Saturday, September 18, 2010

उत्तर वैदिक काल में वर्णों का उद्भव एवं सामाजिक अंतविर्रोध

आर्यों के भारत में आगमन से कुछ नये मसले खड़े हुए, जो कौमी और राजनीतिक दोनों ही थे। हारी हुई जाति, यानी द्रविड़ों के पीछे सभ्यता की एक लंबी पृष्ठभूमि थी, लेकिन इसमें जरा भी शक नहीं कि आर्य लोग अपने को बड़ा ही ऊंचा समझते थे और दोनों के बीच एक चौड़ी खाई थी। आर्यों की दूसरी शाख में, यानी ईरानियों के यहां सासानी जमाने में चार दर्जे किये गये थे, लेकिन बिगड़कर जातों की शक्ल नहीं ली।1 इनकी आपसी कशमकश और प्रतिक्रिया से ही वर्ण-व्यवस्था की शुरुआत हुई।2 शायद यह न आर्यों की अपनी चीज थी, न द्रविड़ों की। यह अलग-अलग जातियों को एक सामाजिक संगठन के अंदर ले आने की एक साझा कोशिश थी।3

जात या वर्ण का आरंभ आर्यों और अनार्यों के भेद से हुआ। शुरू-शुरू में आर्यों में एक वर्ग था और धंधों का शायद ही बंटवारा रहा हो! वर्ण-भेद, जिसका आरंभिक मकसद अनार्यों को आर्यों से जुदा करना था, अब खुद आर्यों पर यह असर लाया कि ज्यों-ज्यों धंधे बढ़े और इनका आपस में बंटवारा हुआ, त्यों-त्यों नये वर्गों ने वर्ण या जाति की शक्ल ली। इस तरह, एक ऐसे जमाने में, जब फतह करनेवालों का यह कायदा था कि हारे हुए लोगों को या तो गुलाम बना लेते थे, या उन्हें बिल्कुल मिटा देते थे, वर्ण-व्यवस्था ने एक शांतिवाला हल पेश किया और बढ़ते हुए धंधों की बंटवारे की जरूरत ने इसमें मदद पहुंचाई। समाज में दर्जे कायम हुए। किसान जनता में से वैश्य बने, जिनमें किसान, कारीगर और व्यापारी लोग थे; क्षत्रिय हुए जो हुकूमत करते थे या युद्ध करते थे; ब्राह्मण बने जो पुरोहिती करते थे, विचारक थे, जिनके हाथ में नीति की बागडोर थी और जिनसे यह उम्मीद की जाती थी कि वे जाति के आदर्शों की रक्षा करेंगे। इन तीनों वर्णों से नीचे शूद्र थे, जो मजदूरी करते थे और ऐसे धंधे करते थे, जिनमें किसी खास जानकारी की जरूरत नहीं होती। इस वर्ण-विभाजन में अदला-बदली होती रही और सख्ती के साथ भेद तो बाद में कायम हुए। शायद हुकूमत करनेवाले वर्ग को हमेशा वही आजादी रही, और कोई शख्स, जो लड़कर या दूसरी तरह ताकत अपने हाथ में कर लेता था, वह अगर चाहे, तो क्षत्रियों में शरीक हो सकता था और पुरोहितों के जरिये अपनी वंशावली तैयार करा सकता था।

वर्ण (वर्ग नहीं) की दिशा में पहला कदम उस समय उठाया गया जब आर्यों ने दासों को सामाजिक परिधि से बहिष्कृत किया।4 संभवतः उन्होंने ऐसा दासों के भय से किया और उन्हें इस बात का भय और भी ज्यादा था कि दासों के साथ घुलने-मिलने से आर्यत्त्व अक्षुण्ण नहीं रह सकेगा। प्रत्यक्ष रूप में यह अंतर मुख्यतः रंग का था-दास काले रंग और भिन्न संस्कृति के थे। जाति के लिए प्रयुक्त होनेवाले संस्क्ृत शब्द वर्ण का अर्थ ही रंग होता है। कहना न होगा कि इस संपूर्ण कालखण्ड में जाति के रंग पर बल दिया जाता रहा।5 इस बात में अब कोई संदेह शेष नहीं है कि उस समय भारत में रहनेवाली आदिवासी जनजातियों के काले रंग की तुलना में आर्य गौरवर्णी थे।6  
 
यह मंतव्य कि शूद्र वर्ण का निर्माण आर्य-पूर्व लोगों से हुआ था, उतना ही एकांगी और अतिरंजित मालूम पड़ता है, जितना यह समझना कि उस वर्ण में मुख्यतः आर्य ही थे।7 वास्तविकता यह है कि आर्थिक एवं सामाजिक विषमताओं के कारण आर्य और आर्येतर, दोनों ही ओर श्रमिक समुदाय का उदय हुआ और ये श्रमिक आगे चलकर शूद्र कहलाए।8 साधारणतया, मान्य समाजशास्त्रीय सिद्धांत है कि वर्ग-विभाजन बराबर सजातीय असमानता से मूलतया संबद्ध होता है।9  ऋग्वेद में गैर-आर्य जातियों को काली, लाल और चपटी नाकवाली आदि बतलाया गया है और इसके साथ ‘म्लेच्छ’, ‘नीच कमीन’, ‘अपराधमना’ और न जाने कितने ही घृणास्पद विशेषणों से इन्हें विभूषित किया गया है। जैसे-जैसे समय बदलता गया और आर्यों तथा गैर-आर्यों में रक्त-संबंध बनते गये तो नृशास्त्रीय अर्थ में ‘आर्य’ शब्द तथा शरीर के रंग के अर्थ में वर्ण शब्द पूरी तरह अर्थ-विहीन हो गये, अपना मूल अर्थ खो बैठे।10

पुरुषसूक्त में चतुर्वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैष्य और शूद्र) का सर्वप्रथम उल्लेख इसके बहुत बाद में संकलन का द्योतक है।11 पहले विजेता आर्यों की एक ही जाति थी किन्तु धीरे-धीरे जीवन की संसृष्टता (उलझन) ने वर्ण-व्यवस्था उत्पन्न की। ऋग्वेद के अन्य भागों के संकेत एक ही वर्ण की व्यवस्था के बोधक हैं, विशः या वैश्य सभी को कहते थे, सभी लोग योद्धा थे क्योंकि युद्ध के उल्लेखों में कोई विशेष व्यवस्था नहीं है। सबों को यज्ञ का अधिकार था। पुरोहित वर्ग को कोई विशेषाधिकार नहीं प्राप्त थे।12

वर्ण-व्यवस्था के विपरीत हमें विभिन्न व्यवसायों में एक ही परिवार के लगे रहने के उल्लेख मिलते हैं।13 वर्णों के बीच सामाजिक भेदभाव बतानेवाला एकमात्र पूर्वकालीन संदर्भ अथर्ववेद में पाया जाता है जिसमें यह दावा किया गया है कि ब्राह्मण को, राजन्य प्राप्त और किसी वैश्य की तुलना में, किसी नारी का पहला पति बनने का अधिकार प्राप्त है।14  बाद के दिनों में भी कुछ विद्वानों के लिए चातुर्वर्ण्य हमेशा एक आदर्श मात्र रहा।15 सामाजिक उत्पादन में पुरुषों के समान स्त्रियों की निर्बाध भागीदारी की वजह से वर्णगत अथवा जातिगत भेदभाव पैदा न हो सके थे। ऋग्वैदिक समाज में सामाजिक हैसियत का भेदभाव था, लेकिन चूंकि वह मूलतः एक पशुपालक समाज था, इसलिए अधिशेष के अभाव में उसमें वर्गगत भेदभाव पैदा न हो सका।16  किंतु ठीक इसी के साथ लूट के माल का एक बड़ा हिस्सा मुखियों और पुरोहितों को मिलता था और इससे स्तर-विभाजन की प्रकिया मजबूत होती चलती थी।17 पुरोहितों का दावा था कि उनके मंत्रोच्चार और प्रार्थनाओं ने नायकों की सफलता सुनिश्चित की थी और यह भी कि सिर्फ वे ही देवताओं के साथ संवाद स्थापित कर सकते हैं।

कालक्रम से पशुचारिता गोत्र का मुख्य व्यवसाय नहीं रही। पश्चिमी गंगा-घाटी में चावल की खेती का महत्त्व बढ़ने लगा।18 खेतीबारी के चलते सम्पत्ति की अवधारणा भी धीरे-धीरे बदल गई। हजारों की तादाद में मवेशियों और घोड़ों के साथ दासियों, रथों और स्वर्ण से आगे बढ़कर आर्थिक मूल्य की वस्तु के रूप में भूमि को भी संपत्ति में शामिल किया जाने लगा।

