लक्ष्य करके स्तोत्र रचे। उस इन्द्र को प्राचीन लोग (पूर्वथा) हमारे पूर्वज (इमथा विश्वथा) तथा आज के सभी जन स्तुति कर रहे हैं। स्तुति की परंपरा पूर्वजों से चली आ रही है। ऋग्वेद के कवि अपनी काव्य-परंपरा के प्रति अत्यंत सचेत हैं। ‘हे घोड़ों के स्वामिन् इन्द्र! (ते पूर्व्यं स्तुतिं) तेरी पहले की गई स्तुति को कोई भी दूसरा बल से, न योग्यता से ही आज तक प्राप्त कर सका।’ यम को मधुर हवि अर्पित करते हुए कवि प्रथम मार्गदर्शक पूर्वजों को याद करता हैः ‘(पूर्वजेभ्यः पूर्वेभ्यः पथिकृद्म्यः ऋषिभ्यः इदं नमः) पूर्वज और पूर्व मार्गदर्शक ऋषियों के लिए यह नमस्कार है।’ इसके बाद ही त्रिष्टुप, गायत्री तथा अन्य सब छंद यम देव से संबद्ध होते बताये गये हैं।

ऋग्वेद के कवियों ने त्रिष्टुप आदि छंदों का निर्माण नहीं किया, वे उन्हें भारतीय काव्य-परंपरा से प्राप्त हुए थे।15 पुराने कवियों के बहुत से छंद अवश्य उन्हें याद रहे होंगे। ‘वरुण की मनःपूर्वक की गई स्तुति से, (पितृणां च मन्मभिः) पितरों के स्तोत्रों से तथा नाभाक ऋषि की प्रशंसाओं से स्तुति करता हंू।’ यहां पूर्वज कवियों के स्तोत्रों की आवृति का स्पष्ट उल्लेख है। अवश्य ही उन्होंने पुराने स्तोत्रों से सामग्री लेकर उसे नया रूप दिया होगा। ‘(नवीयः कृयमाणं इदं ब्रह्म) नवीन किया जानेवाला यह स्तोत्र है, इसको आदित्य, वसु और रुद्र स्वीकार करें।’ पुराने को नया किया अथवा एक दम नया बनाया, दोनों अर्थ संभव हैं। (अंगिरस्वत्) अंगिरा के समान इन्द्र को नमन करते हुए ‘(नव्यं कृणोमि) नये-नये स्तोत्र बनाता हूं।’ इन्द्र के लिए कवि ‘(नवीयसीं मन्द्रागिरं अजीजनत्) नवीन और आनंददायक स्तुति को उत्पन्न करता है।’ यह ऋग्वेद की परंपरा है, यह भारतीय काव्य-परंपरा है।16

अनेक सूक्तों में सुदूर अतीत की झलक मिलती है।17 काण्वमेध्य ऋषि एक मंत्र में कहते हैं-बहुस्तुत सोम प्राचीनकाल से देवों का पेय है। अग्नि पूर्वकालीन और अधुनातन ऋषियों का पूज्य है।18 देवों का पूर्वकालिक ‘निविद’ के द्वारा आवाहित किया गया है। शुनःशेप प्राचीन पितरों से स्तुत इन्द्र की स्तुति करता है। कक्षीवान् ऋषि भयंकर इन्द्र से उसी नेतृत्व की कामना करता है जो प्राचीनकाल में था। कक्षीवान् के पिता दीर्घतमा प्राचीन ऋषि दधीचि, अंगिरा, प्रियमेध, काण्व, अत्रि तथा मनु का उल्लेख करता है। इन सूक्तों से सिद्ध होता है कि ऋषियों को सतत् अपने अतीत का स्मरण है। मैक्स मूलर ने भी यह स्वीकारा है कि ऋग्वेद में प्राचीन तथा अर्वाचीन सूक्त हैं।19 ऋषियों एवं उनके पुत्रों के सूक्त वेद में एकत्र मिलते हैं। इस प्रकार के निदर्शन विश्वामित्र तथा दीर्घतमा के पुत्रों मधुछन्दा एवं कक्षीवान् या कक्षीवत् में देखा जा सकता है। कई पीढ़ियों ने सूक्तों का निर्माण किया जिन्हें वेद में स्थान मिला है।20

इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि सूक्तों की रचना और उनके संकलन के मध्य एक दीर्घकाल का प्रक्षेप है। अन्तःसाक्ष्यों से यह भी स्पष्ट प्रतीत होता है कि इन सूक्तों में संस्कृति के अनेक स्तर मिलते हैं। एक सूक्त से ज्ञात होता है कि वैदिक जन पशुपालक थे। अन्यत्र राजा को हम हाथी पर आरूढ़ मंत्रियों से घिरा पाते हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि कृषक समाज व्यवस्थित हो चुका था और राज्यसंस्था विकसित हो चुकी थी। विभिन्न सूक्तों में ‘सप्तसिंधु’ के उल्लेख के साथ-साथ उत्तर प्रदेश की सरयू नदी का भी वर्णन मिलता है। मिट्टी के घरों एवं हजार खंभोंवाले प्रासाद का विवरण भी है।21

इतना ही नहीं, यहां हमें दो स्पष्ट धाराओं के प्रमाण प्राप्त होते हैं-एक धारा वह है जो दरबार से जुड़ी हुई थी, राजा से जुड़ी हुई थी एवं पुरोहित से जुड़ी हुई थी।22 राजा के बाद भूस्वामी जो राजा की तरह ही शक्तिशाली होते हैं और पुरोहित उनको प्रसन्न करता है और देवता से कहता है कि इनका ख्याल रखना तुम्हारे लिए हम इतना सब दे रहें हैं, इन सब पर कृपा करना व कुछ हमको भी देना।23 ऋग्वेद के सूक्त में यह भी उल्लेख है कि श्राद्ध करके पंडित लोग खूब खा-पीकर मंत्रोच्चार करते हुए चले जा रहे हैं। उसी ऋग्वेद में पुरोहितवाद का विरोध होगा यह कल्पना से परे है। पुरोहितों की प्रशंसा भी है तो पुरोहितों का विरोध भी।24 कहना होगा कि ऋग्वेद का अधिकांश भाग कर्मकांड के लिए नहीं रचा गया। वास्तव में वह कर्मकांड विरोधी है। अधिकांश भारतीय और पाश्चात्य विद्वान कर्मकांड को ध्यान में रखकर ऋग्वेद की व्याख्या करते हैं। युधिष्ठिर मीमांसक ने इस बात को अच्छी तरह पहचाना है कि कर्मकांडी पंडितों ने वैदिक ऋचाओं का कैसा दुरूपयोग किया है।25 स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में ठीक ही कहा है कि ऋग्वेद का ऋषि प्रार्थना नहीं करता। वह किसी देव के गुण बताता है तो उसका आशय यह होता है कि ऐसे गुण मुझमें भी हों।26 वास्तव में प्रार्थना की जरूरत तब पड़ती है जब समाज में वर्गभेद बढ़ जाता है, मनुष्य अपने को असहाय पाता है। ऋग्वेद का कवि असहाय नहीं है। वह जितनी सहायता देवता से लेना चाहता है उतनी उसे भी देने को तैयार होता है। ऋग्वेद में जो उदात्त आशावादी स्वर है उसका भौतिक कारण है-उत्पादन का अपेक्षाकृत विकास किंतु वर्ग-वैषम्य का अभाव।27

इन तर्कों के आलोक में यह कहा जा सकता है कि वैदिक ग्रंथों को किसी एक प्रकार की निश्चित सामाजिक संरचना के लिए आवश्यक स्रोत नहीं बनाया जा सकता। इसकी कई परेशानियां हैं। लेकिन इसके आधार पर श्रम-विभाजन और फलतः जन्म ले रहे वर्ग-विभाजन की प्रक्रिया को स्पष्टतया रेखांकित किया जा सकता है। यद्यपि इसने एक लंबे काल को अपने अंदर समेटा है, हमने इसका उपयोग 1500-1000 ई. पूर्व के कालखंड के लिए ही आधार बनाया है। इसके साथ ही दशम् मंडल में आये पुरुष सूक्त को हम ‘प्रक्षिप्त’ नहीं कहते क्योंकि तब ऋग्वेद का मूल अंश खोज पाना एक अत्यंत दुष्कर कार्य होगा।28 यह भी संभव है कि समाज में चीजें पहले घट चुकी हों औार कवि उसे बाद में स्मृति के आधार पर लिपिबद्ध कर रहा हो। वैसे भी साहित्य समाज का त्वरित अनुवाद नहीं होता।

वर्तमान जानकारी के आधार पर यह कहा जा सकता है कि गंगा द्वारा विभाजित क्षेत्र तथा गंगा के ऊपरी तटवर्ती क्षेत्र में यजु-ग्रंथों व ब्राह्मण-उपनिषद् ग्रंथों का संकलन किया गया।29 ब्राह्मण शब्द का ग्रंथ अर्थ में प्रयोग अष्टाध्यायी, निरुक्त, शतपथ ब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण तथा तैत्तिरीय संहिता में उपलब्ध होता है।30 यज्ञ-रहस्य के सम्यक बोध के लिए ही ब्राह्मण ग्रंथों की रचना हुई थी।31 उपलब्ध ब्राह्मणों में ऋग्वेद से संबद्ध ऐतरेय एवं शांख्यायन ब्राह्मण हैं। शुक्ल-यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा का शतपथ ब्राह्मण महत्व की दृष्टि से उल्लेखनीय है। सामवेद से संबद्ध ताण्ड्य या पंचविंश, षड्विंश, सामविधान, आर्षेय, दैवत तथा जैमिनीय ब्राह्मण हैं। इन प्राप्त ब्राह्मणों के अतिरिक्त काठक, सौलभ तथा पराशर ब्राह्मणों का भी उल्लेख मिलता है।32