कृषि-कर्म ने मुखिया के लिए शक्ति के एक अलग किस्म के आधार को बढ़ावा दिया जिसमें क्षेत्र की अवधारणा ने परिवर्तित होकर भूमि पर स्वामित्त्व का रूप ले लिया। यह स्थिति शब्दावली में परिवर्तन के रूप में भी अभिव्यक्ति पाती है जहां राजन्य अभिषिक्त मुखिया होते हुए भी, क्षत्रियों के और भी व्यापक समूह का अंग बन जाता है। क्षत्रिय शब्द की व्युत्पत्ति ‘क्षत्र’ से हुई है जिसका अर्थ है ‘शक्ति’। क्षत्रिय-समूह के सत्ताधारी मुखिया जटिल और आडम्बरपूर्ण यज्ञीय अनुष्ठानों की शंृखलाओं के माध्यम से राजतंत्र की दिशा में और भी आगे बढ़ते गये। इन अनुष्ठानों में दैवी संबंध का अनुमोदन शामिल था, जो इस प्रकार नई व्यवस्था को वैध ठहरानेवाले बन गये और इस प्रक्रिया में प्रसंगवश उन्होंने खुद भी अपनी स्थिति सुधार ली एवं सामाजिक पदानुक्रमता के लिए सर्वश्रेष्ठ अनुष्ठान का भी दावा किया। इतना ही नहीं, राजा का पद बहुत बड़ी सीमा तक धार्मिक अनुमोदन पर टिका हुआ था।19   जैसाकि उर्वरता और समृद्धि के साथ राजपद के संबंधित होने से स्पष्ट होता है। इस संबंध की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति अक्सर राजा को वर्षा करानेवाला मानने के रूप में होती है। इस बात का उल्लेख बार-बार आता है कि अधार्मिक राजा अनावृष्टि के लिए उत्तरदायी है। बहुत-सी कहानियों में जिक्र मिलता है कि बारह वर्ष के सूखे के बाद वर्षा हुई जब सिंहासन उसके न्यायोचित अधिकारी को सौंपा गया।20

ग्रंथों में यह उल्लेख मिलता है कि ‘क्षत्र’ गोत्र को उसी प्रकार खाते हैं जैसे हिरण फसल को।21 ‘विष’ या गोत्र स्वयं भी परिवर्तन की एक प्रक्रिया से गुजर चुका था जिसमें कुटुम्ब का कर्ता अर्थात् ‘गृहपति’ धीरे-धीरे एक स्पष्ट सामाजिक तत्त्व के रूप में उभरकर सामने आ चुका था। बाद के समय में, कहना न होगा कि ‘गृहपति’ का उल्लेख अक्सर ‘वैश्य’ (विश से उत्पन्न) के रूप में होता है और वैश्य के कर्तव्य ठीक वही हैं, जिन्हें इससे पहले के काल में गृहपति निभाता था यथा पशुपालन, खेतीबारी एवं व्यापार।22

यह सही है कि वर्ण शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में आर्य23  और दास24 के लिए हुआ है किंतु इससे किसी ऐसे व्यापक श्रम-विभाजन का संकेत नहीं मिलता जो परवर्ती काल में समाज के व्यापक वर्गीकरण का आधार हुआ। आर्य वर्ण और दास वर्ण दो बृहद जनजातीय समूह थे जो सामाजिक वर्गों के रूप में विघटित हो रहे थे। ऋग्वेद के संकलन से आरंभिक अवस्था में सामाजिक वर्गभेद के धीरे-धीरे और क्रमिक रूप से पनपने का आभास मिलता है। उसमें ‘ब्राह्मण’ शब्द का प्रयोग पन्द्रह बार और ‘क्षत्रिय’25  शब्द का प्रयोग नौ बार हुआ है। युद्ध में अपहरण की गई संपत्ति से जनजाति के नेताओं का ऐश्वर्य और सामाजिक दर्जा अवश्य बढ़ा होगा और उन्होंने मवेशी और दासियों का दान कर पुरोहितों का संरक्षण प्राप्त किया होगा। ऋग्वेद में रथ पर जाते हुए यजमान को ‘धनवान’ दाता और सभाओं में संस्तुत के रूप में चित्रित किया गया है।26 ऋग्वेद के अन्य कई संदर्भों से पता चलता है कि अपने बांधवों का गला दबाकर भी संपत्ति इकट्ठी करने की प्रवृत्ति कुछ आर्यों में पाई जाती थी। लोगों से अपेक्षा की जाती थी कि वे अपनी संचित संपत्ति में से इन्द्र तथा अन्य देवताओं को यज्ञ में धनराशि अर्पित करें, जिससे इस धन में फिर दूसरों को कुछ हिस्सा प्राप्त हो सके 27 परंतु लूट के माल का अधिकांश जब वे अपने पास रखने लगे तो आर्थिक और सामाजिक विषमता का जन्म हुआ।

ऋग्वेद की दान-स्तुतियों में जो दो समूह एक-दूसरे को प्रतिश्ठा-पद देते हैं वे हैं ब्राह्मण और राजन्य/क्षत्रिय। ब्राह्मण, राजन्य की ओर से देवताओं से प्रार्थना करता है और उसके लिए युद्ध तथा गो-हरण में सफलता सुनिश्चित करता है, और यह सफलता राजन्य को शक्ति और राजनीतिक प्रतिष्ठा से संपन्न करती है। उधर राजन्य, ब्राह्मणों को संपत्ति प्रदान करते हैं, और इस प्रकार उन्हें आय का एक प्रमुख स्रोत उपलब्ध कराते हैं। साथ ही राजन्यों के लिए सफलता सुनिश्चित करने की प्रक्रिया में निहित अपनी करिश्माई शक्ति को धार्मिक और अंततः वैधानिक स्वीकृति प्रदान करते हैं। जहां तक संपत्ति के पुनर्वितरण का संबंध था, लगता है अब यज्ञों के माध्यम से होनेवाला पुनर्वितरण भी उन्हीं दो सामाजिक समूहों, अर्थात् ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों तक सीमित होकर रह गया था। इस बदली हुई परिस्थिति में जिनके पास संपत्ति थी, उनके और कबीले के बाकी लोगों के बीच अंतर पैदा हो गया होगा।

उत्तर वैदिक साहित्य में दान की अवधारणा में भी धीरे-धीरे परिवर्तन देखा जाता है। बदलती हुई अवधारणा की अभिव्यक्ति ‘दक्षिणा’ शब्द के अधिक प्रयोग में होती है। दान की उपयुक्तता तथा जिस श्रद्धा के साथ यह दिया जाता है, उस पर अधिक जोर दिया जाता है। यह काम दक्षिणा के माध्यम से दान देने की क्रिया को यज्ञ कर्मकांड से घनिष्ठतापूर्वक जोड़कर किया जाता है। कहा गया है कि देवता और वेद-विशारद ब्राह्मणः दोनों को प्रसन्न करना चाहिए, देवताओं को यज्ञों से और ब्राह्मणों को दान से।28 इसी काल में दान की उपयुक्त वस्तुओं की सूची में खेतों और भूमि का भी उल्लेख होने लगता है, यद्यपि अब भी ऐसे उल्लेख कम ही होते हैं।29 हालांकि पशु-धन अब भी काफी महत्त्वपूर्ण है, लेकिन कुछ पाठों में दान की वस्तु के रूप में पशु-धन स्वीकार करना ठीक नहीं माना गया है और इनमें शायद सोना और भूमि को प्राथमिकता प्रदान की गई है।30 राजसूय यज्ञ के अध्ययन से दान की वस्तुओं की सूची में आए बदलाव का दिलचस्प संकेत मिलता है।31  इस काल में पशुओं की संख्या ऋग्वैदिक दान-स्तुतियों में उल्लिखित संख्या से काफी कम है। यज्ञ के सिलसिले में दक्षिणा के जिस एक और रूप का निर्देश किया गया है वह है पुरोहित को दिया जानेवाला चतुष्यत क्षेत्र32 (चार हिस्सोंवाला खेत)। विद्वानों का अनुमान है कि यह वह भूमि थी जिसका उपयोग राजसूय के अंग के रूप में राजा द्वारा हल चलाने की विधि संपन्न करने के लिए किया गया था। उत्तर वैदिक समाज को देखते हुए यह अत्यंत स्वाभाविक जान पड़ता है कि राजा से प्राप्त दक्षिणा कर्मकांड करानेवालों की जीविका का बुनियादी स्रोत रही होगी।33

दक्षिणा की उगाही अब सिर्फ बड़े-बड़े राजकीय यज्ञों तक ही सीमित नहीं रह गई थी बल्कि कर्मकांड की परिधि में सामान्य जन को भी ब्राह्मणों ने लाने की कोशिश की। व्यक्ति के जीवन में कर्मकांड के अनेक प्रसंग आने लगे थे और इन कर्मकांडों का संपादन उनके कल्याण के लिए आवश्यक माना जाता था। दाता की परिभाषा में एक बिल्कुल ही नये वर्ग को शामिल किया गया जिनसे संस्कार संपादित करने की अपेक्षा की जाती थी।34 सामाजिक वर्गों की दृष्टि से दाता की विस्तृत होती यह परिभाषा मनु के यहां गुणात्मक परिवर्तन की स्थिति में पहुंच जाती है क्योंकि मनु स्पष्ट शब्दों में कहता है कि दान देना गृहस्थ का धर्म है।35  दान-विनिमय की अपनी विवेचना में मार्सेल मॉस मानते हैं कि महाभारत एक विराट महाभोज की कथा है।36 उन्होंने खासतौर से अनुशासन पर्व का निर्देश मुख्यतः दान की महिमा के वर्णन से संबंधित अंश के रूप में किया है। यहां हमें दान की कोटियों का और भी पल्लवन होता दिखाई देता है।37  उदाहरण के लिए इष्ट (ईंट) और पूर्त के बीच भेद पर जोर दिया जाता है। पूर्त अधिक बड़ा आयोजन है, जिसमें कुएं, तालाब, मंदिर, बगीचे और भूमि-दान की जाती है।38   अचल संपत्ति का दान अपेक्षाकृत नई अवधारणा है। पूर्त में जो कुछ भी शामिल किया गया है उसका अपना महत्त्व है, क्योंकि इससे कृषि-प्रधान अर्थव्यवस्था की स्थापना का स्पष्टतया बोध होता है, जिसमें कुआं, तालाब, उपवन तथा भूमि का ऐसा महत्त्व है जैसा मुख्यतः पशुपालक अर्थव्यवस्था में नहीं हो सकता था। विधि साहित्य में विकसित होनेवाले इस भेद का एक अन्य दिलचस्प पहलू यह है कि इष्ट का संपादन केवल कर्मकांडी दृष्टि से शुद्ध व्यक्ति ही कर सकता था लेकिन पूर्त-दान का, जो आर्थिक दृष्टि से अधिक प्रभावकारी और विशेषरूप से ब्राह्मणों के लिए मंगलकारी था, संपादन शूद्र भी कर सकते थे।39 इस काल में जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात उभरकर सामने आती है वह यह है कि दान देने से भौतिक संपत्ति की अभिवृद्धि होती है।40

दान में भूमि देने के चलन तथा अन्य दानों की तुलना में भूमिदान को प्राथमिकता प्रदान करना कृषि में बढ़ती हुई रुचि और इस बात का द्योतक है कि भूमि अब पशु-धन से कहीं अधिक लाभदायक हो गई थी। भूमिदान में उस चीज के अंकुर विद्यमान थे जो बाद में एक नई कृषि-संरचना के रूप में विकसित होनेवाली थी, जिसके आर्थिक एवं सामाजिक संरचनाओं के लिए अपने विशेष फलितार्थ थे।41 हमारे प्रयोजन के लिए इतना कह देना पर्याप्त होगा कि भूमिदान के व्यापक चलन ने दान को एक नया संस्थागत रूप दिया, जो पूर्ववर्ती सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से बहुत दूर निकल आने का द्योतक था और साथ ही दाता तथा प्रतिग्रहीता दोनों के लिए एक नई पहचान के विकास का परिचायक था। इसके माध्यम से वर्ण-व्यवस्था, जो कि सामाजिक स्तरीकरण का एक प्रतिबिंबन थी, के विकास को आसानी के साथ समझा जा सकता है। साथ ही, दोनों के अंतर्संबंधों को भी चिह्नित करने में मदद मिलती है। वैदिक काल के अंतिम चरण के अनेक ग्रंथ यज्ञों की दक्षिणा के रूप में भूमि तथा मनुष्यों को देने का निषेध करते हैं।42 यह तथ्य कि ब्राह्मण को भूमिदान के संबंध में समूह के अधिकार का भी उल्लेख है, जो इस बात का द्योतक माना जाता है कि चारों वर्णों43 की समान उत्पत्ति के मिथक के बावजूद ब्राह्मण को राजा के समूह का सदस्य नहीं समझा जाता था।

ऋग्वैदिक काल की सरल और कबीलाई समाज से उत्तरवैदिक काल की सामाजिक-आर्थिक संरचना में जो अंतर आता दिखता है उसमें प्रौद्योगिकी के विकास का भी महत्त्वपूर्ण हाथ है।44  इस दृष्टि से देखें तो नई सभ्यता का आधार लोहा, व्यापक अश्व-पालन, हल-कृषि का विस्तार और पूर्ववर्ती काल की अपेक्षा अधिक परिष्कृत बाजार अर्थव्यवस्था थी। दूसरी सहस्राब्दी ई. पू. के अंतिम चरण में दोआब या पश्चिमी गांगेय मैदान में आदिम कृषकों की छोटी-छोटी बस्तियों के स्थान पर अधिक उन्नत कृषकों की बड़ी-बड़ी बस्तियां स्थापित हो गईं, जिन्होंने प्रथम सहस्राब्दी ई. पू. के पूर्वार्ध तक धीरे-धीरे लौह प्रौद्योगिकी अपना ली। उससे और पूरब की ओर मध्य गांगेय मैदान और दक्षिण बिहार में लौह प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल को स्पष्टतया एक अलग प्रकार के जनसमूह (कृष्ण-लाल-मृद्भांड संस्कृति) से उत्तेजना मिली। उत्तर वैदिक साहित्य में वर्णित भौगोलिक क्षेत्र मुख्य रूप से दोआब था और ब्राह्मण साहित्य में उसका निर्देश प्रधानतः आर्यावर्त या आर्यों (विशुद्ध, सम्माननीय लोगों) के देश के रूप में किया गया, जो संस्कृत बोलते थे एवं वर्ण-धर्म का पालन करते थे। दक्षिण बिहार, जिसमें मगध प्रदेश भी शामिल था, बहुत हद तक ‘असनातनी संप्रदायों’ का प्रवृत्ति-केंद्र था। बौद्ध एवं जैन ग्रंथों में दक्षिण बिहार आर्यावर्त का क्रोड़ क्षेत्र था। अधिक वर्षावाले क्षेत्र होने के कारण उन दिनों गांगेय मैदान घने जंगलों से भरा हुआ था। विद्वानों का विचार है कि लौह प्रौद्योगिकी के समावेश के पूर्व इन प्रदेशों में किसी खास बड़े पैमाने पर बस्तियां बसाना लगभग असंभव था, क्योकि मानसूनी जंगलों को ताम्र प्रौद्योगिकी के औजारों से साफ नहीं किया जा सकता था। आबादी की अभिवृद्धि के साथ-साथ लोहे का प्रयोग आरंभ हुआ, यह बात पुरातात्त्विक सामग्रियों से भी स्पष्ट है। दृढ़ कृषि अर्थव्यवस्था और फिर कालक्रम से शहरीकरण की पूर्वशर्त के रूप में लौह-युग के आगमन की बात की पुष्टि लोहे का इस्तेमाल करनेवाली संस्कृतियों की अनेक बस्तियों के शहरों के रूप में विकसित होने से भी होती है। आबादी की वृद्धि से गांगेय मैदान में न केवल खेती के लिए अधिकाधिक भूमि को साफ करने में सहायता मिली, बल्कि उससे लौह-प्रौद्योगिकी में परिवर्तन को और खासतौर से हल से की जानेवाली खेती को भी प्रोत्साहन मिला होगा।

उत्तर वैदिक ग्रंथों में लौह के लिए अनेक शब्द प्राप्त होते हैं। ‘यजु’ संहिताओं में सबसे बाद की वाजसनेयि संहिता45 में ‘श्याम’ शब्द है, जिसकी तिथि लगभग 800 ई. पू. हो सकती है, क्योंकि यह संहिता तैत्तिरीय संहिता से बाद की है।46  अथर्ववेद 10. 5. 4 में ‘श्यामेन’ शब्द और 11. 3. 1 में ‘श्याम अयस’ शब्द प्राप्त होते हैं, परंतु अथर्ववेद के ये अध्याय पुरोहित-साहित्य के भाग हैं न कि लोक काव्य के, और इस नाते काल के लिहाज से संभवतः बाद के हैं47 क्योंकि अपने वर्तमान रूप में अथर्ववेद निश्चय ही चारों संहिताओं में सबसे बाद का है।48  ये उल्लेख 800 ई. पू. के पहले के नहीं प्रतीत होते। शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण से बाद के49 जैमिनि उपनिषद् ब्राह्मण 2. 90 में ‘कृष्णायस’ एवं ‘कार्षणायस’ शब्द मिलते हैं। इस ग्रंथ को 600 ई. पू. के बाद का निर्धारित किया जा सकता है। यह आश्चर्यजनक है कि लोहे के लिए प्रयुक्त मिस्री भाषा का शब्द स्वर्ग से आया हुआ काला तांबा है,50 जो लगभग ‘कृष्णायस’ के समान है।                                                                                                  