रेनू के विचार में ब्राह्मण ग्रंथों को 10वीं तथा 7वीं शताब्दी ई. पू. के मध्य रखा जा सकता है।33 कीथ ब्राह्मणों के लिए 800 से 600 ई. पू. की तिथि निर्धारित करते हैं।34 सामान्यतः, ब्राह्मण ग्रथों की रचना की अंतिम तिथि 600 ई. पू. से 500 ई. पू. के रूप  में दी जाती है,35 और 800 ई. पू. की तिथि प्राचीनतम ब्राह्मणों की रचना की तर्कसंगत अधिकतम तिथि मानी जाती है।36 इन प्राचीनतम ब्राह्मणों में शतपथ ब्राह्मण तथा प्रारंभिक पांच अध्यायों को छोड़कर ऐतरेय ब्राह्मण सम्मिलित नहीं है।37 शतपथ ब्राह्मण सांस्कृतिक सामग्री की दृष्टि से समृद्धतम है, परंतु यह ग्रंथ वैदिक से वैदिकोत्तर संस्कृति में परिवर्तन के काल का प्रतिनिधित्त्व करता प्रतीत होता है। ये ब्राह्मण ग्रंथ स्पष्ट रूप से एक संक्रमणकालीन समाज को अभिव्यक्त करते हैं।38 पशुचारण अवस्था से कृषि अवस्था में संक्रमण ने उत्पादक श्रम में लगी आम जनता और उदीयमान अवकाशभोगी वर्ग के बीच पैद हो रही वर्ग-भेद की खाई को गहरा किया। इस वर्ग-भेद को कायम रखनेवाले राजा का अभ्युदय हो रहा था। ऐतरेय ब्राह्मण में एक प्रसंग में उल्लिखित है कि जब राजा को मुकुट पहनाया जाता था तो यह समझा जाता था कि सभी जीवों का स्वामी तथा ब्राह्मणों का रक्षक क्षत्रिय उत्पन्न हुआ। शतपथ ब्राह्मण में भी यह उल्लेख है कि दोनांे वर्ग मनुष्यों में श्रेष्ठ हैं। अतः इनके आपस के सहयोग तथा पस्पर से ही राजनैतिक और सामाजिक सुव्यवस्था कायम रह सकती है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार दोनों वर्ग एक दूसरे के कार्य को संपन्न करने में सहायता प्रदान करते थे। आत्रेय ब्राह्मण भी साफ-साफ कहता है कि किस तरह ब्राह्मणों और क्षत्रियों की शक्ति अपने सामान्य हितों के लिए एकसूत्र में बंधी और किस तरह क्षत्रियों को अपनी सत्ता के लिए ब्राह्मणों की ताकत की जरूरत हुई।39 हम देखते हैं, ‘‘पवित्र सत्ता के (ब्राह््मणों के) हथियार त्याग-तपस्या के हथियार हैं; राजसत्ता के हथियार घोड़े, रथ, कवच, धनुष और बाण हैं। इस प्रकार, राजसत्ता अपने हथियारों को एक तरफ रखकर, पवित्र सत्ता के हथियारों से, पुण्य शक्ति के रूप से, पुण्य शक्ति बनकर त्याग-तपस्या के मार्ग पर जाता है। क्षत्रिय....त्याग के मार्ग पर जाता है।’’40

इस सहकार का उद्येश्य क्या है ? इस बारे में भी आत्रेय ब्राह्मण कोई शंका नहीं छोड़ता। वह कहता है, ‘‘ब्राह्मण उपहार लेनेवाला, सोमरस-पान करनेवाला एक जीविकाखोजी प्राणी है। वैश्य दूसरों का सम्मान (यानी राजा या उच्च वर्णों का) करनेवाला दूसरों का भक्ष्य और उनकी इच्छा के अनुसार पीड़ा तक को स्वीकार करनेवाला प्राणी है। शूद्र दूसरों का सेवक है, उसे जब चाहें तब हटाया जा सकता है और उसका वध किया जा सकता है।’’41

जैसे ही समाज उच्च एवं निम्न वर्गों में बंटा, वैसे ही उच्च और निम्न की स्थिति से स्वयं देवगण भी नहीं बच सके। इस संबंध में भी शतपथ ब्राह्मण एक अत्यंत ही रोचक बात उद्घाटित करता है-‘‘इस बात में कोई संदेह नहीं कि वरुण उच्च स्थिति प्राप्त है जबकि मरुत, आम जनता हैं। वह (पुरोहित) इस तरह जनता की अपेक्षा उच्च वर्ग को श्रेष्ठ मानता है। इस वजह से यहां जनगण की स्थिति निम्नतर है जबकि क्षत्रियों को उनसे ऊंचा स्थान दिया गया है।’’42 इससे आगे, ‘‘वह (पुरोहित) इंद्र को संबोधित एवं मरुत का उल्लेख करनेवाले पद्य बुदबुदाता है। वस्तुतः इन्द्र यहां उच्च स्थिति प्राप्त हैै जबकि मरुत आम जनगण की स्थिति में हैं। उसने सोचा कि ‘वे तो बंधन में हैं, इसलिए उसने पद्य में इन्द्र को संबोधित किया।43

हम जानते हैं कि ऋग्वेदकालीन देवताओं में मरुत कितने प्रिय थे। एक स्थान पर तो उन्हें ‘युवतियों की भांति हमें सौंदर्य प्रदान’ करनेवाला बतलाया गया है।44 देखने की बात है कि ब्राह्मण-ग्रंथों में उनका दर्जा नीचे क्यों हो गया, जबकि ऋग्वेद में अजाने कुछ अन्य देवताओं का स्तर ‘ऊँचा’ कर दिया गया। सवाल है कि जब समाज का विभाजन, एक तरफ ब्राह्मणों और क्षत्रियों के रूप में हो गया तथा दूसरी तरफ वैश्यों और शूद्रों का एक अलग नीचा वर्ग बन गया तो उस स्थिति में देवताओं को इस विभाजन से कैसे रोका जा सकता था ?

वर्ग भिन्नता के तत्त्व आरंभिक ऋग्वैदिक जीवन तक में मिल सकते हैं लेकिन उपनिषदों के जमाने में आकर यह और तीखा हो जाता है।45 उपनिषद् हमें भारतीय आर्यों के विचार के विकास में एक कदम आगे ले जाते हैं और यह बड़ा लंबा कदम है। आर्य लोगों को बसे हुए अब काफी समय बीत चुका है और एक पायदार और खुशहाल सभ्यता, जिसमें पुराने और नये का मेेल हो चुका है, बन गई है।46 इसमें वेदों का नाम आदर से, लेकिन मीठे व्यंग्य के भाव से लिया जाता है।47 वैदिक देवताओं से अब संतोष नहीं रह जाता अैार पुरोहितों के कर्मकांड तक का मजाक उड़ाया जाता है। जादू-टोने मेें दिलचस्पी को और इसी तरह के ज्ञान को रोका गया है और बिना सच्चे ज्ञान के पूजा-पाठ और कर्मकांड को फिजूल बताया गया है। कहा गया है-‘‘इनमें लगे हुए लोग अपने को समझदार और विद्वान मानते हुए इस तरह भटकते रहते हैं, जैसे अंधे को अंधा रास्ता दिखा रहा हो और ये अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाते।’’48 वेदों तक को नीचे दर्जे का ज्ञान बताया गया है; भीतरी मन के प्रकाश को ऊँचा ज्ञान का गया है। वेद ब्राह्मण की सत्ता थे तो उपनिषद् क्षत्रियों की। उपनिषदों की रचना मोटे तौर पर क्षत्रियों ने की थी।49 उपनिषदों के मूल तत्त्व और भेद अपने पास रखे, जिनके मंत्र उन्होंने अरण्यों के एकांत में सन्निकट बैठे नव-दीक्षितों केे कान में कहे। समर्थ राजन्यों ने इस प्रकार अपने साधनहीन दरिद्र प्रतिस्पर्धी के ऊपर दार्शनिक विजय पायी।50

कहना होगा कि वेदों एवं ब्राह्मण ग्रथों के बहुदेववाद के खिलाफ उपनिषदों का एकेश्वरवाद ब्राह्मण पुरोहित वर्ग के हितों के खिलाफ था।51 एंगेल्स ने बतलाया है कि एकेश्वरवाद ने तमाम आदिम देवताओं को अकेले ईश्वर में समाहित किया। उपनिषद्कालीन ऋषियों ने भी यही किया। उन्होंने ऋग्वेद के तमाम देवताओं का घालमेल करके एक अकेले ब्रह्म को ‘नेति, नेति’ कहकर बहुत संुदरता के साथ व्यक्त किया है। ब्रह्म की प्रकृति को जानने की जिज्ञासा में शिष्य का मस्तिष्क चकरा जाता है और गुरु उसके समक्ष अनेक लक्ष्यगत प्रश्न प्रस्तुत करते हुए प्रश्न करता है कि क्या यह सब ब्रह्म है। और गुरु ही उत्तर देता है-‘नेति, नेति-जिसका मतलब है ‘नहीं, यह ब्रहम् नहीं है, यह ब्रह्म नहीं है।’52

उपनिषदीय भाववाद का विकास कबीलाई राजाओं और उनके ब्राह्मण-पुरोहितों के बीच, इसी तरह आचार्यों और शिष्यों के बीच, उपनिषदों में असंख्य वाद-विवादों के क्रम में हुआ। इनके बीच वाद-विवाद के मुख्य विषय के रूप में चरम वास्तविकता की प्रकृति, बुनियादी और अनुभवातीत सत्य, सत्य का भौतिक यथार्थ से संबंध इत्यादि थे और सभी का उद्येश्य ‘मुक्ति’ और ‘वरदान’ की खोज करना था। इन विषयों पर राजा जनक, अजातशत्रु, अश्वपति कैकेय आदि राजाओं और ब्राह्मण पंडितों में विख्यात और आधिकारिक, याज्ञवल्क्य के बीच वाद-विवाद हुए हैं। सामान्यतः, उस समय ब्राह्मण ही आचार्य थे, यद्यपि ब्राह्णों को भी प्रायः क्षत्रिय ही ‘अगाध और गुप्त ज्ञान के चिंतन’ की ओर प्रेरित करते थे। यह बात एक सीमा तक इन दोनों वर्णों में इस बात के लिए संघर्ष में दिखायी पड़ती है कि ‘असली स्वामी’ कौन है।53 लेकिन, पूरे उपनिषदों में दोनों ही इस बात के प्रति पूर्ण सजग हैं कि यह इन दोनों के बीच ‘पारिवारिक वाद-विवाद’ है,54 इसीलिए दोनों इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि दोनों (ब्राह्मण और क्षत्रिय ही) वैश्यों, शूद्रों, चांडालों आदि के ‘संयुक्त स्वामी’ हैं।55 बृृहदारण्यक उपनिषद कहता है-‘वस्तुतः, आरंभ में यह संसार, एकमात्र ब्राह्मण ही था। एक होने के कारण उसका विकास नहीं हुआ। उसी में से एक और उत्कृष्ट रूप क्षात्रत्त्व पैदा हुआ, इन क्षत्रियों में इन्द्र, वरुण, सोम, पर्जन्य, यम आदि देवता हुए। अतः क्षत्रियों से उच्चतर कोई अन्य नहीं है। इसी वजह से राजसूय यज्ञ में ब्राह्मण, क्षत्रियों से नीचे बैठता है। क्षात्रत्त्व अकेला ही उच्च है। वही इस सम्मान का अधिकारी है। लेकिन ब्राह्मणत्त्व से क्षात्रत्त्व का उद्गम है। इस कारण से राजा की उच्चता होते हुए भी, वह अंतिम रूप से ब्राह्मणत्त्व पर ही निर्भर है। अतः जो कोई ब्राह्मण को हानि पहुंचाता है तो वह अपने उद्गम पर प्रहार करता है। जितना ही वह उच्चतर को हानि पहुंचाता है, उसी अनुपात में बुरा काम करता है।56

सतही तौर पर यह महज शब्दों से खिलवाड़ लग सकती है लेकिन वास्तविकता में यह ऐसा है नहीं। इसका सीधा मतलब यही है कि राजा सांसारिक सत्ता यानी वास्तविक सत्ता का स्रोत एवं केन्द्र था; जब तक कि उसका अपना प्रभामंडल और पुनीतता न हो। ब्राह्मण वर्ग ने राजा को यही प्रभामंडल प्रदान किया और उसे पृथ्वी पर दैवी शक्ति का अवतार इसी वजह से घोषित किया। इस प्रकार, इनके अंतर्विरोधों के बावजूद ये दोनों एक दूसरे के पूरक थे,57 ब्राह्मण दोनों के रचयिता थे। दरअसल, इन्हीं ब्राह्मणों से वैश्य और शूद्र भी पैदा हुए थे, किंतु उन पर ब्राह्मण एवं क्षत्रिय दोनों ने मिलकर शासन किया। छांदोग्य उपनिषद् में तो नीची जातियों को कुत्तों और सूअरों की संज्ञा प्रदान की गई है।58 अतः संसार में जो कुछ भी श्रेष्ठ रूप से संभव था, वह सब श्रेष्ठ ही के लिए था।59

सारी भौतिक वस्तुओं को भ्रामक मानने और सांसारिक आनंद के प्रति पूर्ण घृणा व्यक्त करने तथा उस घृणास्पदता का बार-बार जोर-शोर से उल्लेख करने के बावजूद और यह मानते हुए कि केवल आत्मा और ब्रह्म का ज्ञान ही परमानंद और मुक्ति तक ले जाने में सक्षम है, ब्राह्मण वर्ग के दार्शनिक-पुरोहित राजाओं से गायों और स्वर्ण-मुद्राओं का दान प्राप्त करने में किसी तरह का कोई संकोच नहीं बरतते थे।60 मजे की बात यह है कि राजाओं से यह दान, वे लोकोत्तर सत्य के उद्घाटन जैसी चर्चाओं से प्राप्त किया करते थे। बृहदारण्यक उपनिषद् में एक बहुत प्रसिद्ध कथा है, जिसमें याज्ञवल्क्य, राजा जनक के पास जाते हैं और संवाद करते हैं। अंत में याज्ञवल्क्य को सींगों पर सोना मढ़ी हुई दस हजार गाएं जनक दान में देते हैं। दोनों आनंदित होते हैं और वेदांत की विजय होती है, उसकी प्रतिष्ठा बढ़ती है। यह भी स्मरण करना दिलचस्प होगा कि याज्ञवल्क्य और उनके सहयोगियों के विचारों से अरस्तू के विचारों में अचरजकारी समानता है।61 यूनान में पैदा हुए प्लेटो और अरस्तू के विचार यदि प्राचीन यूनान की दास-व्यवस्था की देन है तो याज्ञवल्क्य आदि के विचार भारत में विकसित वर्ण-व्यवस्था की उपज हैं।62 इस तरह, उपनिषदों का काल चातुर्वर्ण्य और राजसंस्था प्रस्थापित होने का काल था, भारत के प्रथम तीव्र वर्ग-संघर्ष का काल था।

उपनिषदों का तत्त्वज्ञान, अर्थात् वेदांत, इन तमाम सामाजिक घटनाओं का परिपाक था, उनका वैचारिक सूत्रीकरण था। वर्ग-संघर्ष केवल सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र ही में नहीं होता। उसका प्रतिबिंबन वैचारिक क्षेत्र में भी देखा जाता है।63 परस्पर विरोधी वर्गीय हित संबंधों की प्रतिध्वनि परस्पर विरोधी तत्त्वज्ञानों के रूप में भी प्रकट होती है।64 और अगर कार्ल मार्क्स के शब्दों पर गौर करें तो समाज के प्रभुत्वशाली विचार उस समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग के विचार होते हैं।65 इस दृष्टि से देखें तो उपनिषद् पूर्व बौद्धकालीन सामाजिक अंतर्विरोधों को समझने में हमें काफी मदद करते हैं।

महाभारत में प्राचीन भारत के ज्ञान का विशाल भंडार है।66 उसकी स्वयं की यह घोषणा है कि जो द्विज अंगों और उपनिषदों सहित चारों वेदों को जानता है, परंतु इस महाभारत-इतिहास को नहीं जानता, वह विचक्षण विद्वान नहीं है। महाभारत को बार-बार ‘भारत-इतिहास’, ‘भारत-पुराण’, ‘इतिहास-शिरोमणि’ आदि कहा गया है। सौति पूछते हैं कि मैं आपलोगों को क्या सुनाऊँ ? धर्मार्थ से संयुक्त पुराणों की कथा या ‘इतिवृत्तं नरेन्द्राणामृशीणां च महात्मनाम्’? नरेन्द्रों और ऋषियों के इतिवृत्त आज के अर्थ में इतिहास नहीं हैं। महाभारत में पुराण का अर्थ पुरानी पुण्य-कथाएं हैं और इतिहास का अर्थ राजाओं-ऋषियों की वंशावलियों और क्रिया-कलापों का वर्णन।67 यों इन दोनों को प्रत्येक पुराणों में पाया जाता है। पुराण-इतिहास में अन्वय-व्यतिरेक संबंध है।

यह महाग्रंथ आख्यानों और उपख्यानों से भरा पड़ा है। सच पूछिए तो पूरा महाभारत पीपल के पत्ते में फैली हुई नसों की तरह आख्यानों में बंधा हुआ है। कोई व्यक्ति अपनी बात आख्यानों के बिना नहीं कह पाता। ये आख्यान लोक से लिए गए हैं और जहां तहां जड़ दिए गए हैं। कभी-कभी तो इसमें ऐसी कथा का सन्निवेश किया गया है जो सारी शास्त्रीय मान्यताओं को ध्वस्त कर देती है। नेवला-कथा ऐसी ही एक कथा है।68 महाभारत में इतने अधिक विषयों का समावेश हुआ है कि विश्वकोष मालूम पड़ता है। कहा भी गया है, ‘जो इसमें है वही अन्यत्र भी है और जो नहीं है वह अन्यत्र भी नहीं है।’69 किंतु वैविध्य इसकी समस्या नहीं है। विषयों में इतने विपर्यय, अंतर्विरोध और पुनरुक्तियां हैं कि वे विद्वानों की जटिल समस्याएं बनी हुई हैं। ऐसे में महाभारत से प्राप्त सामग्री का उपयोग किसी एक काल के लिए करना कठिन है। जहां इसके आख्यानात्मक अंश से दसवीं शताब्दी ई. पू. की झांकी मिलती है, वहीं इसके उपदेशात्मक अंशों का संबंध काफी परवर्ती काल से, यानी ईसा की चौथी शताब्दी से, मालूम होता है।70 मूलतः इस महाकाव्य में 8800 श्लोक थे और यह रचना ‘जय’ कहलाती थी।71 फिर वे बढ़कर 24 हजार हुए और रचना का नाम ‘भारत’ पड़ा। बाद में बढ़कर वे एक लाख हो गये और यह ग्रंथ ‘महाभारत’ कहलाया। गुप्तकालीन अभिलेखों में एक लाख का उल्लेख है। यद्यपि समीक्षित संस्करण में अभी प्रायः 82 हजार श्लोक मिलते हैं।‘72 कहना होगा कि आज के बृहद्काय महाभारत में भी एक लाख श्लोक नहीं हैं। ‘हरिवंश’ को मिलाकर, जिसे खिलपर्व के नाम से भी जाना जाता है, श्लोकों की संख्या एक लाख तक पहुंच जाती है। किंतु, अब इसे महाभारत का अंग नहीं माना जाता।73

महाभारत में तीन कथावाचक हैं-व्यास, वैशंपायन और गल्व गणकपुत्र उग्रश्रवा सौति। व्यास ने इसे वैशंपायन को सुनाया था, वैशंपायन ने जनमेजय को और उग्रश्रवा सौति ने कुलपति शौनक के नैमिषारण्य में होने वाले द्वादशवर्षीय सत्र में ब्रह्मचारी ऋषियों को। इस तरह भी महाभारत के तीन संस्करण ठहरते हैं। आज के महाकाव्य काव्य की सामग्री सौति संस्करण की ही मानी जानी चाहिए। उसके बाद भी लोगों ने बहुत कुछ जोड़ा होगा। लगता है, शौनक ने अपने द्वादशवर्षीय सत्र में महाभारत का एक नया संस्करण तैयार कराया। उनके कहने से सौति द्वारा भार्गव वंश का इतिहास भी इसमें सम्मिलत कर लिया गया। पौलोम पर्व के पांचवें अध्याय में कथा आरंभ होने के पूर्व ही शौनक कहते हैं ‘उनमें से प्रथम मैं भृगुवंश का ही वर्णन सुनना चाहता हूं।’ शौनक भार्गव थे। विष्णु सीताराम सुखणकर ने अपने एक प्रसिद्ध लेख ‘भृगुवंश और भारत’ में इस तथ्य को विस्तार से उजागृत किया है। सुखणकर के अनुसार यह कार्य न व्यास का था, न वैशंपायन का और न सौति का। वास्तविकता यह है कि महाभारत का एक महत्त्वपूर्ण संस्करण भार्गवों के प्रबल और साक्षात् प्रभाव के अंतर्गत तैयार किया गया है।74 आदि पर्व में पौर्व उपाख्यान, आरण्यक में कार्तवीर्य उपाख्यान, उद्योग में अंबा उपाख्यान, शांति में बिपुलोपाख्यान और अश्वमेध में उत्तंक उपाख्यान भार्गवों के उपाख्यान हैं। जमदग्नि और परशुराम की जन्म-कथा का भूरिषः उल्लेख है। भार्गव परशुराम द्वारा इक्कीस बार क्षत्रियों के नाश करने की कहानी दस बार कही गई है, जिसकी टेक ‘त्रिसप्तकृत्वः पृथिवी कुता निःक्षत्रिया पुरा’ पर टूटती है। क्षत्रियों के गर्व तोड़ने का उल्लेख तो बीस बार आया है। यही नहीं, भार्गव के देवतुल्य चरित्र कृष्ण, द्रोण, कर्ण आदि के चरित्रों से टक्कर लेते हैं। कहीं-कहीं उन्हें पीछे भी छोड़ जाते हैं।75 कहना पड़ेगा कि सौति संस्करण में बहुत-सी कथाएं बेतरतीब ढंग से एक कर दी गई हैं। उनमें से बहुत से आख्यान-उपाख्यान अप्रासंगिक लगते हैं।