लगभग 1000-500 ई. पू. के स्तरों में पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान के समीपवर्ती क्षेत्रों से प्राप्त लोहे की वस्तुओं के आधार पर हम उनके हस्तशिल्प एवं कृषि में बड़ी सीमा में उपयोग की कल्पना नहीं कर सकते। इस काल में केवल वाणाग्र तथा भाले के अग्र-भाग और कुछ सीमा तक कीलें51 ही प्राप्त हुई हैं; कुल्हाड़ी, दरांती एवं कुदाल विरल हैं, और हल के फाल लगभग अनुपस्थ्ति हैं। जखेड़ा से हल का फाल प्राप्त होने की सूचना है, परंतु यह चि. धू. मृ. काल के अंत का हो सकता है। इससे संबद्ध अन्य पुरातात्त्विक वस्तुओं की तिथि अब तक निर्धारित न हो सकी है। इस प्रकार चि. धू. मृ. तथा लौह काल मूलतः लोहे के उपकरणों का है।52 प्रौद्योगिकी की दृष्टि से 1000-600 ई. पू. का काल आदिम लौह का काल था।53 परंतु अनेक स्थानों पर तीन से चार मीटर तक गहरे चि. धू. मृ. लौह काल के जमाव इस बात को निस्संदेह प्रकट करते हैं कि बस्तियां कम से कम तीन से चार शताब्दियों तक बनी रहीं। इनकी सापेक्षिक स्थिरता और जनसंख्या वृद्धि के द्योतक अनेक संदर्भ इस बात की ओर संकेत करते हैं कि ये कृषक समुदायों की बस्तियां थीं। उत्तर वैदिक साहित्य में चार, छह, आठ, बारह और यहां तक कि चौबीस बैलों द्वारा खींचे जानेवाले हलों के उल्लेख हैं54 जो इस बात के द्योतक हैं कि कठोर भूमि को जोतने के लिए दो से अधिक बैलों को लगाया जाता था। कृषि क्षेत्र के महत्त्व को अब समझा जाने लगा था तथा ‘खदिर’ के हल के फाल से प्रार्थना की जाती थी कि वह लोगों को गाय, बकरी, बच्चा तथा अनाज प्रदान करें।55 ऐसा प्रतीत होता है कि ‘खदिर’ अथवा ‘खैर’ का बना हल का फाल पर्याप्त सीमा तक प्रयोग किया जाता था।56  शतपथ ब्राह्मण में इसे बहुत कठोर कहा गया है तथा इसकी तुलना हड्डियों से की गई है।57 परंतु कुछ उत्तर वैदिक ग्रंथों में हल को परिरवत्58 तथा पत्रारिवम्59 कहा गया है, जिसकी व्याख्या बल्लम के समान धातु के फाल से युक्त हल के रूप में की गई है।60

अतरंजीखेड़ा में चि. धू. मृ. स्तरों से जौ के अतिरिक्त चावल और गेहूं61 भी प्राप्त हुए हैं। इनका समर्थन उत्तर वैदिक ग्रंथ भी करते हैं, जिन्हें जौ, चावल (ब्रीहि) उड़द (माष) तथा तिल62 का ज्ञान था। बाजरे (श्यामाक) का भी उल्लेख प्राप्त होता है।63  उत्त्र वैदिक ग्रंथों में साठ दिनों में पकनेवाली धान की फसल का नाम ‘षष्टिक’ प्राप्त होता है।64 यह एक प्रकार का साधारण मोटा चावल है, और साठी केे नाम से संपूर्ण उत्तरी भारत में आज भी प्रचलित है।65 यह तथ्य कि हिंदू अनुष्ठानों में अन्य प्रकार के चावलों के स्थान पर इसी चावल का प्रयोग होता है, प्रकट करता है कि यह कृषि से उत्पन्न प्राचीनतम चावल का प्रकार था।66

जाहिर है, उत्तर वैदिक काल में कृषि लोगों का एक मुख्य व्यवसाय बन चुकी थी। यद्यपि उत्पादन का मुख्य उपकरण लकड़ी ही का बना हल का फाल था, तथापि लागों को धातुओं का तुलनात्मक रूप से अच्छा ज्ञान हो चला था। वे अपने खेतों में खाद का प्रयोग करते थे तथा खेतों की सिंचाई भी करने लगे थे। छांदोग्य उपनिषद् में अन्न के महत्त्व पर बल दिया गया है।67 जहां ऋग्वेद के मध्य भागों में वर्णित समाज मूलतः पशुचारी था, वहां उत्तर वैदिक साहित्य तथा चि. धू. मृ./लौह पुरातत्त्व से ज्ञात समाज मूलतः कृषक था। वैदिक ग्रंथ तथा चि. धू. मृ./लौह पुरातत्त्व दोनों ही धान तथा अन्य अनेक अनाजों की खेती का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं, और ये उत्पाद भरण-पोषण से अधिक उत्पादन की अर्थव्यवस्था के द्योतक कहे जा सकते हैं।68 कृषक अपने भरण-पोषण की आवश्यकता से कुछ अधिक ही उत्पादन करते थे। इसके परिणामस्वरूप वे पुरोहितों एवं कर्मचारियों सहित राजाओं जैसी उत्पादन से असंबद्ध ईकाइयों का भी भरण-पोषण कर सकते थे, जो ऋग्वेद के पशुचारी समाज में संभव नहीं था।

व्यवस्थित कृषक जीवन, घरों तथा संभवतः भूमि के रूप में संपत्ति के प्रारंभ का कारण बना। मुख्यतः भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति हेतु तथा कुछ सीमा तक स्वर्ग प्राप्त करने के निमित्त अथर्ववेद में कृषकांे सहित सभी लोगों के लिए बारह यज्ञों (‘सव’) का विधान है। इनमें ब्राह्मण के निमित्त गाय, बछड़े, बैल, स्वर्ण, पका हुआ चावल, झोंपड़ियां तथा भली प्रकार बनाये गये व जुते हुए खेत की भेंट की अनुशंसा की गई है।69  पासे के खेल में गायों, घोड़ों, संपत्ति (धन)70, स्वर्ण और यदा-कदा पत्नियों71 को दांव पर लगाया जाता था। ये दो सूचियां चल तथा अचल संपत्ति के बारे में महत्त्वपूर्ण सूचना देती हैं।72 यजु ग्रंथों में उल्लिखित लुटेरों व डाकुओं के सरदारों को प्रणाम करने का विधान पर्याप्त मात्रा में चल संपत्ति विद्यमान होने का सूचक है,73 और इस बात को इंगित करता है कि संपत्ति की पवित्रता स्थापित करने की प्रक्रिया निर्विघ्न नहीं थी। यह संभव है कि धातुओं पर सामूहिक स्वामित्व की जनजातीय परंपरा कुछ लोगों के लिए अब भी प्रभावशाली थी। ये वे लोग थे जो संपत्ति की विकासशील संस्था से सामंजस्य स्थापित करने में कठिनाई का अनुभव कर रहे थे तथा परिणामस्वरूप इन्होंने लूटमार व चोरी का तरीका अपना लिया था।74