महाभारत युद्धकथा-मात्र नहीं ठहरता। यदि यह युद्धकथा होता तो इसे शल्यपर्व पर समाप्त हो जाना चाहिए था या अधिक से अधिक सौप्तिक पर्व पर। शांतिपर्व के बाद महाभारत एक दूसरी दिशा की ओर मुड़ जाता है-त्रासदी, करुणा या शांति की ओर। स्त्रीपर्व के बाद शांतिपर्व। महाभारत में यह पर्व आकार में सबसे बड़ा है। इसमें राजधर्म, वर्णाश्रम धर्म, मोक्ष, दर्शन, पांचरात्र आदि के संबंध में विस्तृत सामग्री एकत्र कर दी गई है। यह हिन्दू-धर्म-कोश बन गया है। वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार ‘इन अध्यायों में प्राचीन भारत के धार्मिक इतिहास की तीन तहें सुरक्षित हैं। पहली तह में विभिन्न तत्त्वचिंतकों के पृथक मत, उनके अनंतर दूसरी तह में सांख्य आदि दर्शनों की सामग्री और तीसरी तह में शैव एवं पंाचरात्र भागवत धर्मों की सामग्री है। शांतिपर्व की शैली और शब्दावली महाभारत के अन्य सर्गों से विशिष्ट है।’

रचना की दृष्टि से सभापर्व सबसे पुराना मालूम पड़ता है,76 फिर भी इसके संकलन का काल ईसा पूर्व पहली शताब्दी से पहले नहीं माना जा सकता।77 संभवतः अनुशासन पर्व और शांति पर्व करीब-करीब एक ही समय संकलित हुए। यह भी कह ले सकते हैं कि अनुशासन पर्व शंातिपर्व का ही विस्तार है।78 इसमें कई विषयों की पुनरुक्ति मिलती है। निस्संदेह, शांतिपर्व का ‘राजधर्म’ प्रकरण हमारे प्रयोजन के लिए महत्त्वपूर्ण है। इसमें मनुस्मृति से मिलते-जुलते अनेक श्लोक हैं; खासकर राजा की दैवी उत्पत्ति, बाह्मणों के दावे और दंड के महत्त्व के संबंध में यह प्रकरण मुख्यतः उपदेशात्मक है, और ऐसा प्रतीत होता है कि यह शांतिपर्व में ईस्वी सन् की प्रथम और चौथी शताब्दियों के बीच किसी समय सन्निविष्ट किया गया।79 इसलिए, उत्तर वैदिक काल या वेदोत्तर काल की राजनीतिक संस्थाओं के अध्ययन के लिए शंातिपर्व की सामग्री का उपयोग करना गलत होगा।80 राजत्त्व की उत्पत्ति संबंधी परिकल्पना शांतिपर्व के ‘राजधर्म’ प्रकरण का सर्वाधिक उर्वर अंश है। इस परिकल्पना में ब्राह्मणवादी दृष्टि से राजपद के औचित्य को बुद्धिपूर्वक सिद्ध करने का प्रथम प्रयास किया गया है। इसलिए महाभारत किसी एक काल का नहीं लेकिन कई कालों का इतिहास अपने में समेटे हुए है।81

गीता प्राचीन उपनिषदों में अंतिम है और उसका दर्शन औपनिषदिक विद्रोह की पराकाष्ठा है।82 उपनिषदों के अनेक भावों से गीता अनुप्राणित है और उसके अनेक श्लोक सीधे उपनिषदों से लिए गए हैं।83 ब्राह्मणों, ब्राह्मण-साहित्य और उनके यज्ञपरक अनुष्ठानों के केन्द्र वेदों की अवमानना और उनके प्रति प्रहार में गीता अपना सानी नहीं रखती। उसकी विचारधाराएं शुद्ध ब्राह्मण-धर्म पर प्रहार करती हैं, उसका पद-पद उनको नगण्य अैार निरर्थक घोषित करता है।84 महाभारत के ब्राह्मण-वाक्य ‘‘तप एव पर बलम्’’ के विरुद्ध गीता में स्थान-स्थान पर, ‘‘तप, यज्ञ, क्रिया’’ आदि पर आक्षेप है जहां अनुष्ठानों के केन्द्र के स्थान पर क्षत्रिय वसुदेव-पुत्र कृष्ण की प्रतिष्ठा की जाती है। ब्राह्मण-धर्म के निंदक श्लोक गीता में भरे पड़े हैं।85 इन श्लोकों और इनकी भांति अन्य श्लोकों के विश्लेषणात्मक अध्ययन के लिए एक स्वतंत्र ग्रंथ की आवश्यकता होगी। ब्राह्मणों की अवमानना की, दूसरी ओर क्षत्रिय ऋषियों का स्तवन हुआ है। ज्ञान से युक्त मानवों में राजन्य जनक का परिगणन प्रतीक रूप में हुआ है परंतु याज्ञवल्क्य का कहीं भूल से भी उल्लेख नहीं है।86 इतना ही नहीं, दूसरे अध्याय के दूसरे श्लोक में गीता अपने ज्ञान अथवा उपनिषतत्त्व को क्षत्रिय-रहस्य-राजविद्या-घोषित करती है जो क्षत्रिय कुलों में ही गुह्य-राजगुह्य-है।87 इस गोपनीय विद्या-रहस्य के संरक्षक कौन हैं ? क्षत्रिय राजर्षियों की एक ‘परंपरा’ (परंपरा प्राप्त राजर्शयः विदुः)। कृष्ण का कहना है कि पहले पहल उसने इस निगुढ़ विद्या का ज्ञान सूर्यवंश के आदि पुरुष विवस्वान को दिया, विवस्वान ने उसे प्रथम क्षत्रिय राजा मनु को दिया और मनु ने ऐक्ष्वाकुवंशीयों में प्रथम राजा इक्ष्वाकु को दिया। इसके बाद शृंखला टूट जाती है और सारे कुलागत रहस्यों की भांति इस रहस्य का भी लोप हो जाता है। भूलना न चाहिए कि यह रहस्य जनसाधारण का नहीं, वर्ण विशेष का है और उसमें भी अभिजात-कुलीयों का।88

जहां तक गीता के रचनाकाल का प्रश्न है, के. टी. तेलंग के अनुसार इसे तीसरी शताब्दी ई. पू. की मानी जानी चाहिए।89 आर. जी. भंडारकर इसे चौथी शती ई. प.ू. के आसपास की ठहराते हैं।90 डी. डी. कोसंाबी के अनुसार, गीता की संस्कृत भाषा ईसा की तीसरी सदी के आसपास की है।91 यह संभव नहीं प्रतीत होता कि ईसा की तीसरी सदी के अंतकाल से पहले इसकी रचना हुई होगी, पर यह कृति कृष्ण के मंुह में डाल दी गई और अतिसंवर्धित महाभारत में जोड़ दी गई। इसमंे कृष्ण एक परिपूर्ण एवं काफी कुछ पेंचीदे धार्मिक-दार्शनिक सिद्धांत के दैवी प्रतिपादक के रूप में प्रकट होता है; इस देवता के लिए यह नई पद-प्रतिष्ठा थी, जिसका निकटतम आभास करानेवाला एकमेव उल्लेख छंादोग्य उपनिषद में मिलता है जहां प्रसंगतः ऋषि घोर आंगिरस के एक मानवी शिष्य के रूप में ‘देवकी पुत्र’ कृष्ण का जिक्र है, पर कहीं पर भी उसे उपदेशक या सर्वेश्वर नहीं बनाया गया है।92

स्मृतियों में सर्वाधिक प्राचीन और सुविख्यात स्मृति मनु की है जिसे ‘मनुस्मृति’ या ‘मानव धर्मशास्त्र’ भी कहा जाता है।93 ब्यूलर ने इसे 200 ई. पू. से 200 ई. के बीच की रचना माना है। के. पी. जायसवाल ने केवल इस आधार पर कि ब्राह्मणों को इसमें बहुत उच्च स्थान दिया गया है, और राजत्व को दैवी आधार प्रदान किया गया है, इसे मुगलकालीन कृति माना है। किंतु शैली और वर्ण्य विषय से स्पष्ट है कि यह ईसा की पहली या दूसरी शताब्दी में संकलित हुई।94 इसका कुछ अंश, जिसमें वर्णसंकर जातियों का उल्लेख है, और भी बाद का मालूम पड़ता है।95 हमारे प्रयोजन के लिए इसके सातवें अध्याय में वर्णित विषय, अर्थात् राजधर्म, सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसमें राजा के कर्तव्य और कराधान के सिद्धांतों का विवेचन किया गया है और साथ ही दंड अर्थात् बलप्रयोग का महत्त्व बताया गया है। विष्णुस्मृति ईसा की तीसरी शताब्दी की रचना प्रतीत होती है। याज्ञवल्क्य स्मृति ईस्वी सन् की प्रायः दूसरी से चौथी सदी के बीच की रचना मानी गई है। इसमें मनु की सामग्री को संक्षिप्त और क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत किया गया है। स्मृतियों के अध्ययन में दो प्रकार की कठिनाइयां सामने आती हैं। पहली यह कि वे एक ही कथन एवं विचार को इतना अधिक दुहराती हैं कि पढ़नेवाला ऊब जाता है। अधिकांश परवर्ती स्मृतियां जैसे कि याज्ञवल्क्य, नारद और बृहस्पति की मनु पर आधारित हैं और विभिन्न विषयों पर उनके द्वारा दी गई व्यवस्था की ही व्याख्या और विस्तार करती है।96 इसलिए मनुस्मृति का अध्ययन ही महत्त्वपूर्ण है। यह भी सच है कि स्मृतियों में मनु को ही आधिकारिक विद्वान माना जाता है।97

स्मृति ग्रंथों में मोटे तौर पर मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र-व्यक्तिगत, वैवाहिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, नैतिक-में ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों और अछूतों के अधिकारों एवं कर्तव्यों को निर्धारित किया गया है।98 यहां पर यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि इन स्मृतियों में ब्राह्मणों और क्षत्रियों के अधिकारों और विशेष सुविधाओं को तथा शेष अन्य वर्णों के कर्तव्यों का निर्धारण किया गया था।99 जो लोग निर्दिष्ट नियमों-कानूनों की अवज्ञा करते थे, उनके लिए इनमें दंड के रूप में धार्मिक प्रायश्चित से लेकर दैनिक यंत्रणा तक का प्रावधान किया गया था। इन स्मृृतियों की संपूर्णतः रचना ब्राह्मण पुरोहितों ने की थी, अतः यह अध्ययन दिलचस्प है कि ब्राह्मणों द्वारा लिखी ये संहिताएं एक सीमा तक ब्राह्मण वर्ग की जीवन के बारे में अभिलाषा को व्यक्त करती हैं कि वे किस तरह के जीवन को पसंद करते थे।100 इस वजह से जीवन की वास्तविकताएं इनमें उतनी नहीं हैं, जितनी कि वास्तविक जीवन में रही थीं। बहरहाल, इतना स्पष्ट है कि इनमें तत्कालीन हिन्दू समाज का जो विस्तृत रूप चित्रित किया गया है, वह इसके सार रूप में निश्चित तौर पर सच है।

कुछ बातें ऐसी हैं जो सारी स्मृतियों में समान हैं। इनमें एक बात सभी में समान है कि शूद्रों का यह कर्तव्य है कि वे उनमें उच्च तीन वर्णों की सेवा करें और किसी तरह ‘धन’ संचय करने की अनुमति भी उन्हें नहीं हैं।101 इसी संदर्भ में वैश्यों को अक्सर यह कहा गया है कि वे ब्राह्मणों और क्षत्रियों की सेवा करें। कुछ स्मृतियों में इस बात तक को लिख दिया गया है कि यदि शूद्र और वैश्य अपने से उच्च वर्णों की टहल-चाकरी करने को मजबूर नहीं किए जाएंगे तो घोर कलियुग आ जाएगा और समाज वर्ण-संकर हो जाएगा, यानी घोर सामाजिक अराजकता और दुरवस्था। वर्ण-संकर का शाब्दिक अर्थ है चार वर्णों का रक्त-मिश्रण। लेकिन इस संदर्भ में वर्ण-संकर का रक्त-मिश्रण वाला अर्थ नहीं है। वह बहुत ‘भयावह’ था। वर्ण-संकर का अर्थ निम्न वर्णों द्वारा अपने कर्तव्यों का उल्लंघन करने से भी था। उच्च जातियों के लिए यह कम भयावह नहीं था कि वे इस तरह कृषि, पशुपालन और दस्तकारी के धंधों में लगे लोगों के शारीरिक श्रम को गंवा बैठें।

यदि कोई शूद्र (और अक्सर वैश्यों के लिए भी) अपने मालिक की तरफ आंख उठाकर देख लेता था या उसके सामने असम्मानजनक तरीके से कुछ कह देता था तो इस अपराध के लिए भारी दंड का प्रावधान था। कुछ स्मृतियों में तो शूद्रों द्वारा अपने मालिकों के प्रति उपयोग में लाये जानेवाले आदरसूचक शब्दों तक का प्रावधान कर दिया गया था।102 इसके विपरीत, शूद्रों के प्रति कहे जानेवाले शब्दों को जान बूझकर अपमानजनक बनाया गया था,104 (जिससे भाषा के माध्यम से उनके भीतर नीचता की आत्मस्वीकृति का संस्कार पैदा किया जा सके) शूद्रों के मालिकों को अपने सेवक या शूद्रों के प्रति अभद्र या गाली-गलौज से युक्त भाषा का प्रयोग न करने की ‘सलाह’ दी गई थी, लेकिन, यदि शूद्र अपने मालिक के प्रति इसी तरह की अभद्र भाषा का प्रयोग करें तो उनकी जीभ काट लेने तक की सजा दी जा सकती थी।

सामाजिक-धार्मिक तथा सांस्कृतिक जीवन-व्यवहार में वैश्यों एवं शूद्रों पर कई तरह की पाबंदियां थीं। कहना होगा कि वैश्यों और शूद्रों की स्थिति लगभग एक हो चली थी। इनको सामान्यतया वेदाध्ययन तथा बौद्धिक कार्यों में शामिल होने की अनुमति नहीं थी। ये वर्ग पाप-योनि में जन्मे होने के कारण अशुद्ध माने जाते थे।105 मनु के अनुसार, यदि कोई शूद्र वेदाध्ययन करता पाया जाए तो उसकी जीभ काट लेनी चाहिए और यदि वह अपने कानों से वेदपाठ सुन लेता है तो उसके कानों में सीसा पिघलाकर डाल देना चाहिए। कुछ प्रसंगों में तो हम पाते हैं कि वैश्य और शूद्र को न केवल अछूतों जैसा माना जाता था वरन् उन्हें कुत्तों और सूअरों की श्रेणी में रखा जाता था।106 शूद्रों को द्वेषी, हिंसक, आत्मप्रशंसक, तुनकमिजाज, असत्य-भाषी, अति लालची, कृतघ्न, विपथगामी, आलसी-प्रमादी और अशुद्ध आदि बतलाया गया है। यहां मैं महाभारत के शांतिपर्व में उल्लिखित एक रोचक और तथ्योद्घाटक अनुच्छेद का जिक्र करूंगा, जिसकी ओर डा. आर. एस. शर्मा ने प्राचीन भारत में शूद्र में हमारा ध्यान आकर्षित किया है। इस अनुच्छेद में ब्राह्मणों और क्षत्रियों में संबद्धता और एकता की आवश्यकता पर बल देने की बात करते हुए इस बात की शिकायत की गई है कि शूद्रों और वैश्यों ने एक स्तर पर स्वेच्छा से, ब्राह्मणों की पत्नियों के साथ संबंध स्थापित करना आरंभ कर दिया है। अतः इससे जान पड़ता है कि उनकी (शूद्रों की) स्थिति कीड़ों-मकोड़ों जैसी होने के बावजूद (जघन्य अपराध के होते हुए) उन्होंने ब्राह्मणों की पावन ‘संपदा’ (ब्राह्मण-पत्नियों को) अपने वश में कर लिया था। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि हमारा प्राचीन भारतीय इतिहास तक, जो विनम्र और अनाक्रामक मुद्रावाला दिखाई देता है, कितना विरोध और प्रतिहिंसा का भाव लिए हुए है।

धर्मसूत्रों और अर्थशास्त्र से लेकर ब्राह्मण विचारधारा के सभी ग्रंथों में राजा के जिस कर्तव्य पर सबसे अधिक जोर दिया गया है वह है वर्णों पर आधारित सामाजिक व्यवस्था की रक्षा।107 कौटिल्य के अनुसार धर्म प्रवर्तक के रूप में राजा चतुर्वर्ण व्यवस्था का रक्षक है।108 यह भी कहना होगा कि वर्णाश्रम धर्म की व्याख्या कौटिल्य उन्हीं शब्दों में करते हैं जिनकी झांकी हमें धर्मशास्त्रों में मिलती है। वे इस बात पर जोर देते हैं कि हरेक वर्ण स्वधर्म पर चले, और अपनी व्याख्या के अंत में निष्कर्ष रूप में कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने धर्म का पालन करता है वह स्वर्ग और अनंत आनंद की प्राप्ति करता है।109 यदि वह स्वधर्म का उल्लंघन करता है तो वर्णों की अव्यवस्था के फलस्वरूप विश्व का नाश हो जाता है।110 इससे भी महत्त्व की बात यह है कि कौटिल्य राजा को निर्देश देेता है कि वह लोगों को कभी भी अपने धर्म से विमुख न होने दे। कारण, यदि मानव समाज आर्योचित आचरण करेगा, चतुर्वर्णाश्रम धर्म पर आधारित रहेगा और तीनों वेदों की शिक्षा के अनुसार चलेगा तो वह समृद्ध होगा और कभी भी उसका नाश नहीं होगा।111 इस तरह राजा से ऐसा समाज कायम करने की अपेक्षा की जाती है जिसकी सत्ता का मूल स्रोत वेद है। एक स्थान पर कौटिल्य राजा को धर्मप्रवर्तक कहता है। कहना न होगा कि राजा को धर्म प्रवर्तक उस अवस्था में बतलाया गया है जहां वर्णाश्रम धर्म नष्ट हो गया हो।112 निश्चय ही कौटिल्य राजा से अपेक्षा करता है कि वह उस ब्राह्मण-समाज-व्यवस्था को कायम रखे और उसका पालन कराए जिसका औचित्य वेदों पर आधारित है। यहां इस बात का भी उल्लेख आवश्यक है कि यौन संबंध संचालित करने के लिए जो कौटिल्य का विधान है, उस पर भी वर्ण व्यवस्था का जबर्दस्त प्रभाव है।113  उनका कहना है कि ब्राह्मण स्त्री के साथ कोई क्षत्रिय व्यभिचार करे तो उसे कठोरतम अर्थदंड दिया जाए, यदि व्यभिचारी कोई वैश्य हो तो उसे सारी संपत्ति से वंचित कर दिया जाए, और यदि शूद्र हो तो उसे चटाई में लपेटकर जीवित जला दिया जाए।114   कौटिल्य मानहानि, मारपीट और अभक्ष्य वस्तुएं खाने के अपराधों के संबंध में जो विधान करते हैं, वे भी वर्ग विभिन्नता से शासित होने के बेहतर उदाहरण कहे जा सकते हैं।

कौटिल्य के सामने नये भविष्य का एक अत्यंत ही भीषण दृश्य था, जिसमें निम्नकुलीय शूद्र प्रबल जनसत्ता, अभिजातवर्गीय ब्राह्मण-क्षत्रिय दोनों ही को भूलुंठित कर रही थी। नये समाज का यह भीमकाय रूप चाणक्य ने देखा जिसका अभिपोषण नन्द की शक्ति और क्षत्रिय-संहारक नीति ने किया था। चाणक्य-चंद्रगुप्त में एका हुआ। समान भय के सामने ब्राह्मण-क्षत्रिय आत्मरक्षा के लिए कटिबद्ध हुए।115 चाणक्य ने क्षत्रिय से साझा तो किया लेकिन उसका स्वामी बनकर। शूद्र-शत्रु नन्द की मार से मूर्छित क्षत्रिय ब्राह्मण की छाया में गिर पड़ा, ब्राह्मण ने उसे अस्त्र बनाकर समान शत्रु पर प्रहार के अर्थ धारण किया।

यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि अनीश्वरवादी धर्मों यथा बौद्ध-जैन धर्म के प्रति चाणक्य का रवैया ‘शांतिपूर्ण सहअस्तित्व’ का नहीं था।116 बौद्ध भी चाणक्य का नाम बहुत आदर के साथ लेते नहीं पाये जाते। बौद्धों-जैनों के लिए चाणक्य अक्सर ही ‘वृषल’ जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं। यहां तक कि वे श्रमणों के गांवों में प्रवेश की अनुमति देना भी प्रसंद नहीं करते। यहां कौटिल्य के विचार मनु के विचार से काफी मिलते हैं जब वह कहता है कि बौद्ध उतने ही बुरे हैं जितने चोर और बदमाश।117 उनका ख्याल था कि अगर ऐसे लोगों को आसानी से भ्रमण की छूट दे दी जाएगी तो इन लोगों की ‘विक्रमक्रिया’ ‘भद्रिक प्रजा’ को कष्ट पहुंचाएगी। मनु के अनुसार, औरतों द्वारा ऐसे धर्म-पंथों को स्वीकार करना पति की हत्या करने के समान है।118 कौटिल्य ऐसे लोगों पर भारी जुर्माने लगाने की बात करता है जो बौद्धों अथवा जैनों को भोजन के लिए अपने घर आमंत्रित करते हैं। मनु यहां तक कहते हैं कि एक ब्राह्मण विद्यार्थी को, बौद्धों-जैनों को सामान्य अभिवादन भी नहीं करना चाहिए।119 अशोक, जो विभिन्न संप्रदायों की एकता की बात करता है, उसका भी संदर्भ शायद यही है और जिसका कमोबेश वह शिकार भी होता है।