धीरे-धीरे जटिल हो रही उत्पादन व्यवस्था ने सामाजिक व्यवस्था व संरचना को भी जटिलता प्रदान की। जनजातीय प्रमुख तथा उसके पुरोहित विचारकों के द्वारा अपने समुदाय के व्यक्तियों पर प्रशासनिक नियंत्रण स्थापित करने के लिए अनुष्ठानों की क्रिया-विधि का विकास किया गया था।75 समुदाय के अधिकतर लोग अब तक कृषक में तब्दील हो चुके थे।76 अनुष्ठानों का मुख्य उद्येश्य था राजा द्वारा कृषकों एवं समुदाय के अन्य व्यक्तियों पर प्रभुत्त्व स्थापित करना, जो आवश्यकता पड़ने पर शक्ति के प्रयोग द्वारा भी स्थापित किया जाता था।77 इन अनुष्ठानों में दैवी जगत में कृषक वर्ग के प्रतीक तथा कृषकों अथवा ‘विश’ के देवता मरुतों को रोटियां अर्पित की जाती थीं। अनुष्ठान यह भी इंगित करता है कि यदि देवता अपना भाग (‘भागधेयम्’) अथवा यज्ञ की रोटी प्राप्त करते थे, तो वे राजकीय यज्ञकर्ता को अपने समुदाय के लोगों (संजाताः) तथा कृषकों (विश)78 पर प्रभुत्व स्थापित करने की सामर्थ्य प्रदान करते थे। शतपथ ब्राह्मण के कुछ उल्लेख स्पष्ट करते हैं कि यद्यपि अभिजात अथवा योद्धा उसी नातेदारी के समुदाय के सदस्य थे और ‘विश’ अथवा समुदाय से ही उनका उत्थान हुआ था,79  तथा वे उसी कृषक समुदाय पर प्रभुत्त्व स्थापित करते थे। यह कहा गया है कि राजकीय शक्ति जनों पर दबाव डालती है तथा राजा जनों पर ही आघात करने के लिए प्रवृत्त होता है।80 कृषकों के अनुरूप वैश्यों को अधीन करने योग्य समझा जाता था।81 कृषक वर्ग को अभिजात वर्ग के अधीन करने में ब्राह्मणों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।82 अनुष्ठानों द्वारा वह राजा को शक्ति प्रदान करता है, और परिणामस्वरूप नीचे के लोगों से अधिक बलवान बनाता है।83 उन कृषकों अथवा ‘विश’ की तीव्र भर्त्सना की जाती थी जो राजा को तुच्छ समझते थे, उसकी आज्ञा का पालन नहीं करते थे, तथा विद्रोह करते थे।84 यह कहा गया है कि जनों को अभिजात वर्ग के ऊपर स्थापित नहीं करना चाहिए।85 तथा वे लोग श्रेष्ठ व्यक्तियों एवं भले व्यक्तियों के बीच भ्रम उत्पन्न करते थे जो विश को अभिजात वर्ग के समान बताते थे और इस प्रकार उन्हें हठीला बनाते थे।86 इस प्रकार का कोई भी प्रयत्न जो कृषकों को योद्धा-राजाओं से अथवा योद्धा-राजाओं को कृषकों से अलग करता हो, इस आधार पर निंदनीय है कि वह अव्यवस्था को जन्म देता है और पाप का मार्ग प्रशस्त करता है।87 अभिजातों और योद्धाओं के लिए कृषकों की तुलना में विशेषाधिकृत स्थान प्राप्त करना सरल नहीं था, क्योंकि विशेषाधिकृत वर्गों की संख्या हमेशा कम होती है तथा साधारण जनों की सदा अधिक। तैत्तिरीय संहिता में कहा गया है कि वैश्यों की संख्या अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक थी।88 अनेक वैदिक संदर्भ भी संकेत करते हैं कि अन्य दो वर्णों की तुलना में वैश्य बहुत अधिक थे।89 परंतु छोटी संख्या के होते हुए भी सैन्य श्रेष्ठता और आनुष्ठानिक समर्थन के कारण अभिजात प्रबल हो गए।90 कृषकों पर प्रभुत्त्व स्थापित करने का एक प्रमुख कारण था समय-समय पर उनसे प्राप्त होनेवाला अंश। राजा को बार-बार कृषकों का भक्षक कहा गया है,91 जो यह प्रदर्शित करता है कि वह उनके श्रम पर जीवित रहता था। यह भी कहा गया है कि मनुष्यों में वैश्य तथा पशुओं में गाय का दूसरों के हितार्थ उपयोग किया जाता है।92  ‘अभिजात वर्ग अन्नदाता है तथा साधारण जन भोजन हैं, यदि अन्नदाता के लिए पर्याप्त भोजन है तो वह राज्य निश्चय ही धन-धान्यपूर्ण है और उन्नति करता है।’ यह कथन शतपथ ब्राह्मण व अन्य अधिकतर ग्रंथों में बार-बार उल्लेख पाता है।93 राज्यसत्ता (राष्ट्र) जनों के आधार पर भोजन प्राप्त करती है, राज्य भक्षक है तथा लोग भक्ष्य हैं, राज्य हरिण है, तोे लोग जौ हैं।94 इस प्रकार, ब्राह्मण ग्रंथों के रचयिता बात को कम किये बिना वैदिक काल के अंतिम चरणों में उत्पन्न दस्तकारों तथा चरवाहों सहित कृषक वर्ग एवं योद्धा-राजाओं के पारस्परिक संबंधों के वास्तविक स्वभाव को प्रकट करते हैं।95 कहा यह गया है कि लोग ‘क्षत्र’ अथवा राजसत्ता के निमित्त पहले ही से एक मुख्य भाग अलग कर देते थे।96 धारणा यह थी कि जो कुछ भी पास है उसमें प्रमुख का भी हिस्सा (‘भाग’) है।97

इस काल में कर इकट्ठा करने की प्रथा की शुरुआत परिलक्षित होती है। कर को ‘बलि’ कहा गया है। पालि ग्रंथों में यह शब्द अनेक बार इस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। पुरोहित प्रार्थना करते थे कि राजा अत्यधिक मात्रा में ‘बलि’ प्राप्त करने में समर्थ हो।98  इसका तात्पर्य यह हुआ कि पर्याप्त करों के अभाव में राजकाज नहीं चलाया जा सकता था। प्रारंभ में स्वेच्छा से दी जानेवाली भेंट थी, उत्तर वैदिक काल में वह ‘बलि’ संभवतः अनिवार्य रूप से दिये जानेवाले करों में बदल गई। यह कहा गया है कि स्वर्ग में शक्तिशाली लोग निर्बलों से ‘शुल्क’ नहीं प्राप्त करते थे।99 यह प्रकट करता है कि इस प्रकार का कर शक्ति के माध्यम से इकट्ठा किया जाता था और जो लोग इसे देते थे, निर्बल समझे जाते थे।100  तथापि निर्बलों के लिए इस कर से दूसरे जगत में मुक्ति की संभावना बनती थी। परंतु यह इस बात पर आधारित था कि वे इस संसार में नियमित रूप से कर अदा करते हैं और ब्राह्मणों को अनेक याज्ञिक उपहार देते हैं। परंतु ब्राह्मण को शुल्क101 से मुक्त घोषित किया गया है। तथा उस राज्य की, जो ब्राह्मणों से इसे प्राप्त करने की इच्छा रखता है, अत्यं कड़े शब्दों में निंदा की गई है।102

कुल मिलाकर, संपूर्ण समुदाय द्वारा उपयोग किये जाने के स्थान पर कृषकों से प्राप्त करों और भेंटों में मुख्यतः राजन्यों/क्षत्रियों तथा ब्राह्मणों की भागीदारी होती थी।103 ऋग्वैदिक काल के आरंभिक चरण में लोगों से जो कुछ भी प्राप्त होता था, उसे ‘विदथ’ सहित अनेक जनजातीय सभाओं में वितरण की चर्चा है।104  निश्चय ही यह परंपरा जनजाति के असमान सामाजिक तथा आर्थिक समूहों में विभाजन की ओर संकेत करती है।105 यह भी संभव है कि प्राचीन काल में पारस्परिक भेंटों की संस्था सामाजिक संबंधों को स्थापित तथा पुष्ट करती थी और एक पशुचारी एवं आरंभिक-कालीन कृषक-समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करती थी। परंतु वैदिक काल के अंत तक इस परंपरा को राजन्यों और ब्राह्मणों ने इस प्रकार चालाकीपूर्ण तरीके से प्रभावित कर रखा था कि राजन्यों ने जहां एक ओर ‘विश’ अथवा कृषकों को सुरक्षा के अतिरिक्त और कुछ न देकर भी उनसे गैर-धािर्मक भेंट अथवा कर प्राप्त करने का एकाधिकार हासिल कर चुका था, वहीं दूसरी ओर राजाओं, अभिजातों तथा कृषकों से प्राप्त आनुष्ठानिक भेंटों पर ब्राह्मणों का एकाधिकार स्थापित था।106

सामान्य जनों (‘विश’ अथवा कृषकों) से ही कर लिया जाता था। योद्धा वर्ग के प्रतीक ‘सजात’ (राजा के नातेदार) को बलिहृत्107 अथवा वह जो भेंट लाता है, कहा गया है। परंतु वह स्वयं बलि उत्पन्न नहीं करता, वह केवल कृषकों से इकट्ठा करता है। कृषकों के प्रतीक वैश्य को भी बलिहृत्108  तथा बलिकृत109 दोनों कहा गया है। स्पष्टतः, बलिहृत् भिन्न स्थलों पर भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है।110   ब्राह्मण अथवा शूद्र पर कर नहीं लगाया जाता है, तथा राजन्य/क्षत्रिय इससे मुक्त प्रतीत होते हैं।111 अनुष्ठानों को जन्म देकर तथा प्रशंसात्मक कविताओं की रचना करके पुरोहितों ने इस नवीन सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था को अपना नैतिक समर्थन प्रदान किया।112  बदले में राजा तथा राजन्य ने ब्राह्मण को लूट तथा बलि का एक भाग प्रदान करना स्वीकार किया।

धार्मिक अनुष्ठानों द्वारा ब्राह्मणों तथा राजन्यों का वैश्यों एवं शूद्रों पर प्रभुत्त्व दृढ़ हो गया। परंतु राजाओं एवं पुरोहितों के संबंध सदा ही मधुर नहीं थे। आपसी द्वंद्व की प्रतिध्वनियां उत्तर वैदिक ग्रंथों में उपलब्ध हैं।113 हम सुदास तथा उसके पुरोहित वशिष्ठ के मध्य द्वंद्व की सूचना पाते हैं।114  शृंजय वैतहव्यस तथा उनके पुरोहित भृगुओं के मध्य युद्ध हुआ था जिसके परिणामस्वरूप शृंजय वैतहव्यस का नाश हो गया।115  यज्ञ की दक्षिणा के ऊपर विवाद के कारण श्यपर्णो को उनके यजमान विश्वंतर सौषदमन् ने पौरोहित्य से अलग कर दिया, परंतु अंत में विवाद सुलझ गया और श्यपर्ण राम मार्गवेय को 1, 000 गाएं दी गईं।116 हम जनमेजय और उसके पुरोहित असित्मृगस् के मध्य भी विवाद की जानकारी पाते हैं।117  अनुष्ठानों द्वारा ब्राह्मणों तथा राजन्यों का वैश्यों एवं शूद्रों पर प्रमुख दृढ़ हो गया । राजाओं और पुरोहितों के मध्य लम्बे संघर्ष की जो परम्पराएं महाकाव्यों और पुराणों में उल्लिखित हैं वे संभवतः उत्तर-वैदिक काल के संदर्भ में हैं।118 दूसरी ओर राजाओं का संरक्षण प्राप्त करने के लिए पुरोहितों के परिवारों के मध्य संघर्ष के उदाहरणों तथा तनाव के संकेतों का भी साहित्य में अभाव नहीं है।119

शासक वर्ग के दो भागों के मध्य संघर्ष स्वयं को वैचारिक रूप से प्रकट करता है। अर्थववेद के 15वें अध्याय में ब्राह्मणों ने विशेष सुविधाओं का दावा किया है, तथा ऐतरेय और शतपथ ब्राह्मणों में उन्होंने राज्याभिषेक के अनेक अनुष्ठानों की काल्पनिक व्याख्याएं प्रस्तुत कर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने का प्रयास किया है। राजाओं ने सम्पूर्ण अनुष्ठानों की वैधता पर आक्रमण किया और परम तत्त्व अथवा ब्रह्म की ज्ञान-प्राप्ति को बल प्रदान किया। उनके विचार में ब्रह्म एक प्रकार से कुरु-पंचालों के बढ़ते हुए राजकीय प्रभुत्त्व का प्रतीक था।120 कुरु-पंचालों ने सभी छोटे जनजातीय प्रमुखों को अपने नियंत्रण में कर लिया था। इसी प्रकार से अनश्वर आत्मा की अवधारणा उस नवीन सामाजिक व्यवस्था को कुछ स्थायित्त्व प्रदान करती थी जो जनजातीय व्यवस्था के दुर्बल हो जाने के परिणामस्वरूप विकसित हो रही थी। उत्तर वैदिक ग्रंथों में कम से कम चार ऐसे क्षत्रिय राजाओं की चर्चा है जो ब्रह्म-विद्या में पारंगत थे तथा उसे ब्राह्मणों को पढ़ाते थे।121  मैकडॉनेल एवं कीथ इन परंपराओं को ब्राह्मणों द्वारा राजाओं की चापलूसी का प्रमाण मानते हैं।122 यह विचार तर्कपूर्ण नहीं जान पड़ता, क्योंकि उत्तर वैदिक साहित्य में अनेक स्थानों पर उल्लिखित अनुष्ठानों को प्रारम्भ करने का श्रेय क्षत्रिय राजाओं को कदापि नहीं दिया जा सकता।

वैदिक काल के अंतिम चरणों में जब सामाजिक अधिशेष में भाग लेने की बात पर संघर्ष जोर पकड़ने लगा, तब सबसे बाद के वैदिक ग्रंथ, विशेषतः शतपथ ब्राह्मण, क्षत्रियों और ब्राह्मणों के मध्य एकता तथा सहयोग पर बल देना आवश्यक समझने लगे।123 यद्यपि परंपराएं वैश्यों अथवा कृषकों के विरोध का उल्लेख नहीं करतीं, तथापि, अनुष्ठान एवं कर्मकांड इस ओर संकेत करते हैं। अधिक महत्त्वपूर्ण यह था कि कृषकों से ‘बलि’ और याज्ञिक दक्षिणा प्राप्त करने की निरन्तर आवश्यकता तथा शूद्रों की सेवाओं की मांग ने दोनों उच्च सामाजिक वर्गांे को एक साथ खड़ा कर दिया।124  यदि हम विभिन्न सामाजिक वर्गों के सभी पारस्परिक सम्बंधों को दृष्टि में रखें तो यह प्रतीत होगा कि सामाजिक संघर्ष का केन्द्र-बिन्दु क्षत्रियों और वैश्यों के मध्य सम्बन्ध तक सीमित था। हमें जनजातीय कृषक वर्ग को दबाए जाने तथा उन्हें नियमित कर देने के लिए विवश करने के प्रयास दिखाई देते हैं।125

एक सीमा तक हम उत्तर वैदिक सामाजिक संरचनाओं की तुलना यूनान और ईरान के आदिम समाजों की व्यवस्थाओं से कर सकते हैं। ऋग्वैदिक समाज तथा प्रचलित भारोपीय समाजों के विपरीत इसमें हमें पुरोहित वर्ग का प्रभुत्त्व दिखाई देता है, जो उतना ही महत्त्वपूर्ण था जितना कि अभिजातों और योद्धाओं का प्रभुत्त्व।126 आंशिक रूप से यह हमारे स्रोतों के पौरोहित्य स्वभाव के कारण भी हो सकता है। प्रारम्भ में सत्रह प्रकार के पुरोहितों में से एक होकर भी ब्राह्मण ने अन्य सभी को निष्प्रभ बना दिया तथा वह समस्त याज्ञिक दक्षिणा के आधे भाग की मांग करने लगा, और अंत में इस बात पर बल देने लगा कि सभी प्रकार के पुरोहित ब्राह्मण ही होने चाहिए।127 ब्राह्मण वर्ग के उत्थान और विकास का श्रेय भारोपियों के प्राक्-आर्यों से सम्मिश्रण को दिया जाता है, जिसके लिए कुछ साहित्यिक साक्ष्य प्रस्तुत किये जा सकते हैं। हड़प्पा परंपरा के मृद्भांडों के चि. धू. मृ. से परस्पर-व्याप्ति के आधार पर कुछ पुरातात्त्विक समर्थन भी प्रस्तुत किया जा सकता है। स्मरणीय है कि चि. धू. मृ. के प्रयोग-कर्ताओं की पहचान आर्यों के एक समूह से की जाती है। यह परस्पर व्यापन अनेक स्थानों पर देखा गया है। प्राक्-चि. धू. मृ. संस्कृतियों128 तथा चि. धू. मृ. स्थलों,129 दोनों ही में अनेक याज्ञिक गढ़े प्राप्त हुए हैं। इससे प्रकट होता है कि अनुष्ठानों का प्राचीन प्रकार चि. धू. मृ. लौह काल, जिसका समीकरण उत्तर वैदिक काल से बिठाया जा सकता है, में भी चलता रहा। आंशिक रूप से प्राक् वैदिक अनुष्ठान वैदिक लोगों के अनुष्ठानों द्वारा बलवान बन गये। भारत-ईरानी काल130 में सात ऋग्वैदिक पुरोहित-प्रकार में से केवल दो ही देखे जा सकते हैं, शेष भारत भूमि में ही विकसित हुए, और उत्तरवैदिक काल तक यज्ञों की बढ़ती हुई संख्या तथा परिष्कृत विधियों के कारण पुरोहितों की संख्या सत्रह तक पहुंच गई।

भारतीय आर्य कबीलों का ‘महान’ आदिम साम्यवादी युग ऋत था।131 यह पूर्व-वैदिक काल था और हम इस युग के बारे में वैदिक साहित्य में ऐसे अनेक आसक्तिपूर्ण संदर्भ पाते हैं, जिसमें इस युग को न्याय, सत्य, एकता, समानता और भ्रातृत्व की सर्वोच्च सत्ता के रूप में याद किया गया है।132 ऋत समाज में कबीला साथ-साथ काम करता था, सामूहिक श्रम था और श्रमोत्पादन को, जो अक्सर बहुत ही कम था, सभी में समान रूप से बांट लिया जाता था। शांति पर्व में उस समय की दशा का वर्णन भीष्म निम्नलिखित शब्दों में करते हैंः ‘उस समय न तो राज्य था न राजा था, न दंड विधान था और न दंड देनेवाला था। सब मनुष्य एक-दूसरे की धर्म के आधार पर रक्षा करते थे।’133 इसी के समानांतर, अत्यंत धीमी गति से वर्ग-भेदों का बढ़ना और चातुर्वर्ण्य का रूप लेना आरम्भ हुआ जिसका सबसे पहला संदर्भ हम पुरुषसूक्त, ऋग्वेद के अन्तिम सर्ग (मंडल) के लगभग अंत में पाते हैं। तथ्य यह है कि ऋ्रग्वेद मेें इस मंडल को बाद में जोड़ा हुआ, अर्थात् क्षेपक माना जाता है।134

चातुर्वर्ण्य एक ऐसी सामाजिक संरचना है, जिसमें वर्णो का विभाजन चार रूपों में हुआ यानी पूरा समाज चार खंडों में विभाजित हुआ। इनमें ब्राह्मण, धर्म और धार्मिक अनुष्ठानों के प्रतिष्ठापक (सामान्य रूप में बुद्धि व्यवसायी), क्षत्रिय, योद्धा और शासक, वैश्य-कृषि और पशुपालन जिनका धंधा था। बाद के दिनों में व्यापार भी। और शूद्र, जो उक्त तीनों उच्च वर्णों के सामूहिक गुलाम थे।135 जिनका एक ही काम था, उक्त तीनों उच्च वर्णों की टहल-चाकरी करना। कहा जा सकता है कि प्राचीन भारतीय समाज का चार वर्णों में विभाजन भारतीय दास-प्रथा का एक विशिष्ट रूप था।136  ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ‘द्विज’ थे-द्विज का अर्थ है दो बार जन्म लेनेवाला। इन तीन द्विज वर्णों में वैश्यों (विश् शब्द से व्युत्पन्न जिसका अर्थ है व्यवस्था) को शूद्रों से ऊँचा स्थान मिला। यद्यपि इनका शोषण शूद्रों जैसा नहीं था तथापि इस बात में कोई संदेह नहीं कि इन्हें खूब लूटा और उत्पीड़ित किया जाता था। वैश्य वर्ण के पास यज्ञोपवीत और वेद-पाठ का सैद्धांतिक अधिकार होते हुए भी ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों की तुलना में इनकी स्थिति बहुत ही निम्न स्तर की थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया, वैसे-वैसे वैश्यों की स्थिति में निरंतर गिरावट आई। कानून एवं राजनीति के संदर्भ में वर्ण-व्यवस्था पर सतही दृष्टि डालने से ऐसी धारणा बन सकती है कि वर्ण-क्रम में ब्राह्मणों को पहला, क्षत्रियों को दूसरा, वैश्यों को तीसरा और शूद्रों को चौथा स्थान दिया गया था। ऐसा विभाजन आदर्श के लिए संभव प्रतीत हो सकता है किन्तु यथार्थ में क्षत्रिय, ब्राह्मणों के अधिक निकट थे और शूद्र, वैश्यों के अथवा वैश्य, शूद्रों के। उपेन्द्रनाथ घोषाल के पास ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनसे उत्तर वैदिक काल में ब्राह्मण एवं क्षत्रिय-इन दो महत्त्वपूर्ण सामाजिक शक्तियों के बीच राजनैतिक संबंधों का सह-अस्तित्व और महत्त्व प्रकट होता है।

उत्तर वैदिक काल में पशुचारण अवस्था से कृषि अवस्था में संक्रमण ने उत्पादक श्रम में लगी आम जनता एवं उदीयमान अवकाश-भोगी वर्ग के बीच पैदा हो रही वर्ग-भेद की खाई को और गहरा कर दिया। यह अवकाश-भोगी वर्ग काम नहीं करता था अपितु काम करनेवाले वर्ग के उत्पादन पर निर्भर था। इसका नतीजा यह हुआ कि एक तरफ ब्राह्मण-क्षत्रिय तो दूसरी तरफ वैश्य-शूद्र के बीच संघर्ष घनीभूत हुआ। इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था का उद्भव एवं विकास शूद्रों और वैश्यों पर ब्राह्मण-क्षत्रिय प्रभुत्त्व/वर्चस्व का सैद्धांतिक आधार था।137

संदर्भ एवं टिप्पणियां

1. जवाहरलाल नेहरु, हिन्दुस्तान की कहानी, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, 1988, पृष्ठ 111।
2. वही।
3. वही।
4. रोमिला थापर, भारत का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1975, पृष्ठ 26।
5. वही।
6. एस. जी. सरदेसाई, प्राचीन भारत में प्रगति एवं रूढ़ि, पी. पी. एच, जयपुर, 1988, पृष्ठ 40।
7. वैदिक इंडेक्स, 11. 265।
8. रामशरण शर्मा, शूद्रों का प्राचीन इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1995, पृष्ठ 38।
9. रामविलास शर्मा, मार्क्स और पिछड़े हुए समाज, राजकमल प्रकाशन,
10. एस. जी. सरदेसाई, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 41।
11. प्रो. उमाशंकर शर्मा ऋषि (संपादक) ऋग्वेद-संहिता, चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी, पंचम संस्करण, भूमिका से, पृष्ठ 73।
12. वही।
13. ऋग्वेद, 9. 112. 3. कारुरहं ततो भिषगुपल प्रक्षिणी नना।
14. अथर्ववेद, 5.17.8-9; और देखें, शूद्रों का प्राचीन इतिहास, पृष्ठ 38।
15. सेलेस्टिन बूले, एसेज ऑन दि कास्ट सिस्टम इन इंडिया, 2 खंडों में, लंदन, 1911।
16. आर. एस. शर्मा, ‘कंफ्लिक्ट, डिस्ट्रीब्यूशन एंड डिफरेंसिएशन इन ऋग्वेदिक सोसायटी,’ इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस, 38 वां अधिवेशन, भुवनेश्वर, 1977, पृष्ठ 177-91।
17. रोमिला थापर, ‘भारत के प्रारंभिक काल में राज्य का गठन’, सांचा, अप्रैल 1988, पृष्ठ 63।
18. रोमिला थापर, एंशिएंट इंडियन सोशल हिस्ट्री: सम इंटरप्रेटेशंस, नई दिल्ली, 1978।
19. रोमिला थापर, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 63।
20. वही।
21. शतपथ ब्राह्मण, 12. 7. 1. 12।
22. गौतम धर्मसूत्र, 10. 47, आपस्तंब धर्मसूत्र, 11, 11. 28. 1।
23. ऋग्वेद,1. 34. 6-‘यथावशं नयति दासमार्यः।’ प्राचीन भारतीय संस्कृत साहित्य में आर्य शब्द को विभिन्न रूपांतरणों से होकर गुजरना पड़ा है तथा काल-सापेक्ष इसके अर्थ भी बदलते रहे हैं। आर्य शब्द ‘ऋ’ धातु से बना माना जाता है और अलग-अलग गणों में जो ऋ धातु पाई जाती है, वह प्रायः गत्यर्थक है। अतः आर्य शब्द का अर्थ हुआ घुमक्कड़ या मुसाफिर। (देखें, धर्मानन्द कोसंबी, भगवान बुद्ध: जीवन और दर्शन, पृष्ठ, 3-4। रामधारी सिंह दिनकर की पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय, पृष्ठ-29 की पाद-टिप्पणी में भी उद्धृत)। संस्कृत में गमनार्थक धातुओं का बाहुल्य है जो संभवतः इस बात का प्रमाण है कि आर्य स्थिर रहने के बदले चलते रहना पसंद करते थे। (देखें, देवेन्द्रनाथ शर्मा, भाषाविज्ञान की भूमिका, राधाकृष्ण, पहला संस्करण, 1966, आवृति 1992, पृष्ठ-95)। रामशरण शर्मा के अनुसार, यद्यपि आर्य शब्द अर् धातु से व्युत्पन्न है, तथा अर् का अर्थ कृषि करना है, वंशमंडल प्रदर्शित करते हैं कि ऋग्वैदिक लोग मुख्यतः पशुचारी थे। ‘परवर्ती भारतीय परंपरा में आर्य श्रेष्ठ का द्योतक है, हालांकि दो उच्च वर्णों को कृषि कार्य करने की अनुमति नहीं थी।’ शर्मा जी को अपनी ही विरोधाभासी प्रस्तुति परेशानी में डाल देती है। आर्य शब्द का विश्लेषण बेली ने बड़े विस्तार से किया है और इसे संपत्ति के स्वामियों का द्योतक बताया है। ‘एच डब्ल्यू बेली, ईरानियन आर्य एण्ड दाहा, टैªजैक्शंस ऑफ दि फिलॉसॉफिकल सोसायटी, 1959, पृष्ठ-71 और आगे।’ ऐसा आभास निघंटु से भी होता है, जो आर्य को ईश्वर‘ स्वामी/मालिक’ का पर्याय बताता है और साथ ही पाणिनि से भी ऐसा ही मालूम होता है, जो इस शब्द को आर्यः-स्वामी-वैश्योः पद से स्पष्ट करता है। ‘निघंटु, 2 6; पाणिनि, 30  1  103’। विश का अर्थ था कबीले के अन्य लोग जो अब कबायली संपत्ति के बराबर के भागीदार नहीं रह गये थे। जैसाकि बेली कहते हैं, संपत्ति तथा स्वामित्त्व से संबंध किसी नृजातीय समूह का द्योतक नहीं बल्कि वर्गगत आभिजात्य का परिचायक था। आर्य वर्ण में जन्म का संबंध आर्य की सामाजिक प्रतिष्ठा और संपत्ति का बोध कराता है, किसी प्रजाति का नहीं।‘ रोमिला थापर, प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास, पृष्ठ-99’। अथर्ववेद में एकाधिक जगहों पर आर्य शब्द का प्रयोग वैश्य के लिए भी मिलता है। ‘हार्वर्ड ओरिएंटल सिरीज, 8, 1003; अथर्ववेद के अनुवाद पर ह्विटने की टिप्पणी, 19 62  1 । रामशरण शर्मा, शूद्रों का इतिहास, पृष्ठ-30।’ संस्कृत में स्त्रियां आर्य शब्द से अपने पति को भी संबोधित करती पाई जाती हैं क्योंकि वे भी एक तरह की संपत्ति ही थीं। कई स्थलों पर स्त्रियों और शूद्रों की गणना संपत्ति के रूप में साथ-साथ हुई है। 
24. वही, 11. 13. 8, ‘दासवेषाय दासः’, सायण ने इसकी टीका दासों के किनाश के रूप में की है, किंतु, वैदिक इंडेक्स,1. 358, इसे दास का नाम मानता है।
25. ऋग्वैदिक काल में क्षत्रियों का ऐसा वर्णन कहीं नहीं मिलता जिससे पता चले कि उनका एक निश्चित वर्ण था तथा उनके अधिकार और कर्तव्य अलग थे। देखें, आर. एस. शर्मा, शूद्रों का प्राचीन इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1995, पृष्ठ 34-35।
26. ऋग्वेद, 11. 27. 12।
27. ऋग्वेद, 8. 40. 6।
28. शतपथ ब्राह्मण, 11.2.10.6।
29. ऐतरेय ब्राह्मण, 8. 20; छांदोग्य उपनिषद्, 4. 2. 4-5।
30. पी. वी. काणे, हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र, (पुणे, 1941) जिल्द 2, भाग 2, पृष्ठ 837।
31. रोमिला थापर, प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास, पृष्ठ 100।
32. हीस्टरमान, जे. सी., दि एंशिएंट इंडियन रॉयल कंसक्रेशन, पृष्ठ 166।
33. रोमिला थापर, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 101।
34. वही।
35. मनु, 3. 78।
36. एम. मॉस, दि गिफ्ट, लंदन, 1954, पृष्ठ 53 और आगे।
37. रोमिला थापर, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 103।
38. पी. वी. काणे, हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र, पुणे, जिल्द 2, भाग 2, पृष्ठ 844।
39. काणे, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 845।
40. रोमिला थापर, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 103।
41. डी. डी. कोसांबी, एन इंट्रोडक्शन टु दि इंडियन हिस्ट्री, पृष्ठ 275 और आगे, आर. एस. शर्मा, इंडियन फ्यूडलिज्म, कलकत्ता, 1965।
42. प्रयुक्त शब्द ‘भूमि पुरुष वर्जम’ अथवा ‘भूमिशूद्रवर्जम’ है, देखें, आर. एस. शर्मा, शूद्राज इन एंशिएंट इंडिया, दिल्ली, 1958, पृष्ठ 46।
43. ऐतरेय ब्राह्मण, 8. 21; शतपथ ब्राह्मण, 13. 7. 1. 15।
44. रोमिला थापर, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 57, पाद टिप्पणी संख्या-1।
45. वाजसनेयि संहिता, 18. 13।
46. बी. के. घोष, हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ द इंडियन पीपुल्स, (संपादित) आर. सी. मजुमदार, जिल्द-1, पृष्ठ 232।
47. रेणू, वैदिक इंडिया, पृष्ठ 20-21।
48. बी. के. घोष, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 232।
49. विल्हेल्स राउ, स्टाट उंड गेजेलशाफ्ट इम आल्टेन इंडियन, वीजवाडेन, 1957, पृष्ठ 27, भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएं में उद्धृत, पृष्ठ 98।
50. चार्ल्स सिंगर, ई. जे. होयार्ड तथा ए. आर. हाल, संपादित, ए हिस्ट्री ऑफ टेक्नॉलॉजी, ऑक्सफोर्ड ,1954, जिल्द-1, भाग-1, पृष्ठ 594।
51. इंडियन आर्कियॉलॉजिकल रिपोर्ट 1958-59, पृष्ठ 54-55; 1962-63, पृष्ठ 31-34,1971-72 (अप्रकाशित) एक्सप्लोरेशंस एंड एक्सकेवेशंस, अनुच्छेद-52, (पांडुलिपि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पास है) आर. एस. शर्मा, भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएं, पृष्ठ 98 में उद्धृत।
52. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 99।
53. एच. सी. भारद्वाज, आस्पेक्ट्स ऑफ एंशिएंट इंडियन टेक्नॉलॉजी, दिल्ली, 1979, पृष्ठ 158।
54. अथर्ववेद, तैत्तिरीय संहिता, काठक संहिता, मैत्रायिणी संहिता तथा शतपथ ब्राह्मण के सभी उल्लेख वैदिक इंडेक्स, जिल्द 2, 451 में उद्धृत हैं।
55. अथर्ववेद, 10.6.23।
56. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 99।
57. शतपथ ब्राह्मण, 13.4.4.9।
58. वैदिक इंडेक्स, जिल्द-1,509 में उद्धृत, अथर्ववेद, 3.17.3 तथा वाजसनेयि संहिता 12.71।
59. वैदिक इंडेक्स, जिल्द-1, 509 में उद्धृत, तैत्तिरीय संहिता, 10.2.5.6: मैत्रायिणी संहिता, 2.7.12; काठक संहिता, 16।
60. वैदिक इंडेक्स, जिल्द-1, 509।
61. जी. एम. बध तथा ए. के. चौधरी, प्लांट रिमेंस फ्रॉम अतरंजीखेड़ा फेज 3,(1200-600बी. सी.) द पॉलियोबॉटनिस्ट, जिल्द 20, नं.-3, 1971, पृष्ठ 286।
62. ‘ब्रहिमत्वम् यवमथो माषवथो तिलम्’, अथर्ववेद,4.140.2।
63. अथर्ववेद, 20.135.2।
64. वैदिक इंडेक्स, जिल्द 2, पृष्ठ 355।
65. आर. डी. टर्नर, ए कम्परेटिव डिक्शनरी ऑफ दि इंडो-आर्यन लैंग्वेजेज, नं.-12806।
66. आर. एस. शर्मा, भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएं, पृष्ठ 100।
67. वही, पृष्ठ 112।
68. वही, पृष्ठ 100।
69. राजछत्र सिंह, अथर्ववेद में सांस्कृतिक तत्त्व, 1968, पृष्ठ 86-90।
70. अथर्ववेद,7.20.8-9;6.118.3।
71. अथर्ववेद,6.118.3।
72. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 114।
73. वही।
74. वही।
75. वही, पृष्ठ 116।
76. वही।
77. पही।
78. वही।
79. तैत्तिरीय संहिता, 2. 2. 11. 2।
80. योगिराज बसु, इंडिया ऑफ दि एज ऑफ द ब्राह्मणाज, कलकत्ता, 1969, पृष्ठ 115-16।
81. शतपथ ब्राह्मण,13.2.9.6।
82. ऐतरेय ब्राह्मण,7.29.3।
83. शतपथ ब्राह्मण,12.7.3.12।
84. वही, 9.4.3.3।
85. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 117।
86. वैदिक इंडेक्स, जिल्द-1, 8.7.1.12।
87. शतपथ ब्राह्मण,12.7.3.15।
88. वही, 7.1.1.5।
89. पी. वी. काणे, हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र, जिल्द-2, भाग-1, पृष्ठ 41।
90. अथर्ववेद, 3.4.2।
91. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 117।
92. वही।
93. अथर्ववेद, 3. 4. 2।
94. तैत्तिरीय संहिता, 7. 1. 1. 5।
95. वही।
96. शतपथ ब्राह्मण, 6. 1. 2. 25।
97. रामशरण शर्मा, भारत में राज्य की उत्पत्ति, पी. पी. एच., 2001, पृष्ठ 15।
98. रामशरण शर्मा, प्राचीन भाारत में भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएं, पृष्ठ 118।
99. शतपथ ब्राह्मण, 9. 1. 1. 25।
100. वही, 9. 1. 1. 18।
101. अथर्ववेद, 3. 4. 3।
102. वही, 3. 29. 3।
103. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 118।
104. इसका शाब्दिक अर्थ मूल्य है। देखें आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत ।
105. अथर्ववेद, 5. 19. 3।
106. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 108।
107. वही, पृष्ठ 120।
108. वही।
109. वही।
110. अथर्ववेद, 11. 1. 6।
111. काठकसंहिता, 30. 7।
112. ऐतरेय ब्राह्मण, 7.29।
113. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 120।
114. वही।
115. वही।
116. वही, पृष्ठ 121।
117. वैदिक इंडेक्स, जिल्द-2, पृष्ठ 275-76।
118. वही, 110।
119. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 123।
120. वैदिक इंडेक्स, पृष्ठ 309।
121. वही, जिल्द-1, पृष्ठ 48, जिल्द-2, पृष्ठ 89।
122. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 123।
123. वही।
124. वही।
125. वैदिक इंडेक्स, जिल्द-2, पृष्ठ 87, 262।
126. वही।
127. वही, पृष्ठ 262।
128. अनेक उल्लेख, वैदिक इंडेक्स, जिल्द-1, पृष्ठ 204, पाद टिप्पणी-11 में उद्धृत।
129. आर. एस. शर्मा, भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएं, पृष्ठ 124।
130. वही।
131. एस. जी. सरदेसाई, प्राचीन भारत में भौतिक प्रगति एवं रूढ़ि, पृष्ठ।
132. आर. एस. शर्मा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 124।
133. एच. डी. सांकलिया।
134. जोगिराज बसु, इंडिया ऑफ द एज ऑफ दि ब्राह्मणाज, कलकत्ता, 1969, पृष्ठ 175-6।
135. एस. जी. सरदेसाई, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 154।
136. वही।
137. वही।

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