अर्थशास्त्र की रचना को लेकर इतिहासकारों में काफी मतभेद प्रतीत होता है। इसके उपलब्ध पाठ को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि यह एक समय और स्थान पर लिखा गया समरूप पाठ है। पुस्तक का अधिकांश हिस्सा ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी तक प्रचलित सूत्रशैली का अनुसरण करके गद्य में लिखा गया है।120 जहां तक भाषा का प्रश्न है अशोककालीन प्राकृत और कौटिल्यकालीन संस्कृत का भेद तो स्पष्ट ही है।121 कौटिल्य ने जिन राजनीतिक संगठनों का उल्लेख किया है वे अशोककालीन अभिलेखों में निर्दिष्ट प्रणाली से भिन्न हैं।122 पुरालेखिक साक्ष्यों से ऐसा संकेत मिलता है कि कौटिलीय अर्थशास्त्र का कुछ अंश ईस्वी सन् की प्रथम दो शताब्दियों मेें संकलित हुआ।

इन ग्रंथों की विश्वसनीयता की जांच के लिए हमें पर्याप्त मात्रा में बौद्ध और जैन साहित्य उपल्ब्ध हैं जो न सिर्फ स्रोत-सामग्री के लिए महत्वपूर्ण हैं बल्कि कई बार वे ब्राह्मणों के समानंातर अपने विचार भी प्रतिपादित करते हैं। हालोकि कई मान्य इतिहासकार अघोषित रूप से ब्राह्मणवादी स्रोतों को सबसे ऊपर जगह देते हैं, बौद्ध स्रोतों को उससे बहुत नीचे, कभी-कभी तो उसे देखने लायक भी नहीं मानते। इस तरह हम कह सकते हैं कि हमारे पास इतिहास लिखने के जो स्रोत हैं उनमें भी एक श्रेणीक्रम123 (हायरार्की) बना हुआ है। यद्यपि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बौद्ध-जैन साहित्य हमें प्राचीन भारतीय इतिहास को एक नई दृष्टि के साथ, नई रोशनी में देखने को आवश्यक उपादान मुहैया कराते हैं।

पालि124 वाङ्मय में तिपिटक (त्रिपिटक) नाम का जो ग्रंथ-समुदाय प्रमुख है, उसके तीन भेद हैं-‘सुत्तपिटक’, ‘विनयपिटक’ और ‘अभिधम्मपिटक’। ‘सुत्तपिटक’ में प्रधानतया बुद्ध और उनके अग्रशिष्यों के उपदेशों का संग्रह है।124 ‘विनयपिटक’ में भिक्षुओं के आचरण के संबंध में बुद्ध द्वारा बनाये गये नियमों, उनके बनाने के कारणों, समय-समय पर उनमें किए गए परिवर्तनों और उनकी टीकाओं का संग्रह है। ‘अभिधम्मपिटक’ में सात अध्याय हैं, जिनमें बुद्ध के उपदेश में आई हुई अनेक बातों का सम्यक विवेचन है।125 सुत्तपिटक के  दीघनिकाय, मज्झिम निकाय, संयुत्तनिकाय, अंगुत्तरनिकाय और खुद्दकनिकाय नामक पांच बडे़ विभाग हैं। ‘दीघनिकाय’ में चौंतीस बृहत् सुत्तों का संग्रह किया गया है। दीर्घ का अर्थ है बृहत् (सुत्त)। उनका संग्रह इसमें होने के कारण इसे ‘दीघ निकाय’ कहते हैं। मज्झिम निकाय नाम मज्झिम (मध्यम) आकार के सुत्तों का संग्रह के कारण पड़ा है। संयुत्तनिकाय के पहले विभाग में गाथा मिश्रित सुत्त आए हैं और पीछे के भागों में अलग-अलग विषयों से संबंध रखनेवाले सुत्त संगृहीत हैं। इसीलिए इसे ‘संयुत्तनिकाय’ अर्थात् ‘मिश्रनिकाय’ कहा गया है। अंगुत्तर का अर्थ है वह विभाग, जिसमें एक-एक अंग का विकास होता गया है, उसमें एकक निपात से लेकर एकादसक निपात तक कुल ग्यारह निपातों का संग्रह है। ‘खुद्दक निकाय’ का अर्थ है छोटे प्रकरणों का संग्रह जिसमें निम्नलिखित पंद्रह प्रकरण आते हैं-खुद्दक पाठ, धम्मपद, उदान, इतिवुत्तक, सुत्तनिपात, विमानवत्थु, पेतवत्थु, थेरगाथा, थेरीगाथा, जातक, निद्देस, पटिसंभिदामग्ग, अवदान, बुद्धवंस और चरियापिटक। ‘विनयपिटक’ के पाराजिका, पाचित्तियादि, महावग्ग, चुल्लवग्ग और परिवारपाठ नामक पांच विभाग हैं। ‘अभिधम्मपिटक’ के सात प्रकरण हैं-धम्मसंगणि, विभ्ंाग, धातुकथा, पुग्गलपचति, कथावत्थु, यमक और पट्ठान। बुद्धघोषाचार्य का कहना है कि त्रिपिटक के उपर्युक्त विभाग राजगृह की पहली सभा में निश्चित किए गए थे। बुद्ध के परिनिर्वाण के अनंतर राजगृह में भिक्षु-संघ की पहली सभा हुई होगी, पर ऐसा नहीं लगता कि उसमें वर्तमान पिटक के विभाग या पिटक का नाम भी आया हो। अशोक के काल तक बुद्ध के उपदेश के ‘धर्म’ एवं ‘विनय’ नाम से दो विभाग किये जाते थे। अशोक के काल से पहले बुद्ध के उपदेशपरक वचनों को सुत्त कहते और वे बहुत बड़े नहीं थे।

अशोक के भाबरू वाले शिलालेख में यह बताया गया है कि सात126 बुद्धोपदेश भिक्षुओं, भिक्षुणियों, उपासकों और उपासिकाओं को बार-बार सुनने और कंठस्थ करने चाहिए-(1) विनयसमुकसे (2) अलियवसानि (3) अनागतभयानि (4) मुनिगाथा (5) मोनेयसूते (6) उपतिसपसिने (7) लाघुलोवादे, मुसावादं अधिग्च्यि भगवता बुद्धेन भासिते।

ओल्डेनबर्ग और सेनार नामक दो पश्चिमी विद्वानों ने यह दिखा दिया है कि इनमें से सातवां उपदेश ‘मज्झिमनिकाय’ राहुलोवाद सुत्त (नं-61) है। शेष उपदेशों की जानकारी देने का काम रीज डेविड्स ने किया है। परंतु सुत्तनिपात के मुनिसुत्त को छोड़कर उनके बताये हुए अन्य सारे सुत्त गलत थे।127 विनयसमुकसे (विनयसमुत्कर्ष) का संबंध विनय-ग्रंथ से कुछ-न-कुछ अवश्य होगा।

परंतु ‘विनय’ शब्द का अर्थ ‘विनयग्रंथ’ लगाने का कोई कारण नहीं है।128 अंगुत्तर चतुक्क निपात, मज्झिम आदि कई स्थानों पर ‘वि’ पूर्वक ‘नी’ धातु का अर्थ ‘सिखाना’ है और इसी से आगे चलकर विनय के नियमों को ‘विनयपिटक’ कहा जाने लगा।129 बुद्ध ने जब भिक्षुओं का संग्रह शुरू किया तब विनय-ग्रंथ का अस्तित्त्व भी नहीं था। जो भी शिक्षा थी, सुत्त के रूप में थी।130 सबसे प्रथम ‘धम्मचक्क पवत्तनसुत्त’ कहकर बुद्ध ने पंचवर्गीय भिक्षुओं को अपना शिष्य बनाया। अतः ‘विनय’ शब्द का मूल अर्थ ‘शिक्षा’ या ‘सिखाबन’ ही समझना चाहिए और उस विनय का समुत्कर्ष ही बुद्ध का उत्कृष्ट धर्मोपदेश है। यद्यपि समुक्कस शब्द पालि-वाड.्मय में बुद्धोपदेश के अर्थ में नहीं मिलता, तथापि ‘सामुक्कंसिका धम्मदेसना’- यह वाक्य अनेक स्थानों में मिलता है। इससे विनय समुत्कर्ष का अर्थ यह होता है-विनय अर्थात् उपदेश और उसका समुत्कर्ष अर्थात् यह सामुतकर्षिका धर्मदेशना। अतः इसमें शंका नहीं कि किसी समय चार आर्यसत्यों के उपदेश को विनयसमुक्कस कह जाता था।131 ‘धम्मचक्कपवत्तनसुत्त’ का नाम अशोक के पश्चात् बहुत काल के अनंतर प्रचलित हुआ होगा। चक्रवर्ती राजाओं की कथाएं जब लोकप्रिय हो र्गइं तब बुद्ध के इस उपदेश को यह शानदार नाम दिया गया।132

यदि हम मान लें कि ‘विनयसमुकसे’ ही ‘धम्मचक्कपवत्तनसुत्त’ है, तो भाबरू के शिलालेख में निर्देशित सात उपदेश बौद्ध-वाड्.मय में इस प्रकार पाये जाते हैं-
1. विनयसमुकसे - धम्मचक्कपवत्तनसुत्त
2. अलियवसानि - अरियवंसा (अंगुत्तरचतुक्कनिपात)
3. अनागतभयानि - अनागतभयानि (अंगुत्तरपच्चक निपात)
4. मुनिगाथा  -   मुनिसुत्त (सुत्तनिपात)
5 मोनेयसूते  -   नाल्लकसुत्त (सुत्तनिपात)
6. उपतिसपसिने - सारिपुत्तसुत्त (सुत्तनिपात)
7. लाघुलोवाद   -  राहुलोवाद  (मज्झिमसुत्त नं-61)

इन सातों में से ‘धम्मचक्कपवत्तनसुत्त’ सर्वत्र पाया जाता है, अतः यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि उसका महत्त्व विशेष है। इसीलिए अशोक ने इसे सर्वप्रथम स्थान दिया है। शेष छह में से तीन एक छोटे-से सुत्तनिपात में हैैं। इससे सुत्तनिपात की प्राचीनता सिद्ध होती है। उसके अंतिम दो वग्गों पर ‘खग्गविसाणसुत्त’ पर निद्देस नाम की विस्तृत टीका है, जिसका समावेश इसी ‘खुद्दकनिकाय’ में किया गया है। ऐसा समझना चाहिए कि सुत्तनिपात के ये भाग निद्देस से पहले कम-से-कम एक-दो शताब्दियों से विद्यमान थे। इससे भी सुत्तनिपात की प्राचीनता सिद्ध होेती है। हो सकता है कि उसके सारे सुत्त प्राचीन न हों, फिर भी उसके बहुलांश निस्संदेह बहुत प्राचीन हैं।

‘त्रिपिटक’ में एक ही स्थान पर सम्पूर्ण बुद्ध-चरित्र नहीं है। वह जातकट्ठ कथा की निदान-कथा में मिलता है। यह अट्ठकथा संभवतः बुद्धघोष के समकाल में अर्थात् ईसा की पांचवीं शताब्दी में लिखी गई थी। उससे पहले की सिंहली अट्ठकथाओं से बहुत-सी बातें इस अट्ठकथा में आई हैं। यह बुद्ध-चरित्र प्रधानतया ‘ललितविस्तर’ के आधार पर लिखा गया है। ‘ललितविस्तर’ ग्रंथ संभवतः ईसा की प्रथम शताब्दी में या उससे कुछ वर्ष पहले लिखा गया था। वह महायान का ग्रंथ है और उसी पर से जातकट्ठ-कथाकार ने अपनी बुद्धचरित्र कथा की रचना की।

वैदिक और उत्तर वैदिक काल के संदर्भ में हमने यह कोशिश की है कि उत्पादन-तकनीक की प्रगति के स्वरूप और तद्जनित परिणामों का विश्लेषण किया जाए और साथ-ही-साथ उनके सामाजिक और धार्मिक तथा आनुष्ठानिक अभिप्रायों की भी जांच की जाए। पुरातत्त्व से पता चलता है कि प्राचीनकाल में धातु-विज्ञान और इससे संबंधित तकनीकों को फैलने में और सामाजिक महत्त्व के परिणाम पैदा करने में सदियों लगे और इसमें संदेह नहीं कि लंबे अर्से के बाद सामाजिक संगठन पर उनका स्थायी प्रभाव पड़ा।133 उत्पादन की पद्धति में जो परिवर्तन हुए हैं उसको चिह्नित करने की कोशिश भी है। उत्तर वैदिक काल के ग्रंथों के साक्ष्य की जांच पुरातत्त्व के उस चरण से की गई है जिसमें लोहे के साथ-साथ चित्रित धूसर मृद्भांड मिलते हैं।134 उसी प्रकार काल और स्थान को ध्यान में रखते हुए प्राचीन पालि-ग्रंथों का अध्ययन मध्य गंगा के मैदान में मिलनेवाले उत्तरी काले ओपदार मृद्भांड के पुरातात्त्विक पहलू के परिप्रेक्ष्य में किया गया है। प्राचीन ग्रंथों के आधार पर मुख्यतः सामाजिक नक्शे तैयार किए गए हैं किंतु यह भी चेष्टा रही है कि इनकी संपुष्टि और विस्तार पुरातात्त्विक, नृतत्त्वशास्त्रीय व भाषा-विज्ञान के निष्कर्षों द्वारा हो। हमारा उद्येश्य यह भी रहा है कि भौतिक संस्कृति एवं सामाजिक विकास के बीच किस प्रकार के संबंध हैं, इसकी जांच की जाए।

ऋग्वेद के युग में पाई जानेवाली सामाजिक संरचना का अध्ययन अभी तक पुरातात्त्विक सामग्री के आधार पर आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है। पुरातत्त्व के सहारे उत्तर वैदिक काल में हुए सामाजिक और आर्थिक विकास को समझने में सहायता मिलती है, किंतु खोदकर निकाली गई सामग्री के विषय में पर्याप्त सांख्यिकीय एवं तकनीकी सूचना का अभाव है जिससे इसका सार्थक उपयोग नहीं हो सकता। किंतु निश्चित रूप से कुछ अभिलेखों ने हमारी समस्या को आसान बनाया है। भाबरू शिलालेख के आधार पर कई प्राचीन पालि-ग्रंथों का काल निर्धारित करने में हमें सहायता प्राप्त हुई है। अशोक के अन्य अभिलेख भी हमें काफी मदद करते हैं और कई बार हमें भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन से कई मुश्किलों से मुक्ति भी मिलती है।

संदर्भ एवं टिप्पणियां:

1. रामशरण शर्मा, प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएं, हिंदी, 1995 (पुनर्मुद्रित) पृष्ठ 29।
2. देखिए, द वेदिक एज, संपादक, आर. सी. मजुमदार, लंदन, 1951, पृष्ठ 227; ए. बी. कीथ, कैंब्रिज हिस्ट्री ऑफ इंडिया, संपादक, ई. जे. रैप्सन, खंड-1, लंदन, 1921, पृष्ठ 69।
3. आर एन नंदी, ‘ऋग्वैदिक समाजः एक पुनर्विचार’, इतिहास, (आई. सी. एच. आर.) अंक-2, 1993, पृष्ठ 73।
4. वही।
5. ऋग्वेद, 10. 14-18।
6. वही, 10. 67. 2-6; 10. 108. 1-11।
7. इवर्नन आर्नल्ड, द वेदिक मीटर, प्रथम संस्करण, 1905, कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, पुनर्मुद्रित, दिल्ली, 1967, पृष्ठ 257।
8. वही।
9. आर. एस. शर्मा ने ‘सात’ प्रकार के पुरोहितों की चर्चा की है।
10. ‘एंथ्रोपॉलॉली एंड दि हिस्ट्री ऑफ दि ऋग्वेद’, दि इंडियन हिस्टॉरिकल रिव्यू, खंड-13। और देखिए, इतिहास पत्रिका के पूर्वोद्धृत अंक में आर. एन. नंदी के लेख का ‘सामाजिक विभेदीकरण’ वाला हिस्सा।
11. रामविलास शर्मा, इतिहास दर्शन, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1955, पृष्ठ 15।
12. वही।
13. वही, पृष्ठ 22।
14. वही।
15. वही, पृष्ठ 23।
16. वही।
17. विश्वंभरनाथ त्रिपाठी, वेदचयनम् , विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 1984, पृष्ठ 11(परिशेष-1)
18. वही।
19. वही।
20. वही।
21. आर. एन. नंदी, ‘ऋग्वैदिक समाज: एक पुनर्विचार’, इतिहास, अंक-2, 1993, पृष्ठ 73।
22. देखें रामविलास शर्मा का साक्षात्कार, गोदारण (हिंदी पत्रिका), अंक-1, 1993, पृष्ठ 89।
23. वही।
24. वही, पृष्ठ 90।
25. वही, पृष्ठ 59।
26. वही।
27. यहां वर्ग निर्माण की प्रक्रिया की शुरुआत से इनकार नहीं है। स्तरीकरण एवं विभेदीकरण निश्चित ही अस्तित्त्व में था।
28. भिन्न कालखंड में रची गई चीजों को एक साथ मिलाकर मूल कृति के रूप में प्रस्तुत करना प्राचीन काल के लेखन की सामान्य प्रवृत्ति रही है। लेखनकला का अभाव तथा इसके संपादन की समस्या आदि कई संभव कारण हो सकते हैं। एक लंबे समय तक इन ग्रंथों को अंतिम रूप दिया जाना व्यावहारिक नहीं था। अतः प्राचीन काल की रचना के किसी खास अंश को ‘मूल’ अथवा किसी को ‘प्रक्षिप्त’ कहना तर्कसंगत नहीं जान पड़ता। प्राचीन काल के लेखन की यह एक ‘अनिवार्य बुराई’ है।
29. रामशरण शर्मा, प्राचीन भारत में भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएं, पृष्ठ 226।
30. अष्टाध्यायी, 3. 4. 36; निरुक्त, 4. 27; शतपथ ब्राह्मण, 4. 6. 9. 20; ऐतरेय ब्राह्मण, 3. 25. 8. 2; तैत्तिरीय संहिता, 3. 7. 1. 1।
31. ब्राह्मणों में विवेचित विषयों का संकेत शाबर-भाष्य में भी मिलता है। (2.1. 8)।
32. विश्वंभरनाथ त्रिपाठी, वेदचयनम्, वैदिक साहित्य संबंधी अंश, परिशेष-1, पृष्ठ-3।
33. रेनू, वैदिक इंडिया, पृष्ठ 10; गोंडा ने वैदिक लिटरेचर, पृष्ठ 360 में इस मत को पुनः बल प्रदान किया है। कौषीतकि तथा ऐतरेय ब्राह्मण पाणिनि (5.1.62) को ज्ञात थे तथा इनकी भाषा निश्चित रूप से पाणिनि-पूर्व काल की है। वही।
34. कैंब्रिज हिस्ट्री ऑफ इंडिया, जिल्द 1, पृष्ठ 131-32।
35. पद्मा मिश्र, इवॉल्यूशन ऑफ द ब्राह्मण क्लास, वाराणसी, 1978, पृष्ठ 43।
36. वही, पाद टिप्पणी 2।
37. वही, पृष्ठ 42, पाद टिप्पणी 4।
38. एस. जी. सरदेसाई, प्राचीन भारत में प्रगति एवं रूढ़ि, पृष्ठ 93।
39. वही, पृष्ठ 183।
40. देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, प्राचीन भारत में विज्ञान और समाज, पृष्ठ 238।
41. वही, पृष्ठ 229।
42. वही, पृष्ठ 231।
43. वही।
44. एस.जी. सरदेसाई, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 184।
45. वही, पृष्ठ 43।
46. जवाहरलाल नेहरु, हिन्दुस्तान की कहानी, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, 1988, पृष्ठ 117।
47. वही।
48. वही, पृष्ठ 118।
49. स्टेनली बॉलपर्ट, इंडिया, एप्रेंटीस हॉल, 1965, न्यूजर्सी, पृष्ठ 33।
50. भगवतशरण उपाध्याय, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, पृष्ठ 36।
51. एस. जी. सरदेसाई, प्राचीन भारत में प्रगति एवं रूढ़ि, पृष्ठ 45।
52. बृहदारण्यक उपनिषद, 3: 9 . 6; 4: 2 . 24।
53. एस. जी. सरदेसाई, प्राचीन भारत में प्रगति एवं रूढ़ि, पृष्ठ 208।
54. वही।
55. वही।
56. बृहदारण्यक उपनिषद्, 1. 4. 11।
57. एस. जी. सरदेसाई, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 208।
58. छांदोग्य उपनिषद्, 5. 10. 8; भगवत्गीता, 5. 18।
59. एस. जी. सरदेसाई, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 209।
60. वही।
61. वही, पृष्ठ 210।
62. वही।
63. एस. जी. सरदेसाई, भारतीय दर्शन: वैचारिक और सामाजिक संघर्ष, पी. पी. एच., नई दिल्ली, 1979, पृष्ठ 51।
64. वही।
65. मार्क्स और एंगेल्स, कम्युनिस्ट घोषणा पत्र, पृष्ठ 57।
66. एम. विण्टरनित्ज, ए हिस्ट्री ऑफ इंडियन लिटरेचर, अंग्रेजी, मोतीलाल बनारसीदास-वॉल्यूम 1, पृष्ठ 295।
67. बच्चन सिंह, ‘महाभारत की बुनावट’, कसौटी, हिंदी पत्रिका, अंक 8, पृष्ठ 36।
68. इस पुस्तक में अन्यत्र इस कहानी को उद्धृत किया गया है।
69. रामशरण शर्मा, मेटीरियल कल्चर एण्ड सोशल फॉर्मेशन इन एंशिएण्ट इंडिया, पृष्ठ 187।
70. रामशरण शर्मा, प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएं, पृष्ठ 33।
71. रामशरण शर्मा, पूर्वोद्धृत । बच्चन सिंह ने ‘जय’ संस्करण में श्लोकों की संख्या आठ हजार ही बतायी है। देखें, ‘महाभारत की बुनावट’, कसौटी, अंक 8, पृष्ठ 31।
72. बच्चन सिंह, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 31।
73. पूना संस्करण में कुल 82,146 श्लोक ही हैं।
74. बच्चन सिंह, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 32।
75. वासुदेवशरण अग्रवाल, भारत-सावित्री 1984, खंड 1, पृष्ठ 24-25।
76. रामशरण शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 33।
77. वही।
78. बच्चन सिंह, पूर्वोद्धृत ।
79. रामशरण शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 33।
80. वही।
81. एम. विण्टरनित्ज, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 132।
82. भगवतशरण उपाध्याय, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, पृष्ठ 6।
83. वही।
84. वही, पृष्ठ 7।
85. स्थानाभाव से यहां अवतरण अथवा व्याख्या न देकर केवल उनके हवाला देना काफी होगा-2, 42-43, 2, 45-46, 2, 53, 8, 28, 11, 48-53 आदि।
86. भगवतशरण उपाध्याय, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 7।
87. वही।
88. वही।
89. रामशरण शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 38।
90. डी. डी. कोसांबी, प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1996, पृष्ठ 122।
91. वही, पृष्ठ 145।
92. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 31।
93. वही।
94. वही।
95. एस. जी. सरदेसाई, प्राचीन भारत में प्रगति एवं रूढ़ि, पृष्ठ 40।
96. वही।
97. वही, पृष्ठ 52।
98. वही।
99. वही।
100. भगवतशरण उपाध्याय, खून के छींटे इतिहास के पन्नों पर, पी. पी. एच., दिल्ली, पृष्ठ 106।
101. ‘भाषा दासता की सबसे बड़ी शृंखला है। जब विजित विजेता की भाषा अंगीकार कर लेता है तो उसका सर्वथा पतन समझो।’ देखें, भगवतशरण उपाध्याय, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 116।
102. राजू रंजन प्रसाद, ‘प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था और भाषा, जन विकल्प
104. असतो वा एष सम्भूतः यच्छूद्रः (असत् से उत्पन्न हुआ है यह शूद्र)।
105. जिस देश में कुत्ता, सियार एवं हाथी तक के लिए संस्कृत के सम्मानजनक संबोधन हैं वहां मनुष्य जाति के संभवतः सबसे बड़े वर्ग को संस्कृत बोलने से रोका गया है। आज भी महावत हाथी के साथ गच्छ, तिष्ठ जैसे संस्कृत क्रिया-रूपों के ही सहारे संवाद कायम कर पाता है। कुत्ते के संबोधन में उच्चरित शब्द अत्तु संस्कृत ही का है। संस्कृत भाषा के जानकार को पता है कि यह आदरार्थ प्रयुक्त है। अर्थात् आदर (सम्मान) में कहा गया शब्द जिसका भाषिक अर्थ है-‘आइए खाइए।’ देखें, राजू रंजन प्रसाद, प्रभात खबर (हिन्दी दैनिक) दिल्ली, 29 अगस्त, 2004।
106. हॉपकिंस के अनुसार, ‘मनु में ऐसे स्थल विरल ही हैं जहां अन्य वर्णों से राजा का कोई संबंध जोड़े बिना स्वतंत्र रूप से उसका उल्लेख हुआ हो।’ देखें, आर. एस. शर्मा, प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएं, पृष्ठ 228।
107. अर्थशास्त्र, प्प्प्,1.,गौतमीपुत्र शातकर्णि को प्राकृत भाषा में ‘विनिवतित-चातुवण संकरस’ कहा गया है। (सिलेक्ट इंसक्रिप्शंस, 1, खंड 2, संख्या 8, पंक्ति 6)।
108. शूद्रों को ‘मोक्ष’ अथवा ‘स्वर्ग’ की प्राप्ति तीन उच्च वर्णों की सेवा ही से संभव थी।
109. अर्थशास्त्र, 1. 2।
110. वही।
111. चतुवर्णाश्रयास्यायम् लोकस्याचाररक्षणात्। न श्यतां सर्वधर्माणम् राजा धर्मप्रवर्तकः 2-3.1।।-अर्थशास्त्र, प्प्प्ण्1।
112. आर. एस. शर्मा, प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएं, पृष्ठ 236।
113. एच. सी. सेठ, ‘दि स्पुरियस इन कौटिल्याज अर्थशास्त्र,’ ए वॉल्यूम ऑफ इस्टर्न एण्ड इंडियन स्टडीज प्रेजेंटेड टु प्रोफेसर एफ डब्ल्यू टॉमस, पृष्ठ 25।
114. भगवतशरण उपाध्याय, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, पृष्ठ 49।
115. अर्थशास्त्र, प्प्प्. 20, 11. 1, टी. गणपति शास्त्री की टीका पर आधारित।
116. कौटिल्य की तुलना में मनु का रवैया कठोर है। उनका विधान है कि अन्य अवांछित तत्त्वों के साथ-साथ ‘पाषंडों’ (जिन्हें सर्वज्ञ नारायण ने बौद्ध आदि कहा है) को राजधानी या पुर से तुरंत निकाल देना चाहिए, क्योंकि इनके अधर्ममय आचरण से राजभक्त प्रजा के जीवनचक्र में बाधा पहुंचती है।
117. मनुस्मृति, ट. 90।
118. वही, प्ट. 30-31।
119. आर. एस. शर्मा, प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएं, पृष्ठ 34-35।
120. वही।
121. वही।
122. उमा चक्रवर्ती, ‘इतिहास निर्माण में विवादी स्वर’, समकालीन जनमत, वर्ष 25, अंक-2, पृष्ठ 9।
123. ‘पालि शब्द सर्वप्रथम बुद्धघोष के ग्रंथ में मिलता है जहां इसे दो अर्थों में प्रयुक्त किया गया है (1) बुद्ध वचन (2) त्रिपिटक (बौद्ध साहित्य)। बुद्धघोष की जीवनी में उल्लेख आता है कि उनके गुरु ने बुद्ध की कथाओं को सिंहली से मागधी में रूपान्तर करने की आज्ञा दी। जिस भाषा में सिंहली कथाओं का रूपान्तर हुआ वही पालि मानी जाती है-कता सिंहल भासाय सीहलेसु पवत्तर्ति
तं तत्त्थ गन्त्वा सुत्वात्वं मागधानां पवसति (महावंस परि. 37)
यानी मागधी का ही नाम पालि था। चुल्लवग्ग (5. 33. 1) में ऐसा वर्णन आता है कि भगवान् ने लोगों को अपनी भाषा से बुद्ध-वचन सीखने की आज्ञा दी-अनुजानामि भिक्खवे सकाय निमत्तियां बुद्ध वचनं परिया पुणितुं। कच्चायन व्याकरण में इसका निम्न प्रकार उल्लेख है-सा मागधी मूलभाषा सम्बुद्धा चापि भासरे। सामंत पसादिका के ‘समसिम्म बुद्धेन वुत्तपकारो मागधको वोहारो’ तथा विशुद्धमग्ग के ‘मागधिकाय सबा सत्तानं मूलभासाय’ उद्धरणों से यह स्पष्ट होता है कि बुद्ध ने मागधी में ही अपना प्रवचन आरंभ किया था। अशोक ने उसी मागधी का प्रयोग धर्मलेखों में किया। इसलिए राजा शब्द के स्थान पर लाजा प्रयुक्त मिलता है। ग्यारहवें प्रधान शिलालेख और सातवें स्तम्भलेख में ‘देवानं पिये पियदशी लाजा हेवं आहा’ उल्लिखित है।  

पालि का अर्थ यह भी मानते हैं कि वह गद्य जो बिना विराम के शीघ्रता से लिखा जाय। पालि के लिए ‘परियाय’ शब्द कई बार त्रिपिटक में प्रयुक्त है। अंगुत्तर निकाय में परियाय शब्द बार-बार आता है-धम्म परियायोति इमं धम्म परियायं, इमं हि में भन्ते धम्म परियायं। इमं धम्म परियायं (ब्रह्मजालसुत्त)। अशोक के भाबरू लेख में ‘इमानि भंते धम पालियायानि-भवता बुधेन भासिते एतानि भंते धम्म पलियानि’ ऐसा उल्लेख आता है। इससे तात्पर्य यह निकलता है कि पलियाय अथवा परियाय शब्दों में बुद्ध के उपदेश का भाव निहित है। दीघनिकाय में भी परियाय का अर्थ बुद्धवचन समझा गया है-भगवता अनेक परियायेन धम्मौ परियायं।

यदि शब्दों के रूपान्तर का क्रम देखा जाय तो पता चलता है कि परियाय, पलियाय में बदल गया जो कालांतर में पलियाया अथवा पालियाय बन गया। पालि शब्द अंतिम पालियाय का संक्षिप्त रूप है। भाषाशास्त्रियों ने परियाय, पंक्ति, पाल, पल्ली, पालि आदि शब्दों को एक श्रेणी में रखा है। ऐसा जान पड़ता है कि बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद पालि शब्द का प्रयोग उस भाषा विशेष (मागधी) के लिए किया गया जिसमें उन्होंने उपदेश दिया था। अतः पालि को मागधी का उपनाम मान सकते हैं जिसे अशोक के धम्मलेख में पाते हैं।’ देखें, डा. वासुदेव उपाध्याय, प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, प्रज्ञा प्रकाशन, पटना, पृष्ठ 146-47। ‘वास्तव में पालि तो किसी भाषा का नाम नहीं है। इस भाषा का मूल नाम मागधी है।’ देखें, धर्मानन्द कोसम्बी, भगवान बुद्धः जीवन और दर्शन, लोकभारती प्रकाशन, 1987, पृष्ठ 18।  
123. धर्मानंद कोसांबी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 17।
124. वही।
125. इमानि भंते धम्मपलियानि विनय समुकसे अलिय-वसानि अनागत भयानि मुनिगाथा मोनेयसूते उपतिस प्रसिने ए चा लाघुलोवादे मुसावदं अधिगिच्य भगवता बुधेन भासिते (भाब्रू लेख) मुनिगाथा मौनेय सूत्रं उपतिष्यप्रश्न राहुलवाद मृषावादम् को बार-बार सुनना चाहिए तथा अध्ययन करना चाहिए। इसके अतिरिक्त (विनय समुकसे) आर्यवंश (अंगुत्तर निकाय में वातार्लाप) अलियवसाणि और भिक्षु की भविष्य चर्चा (अनागतभयानि) को भी सुनना चाहिए जिससे संघ चिर स्थायी हो सके। देखें, डा. वासुदेव उपाध्याय, प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, प्रज्ञा प्रकाशन, पटना, पृष्ठ 139।
126. धर्मानंद कोसांबी, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 22।
127. वही।
128. वही।
129. वही।
130. वही, पृष्ठ 23।
131. वही।
132. आर. एस. शर्मा, भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएं, पृष्ठ 23।
133. वही।
134. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत।